पीड़ा का मर्म
कौन समझ सकता है
पीड़ा के मर्म को
मुस्कानों, हॅंसी
और ठहाकों के पीछे छिपी।
देखने वाले कहते हैं
इतनी ज़ोर से हॅंसती है
आॅंखों से आॅंसू
बह जाते हैं इसके।
-
काश!
ऐसे हम भी होते।
-
मैं कहती हूॅं
अच्छा है
आप ऐसे नहीं हैं।
कौन समझ सकता है
पीड़ा के मर्म को
मुस्कानों, हॅंसी
और ठहाकों के पीछे छिपी।
देखने वाले कहते हैं
इतनी ज़ोर से हॅंसती है
आॅंखों से आॅंसू
बह जाते हैं इसके।
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काश!
ऐसे हम भी होते।
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मैं कहती हूॅं
अच्छा है
आप ऐसे नहीं हैं।