संकुचित मानसिकता आज क्यों बढती जा रही है
यह बात बिल्कुल सत्य है कि आज संकुचित मानसिकता बढ़ती जा रही है। यह सामाजिक, पारिवारिक तौर पर चिन्ता का विषय है।
संकुचित मानसिकता के भी कई रूप हैं। धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक। मेरी दृष्टि में इस समय हमारी सर्वाधिक संकुचित मानसिकता धार्मिक है। दूसरे स्थान पर सामाजिक है, जो धार्मिकता से ही प्रभावित है।
धर्म से जुड़े रहना अच्छी बात है किन्तु अंध-धार्मिकता मनुष्य को पीछे ले जाती है। वर्तमान में शिक्षा, रोज़गार, आत्मनिर्भरता, चिकित्सा सुविधाओं से अधिक चर्चा हम धर्म पर करने लगे हैं। आज अनेक तथाकथित धर्म-प्रचारक आॅन-लाईन बैठे हैं और हम लोग चाहे-अनचाहे उन्हें सुनने लगते हैं, रील्ज़ देखने लगते हैं, जो एक धीमे ज़हर के रूप में हमारे मन-मस्तिष्क पर प्रभाव डालते हैं और हमारी सोच अपने-आप ही बदलने लगती है और इस परिवर्तन को हम समझ ही नहीं पाते।
चिन्तनीय यह कि पढ़े-लिखे लोग भी इससे अछूते नहीं हैं। एक ओर हम विज्ञान में चाॅंद को छू रहे हैं दूसरी ओर हम अंधविश्वासों से पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं। इसका एक कारण आज के समाज में प्रदर्शन, दिखावा बढ़ता जा रहा है। हम अपने-आपको हर समय दूसरों से बेहतर सिद्ध करने के प्रयास में लगे रहते हैं। किन्तु यह बेहतरी रहन-सहन, व्यवहार की नहीं, अपने आपको अकारण श्रेष्ठ सिद्ध करने की भावना को लेकर है। धर्म, संस्कृति, पूजा-पाठ, पर्वों पर अकारण दिखावा भी संकुचित मानसिकता का ही प्रतीक है, क्योंकि हम सहज-सरल जीवन से दूर होकर प्रदर्शनों की दुनिया में जीने लगे हैं।
आदर-सूचक शब्द
किसी का नाम लिखते समय हमें कितने आदर-सूचक शब्द आगे-पीछे लगाने चाहिए। आदरणीय, श्री, परम श्रद्धेय, आचार्य, गुरुवर, पूज्य, चरणवन्दनीय, प्रातः स्मरणीय, ऋषिवर, -परमादरणीय जी आदि-इत्यादि।
आजकल कुछ महान लेखन अपने से महान लेखकों के नाम के साथ एकाधिक ऐसे ही सम्बोधन कर रहे हैं।
मुझे लगता है कि किसी के नाम के साथ केवल एक ही आदरसूचक शब्द का प्रयोग होना चाहिए चाहे वह नाम से पहले हो अथवा नाम के बाद।
और यदि किसी के नाम के साथ डा., प्रो. आदि हों तो उससे पूर्व भी किसी सम्मानसूचक शब्द का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।
सम्मानजनक शब्दों के प्रयोग की भी एक सीमा होती है, इतने भी नहीं लिखे जाने चाहिए कि वे हास्यास्पद प्रतीत होने लगें अथवा चाटुकारिता।
आप क्या-क्या लिखते हैं।
निर्जला-एकादशी
मुझे कुछ बातें समझ नहीं आतीं, आपको आतीं हो तो मुझे अवश्य बताईएगा।
निर्जला एकादशी के दिन जगह-जगह छबील लगी थी।
पानी में कच्चा दूध, रूह-अफ़जाह और बर्फ़ से ठण्डा कर आने-जाने वालों को रोक-रोक कर यह जल पिलाया जा रहा था। अधिकांश महिलाएॅं और छोटे-छोटे बच्चे ही वहाॅं पर सेवा-भाव से काम कर रहे थे। गर्मी इतनी कि लगभग सभी आने-जाने वाले पानी पी रहे थे। अच्छा लगा।
किन्तु आज ही सभी लोग निर्जलाएकादशी के कारण छबील लगा रहे थे। क्योंकि यह पुण्य का कार्य माना जाता है, न कि वास्तव में प्यासे लोगों को पानी पिलाने की सोच। यह भी देखने में आया कि दस-दस, बीस-बीस गज़ की दूरी पर छबील लगी हुई थीं। प्रातः 9 बजे से चल रही छबील 12 बजे तक सिमटने लगीं और जब सूर्य आकाश पर आकर तपने लगा तब तक अधिकांश छबील सिमटकर जा चुकी थीं। क्या ऐसा नहीं कर सकते थे कि आपस में तालमेल कर लेते और एक छबील समाप्त होने पर दूसरी फिर तीसरी और इस तरह लगाते तो आने-जाने वाले लोगों को शाम तक ठण्डा पानी मिल पाता।
यह भी ज्ञात हुआ कि आज के दिन पंखी, खरबूजे और घड़ों का दान किया जाता है जिससे पुण्य की प्राप्ति होती है। अर्थात् यह दान भी जरूरतमंदों के लिए नहीं, अपने पुण्य के लिए करना है। पहले यह दान ज़रूरतमंदों को दिया जाता था अब मन्दिरों में देने की प्रथा बन गई है।
इतनी गर्मी में भी मन्दिरों के आगे भारी भीड़ देखने को मिली। और अधिकांश महिलाएॅं अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ वहाॅं लाईन में लगी हुई थीं। मन्दिरों में पंखियों, घड़ों और खरबूजों के ढेर लग रहे थे।
मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं है कि वहाॅं इनका क्या उपयोग हुआ होगा।
निर्जला एकादशी के दिन छबील लगाना और दान देना पुण्य का काम है किन्तु इतनी गर्मी में लोग तो हर रोज़ ही गर्मी और प्यास से त्रस्त हैं। जो लोग दान एकत्र करके केवल एक दिन के लिए छबील लगाते हैं वे क्या कहीं मार्गों पर स्थायी रूप से आने जाने वालों के लिए पीने के पानी की स्थायी व्यवस्था नहीं कर सकते। कर तो सकते हैं किन्तु क्यों करें और पहल कौन करे। मुझे तो आज करना था क्योंकि इससे पुण्य की प्राप्ति होती है।
मैं फिर भटक कर गूगल पर चली गई। वहाॅं से प्राप्त ज्ञान भी आपसे बाॅंटना चाहूॅंगी।
यह सारे कथन व्यास जी के हैं, मेरे नहीं।
निर्जला एकादशी पर गरीबों को दान देने, पानी पिलाने एवं जल भरा मटका दान करने से आपके पुण्य कर्मों में वृद्धि होती है, इससे मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं, जीवन में सुख-समृद्धि की प्राप्ति भी होती है।
विष्णु पुराण के अनुसार ज्येष्ठ के महीने में सूर्य की बढ़ती गर्मी से हर जीव परेशान हो जाते हैं। ऐसे में अगर आप किसी प्यासे को जल भरे मटके का दान देते हैं, तो उसकी आत्मा जल पीकर तृप्त हो जाती है और उस मनुष्य के मुख से निकली हुई कामना ईश्वर की वाणी होती है।
जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान देंगे, वे परमपद को प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, ये ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जाते हैं।
जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, यह पाप भोजन करता है। इस लोक में वह चाण्डाल के समान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है।
जिन्होंने शम, दम और दान में प्रवृत्त हो श्रीहरि की पूजा और रात्रि में जागरण करते हुए इस निर्जला एकादशी का व्रत किया है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियों को और आने वाली सौ पीढ़ियों को भगवान् वासुदेव के परम धाम में पहुँचा दिया है। निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिये। जो श्रेष्ठ एवं सुपात्र ब्राह्मण को जूता दान करता है, वह सोने के विमान पर बैठकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है।
इसलिए आपसे अनुरोध है कि इन प्राप्तियों के लिए आप भी निर्जला एकादशी का व्रत, दान आदि अवश्य करें।
रक्षा बंधन
रक्षा-बन्धन का पर्व भाई-बहन के अपनत्व का पर्व है। इस पर्व में अन्य कोई भी रिश्ता समाहित नहीं है। सम्भवतः इसी कारण इस पर्व में सदैव एक सादगी रही है। हमारे समय में बाज़ार में सुन्दर आकर्षक, सादगीपूर्ण राखियाॅं मिलती थीं। राखियों के साथ लाल रंग की मौली अथवा कंगना बांधा जाता था। टीका लगाकर बहन राखी बांधती थी, घर में बने मिष्ठान्न से बहन भाई का मुॅंह मीठा करवाती थी और भाई शगुन के रूप में बहन के हाथ में अपनी क्षमतानुसार कुछ राशि देता था।
यह मानने में कोई संकोच नहीं कि वर्तमान में सभी रिश्तों की गहराई में परिवर्तन आया है। वर्तमान में भाई अथवा बहन के विवाहित होने पर इस पर्व में प्रर्दशन और भी बढ़ गया है। बहन क्या लेकर आई है, भाई क्या देकर जायेगा, बात होती है। वैसी सादगी व अपनापन कहीं खो गया है। रिश्तों पर आधुनिकता की कलई चढ़ गई है। लाल मौली या कंगना की जगह चांदी-सोने की राखियाॅं लाई जाती हैं और भाई शगुन न देकर उपहार देने लगे हैं। शेष हमारे विज्ञापन जगत, टीवी धारावाहिकों एवं व्यापार ने रिश्तों को बदल दिया है और हम अनचाहे ही उसमें उलझकर रह गये हैं।
कविता सूद 19.8.2024
अधूरी हसरतें
कितना भी मिल जाये पर नहीं लगता है कि पूरी हो रही हैं हसरतें
जीवन बीत जाता है पर सदैव यही लगता है अधूरी रही हैं हसरतें
औरों को देख-देख मन उलझता है, सुलझता है और सुलगता है
ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार में उलझकर अक्सर बिखर जाती हैं हसरतें
दण्ड विधान
आज तक मैंने कभी भी किसी रिश्वत देने वाले को दण्डित किये जाने का समाचार नहीं पढ़ा। यदि ऐसा हो कि रिश्वत लेने वाले से पहले देने वाले को दण्डित किया जाये तो शायद किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार पर अधिक रोक लग पायेगी।
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हम बच्चों की शिक्षा पर बहुत बात करते हैं।
किन्तु आज प्रतियोगी परीक्षाओं की जो स्थिति सामने आ रही है केवल इस पीढ़ी का ही नहीं, अगली पीढ़ी भी चिन्ताओं में घिरी बैठी है। अभी तीन परीक्षाएॅं पेपर लीक होने के कारण निरस्त कर दी गईं। केवल एक ही प्रतियोगी परीक्षा में लगभग 24 लाख विद्यार्थी बैठे थे और स्थान केवल एक लाख 10 हज़ार थे। इन प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए विद्यार्थी 10वीं के बाद दो वर्ष तैयारी करते हैं और साथ ही प्लस 1 और प्लस 2 की भी परीक्षाएॅं देते हैं। कोचिंग पर ही लाखों रुपये लग जाते हैं। इस धांधली में कितने लोग पकड़े गये, कितने नहीं, सच्चाई आम आदमी तक पहुॅंचती ही नहीं। पुर्नपरीक्षा कब होगी कोई नहीं जानता और पुनर्परीक्षा होने तक विद्यार्थी किस मनःस्थिति में रहेंगे , चिन्तनीय विषय है।
सबसे चिन्ता की बात यह कि वे कौन अभिभावक हैं जो अपने अयोग्य बच्चों को धन-बल से डाक्टर, इंजीनियर आदि बनाना चाहते हैं। आज हमारी चिन्ता यह तो है ही कि पेपर लीक हुए और बच्चों का भविष्य अधर में लटका। इस धांधली में लगे लोगों को दण्डित किया ही जाना चाहिए। किन्तु इतनी ही चिन्ता यह भी होनी चाहिए कि अयोग्य विद्यार्थियों के अभिभावक भी उतने ही दोषी हैं। यदि अभिभावक अपने बच्चों के लिए गलत राहें न चुनें तो यह अपराध अपने-आप ही कम होने लगेंगे, और धन देने वालों के लिए भी दण्ड का प्रावधान हो ।
कविता सूद 25.6.2024
विडम्बना
मैं अपने-आपको नास्तिक मानती हूॅं । क्योंकि मूर्ति-पूजा, मन्दिर जाना, प्रवचन, धार्मिक आख्यानों, व्रत-उपवास, साधु-संतों में मेरा विश्वास नहीं बनता। किन्तु जो मानते हैं मैं उनकी भी विरोधी नहीं हूॅं। किन्तु वर्तमान में आख्यानक, मंचों से धार्मिक भाषण परोसने वाले बाबा और बेबियाॅं मुझे कभी समझ नहीं आते। वे क्या समझाना चाहते हैं और लोगों की लाखों की भीड़ अपने जीवन में उनके भाषण से क्या समझना चाहती है, जो वे स्वयॅं नहीं जानते। उनकी भाषा, उनकी बातें, सब अद्भुत होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों हमारा जन्म ही व्यर्थ है और हम नितान्त मूर्ख, अज्ञानी हैं। परिवार, समाज, सम्बन्ध सब लालसाएॅं हैं। वे मनोवैज्ञानिक अथवा मनोविश्लेषक भी नहीं होते किन्तु लोगों को इस रूप में भ्रमित अवश्य करते हैं। घंटों भीड़ में बैठकर, अपना पूरा दिन भूखे-प्यासे, घरों से दूर, क्या उपलब्ध होता है लोगों को। इन लोगों की अधकचरी ज्ञान से सनी धार्मिक ग्रंथों की मन से गढ़ी कथाएॅं क्या दे पाती हैं लोगों को, समझ नहीं आता। वास्तव में यह वैसा ही भीेड़-तंत्र है जैसे आजकल सड़कों पर होता है। जब लोग बिना जाने-समझे, किसी को पिटता देख उसे पीटने में हाथ आजमाने लग जाते हैं। वैसे ही, यहाॅं भी होता है कि भीड़ में घुसकर देखें तो यहाॅं क्या हो रहा है।
किन्तु भीड़ में घुसकर, हाथ आजमाने में कब जान चली जाती है कब अपने खो जाते हैं, कब क्या लुट जाता है, कौन समझ पाता है।
किन्तु यहाॅं भी तो यही कहा जाता है कि चलो ऐसे स्थान पर जान गई, सीधे स्वर्ग पहुॅच गये।
किसी ने लिखा था कि देह यहाॅं जल जाती है, आत्मा अजर-अमर है तो नर्क और स्वर्ग का कैसे पता।
ऐसे हादसों में कोई अपराधी नहीं होता। किसी को दण्ड नहीं मिलता। वैसे भी हमारे भारत में दण्ड व्यवस्था बहुत विनम्र है। जीवन बीत जाता है किसी अपराधी को पकड़ने में और दण्डित करने में, और निरपराध कारागार में जीवन बिता देते हैं।
मृतकों को दो-दो लाख, घायलों को दस-बीस हज़ार, हमारा कर्तव्य पूरा। यह और बात है कि यह घोषित राशि वास्तव में मिलेगी भी या नहीं।
हाथरस की घटना से हम कोई सबक तो लेंगे नहीं।
तो तैयार रहिए अगली दुर्घटना की बात सुनने के लिए।
समाधान या हार
कोई भी समस्या आने पर उसका समाधान ढूॅंढने की अपेक्षा हम हार मानने लगे हैं।
आजकल समाचारों में आत्महत्याओं के समाचार विचलित करते हैं। अंक कम आने पर, नौकरी न मिलने पर, परिवार में थोड़ी-सी कहा-सुनी पर बड़े क्या, बच्चे भी आत्महत्या करने लगे हैं। इसके कारण की ओर कभी हमारा ध्यान गया क्या?
मुझे लगता है आज की पीढ़ी अपने-आप में जीने लगी है। वह केवल अपने आप ही सोचती है, स्वयं निर्णय लेती है और असफ़ल होने पर तत्काल हार मान लेती है। परिवार से दूरियाॅं इसका एक कारण हो सकता है। परिवार एकल हैं और कोई भी अपनी समस्याओं को बाॅंटने के लिए किसी को अपने आस-पास नहीं देख पाता। एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि वर्तमान में अपेक्षाएॅं बहुत अधिक हैं और विकल्प कम। वैसे विकल्प कम तो नहीं हैं किन्तु हमने ही विकल्प सीमित कर लिए हैं। यदि किसी मार्ग पर हम सहज रूप से नहीं चल पा रहे हैं तो राहें बदलने के बहुत से विकल्प होते हैं किन्तु वर्तमान में इसे सहजता से नहीं लिया जाता और गलत कदम उठा लिये जाते हैं। प्रथम आने का दबाव, अच्छी नौकरी, खर्चीली जीवन-शैली, प्रदर्शन, कहीं न कहीं मानसिक तनाव पैदा करती हैं।
एक और कारण जो मुझे प्रतीत होता है कि पुरुष जब किसी क्षेत्र में असफ़ल होता है तो वह हीन-भावना से ग्रस्त हो जाता है और अपनी हार किसी के समक्ष स्वीकार नहीं कर पाता विशेषकर पत्नी के समक्ष अपने को हारा हुआ आदमी नहीं दिखा सकता। उसकी यह भावना उसे पहले मानसिक तनाव , उपरान्त आत्महत्या तक ले जाती है।
कोई भी समस्या आने पर उसका समाधान ढूॅंढने की अपेक्षा हम हार मानने लगे हैं। इस समस्या का एक ही समाधान है कि हम परिवार, मित्रों के साथ जुड़ें, अपने हितचिन्तकों को पहचानें और कोई भी कठोर निर्णय लेने से पहले अच्छे से विचार करें।
मौसम मौसम
जब हम छोटे थे, वैसे बहुत बड़ा तो अपने-आपको मैं अभी भी नहीं मानती, आप मानते हों तो मुझे बता दीजिएगा।
हांॅं, तो जब हम छोटे थे, तो तीन ही मौसम जानते थे, गर्मी, सर्दी और बरसात। और शुद्ध हिन्दी में बरसात के मौसम को मानसून कहा जाता था। ये सावन-भादों जैसे शब्द तो कभी सुने ही नहीं थे। तब बसन्त ऋतु भी नहीं हुआ करती थी। पुस्तकों में अवश्य चार ऋतुओं वर्णित थी, शीत, ग्रीष्म, वर्षा और शरद ऋतु। हिन्दी की कविताओं में सावन और बसन्त शब्द आये होंगे कभी, किन्तु इनका महत्व नहीं था। पन्त, दिनकर आदि छायावादी कवियों ने अवश्य सावन एवं बसन्त पर कविताएॅं लिखीं, पंजाबी गीतों में भी इनका वर्णन है, फ़िल्मी गीतों में भी बसन्त और सावन की झड़ी लगती रही है किन्तु इन्हें कभी इतना महत्व नहीं मिला था। महत्व था तो बस बरसात और सर्दी के मौसम का।
शिमला में एक अगस्त से 15 अगस्त तक बरसात की, और 1 जनवरी से 28 फ़रवरी तक सर्दी की छुट्टियाॅं मिलती थीं, इस कारण हमारे लिए यही ऋतुएॅं महत्व रखती थीं। वहाॅं तो गर्मियों में भी बरसात चली ही रहती थी। हम तो बस इतना जानते थे कि बरसात है तो चाय-पकौड़े, समोसे, गर्मागरम जलेबी, बरसात में भीगना। और सर्दी है तो मूंगफली, गचक, रेवड़ी अंगीठियाॅं और बर्फ़ के मौसम का आनन्द लेना।
यह सावन कब आया, वर्षा ऋतु या बरसात अथवा मानसून सावन में कब बदल गया, कुछ पता ही नहीं लगा। अब सावन का अति शुद्ध महीना, पूजा, व्रत, सोमवार को विशेष पूजा-विधि, खान-पान कुछ नहीं जानते थे हम। शिवरात्रि का ज्ञान भी फ़रवरी-मार्च में आने वाली शिवरात्रि का ही था। सावन की शिवरात्रि तो कभी सुनी ही नहीं थी। हम यात्राओें के बारे में भी नहीं जानते थे। अब जब से फ़ेसबक पर सावन आया तभी से यह ज्ञानवृद्धि भी हुई। हम तो बस हर मौसम का बेधड़क, बेझिझक आनन्द ही लेते थे।
मेरा अध्ययन मुझे यह बताता है कि जबसे फ़ेसबुक का आगमन हुआ तब से सावन और बसन्त शब्दों को महत्व मिला। ये महीने नहीं रह गये, उत्सव बन गये। और उत्सव भी बने तो प्रेम, श्रृंगार, मिलन, विरह, झूले, सखियाॅं। हमारे समय भी झूले होते थे। एक मोटी रस्सी छत से अथवा किसी वृक्ष की मज़बूत डाली पर लटकाकर, उपर तकिया या कोई मोटी चादर तह करके रख दी और बन गया झूला। अब ये रंग-बिरंगे झूले, फूलों से सजे, रंग-बिरंगे परिधान पहने मोहक युवतियाॅं, पता नहीं किस देश से आई हैं।
इसके बाद तीज का पर्व। हमारे समय में भी होता था लेकिन घर के भीतर तक ही। माॅं व्रत रखती थी और छोटी-सी पूजा करती थी। और अरे ! राधा-कृष्ण को मैं कैसे भूल सकती हूॅं। कवियों के पास लिखने के लिए विषयों की झड़ी लग गई। अब पूरा महीना फ़ेसबुक सावनी और प्रेममयी रहेगी।
बहुत अज्ञानी थे हम।
मन की बात तो कहनी ही रह गई। यह एक चिन्तन का विषय है कि हमारा अध्ययन-क्षेत्र आज फ़ेसबुक की रचनाओं तक सीमित रह गया है। और हम अथवा मैं उसी माध्यम से सोचने-समझने लगे हैं।
अब सावन की बात करें तो, फ़ेसबुक पर तो सावन की बौछारें, प्रेम, श्रृंगार, राधा-कृष्ण, झूले, तीज मनाती, गीत गातीं श्रृंगारित महिलाएॅं, और वास्तविक जीवन में उमस, भरी रसोई में रोटी पकातीं स्त्रियाॅं, आती-जाती बिजली से परेशान ज़िन्दगियाॅं, बन्द रास्तों में जाम में उलझते लोग , सड़कों पर भरता पानी, तालाब बनते घर, बेसमैंट में डूबकर मरते बच्चे, गिरते-टूटते पुल, फ़टते बादल, दरकते पहाड़।
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कहते हैं सावन जलता है, यहां तो गली-गली पानी बहता है
प्यार की पींगे चढ़ती हैं, यहां सड़कों पर सैलाब बहता है
जो घर से निकला पता नहीं किस राह लौटेगा बहते-बहते
इश्क-मुहब्बत कहने की बातें, छत से पानी टपका रहता है
क्यों आज की पीढ़ी परम्पराओं से विमुख हो रही है
वर्तमान में सामान्य तौर पर वर्तमान पीढ़ी पर यह आरोप है कि वह पारिवारिक व अन्य परम्पराओं से विमुख होती जा रही है, क्या यह सत्य है और यदि है तो क्यों, विचारणीय प्रश्न है।
इस प्रश्न को मैं दो रूपों में समझने का प्रयास करती हूॅं।
जी हाॅं, आज की पीढ़ी अपनी पारिवारिक प्राचीन परम्पराओं से विमुख हो रही है। और मैं इसमें आज की पीढ़ी को बिल्कुल दोषी नहीं मानती। समय बदलता है, शिक्षा बदली है, रहन-सहन बदले हैं, आवश्यकताएॅं और पारिवारिक, सामाजिक व्यवस्था सब बदल गये हैं।
इसके अनेक कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है हम अपनी अधिकांश पारिवारिक परम्पराओं के गहन निहितार्थ से परिचित ही नहीं हैं। बहुत सी परम्पराओं के पीछे कौन से पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक कारण थे हम समय के साथ भूल चुके हैं, अथवा अल्प ज्ञान के साथ ही निभाने का प्रयास करते हैं। पिछले समय में अधिकांश महिलाएॅं घर में ही रहती थीं और संयुक्त एवं बड़े परिवार हुआ करते थे। इस कारण पारिवारिक परम्पराओं के बारे में जानकारी भी रहती थी और परस्पर मिलकर निभाने का आनन्द भी मिलता था। वर्तमान पीढ़ी तक ये परम्पराएॅं विश्रृंखलित होकर पहुॅंची हैं अतः उन्हें जो परम्पराएॅं निभाने में सुविधाजनक एवं मनोरंजक प्रतीत होती हैं उन्हें निभा लेते हैं, शेष की उपेक्षा कर जाते हैं।
फिर वर्तमान में परम्पराओं का भी बाज़ारीकरण हो चुका है। हमारी परम्पराएॅं घर के भीतर से निकलकर बाज़ार का हिस्सा बन चुकी हैं। और आज जो बाज़ार में बिकता है और दिखता है वही परम्परा बनता जा रहा है। ऐसी स्थितियों को सम्भवतः कोई नहीं रोक पाता अथवा बदल पाता है, केवल स्वीकोरक्ति ही इसका हल है।
रिश्तों को पैसे के तराजू में तोलना कहाॅं तक उचित है?
बात उचित-अनुचित की नहीं है, हमारी मानसिकता की है।
दुखद किन्तु सत्य यही है कि रिश्ते सदैव ही पैसों के तराजू में तोले जाते रहे हैं। यह कांेई आज की बात नहीं है, सदियों से ही यही होता आया है। मैंने अपने जीवन में यही सब समझा और देखा है। बहुत कम लोग हैं जो अपने सम्बन्धों को धन-दौलत से अलग, मन से निभाते हैं। कहावत भी है कि पैसा पैसे को खींचता है। यह बात केवल व्यवसाय अथवा धन-निवेश की नहीं है, सम्बन्धों, मैत्री की भी है। जब कोई धनवान किसी निर्धन से व्यवहार करता है तो उसकी बहुत सराहना की जाती है कि देखो, गरीब-अमीर में अन्तर नहीं करता। समाज द्वारा की जाने वाली यह सराहना ही बताती है कि रिश्ते पैसों के तराजू में तोले जाते हैं। यदि ऐसा न होता तो सम्बन्धों में निर्धन-धनी की बात ही न उठती। जब कभी किसी नये रिश्ते की ओर बढ़ना हो तो भी यही कहा जाता है कि भई, अपने बराबर का देखना।
यह बात आज की नहीं है, सदा से ही यही रीति रही है। कहाॅं राजा भोज कहाॅं गंगू तेली जैसी कहावतें इस सोच को चरितार्थ करती हैं। मैंने अपने आस-पास कितने ही व्यवहार देखे हैं। डूबते व्यक्ति को कोई सहारा नहीं देता, यदि देता है तो बस इतना कि ये लो और निकलो, लौटकर मत आना। यही इस समाज की सच्चाई है।
लाभ के पीछे दौड़ रहे
छेड़-छेड़ की आदत बुरी कौन समझाए किसको
सब अपने हित में लगे रहें कौन हटाए किसको
पर्वत रौंद दिये, वृक्ष खो गये, पशु-पक्षी रहे नहीं
लाभ के पीछे दौड़ रहे, कौन रोक सका किसको
अधिकार माॅंगे
कहने को कोई कुछ भी कहे, कर्म प्रतिफल माॅंगे
धन, परिश्रम, समय फ़लित, उसका अधिकार माॅंगे
कर्म कर फल की चिन्ता न कर, बस कहने की बात
मेरे परिश्रम का फल कोई और ले, तब न्याय माॅंगें।
सपने थे अपने थे
कागज की कश्ती में कुछ सपने थे कुछ अपने थे कुछ सच्चे थे कुछ झूठे थे
कुछ डोले थे कुछ उलझ गये कुछ बिखर गये, कुछ निखर गये कुछ रूठे थे
कुछ पानी में छोड़ दिये, कुछ को गठरी में बांध लिया, कुछ आॅंखों में रह गये
हिचकोले खाती कश्ती में तिरते-तिरते समझा जो भी थे, सब अपने थे, मीठे थे
खुशियों की चादर ओढ़े
खुशियों की चादर ओढ़े
नयनों से कुछ तो बोले
द्वार खड़ी राह देखूॅं मैं
बिंदी, कंगन छन-छन बोले
जीकर देख ले मना Try To Live
भावनाओं का रस कहीं सूख रहा
गन्ने की निपोरी सा निचुड़ रहा
मन भरकर जीकर देख ले मना
जीवन का पात्र यूॅं है रीत रहा
घोंसले में जा आराम कर
छोटी-छोटी बातों पर न चिल्लाया कर
मीठा आम आया है खाकर आराम कर
झुलसाती गर्मी से बचकर रहना प्यारे
पानी पीकर घोंसले में जा, आराम कर
रंग-बिरंगी दुनिया
रंग-बिरंगी दुनिया, रंगों से मन सजाती हूॅं
पाॅंव आलता लगा मन ही मन मुस्काती हूूॅं
रंग-बिरंगे फूल खिले, मन महक-महक रहा
अनजानी, बहकी-बहकी-सी मदमाती हूॅं।
प्यार के बाज़ार
प्यार के बाज़ार में अपनापन ढूॅंढने निकले थे
सबकी कीमत थी वहाॅं, मॅंहगे-मॅंहगे बिकते थे
चेहरों पर कृत्रिम मुस्कान लिए सब बैठे थे
जाकर देखा तो प्यार के झूठे वादे पलते थे
हादसे
हादसे
ज़िन्दगी के नहीं होते
ज़िन्दगी ही कभी-कभी
हादसा बनकर रह जाती है।
सारे दर्शन, फ़लसफ़े, उपदेश
धरे के धरे रह जाते हैं
और ज़िन्दगी
पता नहीं
कहाॅं की कहाॅं निकल जाती है।
कोई मील-पत्थर
कोई दिशा-निर्देश काम नहीं आते
यूॅं ही
लुढ़कते, उबरते,
गिरते-उठते
ज़िन्दगी निकल जाती है।
जाने कौन कह गया
ज़िन्दगी हसीन है
ज़िन्दगी ख्वाब है
ज़िन्दगी प्यार है।
प्यारे, सच बोलें तो
ज़िन्दगी हादसों का सफ़र है।
इस मौसम में
इस मौसम में कहाॅं चली तू ऐसे छोरी।
देख मौसम कैसा काला-काला होरी
पुल लचीला, रात अॅंधेरी
जल गहरा है, गिर न जाईयो छोरी।
बहकी-बहकी-सी चल रही
लिए लालटेन हाथ।
बरसात आई, बिजली कड़की,
ले लेती किसी को साथ।
दूर से देखे तुझे कोई
तो डर जायेगा छोरी।
फिर घर की बत्ती भी न बंद की
बिल आयेगा बहुत, कौन भरेगा गोरी।
बादल राजा
बादल राजा अब तो आओ
गर्मी को तुम जल्द भगाओ
सूरज दादा थक गये देखो
उनको कुछ आराम कराओ
सम्बन्ध एक पुल होते हैं
सम्बन्ध
एक पुल होते हैं
अपनों के साथ
अपनों के बीच।
लेकिन
केवल सम्बन्धों के पुल
बना लेने से ही
राहें सुगम नहीं हो जातीं।
दिन-प्रति-दिन मरम्मत
भी करवानी पड़ती है
और देखभाल भी करनी पड़ती है।
अतिक्रमण भी हटाना पड़ता है
और स्पीड-ब्रेकर,
बैरीकेड भी लगाने पड़ते हैं।
है तो मंहगा सौदा
पर निभ जाये तो
जीवन बन जाता है।
नये भाव देती है ज़िन्दगी
भॅंवर-भॅंवर घूमती है ज़िन्दगी
जल में ही नहीं
हवाओं में भी परखती है ज़िन्दगी।
चक्र घूमता है,
चक्रव्यूह रोकता है
हर दिन नये भाव देती है ज़िन्दगी।
शांत जल में बह रही नाव
कब भॅंवर में फंसेगी
कहाॅं बता पाती है ज़िन्दगी।
रंग भी बदलते हैं,
ढंग भी बदलते हैं
हवाओं के रुख भी बदलते हैं।
नहीं सम्हाल पाता है खेवट
जब भावनाओं के भॅंवर में
फ़ंसती है ज़िन्दगी।
रोटी, कपड़ा और मकान Food, Clothing, Shelter
रोटी, कपड़ा और मकान
चाहिए तो बोलो
हर-हर भगवान।
न मेहनत कर, न बीज बो
बस किसी के चरणों में
सिर टिका दे
और बोलता रह हरदम
हे भगवान, हे भगवान।
भगवान नहीं हैं वे
पर तू मानकर चलना
चरण-वन्दन करते रहना
नाम की मत देखना
आन की मत देखना
दान देखना, रहने का ठौर देखना
बस ढूॅंढ ले कोई नया दर
उस पर सर टिकान।
समय-समय पर बदलते रहना
किसी एक के पीछे मत लगे रहना।
नज़दीकियाॅं, दूरियों की समझ रखना।
एक छूटे, दूसरा ले ले,
सबसे बनाये रखना,
दीन-ईमान न परखना
बस अपनी झोली का
भार परखना।
लक्ष्य कहीं पीछे छूट गये
लक्ष्य कहीं पीछे छूट गये
राहें हम कब की भूल गये
मंजिल का अब पता नहीं
अपने ही अपनों को लूट गये
सच कड़वा है
उपदेशों से डरने लगी हूॅं जीवन जीने के लिए मरने लगी हूॅं
दुनियाा बड़ी मनमोहिनी, इच्छाओं को पूरा करने में लगी हूॅं
पता है मुझे खाली हाथ आये थे, खाली हाथ ही जायेंगे
सच कड़वा है, सबके साथ मैं भी मुट्ठियाॅं भरने में लगी हूॅं।
मौसम भी दगा दे रहा
चाय के प्याले रीत गये
मनमीत कहीं छूट गये
मौसम भी दगा दे रहा
दिन तो यूॅं ही बीत गये
कैसे होगा ज्ञान वर्द्धन
हम तो ठहरे मूरख प्राणी, कैसे होगा ज्ञान वर्द्धन
ताक-झांक कर-करके ही मिलता है ज्ञान सघन
गूगल में क्या रखा है, अपडेट रहने के लिए
दीवारों की दरारों से सिर टिका करने बैठे हैं मनन
अनिर्वचनीय सौन्दर्य
सूरज की किरणों से तप रही धरा
बादलों ने आकर सुनहरा रूप धरा
सुन्दर आकृतियों से आवृत नभ से
अनिर्वचनीय सौन्दर्य से सजी धरा