माॅं की अॅंगूठी

अंगुलियों से ज़्यादा

माॅं के पल्लू में

बंधी देखी है हमने

माॅं की अनमोल छोटी-सी अॅंगूठी।

बस

एक ही अॅंगूठी

तो हुआ करती थी

उसके पास।

किसी सौन्दर्य का प्रतीक नहीं थी

माॅं के लिए वह अॅंगूठी,

स्वर्ण का मोह भी नहीं

किन्तु अनमोल थी उसके लिए।

जब कभी पूछा माॅं से

अॅंगुली से उतारकर

पल्लू में क्यों बाॅंध लेती हो

अपनी अॅंगूठी।

सहज उत्तर होता था उसका

काम करते हुए

खराब हो जाती है,

बर्तन मांजते

बर्तनों की रगड़ से 

घिस जाती है,

आटा-मिट्टी, मसाले फॅंस जाते हैं

स्वर्ण की किंकरी गिर जाती है,

ऐसा कहती थी माॅं।

स्वर्ण बहुत मॅंहगा होता है ,

बहुत अनमोल।

हम छू-छूकर देखते थे

और माॅं हॅंस देती थी

लेकिन कभी भी हमारे हाथ नहीं देती थी।

बस रात को सोते समय

पल्लू से खोलकर

पहन लेती थी

और प्रातः उठते ही फिर पल्लू में

चली जाती थी।