न्याय अंधा होता है या बहरा

जान नहीं पाई आज तक

न्याय अंधा होता है

या बहरा।

लेकिन इतना जानती हूॅं

कि परिधान बदलने से

स्वभाव नहीं बदल जाता,

आंखों से पट्टी हटने से

न्याय का मार्ग सुगम नहीं होता।

हम सीधे-सादे लोग

बड़ी जल्दी

कुछ गलतफ़हमियों में

फ़ंस जाते हैं।

मूर्ति की आंखों से

पट्टी क्या हटी

सोचने लगे

अब तो न्याय की गंगा बहेगी।

हर दिन पवित्र स्नान होगा

और हम न्याय के जल से

आचमन करेेंगे।

अब पट्टी न्याय की थी

अथवा अन्याय की

यही समझ न सकी।

न्याय कैसा होता है

किसके लिए होता है

और किस रास्ते से होता है

वही समझ सकता है

जिसने न्याय की आस में

कभी जीवन के सालों-साल

बरबाद किये हों।

न्याय की देवी के

नये स्वरूप के लिए

करोड़ों-करोड़ों रुपये लगे होंगें,

किन्तु हर आम आदमी

आज भी

अपना अधिकार पाने के लिए

न्यायालय के दरबार में

अपनी जमा-पूंजी लुटाता

वैसे ही भटक रहा है

जैसे मूर्ति के नये स्वरूप से पहले

भटका करता था।

वह नहीं देख-समझ पाता

कि मूर्ति का रूप बदलने मात्र से

न्याय का रूप कैसे बदल सकता है।

ंकैसे लाखों निरपराध

एक दिन की सुनवाई के लिए

सालों-साल कारागार में काट देते हैं

और कैसे घोषित अपराधी

समाज में जीवन साधिकार बिता लेते हैं।

काश! मूर्ति के नये स्वरूप के साथ

न्याय की प्रक्रिया भी कुछ बदलती,

तारीखें न मिलकर

न्याय की आस मिलती,

उसे मूर्तियॉं नहीं दिखती

दिखती है तो मिटती आस,

विलम्बित न्याय

जो अक्सर

अन्याय से भी बुरा होता है।