खुशियों को आवाज़ दे रही
मन के भावों को थाप दे रही
खुशियों को आवाज़ दे रही
ढोल बाजे मन झूम-झूम जाये
कदम बहक रहे, ताल दे रही।
गुलाब में कांटे भी होते हैं
तुम्हारे लिए
ये गुलाब के सुन्दर फूल हैं,
तुम्हें इनमें प्रेम दिखता है,
मेरे लिए हैं ये
मेरे परिश्रम की गोल रोटी,
मेरी आत्मनिर्भरता की कसौटी।
बेचने निकली हूॅं
दया मत दिखलाना
लेने हों तो हाथ बढ़ाना,
नहीं तो दूर रहना
ध्यान रहे,
गुलाब में कांटे भी होते हैं
और वे गुलाब की तरह
मुरझा नहीं जाते।
प्रतीक्षा में
बाट में
बैठी हूॅं तुम्हारी
उस दिन से ही
जिस दिन
छोड़ गये थे तुम मुझे
चुनरिया, चूड़ा
पहनाकर
मेंहदी, बिंदिया लगाये थे।
बिरहन का यह चोला पहनाकर
घट भरकर लाये थे।
तुम मुझे इस रूप में देखकर
बहुत मन भाये थे।
फिर शहर चले गये तुम।
लौटने का वादा करके
मन सावन था
पतझड़ हो गया।
तुम न आये।
जियरा न लागे तुम बिन
यूॅं ही बैठी तुम्हारी बिरहन
तुम्हारी प्रतीक्षा में
कभी तो लौटकर आओगे तुम।
घोंसले में जा आराम कर
छोटी-छोटी बातों पर न चिल्लाया कर
मीठा आम आया है खाकर आराम कर
झुलसाती गर्मी से बचकर रहना प्यारे
पानी पीकर घोंसले में जा, आराम कर
इस मौसम में
इस मौसम में कहाॅं चली तू ऐसे छोरी।
देख मौसम कैसा काला-काला होरी
पुल लचीला, रात अॅंधेरी
जल गहरा है, गिर न जाईयो छोरी।
बहकी-बहकी-सी चल रही
लिए लालटेन हाथ।
बरसात आई, बिजली कड़की,
ले लेती किसी को साथ।
दूर से देखे तुझे कोई
तो डर जायेगा छोरी।
फिर घर की बत्ती भी न बंद की
बिल आयेगा बहुत, कौन भरेगा गोरी।
निडर होकर उड़े हैं
बादलों के रंगों से मन में उमंग लेकर चले हैं
चंदा को पकड़कर उड़ान भरकर हम चले हैं
तम-प्रकाश में उंचाईयों से नहीं डरते हम
झिलमिलाती रोशनियों में निडर होकर उड़े हैं
सुन्दर जीवन
रंगों में मनमोहक संसार बसा है
पंछियों के मन में नेह रमा है
मन ही मन में बात करें देखो
सुन्दर जीवन का रंग रचा है
बालपन की मस्ती
बालपन की मस्ती है, अपनी पतंग छोड़ेगे नहीं
डालियाॅं कमज़ोर तो क्या, गिरने से डरते नहीं
मित्र हमारे साथ हैं, थामे हाथों में हाथ हैं
सूरज ने बांध ली पतंग, हम उसे छोडे़गे नहीं
बस आस मत छोड़ना
कौन कहता है
कि टूटने से
जीवन समाप्त हो जाता है।
टूटकर धरा में मिलेंगे,
नवीन कोंपल से
फिर उठ खड़े होंगे
फिर पनपेंगे,
फूलेंगे, फलेंगे
बस आस मत छोड़ना।
मेरी सोच
पता नहीं, शायद
मेरी ही सोच कुछ अलग है
इस तरह के चित्र
मुझे हैरान करते हैं
परेशान करते हैं।
कल्पनाओं के संसार में
मैं जी नहीं पाती
और वास्तविकता से
मुॅंह मोड़ कर नहीं जाती।
ऐसे चित्र जब
बार-बार आॅंखों के सामने आते हैं
तो मन मसोस कर रह जाते हैं।
आज कहाॅं पाई जाती है ऐसी नारी
कैसे लिख लेते हैं हम
इन चित्रों को देखकर
बिहारी-पद्मावत-सी शायरी।
मेरे मन में नहीं आते
प्यार-मुहब्बत के विचार
देखकर इन चित्रों का
विचित्र श्रृंगार।
कौन धारण करता है
आजकल ऐसे वस्त्र
और ऐसा हार-श्रृंगार।
मानों किसी फ़ोटो-शूट के लिए
जा रही यह नारी,
अथवा है किसी कलाकार की
अनोखी चित्रकारी,
और उसकी ऐसी मति-मंद
अकल्पनीय सोच
मेरे चिन्तन को,
मुझे बना देती है बेचारी।
ऐसे घट तो आजकल
संग्रहालयों में पाये जाते हैं
और जो वास्तव में कुंओं से
जल भरकर लाते हैं
उनके हाल देखकर
आंखों में आंसू आ जाते हैं।
मोबाईल की माया
आॅंख मूॅंदकर सब ज्ञान मिले, और क्या चाहिए भला
बिन पढ़े-लिखे सब हाल मिले और क्या चाहिए भला
दुनिया पूरी घूम रहे, इसका, उसका, सबका पता रहे
न टिकट लगे, न आरक्षण चाहिए, और क्या चाहिए भला
चिड़ियाॅं रानी
गुपचुप बैठी चिड़ियाॅं रानी
चल कर लें दो बातें प्यारी
कुछ तुम बोलो, कुछ मैं बोलूं
मन की बातें कर लें सारी
तू कोमल नार मैं तेरा प्यार
हाथ जोड़ता हूँ तेरे, तेरी चप्पल टूट गई, ला मैं जुड़वा लाता हूँ
न जा पैदल प्यारी, साईकल लाया मैं, इस पर लेकर जाता हूँ
लोग न जाने क्या-क्या समझेंगे, तू कोमल नार मैं तेरा प्यार
आजा-आजा, आज तुझे मैं लाल-किला दिखलाने ले जाता हूँ
दो पंछी
गुपचुप, छुपछुपकर बैठे दो पंछी
नेह-नीर में भीग रहे दो पंछी
घन बरसे, मन हरषे, देख रहे
साथ-साथ बैठे खुश हैं दो पंछी
नूतन श्रृंगार
इस रूप-श्रृंगार की
क्या बात करें।
नारी के
नूतन श्रृंगार की
क्या बात करें।
नयन मूॅंदकर
हाथ बांधकर
कहाॅं चली।
माथ है बिन्दी
कान में घंटा।
हाथ कंगन सर्पाकार,
सजे आलता,
गल हार पहन
कहाॅं चली।
यह नूतन सज्जा
मन मोहे मेरा,
किसने अभिनव रूप
सजाया तेरा
कौन है सज्जाकार।
नमन करुॅं मैं बारम्बार ।
मेरे साहस से
दया भाव मत दिखलाना।
लड़की-लड़की कहकर मत जतलाना।
बेटियों के अधिकारों की बात मत उठाना।
हो सके तो सरकार को समझाना।
नित नई योजनाएं बनती हैं
उनको कभी तो लागू भी करवाना।
सुना है मैंने नदियों का देश है
एक नदी मेरे घर तक भी ले आना।
बोतलों में बन्द पानी की दुकानें लगी हैं
कभी मेरी गागर का पानी पीकर
अपनी प्यास बुझाना।
कभी तो हमारे साथ आकर
गागर उठवाना।
तुम पूछोगे
स्कूल नहीं जाती क्या
मेरे गांव में भी एक
बड़ा-सा स्कूल खुलवाना।
मेरा चित्र खींच-खींचकर
प्रदशर्नियों में धन कमाते हो,
कभी मेरी जगह खड़े होकर
गागर लेकर,
धूप, छांव, झडी में
नंगे पांव
कुएं तक चलकर जाना।
फिर मेरे साहस से
अपने साहस का मोल-भाव करवाना।
*-*-*-*-*-*
भोर की आस
चिड़िया आई
कहती है
भोर हुई,
उठ जा, भोर हुई।
आ मेरे संग
चल नये तराने गा,
रंगों से
मन में रंगीनीयाँ ला।
चल
एक उड़ान भर
मन में उमंग ला।
धरा पर पाँव रख।
गगन की आस रख।
जीवन में भाव रख।
रात की बात कर
भोर की आस रख।
चल मेरे संग उड़ान भर।
जीवन की नवीन शुरुआत
जीवन के कुछ पल
अनमोल हुआ करते हैं,
बड़ी मुश्किल से
हाथ आते हैं
जब हम
सारे दायित्वों को
लांघकर
केवल अपने लिए
जीने की कोशिश करते हैं।
नहीं अच्छा लगता
किसी का हस्तक्षेप
किसी का अपनापन
किसी की निकटता
न करे कोई
हमारी वृद्धावस्था की चिन्ता
हमारी हँसी-ठिठोली में
न बने बाधा कोई
न सोचे कोई हमारे लिए
गर्मी-सर्दी या रोग,
अब लेने दो हमें
टेढ़ेपन का आनन्द
ये जीवन की
एक नवीन शुरुआत है।
हमारा छोटा-सा प्रयास
ये न समझना
कि पीठ दिखाकर जा रहे हैं हम
तुमसे डरकर भाग रहे हैं हम
चेहरे छुपाकर जा रहे हैं हम।
क्या करोगे चेहरे देखकर,
बस हमारा भाव देखो
हमारा छोटा-सा प्रयास देखो
साथ-साथ बढ़ते कदमों का
अंदाज़ देखो।
तुम कुछ भी अर्थ निकालते रहो
कितने भी अवरोध बनाते रहो
ठान लिया है
जीवन-पथ पर यूँ ही
आगे बढ़ना है
दुःख-सुख में
साथ निभाना है।
बस
एक प्रतीक-मात्र है
तुम्हें समझाने का।
यादों का पिटारा
इस डिब्बे को देखकर
यादों का पिटारा खुल गया।
भूली-बिसरी चिट्ठियों के अक्षर
मस्तिष्क पटल पर
उलझने लगे।
हरे, पीले, नीले रंग
आंखों के सामने चमकने लगे।
तीन पैसे का पोस्ट कार्ड
पांच पैसे का अन्तर्देशीय,
और
बहुत महत्वपूर्ण हुआ करता था
बन्द लिफ़ाफ़ा
जिस पर डाकघर से खरीदकर
पचास पैसे का
डाक टिकट चिपकाया करते थे।
पत्र लिखने से पहले
कितना समय लग जाता था
यह निर्णय करने में
कि कार्ड प्रयोग करें
अन्तर्देशीय या लिफ़ाफ़ा।
तीन पैसे और पचास पैसे में
लाख रुपये का अन्तर
लगता था
और साथ ही
लिखने की लम्बाई
संदेश की सच्चाई
जीवन की खटाई।
वृक्षों पर लटके ,
सड़क के किनारे खड़े
ये छोटे-छोटे लाल डब्बे
सामाजिकता का
एक तार हुआ करते थे
अपनों से अपनी बात करने का,
दूरियों को पाटने का
आधार हुआ करते थे
द्वार से जब सरकता था पत्र
किसी अपने की आहट का
एहसास हुआ करते थे।
. प्रकृति कभी अपना स्वभाव नहीं छोड़ती
बड़ी देर से
समझ पाते हैं हम
प्रकृति
कभी अपना स्वभाव नहीं छोड़ती।
कहते हैं
शेर भूख मर जाता है
किन्तु घास नहीं खाता
और एक बार मानव-गंध लग जाये
तो कुछ और नहीं खाता।
तभी तो
हमारे बड़े-बुज़ुर्ग कह गये हैं
दोस्ती बराबर वालों से करो
गधा भी जब
दुलत्ती मारता है
तो बड़े-बड़ों के होश
गुम हो जाते हैं
और तुम हो कि
जंगल के राजा से
तकरार करने बैठे हो।
क्या यह दृष्टि-भ्रम है
क्या यह दृष्टि-भ्रम है ?
मुझे नहीं दिखती
गहन जलप्लावन में
सिर पर टोकरी रखे
बच्चे के साथ गहरे पानी में
कोई माँ, डूबती-सी।
-
नहीं अनुभव होता मुझे
किसी किशन कन्हैया
नंद बाबा
यशोदा मैया या देवकी का।
-
शायद बहुत भावशून्य हूँ मैं,
आप कह सकते हैं।
-
मुझे दिखती हैं
अव्यवस्थाएँ
महलों में बनती योजनाएँ
दूरबीन से देखते
डूबता-तिरता आम आदमी
बोतलों में बन्द पानी
विमान से बनाते बांध
आकाश से गिरता भोजन।
-
कुछ दिन में आप ही
निकल जायेगा जल
सम्हल जायेगा आम आदमी
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
-
लेकिन बस इतना ध्यान रहे
विभीषिका नाम, स्थान,
समय और काल नहीं देखती।
झोंपड़िया टूटती हैं
तो महल भी बिखर जाते हैं।
वास्तविकता और कल्पना
सच कहा है किसी ने
कलाकार की तूलिका
जब आकार देती है
मन से कुछ भाव देती है
तब मूर्तियाँ बोलती हैं
बात करती हैं।
हमें कभी
कलाकार नहीं बताता
अपने मन की बात
कला स्वयँ बोलती है
कहानी बताती है
बात कहती है।
.
निरखती हूँ
कलाकार की इस
अद्भुत कला को,
सुनना चाहती हूँ
इसके मन की बात
प्रयास करती हूँ
मूर्ति की भावानाओं को
समझने का।
आपको
कुछ रुष्ट-सी नहीं लगी
मानों कह रही
हे पुरुष !
अब तो मुझे आधुनिक बना
अपने आनन्द के लिए
यूँ न सँवार-सजा
मैं चाहती हूँ
अपने इस रूप को त्यागना।
घड़े हटा, घर में नल लगवा।
वैसे आधुनिकाओं की
वेशभूषा पर
करते रहते हो टीका-टिप्पणियाँ,
मेरी देह पर भी
कुछ अच्छे वस्त्र सजाते
सुन्दर वस्त्र पहनाते।
देह प्रदर्शनीय होती हैं
क्या ऐसी
कामकाजी घरेलू स्त्रियाँ।
गांव की गोरी
क्या ऐसे जाती है
पनघट जल भरन को ?
हे आदमी !
वास्तविकता और अपनी कल्पना में
कुछ तो तालमेल बना।
समझ नहीं पाती
क्यों ऐसी दोगली सोच है तुम्हारी !!
धन्यवाद देता हूँ ईश्वर को
मेरी खुशियों को
नज़र न लगे किसी की
धन्यवाद देता हूँ
ईश्वर को
मुझे वनमानुष ही रहने दिया
इंसान न बनाया।
न घर की चिन्ता
न घाट की
न धन की चिन्ता
न आवास की
न जमाखोरी
न धोखाधड़ी, न चोरी
न तेरी न मेरी
न इसकी न उसकी
न इधर की, न उधर की
न बच्चे बोझ
न बच्चों पर बोझ
यूँ ही मदमस्त रहता हूँ
अपनी मर्ज़ी से
खाता-पीता हूँ
मदमस्त सोता हूँ।
ईष्र्या हो रही है न मुझसे
धुआँ- धुआँ ज़िन्दगी
कुछ चेतावनियों के साथ
बेहिचक बिकता है
कोई भी, कहीं भी
पी ले
सुट्टा ले
हवा ले और हवाओं में ज़हर घोले
पूर्ण स्वतन्त्र हैं हम।
शानौ-शौकत का प्रतीक बन जाता है।
कहीं गम भुलाने के लिए
तो कहीं सर-दर्द मिटाने के लिए
कभी दोस्ती के लिए
तो कभी
देखकर मन ललचाता है
कुछ आधुनिक दिखने की चाहत
खींच ले जाती है
एकान्त में, छिपकर
फिर दिखाकर
और बाद में अकड़कर।
और जब तक समझ आता है
तब तक
धुआँ- धुआँ हो चुकी होती है ज़िन्दगी।
ज़िन्दगी के गीत
ज़िन्दगी के कदमों की तरह
बड़ा कठिन होता है
सितार के तारों को साधना।
बड़ा कठिन होता है
इनका पेंच बांधना।
यूँ तो मोतियों के सहारे
बांधी जाती हैं तारें
किन्तु ज़रा-सा
ढिलाई या कसाव
नहीं सह पातीं
जैसे प्यार में ज़िन्दगी।
मंद्र, मध्य, तार सप्तक की तरह
अलग-अलग भावों में
बहती है ज़िन्दगी।
तबले की थाप के बिना
नहीं सजते सितार के सुर
वैसे ही अपनों के साथ
उलझती है जिन्दगी
कभी भागती, कभी रुकती
कभी तानें छेड़ती,
राग गाती,
झाले-सी दनादन बजती,
लड़ती-झगड़ती
मन को आनन्द देती है ज़िन्दगी।
ताकता रह जाता है मानव
लहरें उठ रहीं
आकाश को छूने चलीं
बादल झुक रहे
लहरों को दुलारते
धरा को पुकारते।
गगन और धरा पर
जल और अनिल
उलझ पड़े
बदरी रूठ-रूठ उमड़ रही
रंग बदरंग हो रहे
कालिमा घिर रही
बवंडर उठ रहे
ताकता रह जाता है मानव।
उठ बालिके उठ बालिके
सुनसान, बियाबान-सा
सब लगता है,
मिट्टी के इस ढेर पर
क्यों बैठी हो बालिके,
कौन तुम्हारा यहाँ
कैसे पहुँची,
कौन बिठा गया।
इतनी विशाल
दीमक की बांबी
डर नहीं लगता तुम्हें।
द्वार बन्द पड़े
बीच में गहरी खाई,
सीढ़ियाँ न राह दिखातीं
उठ बालिके।
उठ बालिके,
चल घर चल
अपने कदम आप बढ़ा
अपनी बात आप उठा।
न कर किसी से आस।
कर अपने पर विश्वास।
उठ बालिके।
जीवन की डोर पकड़
पुष्प-पल्लवविहीन वृक्षों का
अपना ही
एक सौन्दर्य होता है।
कुछ बिखरी
कुछ उलझी-सुलझी
किसी छत्रछाया-सी
बिना झुके,
मानों गगन को थामे
क्षितिज से रंगीनियाँ
सहेजकर छानतीं,
भोर की मुस्कान बाँटतीं
मानों कह रही
राही बढ़े चल
कुछ पल विश्राम कर
न डर, रह निडर
जीवन की डोर पकड़
राहों पर बढ़ता चल।
जीना चाहती हूँ
पीछे मुड़कर
देखना तो नहीं चाहती
जीना चाहती हूँ
बस अपने वर्तमान में।
संजोना चाहती हूँ
अपनी चाहतें
अपने-आपमें।
किन्तु कहाँ छूटती है
परछाईयाँ, यादें और बातें।
उलझ जाती हूँ
स्मृतियों के जंजाल में।
बढ़ते कदम
रुकने लगते हैं
आँखें नम होने लगती हैं
यादों का घेरा
चक्रव्यूह बनने लगता है।
पर जानती हूँ
कुछ नया पाने के लिए
कुछ पुराना छोड़ना पड़ता है,
अपनी ही पुरानी तस्वीर को
दिल से उतारना पड़ता है,
लिखे पन्नों को फ़ाड़ना पड़़ता है,
उपलब्धियों के लिए ही नहीं
नाकामियों के लिए भी
तैयार रहना पड़ता है।