प्रकृति का सौन्दर्य निरख
सांसें
जब रुकती हैं,
मन भीगता है,
कहीं दर्द होता है,
अकेलापन सालता है।
तब प्रकृति
अपने अनुपम रूप में
बुलाती है
समझाती है,
देख, रंगों की महक देख
बदलते रंगों की चहक देख
रंगोें में एकमेक भाव देख
जल की तरलता देख
ठहरे जल में प्रतिबिम्ब देख।
प्रतिबिम्बों में सौन्दर्य देख,
देख
डालियां
कैसे
झुक-झुक मन मदमाती हैं।
सब कहती हैं
समय बदलता है।
धूप है तो बरसात भी।
आंधी है तो पतझड़ भी।
सूखा है तो ताल भी।
मन मत हो उदास
प्रकृति का सौन्दर्य निरख।
आनन्द में रह।
आंसुओं के निशान
आॅंख से बहता पानी
उतना ही खारा होता है
जितना सागर का पानी।
उतनी ही गहराई होती है
जैसी सागर में।
आॅंखों के भीतर भी
उठती हैं उत्ताल तरंगें,
डूबते हैं भाव,
कसकती हैं आशाएॅं, इच्छाएॅं।
कोरों पर जमती है काई,
भीतर ही भीतर
उठते हैं बवंडर,
भंवर में डूब जाते हैं
न जाने कितने सपने।
बस अन्तर इतना ही है
कि सागर का पानी
कभी सूखता नहीं,
चिन्ह रेत पर छोड़ता नहीं,
मिलते हैं माणिक-मोती
सुच्चे सीपी-शंख।
लेकिन आॅंख का पानी
जब-जब सूखता है
तब-तब भीतर तक
सागर भर-भर जाता है,
लेकिन
फिर भी
देता है शुष्कता का एहसास
और अपने पीछे छोड़ जाता है
अनदेखे जीवन भर के निशान।
फटी चादर
एक बड़ी पुरानी कहावत है
जितनी चादर हो
उतने ही पैर पसारने चाहिए।
नई बात यह कि
अपने पैरों को देखो
बड़े हो गये हों
तो नई चादर लेने की औक़ात बनाओ।
कब तक
पुरानी चादर
और पुराने मुहावरों को
जीते रहोगे।
ज़िन्दगी ऐसे नहीं चलती।
लेकिन उस दिन का क्या करें
जब चादर
न छोटी थी, न बड़ी
पता नहीं
कहाॅं-कहाॅं से फ़टी थी।
अपने लिए,
हम अपने-आप,
चादर कहाॅं खरीद पाते हैं
या तो पूर्वजों से मिलती है
उस पर पैर पसारते रहते हैं
अथवा हमारी अगली पीढ़ी
हमें चादर उढ़ा जाती है
जो हमारी पहुॅंच से
बहुत बाहर होती है।
फिर चादर में
पैर आते हैं या नहीं
छोटी है या बड़ी
फटी है या रेशमी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता यारो।
बस एक चादर होती है।
सावन में माॅं के ऑंगन में
सावन में मॉं के ऑंगन में
नेह बरसता था
भीग-भीग जाते थे हम।
बूॅंदों को हाथों में थामे
खेल-खेल में
मॉं का ऑंचल
भिगो जाते थे हम।
मॉं पल्लू छिटकाकर
झाड़ देती थीं बूॅंदों को
मॉं की मीठी-सी झिड़की से
सराबोर हो जाते थे हम।
तारों पर लटकी बूॅंदों को
चाट-चाट पी जाते थे हम।
भीगी चिड़ियॉं
पानी से चोंच लड़ातीं,
पंख छिटक-छिटक कर
बूॅंदें बिखेरतीं
उनकी इस हरकत से
हॅंस-हॅंस
लोट-पोट हो जाते थे हम।
चिड़ियों के पीछे-पीछे भागें,
उन्हें सतायें
न दाना खाने दें,
न पानी पीने दें,
मॉं से डॉंट खाकर
सारा घर गीला कर
छुप जाते थे हम।
मॉं पकड़-पकड़कर बाल सुखाती
उसकी गोदी में
सिर रखकर सो जाते थे हम।
ज़िन्दगी बोझ नहीं लगती
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
ज़िन्दगी को बोझ नहीं मानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने साथ
अपने-आप जीना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने लिए जीना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपनी बात
अपने-आपसे कहना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों से अपेक्षाएॅं नहीं करते जाते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
एक के बदले चार की
चाहत नहीं रखते हैं
प्यार की कीमत नहीं मॉंगते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों को उतना ही समझते हैं
जितना हम चाहते हैं
कि वे हमें समझें।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने-आप पर हॅंसना जानते हैं।
ज़िन्दगी तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने-आप पर
हॅंसना और रोना नहीं जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
रो-रोकर अपने-आपको
अपनी ज़िन्दगी को
कोसते नहीं रहते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों की ज़िन्दगी देख-देखकर
ईर्ष्या से मर नहीं जाते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
मन में स्वीरोक्ति का भाव नहीं लाते हैं।
कुछ तो बदल गया है
आजकल
लिखते-लिखते
अक्सर हाथ रुक जाते हैं,
भाव बहक जाते हैं।
शब्द वही हैं
भाषा वही है
पर पता नहीं क्यों
अर्थ बदल जाते हैं।
मीठा बोलते-बोलते
वाणी में न जाने कैसे
कटुता आ जाती है
और शब्द
कहीं दूर भाग जाते हैं।
मैं बदल गई हूॅं या तुम
या यह दुनिया
समझ नहीं पाई,
सब बदले-बदले-से लगते हैं।
प्यार कहो
तो तिरस्कार का एहसास होता है।
अपनापन जताओ तो
दूरियों का भाव आता है,
सम्मान की बात सुनकर
अपमान का एहसास
क्यों आता है।
शब्द वही हैं, भाषा वही है
पर कुछ तो बदल गया है।
विघ्नहर्ता गणेश
लाखों नहीं
करोड़ों की संख्या में
विराजते हैं आप
हर वर्ष हमारे घरों में
आदरणीय गणेश जी।
दस दिन बाद
आपका विसर्जन कर
पुकारते हैं
अगले वर्ष जल्दी आना।
विसर्जित भी करते हैं
और चाहते हैं
कि आप पुनः-पुनः
हमारे घर पधारें
हर वर्ष पधारें।
गणेश जी के मूर्त रूप को तो
तिरोहित कर देते हैं
किन्तु उनका अमूर्त रूप
क्या रख पाते हैं हम
अपने भीतर,
अथवा केवल
पूजा-अर्चना में ही
याद आती है उनकी।
मूर्तियाॅं तिरोहित करें
किन्तु विघ्नहर्ता गणेश जी को
अपने भीतर ही रखें।
नये भाव देती है ज़िन्दगी
भॅंवर-भॅंवर घूमती है ज़िन्दगी
जल में ही नहीं
हवाओं में भी परखती है ज़िन्दगी।
चक्र घूमता है,
चक्रव्यूह रोकता है
हर दिन नये भाव देती है ज़िन्दगी।
शांत जल में बह रही नाव
कब भॅंवर में फंसेगी
कहाॅं बता पाती है ज़िन्दगी।
रंग भी बदलते हैं,
ढंग भी बदलते हैं
हवाओं के रुख भी बदलते हैं।
नहीं सम्हाल पाता है खेवट
जब भावनाओं के भॅंवर में
फ़ंसती है ज़िन्दगी।
शायद कुछ बदले
इधर ग्रीष्म से उद्वेलित थे
उधर धूल ने चादर तान दी
हवाएं कहीं घुट रहीं
यूं तो दिन की बात थी
पर सूरज ने आंख मूंद ली
मन धुंआ-धुंआ-सा हो रहा
न पता दे कोई
कि घटाएं हैं जो बरसेंगी
या सांस रोकेगा धुंआ।
मन में कुछ घुटा-घुटा।
फिर तेज़ आंधी ने
सन्नाटा तोड़ा
धूम-धड़ाका, बिजली कौंधी,
कहीं बादल बरसे,
कहीं धूल उड़ी, कहीं धूल अटी
पर प्रात में, हर बात में
धूल अटी थी,
झाड़-झाड़ कर हार गये।
फिर बरसेगा पानी
तब शायद कुछ बदले।
ज़िन्दगी देती सबक है
सुना है
ज़िन्दगी देती सबक है
मुझे कुछ ज़्यादा ही दे दिया।
मांगा कुछ था
भेज कुछ और दिया।
न जाने किस-किससे
मेरा पार्सल बदल दिया।
कीमत वसूलने में
ज़रा भी ढील नहीं की
सामान बहुत हल्का भेज दिया।
दाना-दाना बिखर गया
न समेट सकी
शिकायत कक्ष भी
बन्द कर दिया,
उल्टे मुझे ही कटघरे में
खड़ा कर दिया।
द्वार उन्मुक्त किये बैठे हैं
मन में
आँगन का भाव लिए बैठे हैं।
घर छोटे हैं तो क्या,
मन में सद्भाव लिए बैठे हैं।
समय बदल गया
न आँगन रहा, न छत रही,
पर छोटी-छोटी खिड़कियों से
आकाश बड़ा लिए बैठे हैं।
दूरियाॅं शहरों की हैं,
पर मन में अपनेपन का
भाव लिए बैठे हैं।
मिलना-मिलाना नहीं ज़रूरी
दुख-सुख में आने-जाने की
प्रथा बनाये बैठे हैं।
आंधी, बादल, बिजली, बरसात
तो आनी-जानी है,
छत्र-छाया-से हाथ मिलाये बैठे हैं।
न कोई बन्धन, न ताले
जब चाहे आओ
द्वार उन्मुक्त किये बैठे हैं।
अपनी खुशियों को संभालकर रखा कीजिए
अपनी संवेदनाओं को
अपनी नाराज़गियों को
अपनी खुशियों को
संभालकर रखा कीजिए,
बस अपने भीतर
पचाकर रखिए।
किसी अतिथि आगमन पर
डाईनिंग टेबल पर
डोंगों में, प्लेट में
कांटे-छुरी के साथ
मत परोस दीजिए,
खाएंगे, पीयेंगे,
मोटी-सी डकार लेंगे
और सारी दुनिया में
कसैली हवा भर देंगे।
ऐसी ही है ज़िन्दगी
पौधे भी बड़े अजीब हुआ करते हैं
कुछ सदाबहार
कुछ मौसमी और कुछ
अपने मन से जिया करते हैं।
जब चाहा खिल जाते हैं
जब चाहा मुॅंह छुपाकर
बैठ जाते हैं।
किसी को
प्रतिदिन, ढेर-सा पानी चाहिए
कोई बंजर-सी भूमि में ही
खिल-खिल जाते हैं।
कई बिना फूलों के ही
मुस्कुरा-मुस्कुराकर
दिल मोह ले जाते हैं।
कोई
दिन की चाहत लिए खिलता है
और कोई
रात में गुनगुनाहट बिखेरता है
कहीं झर-झर-झरते पल्ल्व
रंग-बिरंगी दुनिया
सजा जाते हैं।
कहीं ज़रा-सा बीज बोते ही
आकाश छू जाते हैं
और कई सालों-साल लगा देते हैं।
धरा का मोह छूटता नहीं
गगन की आस छोड़ता नहीं।
ऐसी ही है ज़िन्दगी।
अच्छा लगता है भूलना
ज़िन्दगी
कोई छपी हुई
चित्र-कथा तो नहीं
कि जब चाहा
स्मृतियों के पृष्ठ
उलट-पुलट लिए
और पढ़ते रहे
अगला-पिछला।
समस्या यह
कि जो भूलना चाहते हैं
वह तो
स्मृति-पटल पर
पत्थरों पर कुरेदी गई
लिपि-सा रह जाता है
और जो याद रहना चाहिए
वह रेत पर फैले शब्दों-सा
बिखर-बिखर जाता है।
लेकिन फिर भी
अच्छा लगता है भूलना
ज़िन्दगी मे बहुत कुछ,
चाहे सारी दुनिया कहे
बुढ़ा गये हैं ये
इन्हें
अब कुछ याद नहीं रहता।
जीवन के राज़
जिन्हें हम जीवन में
राज़ बनाये रखना चाहते हैं
वे ही सबसे ज़्यादा
चर्चित विषय रहते हैं।
मेरा सुख-दुख
मेरी पसन्द-नापसन्द
मेरी चिन्ताएॅं, मेरी अर्हताएॅं,
मेरी विवशताएॅं,
कहाॅं रह पाती हैं मेरी।
न जाने कैसे
मेरे अन्तर्मन से निकलकर
सारे जहाॅं में
चर्चा का विषय बन जाते हैं।
डरती नहीं
पर विश्वस्त भी नहीं रह पाती,
इस कारण
अपनी बात
अपने-आप से ही
नहीं कर पाती।
आसमान में छेद
पता नहीं कौन शायर कह गया
आसमां में छेद क्यों नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछाला होता यारो ।
पता नहीं किस युग का था वह शायर।
उछालकर देखा था क्या उसने कभी पत्थर।
बड़ा काम तो हम ज़िन्दगी में
कभी कर नहीं पाये
सोचा, चलो आज कुछ नया करते हैं
उस शायर की इच्छा पूरी करते हैं।
एक क्यों,
तबीयत से कई पत्थर उछालते हैं,
आसमान में एक नहीं
अनेक छेद करते हैं।
पर शायद
युग बदल गया था
या हमें
पत्थर उछालने का
तरीका पता नहीं था
हमने तो अभी बस
एक ही पत्थर उठाया था
उछालने की नौबत भी नहीं आई थी
सैंकड़ों पत्थर लौट आये हमारे पास।
लगता है
उस शायर का शेर
सबने पसन्द कर लिया है
और हमारी तरह
सभी पत्थर उछालने में लगे हैं
और हम तो
अपना ही सिर फोड़ने में लगे हैं।
अपनी-अपनी कयामत
किसी दिन।
आसमान टूट पड़े
धरती हिल जाये
सागर उफ़न पड़े
दुनिया डूबने लगे
शायद
इसे ही कहते हैं न कयामत।
नहीं रे !!
सबकी ज़िन्दगी की
अपनी-अपनी कयामत भी होती है।
न आसमान गिरता है
न धरा फ़टती है
न सागर सूखता है
फिर भी
आ जाती है कयामत।
कोई एक बात,
कोई एक शब्द, एक चुटकी,
एक कसक,
कोई नाराज़गी,
कुछ दूरियाॅं
कोई मन-मुटाव,
आॅंख-भर का इशारा
और हो जाती है कयामत।
जीवन पथ
जीवन पथ की क्या बात करें
कुछ कंकड़, कुछ पत्थर,
कुछ फूल बिछे, कुछ कांटे उलझे।
पग-पग पर थी बाधाएॅं
पग-पग पर द्वार उन्मुक्त मिले।
वादों की, बातों की धूम रही,
कुछ निभ गये, कुछ छूट गये।
अपनों की अपनों से बात हुई
कभी मन मिला, कभी बिखर गये।
जीवन तो चलता ही रहता है
कभी रुकते-रुकते, कभी भाग लिये।
कब कौन मिला, कितने छूट गये
याद नहीं अब, कितना तो भूल गये।
कितने कागज़ रंगीन हुए
कितनों पर स्याही बिखर गई,
कभी कुछ भी न लिख पाने की पीर हुई।
उलझी, बिखरी, खट्टी-मीठी
जैसी भी हैं
सब अपनी हैं,
टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर गईं।
कहते हैं
हाथों की रेखाओं में
भाग्य लिखा रहता है
मुट्ठियां खोलीं
तो उलझी-उलझी सी महसूस हुईं।
कितने दिन बाकी हैं,
कितने बीत गये
सोच-सोचकर नहीं सोचती,
पर मन पर हावी हो गये।
खुशियों के पल
खुशियों के पल
बड़े अनमोल हुआ करते हैं।
पर पता नहीं
कैसे होते हैं,
किस रंग,
किस ढंग के होते हैं।
शायद अदृश्य
छोटे-छोटे होते हैं।
हाथों में आते ही
खिसकने लगते हैं
बन्द मुट्ठियों से
रिसने लगते हैं।
कभी सूखी रेत से
दिखते हैं
कभी बरसते पानी-सी
धरा को छूते ही
बिखर-बिखर जाते हैं।
कभी मन में उमंग,
कभी अवसाद भर जाते हैं।
पर कैसे भी होते हैं
पल-भर के भी होते हैं
जैसे भी होते हैं
अच्छे ही होते हैं।
मेरी ज़िन्दगी की हकीकत
क्या करोगे
मेरी ज़िन्दगी की हकीकत जानकर।
कोई कहानी,
कोई उपन्यास लिखना चाहोगे।
नहीं लिख पाओगे
बहुत उलझ जाओगे
इतने कथानक, इतनी घटनाएॅं
न जाने कितने जन्मों के किस्से
कहाॅं तक पढ़ पाओगे।
एक के ऊपर एक शब्द
एक के ऊपर एक कथा
नहीं जोड़-तोड़ पाओगे।
कभी देखा है
जब कलम की स्याही
चुक जाती है
तो हम बार-बार
घसीटते हैं उसे,
शायद लिख ले, लिख ले,
कोरा पृष्ठ फटने लगता है
उस घसीटने से,
फिर अचानक ही
कलम से ढेर-सी स्याही छूट जाती है,
सब काला,नीला, हरा, लाल
हो जाता है
और मेरी कहानी पूरी हो जाती है।
ओ नादान!
न समझ पाओगे तुम
इन किस्सों को।
न उलझो मुझसे।
इसलिए
रहने दो मेरी ज़िन्दगी की हकीकत
मेरे ही पास।
ये आंखें
ज़रा-ज़रा-सी बात पर बहक जाती हैं ये आंखें।
ज़रा-ज़रा-सी बात पर भर आती हैं ये आंखें।
मुझसे न पूछना कभी
आंखों में नमी क्यों है,
इनकी तो आदत ही हो गई है,
न जाने क्यों
हर समय तरल रहती हैं ये आंखें।
अच्छे-बुरे की समझ कहाॅं
इन आंखों को
बिन समझे ही बरस पड़ती हैं ये आंखें।
पता नहीं कैसी हैं ये आंखें।
दिल-दिमाग से ज़्यादा देख लेती हैं ये आंखें।
जो न समझना चाहिए
वह भी न झट-से समझ लेती हैं ये आंखें।
बहुत कोशिश करती हूॅं
झुकाकर रखूॅं इन आंखों को
न जाने कैसे खुलकर
चिहुॅंक पड़ती हैं ये आंखें।
किसी और को क्या कहूॅं,
ज़रा बचकर रहना,
आंखें तरेरकर
मुझसे ही कह देती हैं ये आंखें।
फूल खिलाए उपवन में
दो फूल खिलाए उपवन में
उपवन मेरा महक गया
.
फूलों पर तितली बैठी
मन में एक उमंग उठी
.
कुछ पात झरे उपवन में
धरा खुशियों से बहक उठी
.
कुछ भाव बने इकरार के
मन मेरा बिखर गया
.
सपनों में मैं जीने लगी
अश्रुओं से सपना टूट गया
.
कोई झाॅंक न ले मेरी आंखों में
आॅंखों को मैंने मूॅंद लिया।
.
कोई प्यार के बोल बोल गया
मानों जीवन में विष घोल गया।
.
जीवन का सबसे बड़ा झूठ लगा
कोई रिश्तों में मीठा बोल गया
मुस्कुराते हुए फूल
किसी ने कहा
कुछ कहते हैं मुस्कुराते हुए फूल।
न,न, बहुत कुछ कहते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
अब क्या बताएॅं आपको
दिल छीन कर ले जाते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
हम तो उपवन में
यूॅं ही घूम रहे थे
हमें रोककर बहुत कुछ बोले
मुस्कुराते हुए फूल।
ज़िन्दगी का पूरा दर्शन
समझा जाते हैं
ये मुस्कुराते हुए फूल।
कहते हैं
कांटों से नहीं तुम्हारा पाला पड़ा कभी
डालियों पर ही नहीं
ज़िन्दगी की गलियों में भी
कांटें छुपे रहते हैं फूलों के बीच।
यूॅं तो कहते हैं
हॅंस-बोलकर जिया करो
फूल-फूल की महक पिया करो,
किन्तु अवसर मिलते ही
चुभा जाते हैं कांटे कितने ही फूल।
चेतावनी भी दे जाते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
झरते हुए फूलों की पत्तियाॅं
मुस्कुरा-मुस्कुरा कर
कहती हैं,
देख लिया हमें
धरा पर मिट रहे हैं,
ध्यान रखना, बहुत धोखा देते हैं
मुस्कुराते हुए फूल।
वक्त के मरहम
कहने भर की ही बात है
कि वक्त के मरहम से
हर जख़्म भर जाया करता है।
ज़िन्दगी की हर चोट की
अपनी-अपनी पीड़ा होती है
जो केवल वही समझ पाता है
जिसने चोट खाई हो।
किन्तु, चोट
जितनी गहरी हो
वक्त भी
उतना ही बेरहम हो जाता है।
और हम इंसानों की फ़ितरत !
कुरेद-कुरेद कर
जख़्मों को ताज़ा बनाये रखते हैं।
पीड़ा का अपना ही
आनन्द होता है।
धागा प्रेम का
रहिमन धागा प्रेम का
कब का गया है टूट।
गांठें मार-मार,
रहें हैं रस्सियाॅं खींच।
रस्सियाॅं भी अब गल गईं
धागा-धागा बिखर रहा।
गांठों को सहेजकर
बंधे नहीं अब मन की डोर।
न जाने किस आस में
बैठे हाथों को जोड़।
जो छूट गया
उसे छोड़कर
अब तो आगे बढ़।
प्रेम-प्यार के किस्से
हो गये अब तो झूठ
हीर-रांझा, लैला-मजनूं
को जाओ अब तुम भूल।
रस्सियों का अब गया ज़माना
कसकर हाथ पकड़कर घूम।
जब से मुस्कुराना देखा हमारा
जब से मुस्कुराना देखा हमारा
न जाने क्यों आप चिन्तित दिखे
-
हमारे उपवन में फूल सुन्दर खिले
तुम्हारी खुशियों पर क्यों पाला पड़ा
-
चली थी चाॅंद-तारों को बांध मुट्ठी में मैं
तुम क्यों कोहरे की चादर लेकर चले
-
बारिश की बूंदों से आह्लादित था मेरा मन
तुम क्यों आंधी-तूफ़ान लेकर आगे बढ़े
-
भाग-दौड़ तो ज़िन्दगी में लगी रहती है
तुम क्यों राहों में कांटे बिछाते चले।
-
अब और क्या-क्या बताएॅं तुम्हें
-
हमने अपना दर्द छिपा लिया था
झूठी मुस्कुराहटों में
तुम कभी भी तो यह न समझ पाये।
ध्वनियां विचलित करती हैं मुझे
कुछ ध्वनियां
विचलित करती हैं मुझे
मानों
कोई पुकार है
कहीं दूर से
अपना है या अजनबी
नहीं समझ पाती मैं।
कोई इस पार है
या उस पार
नहीं परख पाती मैं।
शब्दरहित ये आवाजे़ं
भीतर जाकर
कहीं ठहर-सी जाती हैं
कोई अनहोनी है,
या किसी अच्छे पल की आहट
नहीं बता पाती मैं।
कुछ ध्वनियां
मेरे भीतर भी बिखरती हैं
और बाहर की ध्वनियों से बंधकर
एक नया संसार रचती हैं
अच्छा या बुरा
दुख या सुख
समय बतायेगा।
जीवन के नवीन रंग
प्रकृति
नित नये कलेवर में
अवतरित होती है
रोज़ बदलती है रंग।
कभी धूप
उदास सी खिलती है
कभी दमकती,
कभी बहकती-सी,
बादलों संग
लुका-छिपी खेलती।
बादल
अपने रंगों में मग्न
कभी गहरे कालिमा लिए,
कभी झक श्वेत,
आंखें चुंधिया जाते हैं।
और जब बरसते हैं
तो आंखों के मोती-से
मन भिगो-भिगो जाते हैं
कभी सतरंगी
ले आते हैं इन्द्रधनुष
नित नये रंगों संग
मन बहक-बहक जाता है।
प्रात में जब सूर्य-रश्मियां
नयनों में उतरती हैं
पंछियों का कलरव
नित नव संगीत रचता है,
तब हर दिन
जीवन नया-सा लगता है।
मधुर भावों की आहट
गुलाबी ठंड शीत की
आने लगी है।
हल्की-हल्की धूप में
मन लगता है,
धूप में नमी सुहाने लगी है।
कुहासे में छुपने लगी है दुनिया
दूर-दृष्टि गड़बड़ाने लगी है।
रेशमी हवाएं
मन को छूकर निकल जाती हैं
मधुर भावों की आहट
सपने दिखाने लगी है।
रातें लम्बी
दिन छोटे हो गये
नींद अब अच्छी आने लगी है।
चाय बनाकर पिला दे कोई,
इतनी-सी आस
सताने लगी है।
छिल जाती है कई ज़िन्दगियाॅं
कोई विशेष
वैज्ञानिक जानकारी तो नहीं मुझे,
पर सुना है
कि नसों, नाड़ियों में
रक्त बहता है,
हम देख नहीं सकते
बस एक अनुभव है
जानकारी मात्र।
कहते हैं,
जब व्यवधान आ जाता है
इन नसों, नाड़ियों में
तो वैसे ही साफ़ करवानी पड़ती हैं
ये नसें, नाड़ियाॅं
जैसे हमारे घरों की नालियाॅं ,
अन्तर बस इतना ही
कि घरों की
नालियों की सफ़ाई में
एक छोटा-सा मूल्य देना पड़ता है,
अन्यथा
और रास्ते भी निकल आते हैं प्रवाह के।
किन्तु जब रुकती हैं
देह की नसें, नाड़ियाॅं
तो छिल जाती है ज़िन्दगी
और
साथ जुड़ी कई ज़िन्दगियाॅं।
मैला मन में जमे
नसों-नाड़ियों में
या नालियों में,
समय रहते साफ़ करते रहें
नहीं तो
तो छिल जाती है ज़िन्दगी
और
साथ जुड़ी कई ज़िन्दगियाॅं।