ज़िन्दगी है कि रेत-घड़ी

काल-चक्र की गति

कौन समझ पाया है

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हम हाथों पर

घड़ियाँ बांधकर,

दीवार पर घड़ियां टांगकर

समझते हैं

समय हमारे अनुसार चलेगा।

ये घड़ियां

समय तो बताती है

किन्तु हमारा समय कहां बता पाती हैं।

हमारी ही तरह

घड़ियों का भी समय

बदलने लगता है

कोई धीमी चलने लगती है

किसी की सूई टूट जाती है

किसी के सैल चुक जाते हैं

तो कोई गिरकर टूट जाती है।

और घड़ियां नहीं बतातीं

कि दिख रहा समय

दिन का है

अथवा रात का।

यह समझने के लिए

तो हमें

सूरज-चांद

अंधेरे और रोशनी से टकराना पड़ता है।

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और ज़िन्दगी है कि

रेत-घड़ी की तरह

रिसती रहती है।