मैं डा.कविता सूद, शिमला से। मेरी आयु केवल 22 वर्ष। ( बस तीन बार) ।
एक लम्बे जीवन का अनुभव आज आप सबके सामने।
मेरा छोटा-सा, प्यारा-सा परिवार। हम चार। दो शरारती तत्व, एक भोले भगवान। बेटा उज्जवल सूद, बहू आंचल सूद और पति हेमन्त कुमार: सुबह अलग भजन, संध्या समय अलग और मैं इन सबके बीच चक्करघिन्नी। बेटा-बहू आई. टी. में और पति वायु-सेना से सेवा-निवृत्त।
और अब एक पोती धारा हम सबकी जीवन धारा।
अब लौटती हूं 65 वर्ष पीछे।
माता-पिता और छः भाई-बहनों के साथ बीता बचपन। शिमला की पहाड़ियों में कूदते-फांदते, जीवन का आनन्द लेते, कब स्कूल से निकलकर, काॅलेज पहुंची, फिर हिन्दी में एम. ए., एम.फ़िल, पी. एच. डी., सितार में संगीत विशारद कर ली, जान ही नहीं पाई।
हिन्दी में आरम्भ से ही रूचि बन गई थी। मंच पर माईक पकड़कर बोलना बचपन से ही अच्छा लगता था। भाषण प्रतियोगिताओं में खूब हिस्सा लिया करती थी। विद्यालय स्तर पर पाठ्य-पुस्तकों से कविताएं स्मरण करके सुनाया करती थी।
इसी मंच से मुझे आकाशवाणी शिमला की राह मिली। छोटे-छोटे कार्यक्रम, परिचर्चाओं में हिस्सा लेने लगी। आकाशवाणी से सीधा प्रसारण। यह कार्यक्रम समाचार कक्ष तक ले गये। लगभग सात वर्ष कैजुअल आर्टिस्ट के रूप में कार्य किया।
परिवार में पढ़ाई का वातावरण था ही, पढ़ती चली गई।
‘‘मध्यकालीन कलाओं में अन्तरवलम्बन’’ विषय पर पी.एच.डी करते समय अध्ययन को विस्तार मिला और सीखने का दायरा बढ़ा। पढ़ने में रूचि तो थी ही, हिन्दी भाषा और साहित्य सदैव आकर्षित करता था। उस समय के पाठ्यक्रम एवं अन्य चर्चित साहित्यकारों की अनेक पुस्तकें मेरे पास आज भी संग्रहीत हैं। मेरे पास अपनी आठवीं कक्षा अर्थात 1968 की पाठ्यक्रम की हिन्दी की पुस्तक आज भी है, और उसके बाद की तो सभी पुस्तकें मेरे छोटे से संग्रहालय में हैं। यहां तक कि मेरे पिता और दादा की 1902 की पुस्तकें भी मेरे पास हैं।
पहली कविता मैंने शायद 1972 में लिखी थी। तब कभी -कभी कविताएं लिखती थी। फिर कुछ साहित्यिक समूह बने, कवि-गोष्ठियों, कवि-सम्मेलनों की राहें खुलीं और लेखन का दायरा बढ़ने लगा। कविताओं के साथ-साथ कहानियां, व्यंग्य, आलेख आदि भी लिखने लगी ।
पहले कुछ स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन का अनुभव मिला, फिर कुछ कविताएं अन्यत्र भी प्रकाशित होने लगीं। मधुमती, इरा, हंस, मधुमती, हिमप्रस्थ, विपाशा, इरावती, सरिता, सम्मेलन पत्रिका, रूचिर, संगीत, अपूर्व जनगाथा, नवभारत टाईम्स, दैनिक भास्कर,अमर उजाला, जनसत्ता जैसी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में केवल कविताएं ही नहीं, विचारात्मक सामाजिक आलेख, व्यंग्य, कहानियां, शोध-पत्र भी प्रकाशित हुए।
इस बीच आत्मनिर्भरता की चाह मुझे बैंक में ले गई। यहां बैंक के हिन्दी कक्ष ने मेरे लिए हिन्दी लेखन का मार्ग उन्मुक्त किया। यह एक नया परिवार था। प्रति-दिन नये लोग, नये अनुभव, जीवन को गति प्रदान करतेे रहे, और मैं आगे बढ़ती रही।
32 वर्ष की आयु में किसी ने पूछा शादी करोगी मुझसे, मैंने कहा कर लूंगी। और इस तरह हेमन्त कुमार मेरे जीवन में आये और यहां से जीवन का पुनः एक नया अध्याय आरम्भ हुआ।
जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं, आते रहे। घटनाओं-दुर्घटनाओं के बीच जीवन फिर बदला। हमारे जीवन में एक बहुत बड़ा शून्य आया। 2000 में बैंक से त्याग-पत्र। 2003 में भवन विद्यालय में लेखाकार । फिर एक नया परिवार, जो आज भी मेरे साथ है।
किन्तु इन सबके साथ और इन सबसे अलग लेखन; विशेषकर कविताएं लिखना मेरा अपना एक परिवार है जो मेरे भीतर अवस्थित है, जो केवल मेरा अपना है। यहां एकाकीपन मुझे भाता है। कविताएं मुझे अपने-आप से जोड़ती हैं, आनन्द देती हैं, आत्म-सन्तोष प्रदान करती हैं। मेरे भीतर के अनभिव्यक्त को अभिव्यक्त करने में मुझे समर्थ करती हैं, मुझे जिजीविषा प्रदान करती हैं।
2000 से 2011 तक मेरे लेखन का शून्यकाल था। और शायद जीवन का भी। 2012 में बेटे ने हमारे कंधे पर हाथ रखा और ज़िन्दगी उठ खड़ी हुई ।
2012 में फ़ेसबुक मेरे लेखकीय जीवन में जीवनदायिनी बनकर आई। फ़ेसबुक पर चल रहे अनेक साहित्यिक समूहों की सदस्य बनी और लेखन को मानों एक नई दिशा मिली। यहां एक पूरा साहित्यिक संसार बसता है जहां बस हमें चलना और समझना है।
अपने बारे में क्या लिखूं। डा. रघुवीर सहाय के शब्दों में ‘‘बहुत बोलने वाली, बहुत खाने वाली, बहुत सोने वाली‘‘। खाना बनाना और खूब खाना मुझे अच्छा लगता है। नैट पर ताश खेलने का चस्का है जो छूटता नहीं। बनते-बिगड़ते, स्वार्थ-आधारित सम्बन्धों का कटु अनुभव। इस कारण स्वभाव में भी एक कड़वाहट, तीखापन, कटुता है और रचनाओं में भी। सहनशक्ति की कमी है। मेरे स्वभाव में एक स्पष्टवादिता है, जिसे बड़बोलापन कहा जाता है, सम्भवतः इन्हीं कारणों से जीवन में मित्रों का अभाव है। मेरी यह शैली मेरी रचनाओं में नकारात्मकता तक जा पहुंचती है।
कुछ चुभता है तब भी कविता बनती है, आनन्द मिलता है तब भी कविता बनती है। बरसात भी लिखने के लिए प्रेरित करती है और पतझड़ भी। आंसू और मुस्कान सब साथ-साथ चलते हैं। चोट कहीं और लगती है, रिसाव कहीं और होता है। कविता कब क्या कह दे, कभी -कभी स्वयं भी समझ नहीं पाते।