हे राम
कण-कण में बसते हैं राम
हर मन में बसते हैं राम
मूर्ति बना करें हम पूजन
कृपालु बने हैं हम पर राम
अंधेरों में रोशनी की आस
कुहासे में ज़िन्दगी धीरे-धीरे सरक रही
कहीं खड़ी, कहीं रुकी-सी आगे बढ़ रही
अंधेरों में रोशनी की एक आस है देखिए
रवि किरणें भी इस अंधेरे में राह ढूॅंढ रहीं।
हम ताली बजायेंगे z
चिड़िया रानी, चिड़िया रानी
खाती दाना, पीती पानी
जब देखो उड़ती-फिरती
तूने नहीं क्या क्लास लगानी
जब देखो चूं-चूं करती
इधर-उधर है उड़ती-फिरती
अ आ इ ई पढ़ ले, पढ़ ले
नहीं तो टीचर से पड़ेंगे डंडे
गिन-गिनकर लाना तिनके
गणित में लगेंगे पहाड़े किनके
इतना शोर मचाती हो तुम
कैसे तुम्हें समझाएं हम
क्लास से बाहर खड़ा कर देंगे
रोटी-पानी बन्द कर देंगे
मुर्गा बनाकर कुकड़ूं करवायेंगे
तुम्हें देख हम ताली बजायेंगे।
कैसे कहूॅं
कैसे कहूॅं वो क्या निशानी दे गया
जाते-जाते बस बदनामी दे गया।
हम तो सारी जिन्दगी
प्यार के अफ़साने सुनाते रहे
वो हमें पुरस्कार बेईमानी दे गया।
बात तो कुछ ज़्यादा न थी
पर वो लोगों को पढ़ने के लिए
एक मजे़दार कहानी दे गया।
हम तो हंस-हंसकर जी रहे थे
लेकिन वो शेष जीवन की हैरानी दे गया।
यादों में उसकी हम अब भी रहते हैं
पर मेरी जीने की तमन्ना छीन रवानी दे गया।
उड़ान
दिल से भरें
उड़ान
चाहतों की
तो पर्वतों को चीर
रंगीनियों में
छू लेगें आकाश।
बस आस मत छोड़ना
कौन कहता है
कि टूटने से
जीवन समाप्त हो जाता है।
टूटकर धरा में मिलेंगे,
नवीन कोंपल से
फिर उठ खड़े होंगे
फिर पनपेंगे,
फूलेंगे, फलेंगे
बस आस मत छोड़ना।
विश्व की सर्वश्रेष्ठ कृति
वह, अपने आप को
विश्व की
सर्वश्रेष्ठ कृति समझता है।
उसके पास
दो बड़े-बड़े हाथ हैं।
और अपने इन
बड़े-बड़े दो हाथों पर
बड़ा गर्व है उसे।
अपने इन बड़े बड़े दो हाथों से
बड़े-बड़े काम कर लेता है वह।
ये गगनचुम्बी इमारतें,
उंचे-उंचे बांध, धुआं उगलती चिमनियां,
सब, उसके, इन्हीं हाथों की देन हैं ।
चांद-तारों को छू लेने का
दम भरता है वह।
प्रकृति को अपने पक्ष में
बदल लेने की क्षमता रखता है वह।
अपने-आपको
जगत-नियन्ता समझने लगा है वह।
बौना कर लिया है उसने
सबको अपने सामने ।
पैर की ठोकर में है
उसके सारी दुनिया।
किन्तु
जब उसके पेट में
भूख का कीड़ा कुलबुलाता है
तब उसके,
यही दो बड़े-बड़े हाथ
कंपकंपाने लगते हैं
और वह अपने इन
बड़े-बड़े दो हाथों को
एक औरत के आगे फैलाता है
और गिड़गिड़ाता है
भूख लगी है, दो रोटी बना दे।
भूख लगी है, दो रोटी खिला दे।
खुशियों के पल
खुशियों के पल
बड़े अनमोल हुआ करते हैं।
पर पता नहीं
कैसे होते हैं,
किस रंग,
किस ढंग के होते हैं।
शायद अदृश्य
छोटे-छोटे होते हैं।
हाथों में आते ही
खिसकने लगते हैं
बन्द मुट्ठियों से
रिसने लगते हैं।
कभी सूखी रेत से
दिखते हैं
कभी बरसते पानी-सी
धरा को छूते ही
बिखर-बिखर जाते हैं।
कभी मन में उमंग,
कभी अवसाद भर जाते हैं।
पर कैसे भी होते हैं
पल-भर के भी होते हैं
जैसे भी होते हैं
अच्छे ही होते हैं।
मेरी ज़िन्दगी की हकीकत
क्या करोगे
मेरी ज़िन्दगी की हकीकत जानकर।
कोई कहानी,
कोई उपन्यास लिखना चाहोगे।
नहीं लिख पाओगे
बहुत उलझ जाओगे
इतने कथानक, इतनी घटनाएॅं
न जाने कितने जन्मों के किस्से
कहाॅं तक पढ़ पाओगे।
एक के ऊपर एक शब्द
एक के ऊपर एक कथा
नहीं जोड़-तोड़ पाओगे।
कभी देखा है
जब कलम की स्याही
चुक जाती है
तो हम बार-बार
घसीटते हैं उसे,
शायद लिख ले, लिख ले,
कोरा पृष्ठ फटने लगता है
उस घसीटने से,
फिर अचानक ही
कलम से ढेर-सी स्याही छूट जाती है,
सब काला,नीला, हरा, लाल
हो जाता है
और मेरी कहानी पूरी हो जाती है।
ओ नादान!
न समझ पाओगे तुम
इन किस्सों को।
न उलझो मुझसे।
इसलिए
रहने दो मेरी ज़िन्दगी की हकीकत
मेरे ही पास।
ये आंखें
ज़रा-ज़रा-सी बात पर बहक जाती हैं ये आंखें।
ज़रा-ज़रा-सी बात पर भर आती हैं ये आंखें।
मुझसे न पूछना कभी
आंखों में नमी क्यों है,
इनकी तो आदत ही हो गई है,
न जाने क्यों
हर समय तरल रहती हैं ये आंखें।
अच्छे-बुरे की समझ कहाॅं
इन आंखों को
बिन समझे ही बरस पड़ती हैं ये आंखें।
पता नहीं कैसी हैं ये आंखें।
दिल-दिमाग से ज़्यादा देख लेती हैं ये आंखें।
जो न समझना चाहिए
वह भी न झट-से समझ लेती हैं ये आंखें।
बहुत कोशिश करती हूॅं
झुकाकर रखूॅं इन आंखों को
न जाने कैसे खुलकर
चिहुॅंक पड़ती हैं ये आंखें।
किसी और को क्या कहूॅं,
ज़रा बचकर रहना,
आंखें तरेरकर
मुझसे ही कह देती हैं ये आंखें।
सीता की व्यथा
कौन समझ पाया है
सीता के दर्द को।
उर्मिला का दर्द
तो कवियों ने जी लिया
किन्तु सिया का दर्द
बस सिया ने ही जाना।
धरा से जन्मी
धरा में समाई सीता।
क्या नियति रही मेरी
ज़रूर सोचा करती होगी सीता ।
.
किसे मिला था श्राप,
और किसे मिला था वरदान,
माध्यम कौन बना,
किसके हाथों
किसकी मुक्ति तय की थी विधाता ने
और किसे बनाया था माध्यम
ज़रूर सोचा करती होगी सीता ।
.
क्या रावण के वध का
और कोई मार्ग नहीं मिला
विधाता को
जो उसे ही बलि बनाया।
एक महारानी की
स्वर्ण हिरण की लालसा
क्या इतना बड़ा अपराध था
जो उसके चरित्र को खा गया।
सब लक्ष्मण रेखा-उल्लंघन
की ही बात करते हैं,
सीता का भाव किसने जाना।
लक्ष्मण रेखा के आदेश से बड़ा था
द्वार पर आये साधु का सम्मान
यह किसी ने न समझा।
साधु के सम्मान की भावना
उसके जीवन का
कलंक कैसे बनकर रह गया,
ज़रूर सोचा करती होगी सीता ।
.
रावण कौन था, क्यों श्रापित था
क्या जानती थी सीता।
शायद नहीं जानती थी सीता।
सीता बस इतना जानती थी
कि वह
अशोक वाटिका में सुरक्षित थी
रावण की सेनानियों के बीच।
कभी अशोक वाटिका से
बचा लिया गया मुझे
मेरे राम द्वारा
तो क्या मेरा भविष्य इतना अनिश्चित होगा,
क्या कभी सोचा करती थी सीता
शायद नहीं सोचा करती थी इतना सीता।
-
क्या सोचा करती थी सीता
कि एक महापण्डित
महाज्ञानी के कारावास में रहने पर
उसे देनी होगी
अग्नि-परीक्षा अपने चरित्र की।
शायद नहीं सोचा करती थी सीता।
क्योंकि यह परीक्षा
केवल उसकी नहीं थी
थी उसकी भी
जिससे ज्ञान लिया था लक्ष्मण ने
मृत्यु के द्वार पर खड़े महा-महा ज्ञानी से।
विधाता ने क्यों रचा यह खेल
क्यों उसे ही माध्यम बनाया
कभी न समझ पाई होगी सीता।
न जाने किन जन्मों के
वरदान, श्राप और अभिशाप से
लिखी गई थी उसकी कथा
कहाॅं समझ पाई होगी सीता।
कथा बताती है
कि राजा ने अकाल में चलाया था हल
और पाया था एक घट
जिसमें कन्या थी
और वह थी सीता।
घट में रखकर
धरती के भीतर
कौन छोड़ गया था उसे
क्या परित्यक्त बालिका थी वह,
सोचती तो ज़रूर होगी सीता
किन्तु कभी समझ न पाई होगी सीता।
.
अग्नि में समाकर
अग्नि से निकलकर
पवित्र होकर भी
कहाॅं बन पाई
राजमहलों की राजरानी सीता।
अपना अपराध
कहाॅं समझ पाई होगी सीता।
.
लक्ष्मण के साथ
महलों से निकलकर
अयोध्या की सीमा पर छोड़ दी गई
नितान्त अकेली, विस्थापित
उदर में लिए राज-अंश
पद-विच्युत,
क्या कुछ समझ पाई होगी सीता
कहाॅं कुछ समझ पाई होगी सीता।
.
कैसे पहुॅंची होगी किसी सन्त के आश्रम
कैसे हुई होगी देखभाल
महलों से निष्कासित
राजकुमारों को वन में जन्म देकर
वनवासिनी का जीवन जीते
मैं बनी ही क्यों कभी रानी
ज़रूर सोचती होगी सीता
किन्तु कभी कुछ समझ न पाई होगी सीता।
.
कितने वर्ष रही सन्तों के आश्रम में
क्या जीवन रहा होगा
क्या स्मृतियाॅं रही होंगी विगत की
शायद सब सोचती होगी सीता
क्यों हुआ मेरे ही साथ ऐसा
कहाॅं समझ पाई होगी सीता।
.
तेरह वर्ष वन में काटे
एक काटा
अशोक वाटिका में,
चाहकर भी स्मृतियों में
नहीं आ पाते थे
राजमहल में काटे सुखद दिन
कितने दिन थे, कितना वर्ष
कहाॅं रह पाईं होंगी
उसके मन में मधुर स्मृतियाॅं।
.
कहते हैं
उसके पति एकपत्नीव्रता रहे,
मर्यादा पुरुषोत्तम थे वे,
किन्तु
इससे उसे क्या मिला भला जीवन में
उसके बिना भी तो
उनका जीवन निर्बाध चला
फिर वह आई ही क्यों थी उस जीवन में
ज़रूर सोचती होगी सीता।
.
चक्रवर्ती सम्राट बनने में भी
नहीं बाधा आई उसकी अनुपस्थिति।
जहाॅं मूर्ति से
एक राजा
चक्रवर्ती राजा बन सकता था
तो आवश्यकता ही कहाॅं थी महारानी की
और क्यों थी ,
ज़रूर सोचा करती होगी सीता।
.
ज़रूर सोचा करती होगी सीता
अपने इस दुर्भाग्य पर
उसके पुत्र रामकथा तो जानते थे
किन्तु नहीं जानते थे
कथा के पीछे की कथा।
वे जानते थे
तो केवल राजा राम का प्रताप
न्याय, पितृ-भक्त, वचनों के पालक
एवं मर्यादाओं की बात।
.
वे नहीं जानते थे
किसी महारानी सीता को
चरित्र-लांछित सीता को,
अग्नि-परीक्षा देकर भी
राजमहलों से
विस्थापित हुई सीता को।
नितान्त अकेली वन में छोड़ दी गई
किसी सीता को।
इतनी बड़ी कथा को
कैसे समझा सकती थी
अपने पुत्रों को सीता
नहीं समझा सकती थी सीता।
-
अश्वमेध का अश्व जिसे
राजाओं के पास,
राज्यों में घूमना था
वाल्मीकि आश्रम कैसे पहुॅंच गया
और उसके पुत्रों ने
उस अश्व को रोककर
युद्ध क्यों किया।
क्यों विजित हुए वे
तीनों भाईयों से,
कि राम को आना पड़ा ।
.
जीवन के पिछले सारे अध्याय
बन्द कर चुकी थी सीता।
वह न अतीत में थी
न वर्तमान में
न भविष्य को लेकर
आशान्वित रही होगी
वनदेवी के रूप में
जीवन व्यतीत करती हुई सीता।
और इस नवीन अध्याय की तो
कल्पना भी नहीं की होगी
न समझ सकी होगी इसे सीता।
.
कैसे समझ सकती थी सीता
कि यह उसके जीवन के पटाक्षेप का
अध्याय लिखा जा रहा था
कहाॅं समझ सकती थी सीता।
जीवन की इस एक नई आंधी के बारे में
कभी सोच भी नहीं सकती थी सीता।
.
पवित्रता तो अभी भी दांव पर थी।
चाहे कारागार में रही
अथवा वनवासिनी
प्रमाण तो चहिए ही था।
कैसे प्रमाणित कर सकती थी सीता।
धरा से निकली, धरा में समा गई सीता।
.
इससे तो
अशोक वाटिका में ही रह जाती
तो अपमानित तो न होती सीता
इतना तो ज़रूर सोचती होगी सीता
मेरी सोच
पता नहीं, शायद
मेरी ही सोच कुछ अलग है
इस तरह के चित्र
मुझे हैरान करते हैं
परेशान करते हैं।
कल्पनाओं के संसार में
मैं जी नहीं पाती
और वास्तविकता से
मुॅंह मोड़ कर नहीं जाती।
ऐसे चित्र जब
बार-बार आॅंखों के सामने आते हैं
तो मन मसोस कर रह जाते हैं।
आज कहाॅं पाई जाती है ऐसी नारी
कैसे लिख लेते हैं हम
इन चित्रों को देखकर
बिहारी-पद्मावत-सी शायरी।
मेरे मन में नहीं आते
प्यार-मुहब्बत के विचार
देखकर इन चित्रों का
विचित्र श्रृंगार।
कौन धारण करता है
आजकल ऐसे वस्त्र
और ऐसा हार-श्रृंगार।
मानों किसी फ़ोटो-शूट के लिए
जा रही यह नारी,
अथवा है किसी कलाकार की
अनोखी चित्रकारी,
और उसकी ऐसी मति-मंद
अकल्पनीय सोच
मेरे चिन्तन को,
मुझे बना देती है बेचारी।
ऐसे घट तो आजकल
संग्रहालयों में पाये जाते हैं
और जो वास्तव में कुंओं से
जल भरकर लाते हैं
उनके हाल देखकर
आंखों में आंसू आ जाते हैं।
मिलन की घड़ियाॅं
चुभती हैं
मिलन की घड़ियाॅं,
जो यूॅं ही बीत जाती हैं,
कुछ चुप्पी में,
अनबोले भावों में,
कुछ कही-अनकही
शिकायतों में,
बातों की छुअन
वादों की कसम
घुटता है मन
और मिलन की घड़ियाॅं
बीत जाती हैं।
फूल खिलाए उपवन में
दो फूल खिलाए उपवन में
उपवन मेरा महक गया
.
फूलों पर तितली बैठी
मन में एक उमंग उठी
.
कुछ पात झरे उपवन में
धरा खुशियों से बहक उठी
.
कुछ भाव बने इकरार के
मन मेरा बिखर गया
.
सपनों में मैं जीने लगी
अश्रुओं से सपना टूट गया
.
कोई झाॅंक न ले मेरी आंखों में
आॅंखों को मैंने मूॅंद लिया।
.
कोई प्यार के बोल बोल गया
मानों जीवन में विष घोल गया।
.
जीवन का सबसे बड़ा झूठ लगा
कोई रिश्तों में मीठा बोल गया
मुस्कुराते हुए फूल
किसी ने कहा
कुछ कहते हैं मुस्कुराते हुए फूल।
न,न, बहुत कुछ कहते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
अब क्या बताएॅं आपको
दिल छीन कर ले जाते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
हम तो उपवन में
यूॅं ही घूम रहे थे
हमें रोककर बहुत कुछ बोले
मुस्कुराते हुए फूल।
ज़िन्दगी का पूरा दर्शन
समझा जाते हैं
ये मुस्कुराते हुए फूल।
कहते हैं
कांटों से नहीं तुम्हारा पाला पड़ा कभी
डालियों पर ही नहीं
ज़िन्दगी की गलियों में भी
कांटें छुपे रहते हैं फूलों के बीच।
यूॅं तो कहते हैं
हॅंस-बोलकर जिया करो
फूल-फूल की महक पिया करो,
किन्तु अवसर मिलते ही
चुभा जाते हैं कांटे कितने ही फूल।
चेतावनी भी दे जाते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
झरते हुए फूलों की पत्तियाॅं
मुस्कुरा-मुस्कुरा कर
कहती हैं,
देख लिया हमें
धरा पर मिट रहे हैं,
ध्यान रखना, बहुत धोखा देते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
कैसे जायें नदिया पार
ठहरी-ठहरी-सी, रुकी-रुकी-सी जल की लहरें
कश्ती को थामे बैठीं, मानों उसे रोक रही लहरें
बिन मांझी कहाॅं जायेगी, कैसे जायें नदिया पार
तरल-तरल भावों से, मानों कह रही हैं ये लहरें
अपनी राहें चुनने की बात
बादलों में घर बनाने की सोचती हूं
हवाओं में उड़ने की बात सोचती हूं
आशाओं का सामान लिए चलती हूं
अपनी राहें चुनने की बात सोचती हूं
सिल्ली बर्फ़ सी
मन में भावों की सिल्ली बर्फ़ सी
तुम्हारे नेह से पिघल रही तरल-सी
चलो आज मिल बैठें दो बात करें
नयनों से झरे आंसू रिश्तों की छुअन-सी
शब्द लड़खड़ा रहे
रात भीगी-भीगी
पत्तों पर बूंदें
सिहरी-सिहरी
चांद-तारे सुप्त-से
बादलों में रोशनी घिरी
खिड़कियों पर कोहरा
मन पर शीत का पहरा
शब्द लड़खड़ा रहे
बातें मन में दबीं।
वक्त के मरहम
कहने भर की ही बात है
कि वक्त के मरहम से
हर जख़्म भर जाया करता है।
ज़िन्दगी की हर चोट की
अपनी-अपनी पीड़ा होती है
जो केवल वही समझ पाता है
जिसने चोट खाई हो।
किन्तु, चोट
जितनी गहरी हो
वक्त भी
उतना ही बेरहम हो जाता है।
और हम इंसानों की फ़ितरत !
कुरेद-कुरेद कर
जख़्मों को ताज़ा बनाये रखते हैं।
पीड़ा का अपना ही
आनन्द होता है।
तुम्हारा मोहक रूप
तुम्हारा मोहक रूप मन को आनन्दित करता है
तुम्हारी नयनों की आभा से मन पुलकित होता है
कोमल-कांत छवि तुम्हारी, शक्ति रूपा हो तुम
तुम्हारा सुन्दर बाल-रूप मन को हर्षित करता है।
मोबाईल की माया
आॅंख मूॅंदकर सब ज्ञान मिले, और क्या चाहिए भला
बिन पढ़े-लिखे सब हाल मिले और क्या चाहिए भला
दुनिया पूरी घूम रहे, इसका, उसका, सबका पता रहे
न टिकट लगे, न आरक्षण चाहिए, और क्या चाहिए भला
अपनी हिम्मत अपनी राहें
बाधाओं को तोड़कर राहें बनाने का मज़ा ही कुछ और है
धरा और पाषाण को भेदकर जीने का मज़ा ही कुछ और है
सिखा जाता है यह अंकुरण, सुविधाओं में तो सभी पनप लेते हैं
अपनी हिम्मत से अपनी राहें बनाने का मज़ा ही कुछ और है।
डर-डरकर ज़िन्दगी नहीं चलती
डर-डरकर ज़िन्दगी नहीं चलती यह जान ले सखी
उठ हाथ थाम, आगे बढ़, न साथ छोड़ेंगे रे सखी
घन छा रहे, रात घिर आई, नदी-नीर न बैठ अब
नया सोच, चल ज़िन्दगी की राहों को बदलें रे सखी
उंची उड़ान
आज चांद का अर्थ बदल गया
आज चांद रोटी से घर बन गया
उंची उड़ान लेकर चले हैं हम
आज चांद से सर गर्व से तन गया।
सड़कों पर सागर बना
सड़कों पर सागर बना, देख रहे हम हक्के-बक्के
बूंद-बूंद को मन तरसे, घर में पानी भर-भर के
कितने घर डूब गये, राहों पर खड़े देख रहे
कैसे बढ़े ज़िन्दगी, सोच-सोचकर नयन तरस रहे।
चढ़नी पड़ती हैं सीढ़ियाॅं
कदम-दर-कदम ही चढ़नी पड़ती हैं सीढ़ियाॅं
नीचे से उपर, उपर से नीचे ले आती हैं सीढ़ियाॅं
बस धरा की फ़िसलन का ज़रा ध्यान रखिए सदा
नहीं तो उपर से सीधे नीचे ले आती हैं सीढ़ियाॅं
बरसती बूॅंदें
बरसती बूंदों को रोककर जीवन को तरल करती हूं
बादलों से बरसती नेह-धार को मन से परखती हूं
कौन जाने कब बदलती हैं धाराएं और गति इनकी
अंजुरी में बांधकर मन को सरस-सरस करती हूं।
शोर बहुत होगा
बात ये न जाने कितनों को चुभती जायेगी
हमारी हॅंसी जब दूर तक सुनाई दे जायेगी
शोर बहुत होगा, पूछताछ होगी, जांच होगी
खुशियाॅं हमारे जीवन में कैसे समा जायेंगी
जीवन-भर का सार
सुना करते हैं रेखाओं में भाग्य लिखा रहता है
आड़ी-तिरछी रेखाओं में हाल लिखा रहता है
चेहरे पर चेहरे लगाकर बैठे हैं देखो तो ज़रा
इन रेखाओं में जीवन-भर का सार लिखा रहता है