कड़वे बोल
मीठा खाकर बोले कड़वे बोल
झूठे की कभी न खोले पोल
इधर-उधर की लगाकर बैठे
ऐसी रसना का है क्या मोल
चिड़ियाॅं रानी
गुपचुप बैठी चिड़ियाॅं रानी
चल कर लें दो बातें प्यारी
कुछ तुम बोलो, कुछ मैं बोलूं
मन की बातें कर लें सारी
मौसम के रॅंग
सहमी-सहमी धूप है, खिड़कियों से झांक रही
कुहासे को भेदकर देखो घर के भीतर आ रही
पग-पग चढ़ती, पग-पग रुकती, कहाँ चली ये
पकड़ो-पकड़ो भाग न जाये, मेरे हाथ न आ रही।
दुख-सुख तो आने-जाने हैं
मिल जाये जब मज़बूत सहारा राहें सरल हो जाती हैं
कौन है अपना, कौन पराया, ज़रा पहचान हो जाती है
दुख-सुख तो आने-जाने हैं, किसने देखा, किसने समझा
जब हाथ थाम ले कोई, राहें समतल,सरल हो जाती हैं।
तू कोमल नार मैं तेरा प्यार
हाथ जोड़ता हूँ तेरे, तेरी चप्पल टूट गई, ला मैं जुड़वा लाता हूँ
न जा पैदल प्यारी, साईकल लाया मैं, इस पर लेकर जाता हूँ
लोग न जाने क्या-क्या समझेंगे, तू कोमल नार मैं तेरा प्यार
आजा-आजा, आज तुझे मैं लाल-किला दिखलाने ले जाता हूँ
माँ की ममता
जीवन के सुखमय पल बस माँ के संग ही होते हैं
नयनों से बरसे नेह, संतति के सुखद पल होते हैं
हिलमिल-हिलमिल बस जीवन बीता जाता यूँ ही
किसने जाना, माँ की ममता में अनमोल रत्न होते हैं।
वन्दन करें अभिनन्दन करें
देश की आन, शान, बान के लिए शहीद हुए, मोल न लगाईये
उनकी दिखाई राह पर चल सकें, बस इतनी सोच ही बढ़ाईये
भारत की सुन्दर धरा को निखार सकें, इतना विचार कीजिए
वन्दन करें, अभिनन्दन करें, उनकी शान में शीश ही झुकाईये
आंख की कमान तान
आंख की कमान तान
मेरी ले यह बात मान
रखना नज़र टेढ़ी सदा
साथ रखना खुले कान
दो पंछी
गुपचुप, छुपछुपकर बैठे दो पंछी
नेह-नीर में भीग रहे दो पंछी
घन बरसे, मन हरषे, देख रहे
साथ-साथ बैठे खुश हैं दो पंछी
बस यूं ही
बेमौसम मन में बिजली कड़के
जब देखो दाईं आंख है फ़ड़के
मन यूं ही बस डरने लगता है
आंखों से तब गंगा-यमुना बरसे
वेदनाओं की गांठें खोल
न बांध ज़िन्दगी में पीड़ा की गठरियों को
कुछ हंस-बोल ले, खोल दे गठरियों को
वेदनाओं की गांठें खोल, कहीं दूर फेंक
तोड़ फेंक झूठे रिश्तों की गठरियों को
इच्छाएं अनन्त
इच्छाएं अनन्त, फैली दिगन्त
पूर्ण होती नहीं, भाव भिड़न्त
कितनी है भागम-भाग यहां
प्रारम्भ-अन्त सब है ज्वलन्त
धागा प्रेम का
रहिमन धागा प्रेम का
कब का गया है टूट।
गांठें मार-मार,
रहें हैं रस्सियाॅं खींच।
रस्सियाॅं भी अब गल गईं
धागा-धागा बिखर रहा।
गांठों को सहेजकर
बंधे नहीं अब मन की डोर।
न जाने किस आस में
बैठे हाथों को जोड़।
जो छूट गया
उसे छोड़कर
अब तो आगे बढ़।
प्रेम-प्यार के किस्से
हो गये अब तो झूठ
हीर-रांझा, लैला-मजनूं
को जाओ अब तुम भूल।
रस्सियों का अब गया ज़माना
कसकर हाथ पकड़कर घूम।
अच्छा ही हुआ
अच्छा ही हुआ
कोई समझा नहीं।
कुछ शब्द थे
जो मैं यूॅं ही कह बैठी,
मन का गुबार निकाल बैठी।
कहना कुछ था
कह कुछ बैठी।
न नाराज़गी थी
न थी कोई खुशी।
पर कुछ तो था
जो मैं कह बैठी।
बहुत कुछ होता है
जो नहीं कहना चाहिए
बस मन ही मन में
कुढ़ते रहना चाहिए
अन्तर्मन जले तो जले
पर दुनिया को
कुछ भी पता न चले।
वैसे भी मेरी बातें
कहाॅं समझ आती हैं
किसी को।
पर
ऐसा कुछ तो था
जो नहीं कहना चाहिए था
मैं यूॅं ही कह बैठी।
बसन्त के फूल खिलें
फूलों के बसन्त की
प्रतीक्षा नहीं करती मैं
मन में बसन्त के फूल खिलें
बस इतना ही चाहती हूं मैं
जीवन की राहों में
कदम-ताल करते चलें
मन में उमंग
भावों में तरंग
बगिया में हर रंग
और तुम संग
सुनहरे रंगों की लकीर
आप ही खिंच जाती है
ज़िन्दगी में
तो और क्या चाहिए भला।
जब से मुस्कुराना देखा हमारा
जब से मुस्कुराना देखा हमारा
न जाने क्यों आप चिन्तित दिखे
-
हमारे उपवन में फूल सुन्दर खिले
तुम्हारी खुशियों पर क्यों पाला पड़ा
-
चली थी चाॅंद-तारों को बांध मुट्ठी में मैं
तुम क्यों कोहरे की चादर लेकर चले
-
बारिश की बूंदों से आह्लादित था मेरा मन
तुम क्यों आंधी-तूफ़ान लेकर आगे बढ़े
-
भाग-दौड़ तो ज़िन्दगी में लगी रहती है
तुम क्यों राहों में कांटे बिछाते चले।
-
अब और क्या-क्या बताएॅं तुम्हें
-
हमने अपना दर्द छिपा लिया था
झूठी मुस्कुराहटों में
तुम कभी भी तो यह न समझ पाये।
कहीं सच न बोल बैठे
रहने दो मत छेड़ो दर्द को
कहीं सच न बोल बैठे।
राहों में फूल थे
न जाने कांटे कैसे चुभे।
चांद-सितारों से सजा था आंगन
न जाने कैसे शूल बन बैठे।
हरी-भरी थी सारी दुनिया
न जाने कैसे सूखे पल्लव बन बैठे।
सदानीरा थी नदियां
न जाने कैसे हृदय के भाव रीत गये।
रिश्तों की भीड़ थी मेरे आस-पास
न जाने कैसे सब मुझसे दूर हो गये।
स्मृतियों का अथाह सागर उमड़ता था
न जाने कैसे सब पन्ने सूख गये।
सूरज-चंदा की रोशनी से
आंखें चुंधिया जाती थीं
न जाने कैसे सब अंधेरे में खो गये।
बंद आंखों में हज़ारों सपने सजाये बैठी थी
न जाने कैसे आंख खुली, सब ओझल हो गये।
नहीं चाहा था कभी बहुत कुछ
पर जो चाहा वह भी सपने बनकर रह गये।
ध्वनियां विचलित करती हैं मुझे
कुछ ध्वनियां
विचलित करती हैं मुझे
मानों
कोई पुकार है
कहीं दूर से
अपना है या अजनबी
नहीं समझ पाती मैं।
कोई इस पार है
या उस पार
नहीं परख पाती मैं।
शब्दरहित ये आवाजे़ं
भीतर जाकर
कहीं ठहर-सी जाती हैं
कोई अनहोनी है,
या किसी अच्छे पल की आहट
नहीं बता पाती मैं।
कुछ ध्वनियां
मेरे भीतर भी बिखरती हैं
और बाहर की ध्वनियों से बंधकर
एक नया संसार रचती हैं
अच्छा या बुरा
दुख या सुख
समय बतायेगा।
वीरों को नमन
उन वीरों को हम
सदा नमन करें
जो हमें खुली हवाओं में
सांस लेने का अवसर
देकर गये।
उनके बलिदान का हम
सदा सम्मान करें
जो देश के लिए
दीवारों में चिन दिये गये।
उनके लिए
अपना देश ही धर्म था
और था आज़ादी का सपना।
आज़ादी और अपने धर्म के लिए
उनकी जलाई ज्योति
अखंड जली
और भारत आज़ाद हुआ।
महत्व इस बात का नहीं
कि उनकी आयु क्या थी
महत्व इस बात का
कि उनका लक्ष्य क्या था।
बस इतना स्मरण रहे
कि हम उनसे मिले भाव को
मिटा न दें
ऐसा कोई कर्म न करें
कि उनका बलिदान शर्मिंदा हो।
जीवन के नवीन रंग
प्रकृति
नित नये कलेवर में
अवतरित होती है
रोज़ बदलती है रंग।
कभी धूप
उदास सी खिलती है
कभी दमकती,
कभी बहकती-सी,
बादलों संग
लुका-छिपी खेलती।
बादल
अपने रंगों में मग्न
कभी गहरे कालिमा लिए,
कभी झक श्वेत,
आंखें चुंधिया जाते हैं।
और जब बरसते हैं
तो आंखों के मोती-से
मन भिगो-भिगो जाते हैं
कभी सतरंगी
ले आते हैं इन्द्रधनुष
नित नये रंगों संग
मन बहक-बहक जाता है।
प्रात में जब सूर्य-रश्मियां
नयनों में उतरती हैं
पंछियों का कलरव
नित नव संगीत रचता है,
तब हर दिन
जीवन नया-सा लगता है।
मधुर भावों की आहट
गुलाबी ठंड शीत की
आने लगी है।
हल्की-हल्की धूप में
मन लगता है,
धूप में नमी सुहाने लगी है।
कुहासे में छुपने लगी है दुनिया
दूर-दृष्टि गड़बड़ाने लगी है।
रेशमी हवाएं
मन को छूकर निकल जाती हैं
मधुर भावों की आहट
सपने दिखाने लगी है।
रातें लम्बी
दिन छोटे हो गये
नींद अब अच्छी आने लगी है।
चाय बनाकर पिला दे कोई,
इतनी-सी आस
सताने लगी है।
सूर्य उत्तरायण हो गये आज
सूर्यदेव उत्तरायण हो गये आज।
दिन बड़े होने लगे,रातें छोटी।
प्रकाश बढ़ने लगता है
और अंधेरी रातों का डर
कम होने लगता है,
और प्रकाश के साथ
सकारात्मकता का बोध
होने लगता है।
कथा है कि
भीष्म पितामह ने
प्रतीक्षा की थी
देह-त्याग के लिए
सूर्य के उत्तारयण की।
हमारे ग्रंथ कहते हैं
कि उत्तरायण के प्रकाश में
देह-त्याग करने वालों को
पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता,
मुक्त हो जाते हैं वे
जन्म-मरण के जाल से।
.
मैं नहीं चाहती मुक्ति।
चाहती हूॅं
जन्म मिले बार-बार,
न मरने से डरती हूॅं
न जीने से।
अच्छा लगता है
एक इंसान होना,
इच्छाओं के साथ जीना,
कामनाओं को पूरा करना।
जो इस बार न कर पाई
अगले जन्म में
या उससे भी
अगले जन्म में करुॅं,
बार-बार जीऊॅं,
बार- बार मरुॅं।
न जीने से डरती हूॅं
न मरने से।
चलो खिचड़ी पकाएॅं
वैसे तो
रोगियों का भोजन है
खिचड़ी,
स्वादहीन,
कोई खाना नहीं चाहता।
किन्तु जब
हमारे-तुम्हारे बीच पकती है
कोई खिचड़ी
तो सारी दुनिया के कान
खड़े हो जाते हैं,
मुहॅं का स्वाद
चटपटा हो जाता है
कहानियाॅं बनती हैं
मिर्च-मसाले से
जिह्वा जलने लगती है,
घूमने लगते हैं आस-पास
जाने-अनजाने लोग।
क्या पकाया, क्या पकाया?
अब क्या बताएॅं
तुम भी आ जाओ
हमारे गुट में
मिल-बैठ नई खिचड़ी पकायेंगे।
छिल जाती है कई ज़िन्दगियाॅं
कोई विशेष
वैज्ञानिक जानकारी तो नहीं मुझे,
पर सुना है
कि नसों, नाड़ियों में
रक्त बहता है,
हम देख नहीं सकते
बस एक अनुभव है
जानकारी मात्र।
कहते हैं,
जब व्यवधान आ जाता है
इन नसों, नाड़ियों में
तो वैसे ही साफ़ करवानी पड़ती हैं
ये नसें, नाड़ियाॅं
जैसे हमारे घरों की नालियाॅं ,
अन्तर बस इतना ही
कि घरों की
नालियों की सफ़ाई में
एक छोटा-सा मूल्य देना पड़ता है,
अन्यथा
और रास्ते भी निकल आते हैं प्रवाह के।
किन्तु जब रुकती हैं
देह की नसें, नाड़ियाॅं
तो छिल जाती है ज़िन्दगी
और
साथ जुड़ी कई ज़िन्दगियाॅं।
मैला मन में जमे
नसों-नाड़ियों में
या नालियों में,
समय रहते साफ़ करते रहें
नहीं तो
तो छिल जाती है ज़िन्दगी
और
साथ जुड़ी कई ज़िन्दगियाॅं।
शब्द अधूरे-से
प्रेम, प्यार
दो टूटू-फूटे-से शब्द
अधूरे-से लगते हैं।
पता नहीं क्यों
हम तरसते रहते हैं
इन अधूरे शब्दों को
पूरा करने के लिए
ज़िन्दगी-भर।
कहाॅं समझ पाता है कोई
हमारी भावनाओं को।
कहाॅं मिल पाता है कोई
जो इन
अधूरे शब्दों को
पूरा करने के लिए
अपना समर्पण दे।
यूॅं ही बीत जाती है
ज़िन्दगी।
नूतन श्रृंगार
इस रूप-श्रृंगार की
क्या बात करें।
नारी के
नूतन श्रृंगार की
क्या बात करें।
नयन मूॅंदकर
हाथ बांधकर
कहाॅं चली।
माथ है बिन्दी
कान में घंटा।
हाथ कंगन सर्पाकार,
सजे आलता,
गल हार पहन
कहाॅं चली।
यह नूतन सज्जा
मन मोहे मेरा,
किसने अभिनव रूप
सजाया तेरा
कौन है सज्जाकार।
नमन करुॅं मैं बारम्बार ।
अपनेपन की चाह
2-1-2023 को आँख के आपरेशन के बाद फ़ेसबुक से कुछ दिन की दूरी के बाद अब जैसे मन ही नहीं लग रहा लिखने और काम करने पर। न जाने क्यों।
मित्रों की मन से शुभकामनाएँ मिलीं, मन आह्लादित हुआ। मित्रों की चिन्ता, पुनः लिखने की प्रेरणा, मंच से जुड़ने का आग्रह, मन को छू गया।
विचारों में उथल-पुथल है, असमंजस है।
हाँ, यह बात तो सत्य है कि हमारी अनुपस्थिति प्रायः किसी के ध्यान में नहीं आती। किन्तु मैं भी यही सोच रही थी कि मेरे साथ अनेक मंचों पर और सीधे भी कितने ही मित्र जुड़े हैं, मैं भी तो किसी की अनुपस्थिति की ओर कभी ध्यान नहीं देती।
मेरे संदेश बाक्स, एवं वाट्सएप में भी प्रायः प्रतिदिन कुछ मित्रों के सुप्रभात, शुभकामना संदेश, वन्दन, शुभरात्रि के संदेश अक्सर प्राप्त होते हैं। मैं कभी उत्तर देती हूँ और कभी नहीं। ऐसा तो नहीं कि मेरे पास इतने दो पल भी नहीं होते कि मैं उनके अभिवादन का एक उत्तर भी न दे सकूँ। आज सोच रही हूँ कि मैं कैसे किसी से मिल रही शुभकामनाओं की उपेक्षा कर सकती हूँ, किसी भी दृष्टि से इसे उचित तो नहीं कहा जा सकता। तो मैं कैसे किसी से अपेक्षा करने का अधिकार रखती हूँ।
अब एक अन्य पक्ष है।
मैं प्रतिवर्ष होली, दीपावली एवं नववर्ष पर अपने अधिकाधिक मित्रों को बधाई संदेश भेजने का प्रयास करती ही हूँ। वे सभी मित्र, जो मेरे साथ अनेक मंचों पर जुड़े हैं, नियमित विचारों, प्रतिक्रियाओं का आदान-प्रदान है एवं कुछ मित्र जो सीधे फ़ेसबुक पटल पर मेरे साथ जुड़े हैं, कुछ पुराने सहकर्मी, सम्बन्धी, अन्य रूपों में परिचित, अथवा केवल फ़ेसबुकीय परिचय, जिनसे कहीं विचारों का आदान-प्रदान चलता रहता है, चाहे वह लाईक्स अथवा इमोज़ी के रूप में ही क्यों न हो। इसके अतिरिक्त मेरे पुराने सहकर्मी, जो मेरे साथ फ़ेसबुक पर हैं अथवा वाट्सएप पर हैं। मेरा प्रयास रहता है कि मैं इन सभी मित्रों को अवश्य ही इन पर्वों पर शुभकामना संदेश प्रेषित करुँ। पिछले अनेक वर्षों से मैं ऐसा करती रही हूँ। मैं वास्तविक संख्याबल तो नहीं जानती किन्तु सैंकड़ों में तो हैं ही, जिन्हें इन पर्वों पर शुभकामना संदेश भेजती आई हूँ, वर्षों से।
किन्तु इस बार मनःस्थिति अन्यमनस्क होने के कारण मैं सभी मित्रों को नववर्ष पर शुभकामना संदेश नहीं भेज पाई। किन्तु प्रतीक्षा तो थी कि जिन्हें मैं हरवर्ष स्मरण करती हूँ वे मुझे अवश्य ही स्मरण करेंगे, किन्तु ऐसा नहीं हुआ।
आश्चर्य मुझे किसी से प्रथमतः संदेश नहीं मिले।
बस दिल पर नहीं लिया, लिखने का मन था लिख दिया।
आप सभी मित्रों को पूरे वर्ष, प्रतिदिन के लिए अशेष शुभकामनाएँ।
निर्माण के जंगल
हम जब मुख्य शहर से कुछ बाहर, कुछ दूर निकलते हैं तो आपको societies एवं उनमें निर्माणाधीन Flats /Towers दिखाई देने लगते हैं। एक-एक society में 100-200 टॉवर, और 22-25 मंजिल तक, सभी निमार्णाधीन। और एक दो नहीं, सैंकड़ों-सैंकड़ों, जिन्हें आप न तो गिन सकते हैं न ही अनुमान लगा सकते हैं। जैसे कोई बाढ़ आ गई हो, सुनामी हो Flats की, अथवा कोई पूरा जंगल। किन्तु इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह कि ये सब अधबने Flats हैं, केवल ढांचा अथवा कहीं-कहीं बाहर से बने दिखाई देते हैं किन्तु भीतर से केवल दीवारें ही होती हैं जिन्हें उनकी शब्दावली में Raw कहा जाता है। मीलों तक, पूरे-पूरे शहर के समान। इनके आस-पास निर्माणाधीन मॉल, बिसनेस टॉवर, सिटी सैंटर, बड़ी-बड़ी कम्पनियों के बोर्ड। मॉल भी इतने बड़े और उंचे कि आप नज़र उठाकर न देख सकें, कहॉं से आरम्भ हो रहे हैं और कहॉं कितनी दूर समाप्त, दृष्टि बोध ही नहीं बन पाता।
अब आप यहॉं Flat खरीदने के लिए देखने जायेंगे तो आपको society एवं Flats की विशेषताएं बताई जायेंगी।
society में swimming pool, park, fountains, power back up, parking area, party hall, community hall, community centre, high level security, religious places, plumber, mechanic, electrician सबकी सुविधाएं मिलती रहेंगी, वगैरह-वगैरह।
फिर आप मूल्य पूछेंगे।
छोटे-छोटे 3 BHK Flats का मूल्य मात्र 2 से ढाई करोड़ से आरम्भ होता है और ये अभी निर्माणाधीन हैं। केवल ढांचे खड़े हैं। आप 25 प्रतिशत राशि देकर बुक करवा सकते हैं, ज्यों-ज्यों निर्माण होता जायेगा, आपसे शेष राशि किश्तों में ली जाती रहेगी। तीन, चार अथवा पांच वर्षों में आपको तैयार Flat मिल जायेगा। ये बैंक से भी आपका ऋण स्वीकृत करवा देंगे।
और उपर बताई गई सुविधाओं के लिए आपसे मात्र 2 अथवा 3 प्रतिशत मासिक लिया जायेगा।
इन Flats को देखकर मेरे मन में दो-तीन प्रश्न उठते हैं।
इन लाखों Flats में बसने वाले लोग किस ग्रह से आयेंगे।
दूसरा भारत में क्या सत्य में ही इतने धन-सम्पन्न लोग हैं?
तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण यह कि मुझे इन societies में दूर-दूर तक किसी स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, शिक्षण संस्थान, व्यावसायिक संस्थान, अस्पताल, डिस्पैंसरी, क्लिीनिक की परिकल्पना नहीं दिखाई दी।
आप क्या सोचते हैं।
मेरे आस-पास की आम-सी नारी वो खास
कैसे लिखूँ किसी एक के बारे में। मेरे आस-पास की तो हर नारी खास है किसी न किसी रूप में। चाहे वह गृहिणी है, कामकाजी है, किसी ऊँचे पद पर अवस्थित है, मज़दूर है, सुशिक्षित है, अशिक्षित है, कम या ज़्यादा पढ़ी-लिखी है, हर नारी किसी न किसी रूप में खास ही है। किसी न किसी रूप में हर नारी मेरे लिए प्रेरणा का माध्यम बनती है।
मेरे परिचय में एक महिला जो स्वयं दिल की रोगी है, चिकित्सकों के अनुसार उसका दिल केवल 55 प्रतिशत कार्य करता है, पूरा घर सम्हालती है, पति भी अस्वस्थ रहते हैं उनकी पूरी देखभाल करती है। उन्हें कार में अस्पताल लाना, ले जाना आदि सब। बच्चे विदेश में हैं। किन्तु इस बात की कभी शिकायत नहीं करती।
मेरे घर काम करने वाली महिला अपने तीन बच्चों को अच्छी शिक्षा देने का प्रयास कर रही है, चार घरों में काम करती है, उपरान्त पति के काम में हाथ बंटाती है।
बस हम एक भ्रम में जीते हैं कि कोई नारी खास है। कहाँ खास हो पाती है कोई नारी। बस भुलावे में जीते हैं और भुलावों में सबको रखते हैं। कोई नारी किसी बड़े पद पर कार्यरत है, कोई बहुत पुरस्कारों से सम्मानित है, बड़ी लेखिका, कलाकार अथवा अन्य किसी क्षेत्र में जाना-पहचाना नाम है, किन्तु फिर भी खास कहाँ बन पाती हैं वे। अपने आस-पास मुझे एक भी ऐसी नारी कभी नहीं मिली जो अपने मन से, अपने अधिकार से, अपनी इच्छाओं से जीवन व्यतीत करती हो। फिर कोई नारी खास कैसे हो सकती है। मेरी इस बात पर आप शायद कहेंगे कि नारी को तो परिवार को भी देखना होता है, बच्चों का पालन-पोषण, बड़ों की सेवा, छोटों को संस्कार, भला कौन देगा, ऐसी ही नारी तो खास होती है। यह तो हर नारी का हमारी दृष्टि में कर्तव्य है, इसमें कोई खास बात कहाँ।
मुझे आज तक ऐसी कोई नारी नहीं मिली, जो अपने मन से जीती हो, अपनी इच्छाओं का दमन न करती हो, दोहरी ज़िन्दगी न जीती हो। संस्कारी भी बनकर रहना है और समय के साथ चलने के लिए आधुनिका भी बनना है। गृहस्थी तो उसका दायित्व है ही, किन्तु पढ़ी-लिखी है, तो नौकरी भी करे और बच्चों को भी पढ़ाए। आप कहेंगे यह तो नारी के कर्तव्य हैं। तो खास कैसे हुई। मैंने आज तक ऐसी कोई नारी नहीं देखी जो मन से स्वतन्त्र हो, स्वतन्त्र होने का अभिप्राय उच्छृंखलता, दायित्वों की उपेक्षा नहीं होता, इसका अभिप्राय होता है कि वह अपने मन से अपने लिए कोई निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र है। परिवार के प्रत्येक कार्य में वह भागीदार है, उसे हर कदम पर साथ लेकर चला जाता है, उसकी इच्छा-अनिच्छा का आदर किया जाता है।
माता-पिता आज भी लड़कियों को इसलिए नहीं पढ़ाते कि पढ़ाना चाहते हैं बल्कि इसलिए पढ़ाते हैं कि लड़के आजकल पढ़ी-लिखी लड़की ढूंढते हैं और अक्सर नौकरी वाली। किन्तु अगर किसी लड़के को लड़की तो पसन्द आ जाती है किन्तु परिवार कहता है कि हमें नौकरी नहीं करवानी तो लड़की के माता-पिता और स्वयं लड़की भी इसी दबाव में नौकरी न करना स्वीकार कर लेती है।