आधुनिकता की दौड़
आधुनिकता की दौड़ में
कौन कहाॅं तक जा पहुॅंचा
नहीं जान पाते हैं हम।
धरा बची नहीं
गगन छूते भवन
आॅंख देख पाती नहीं।
हवाओं में ज़िन्दगी नहीं
मौत आने लगी है
न जाने कैसे जीने लगे हैं हम।
धुॅंआ -धुॅंआ हो रही ज़िन्दगी
न जाने किन खयालों में
खोने लगे हैं हम।
दरकते पर्वतों को
चीर-चीर
राहें बना रहे
और उन्हीं राहों पर
ज़िन्दगियाॅं गॅंवा रहे हैं हम।
कचरे के पर्वतों पर जी रहे,
जल-प्लावन
और सूखे की मार
झेल रही
सदानीरा नदियाॅं
कचरे का अम्बार बना रहे हैं हम।
चेहरों पर आवरण किये
अपने-आपसे ही मुॅंह छुपा रहे हैं हम।