आस लिए जीती हूँ

सपनों में जीती हूँ

सपनों में मरती हूँ

सपनों में उड़ती हूँ

ऐसे ही जीती हूँ।

धरा पर सपने बोती हूँ

गगन में छूती हूँ ।

मन में चाँद-तारे बुनती हूँ।

बादलों-से उड़ जाते हैं,

हवाएँ बहकाती हैं

सहम जाता है मन

पंछी-सा,

पंख कतरे जाते हैं

फिर भी उड़ती हूँ।

लौट धरा पर आती हूँ,

पर गगन की

आस लिए जीती हूँ।

 

जीवन क्या होता है

जीवन में अमृत चाहिए

तो पहले विष पीना पड़ता है।

जीवन में सुख पाना है

तो दुख की सीढ़ी पर भी

चढ़ना पड़ता है।

धूप खिलेगी

तो कल

घटाएँ भी घिर आयेंगी

रिमझिम-रिमझिम बरसातों में

बिजली भी चमकेगी

कब आयेगी आँधी,

कब तूफ़ान से उजड़ेगा सब

नहीं पता।

जीवन में चंदा-सूरज हैं

तो ग्रहण भी तो लगता है

पूनम की रातें होती हैं

अमावस का

अंधियारा भी छाता है।

किसने जाना, किसने समझा

जीवन क्या होता है।

 

न जाने अब क्या हो

बस शैल्टर में बैठे दो

सोच रहे हैं न जाने क्या हो।

‘गर बस न आई तो क्या हो।

दोनों सोचे दूजा बोले

तो कुछ तो साहस हो।

बारिश शुरु होने को है

‘गर हो गई तो

भीग जायेंगे

कहीं बुखार हो गया तो।

कोरोना का डर लागे है

पास  होकर पूछें तो।

घर भी मेरा दूर है

क्या इससे बात करुँ

साथ चलेगा ‘गर जो

बस न आई अगर

कैसे जाउंगी मैं घर को।

यह अनजान आदमी

अगर बोल ले बोल दो।

तो कुछ साहस होगा जो

सांझ ढल रही,

लाॅक डाउन का समय हो गया

अंधेरा घिर रहा

न जाने अब क्या हो।

 

खून का असली रंग

हमारे यहाँ

रगों में बहते खून की

बहुत बात होती है।

किसी का खून खानदानी,

किसी का उजला,

किसी का काला

किसी का अपना

और किसी का पराया।

तब आसानी से

कह देते हैं

अपना तो खून ही

ख़राब निकला।

और

ऐसा नीच खून

तो हमारा खून

हो ही नहीं सकता।

-

लेकिन

काश! हम समझ पाते

कि रगों में बहते खून का

कोई रंग नहीं होता

खून का रंग तब होता है

जब वह किसी के काम आये।

फिर अपना हो या पराया,

खानदानी हो या काला,

खून का असली रंग

तभी पहचान में आता है।

लाल, नीला या काला

होने से कभी

कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

 

जीवन के कितने पल

वियोग-संयोग भाग्य के लेखे

अपने-पराये कब किसने देखे

दुःख-सुख तो आने-जाने हैं

जीवन के कितने पल किसने देखे।

 

उलझे बैठे हैं अनजान राहों में

जीवन ऊँची-नीची डगर है।

मन में भावनाओं का समर है।

उलझे बैठे हैं अनजान राहों में

मानों अंधेरों में ही अग्रसर हैं।

ज़िन्दगी के सवाल

ज़िन्दगी के सवाल

कभी भी

पहले और आखिरी नहीं होते।

बस सवाल होते हैं

जो एक-के-बाद एक

लौट-लौटकर

आते ही रहते हैं।

कभी उलझते हैं

कभी सुलझते हैं

और कभी-कभी

पूरा जीवन बीत जाता है

सवालों को समझने में ही।

वैसे ही जैसे

कभी-कभी हम

अपनी उलझनों को

सुलझाने के लिए

या अपनी उलझनों से

बचने के लिए

डायरी के पन्ने

काले करने लगते हैं

पहला पृष्ठ खाली छोड़ देते हैं

जो अन्त तक

पहुँचते-पहुँचते

अक्सर फ़ट जाता है।

तब समझ आता है

कि हम तो जीवन-भर

निरर्थक प्रश्नों में

उलझे रहे

न जीवन का आनन्द लिया

और न खुशियों का स्वागत किया।

और इस तरह

आखिरी पृष्ठ भी

बेकार चला जाता है।

 

अब कांटों की बारी है

फूलों की बहुत खेती कर ली

अब कांटों की बारी है।

पत्‍ता–पत्‍ता बिखर गया

कांटों की सुन्‍दर मोहक क्‍यारी है।

न जाने कितने बीज बोये थे

रंग-बिरंगे फूलों के।

सपनों में देखा करती थी

महके महके गुलशन के रंगों के।

मिट्टी महकी, बरसात हुई

तब भी, धरा न जाने कैसे सूख गई।

नहीं जानती, क्‍योंकर

फूलों के बीजों से कांटे निकले

परख –परख कर जीवन बीता

कैसे जानूं कहां-कहां मुझसे भूल हुई। 

दोष नहीं किसी को दे सकती

अब इन्‍हें सहेजकर बैठी हूं।

वैसे भी जबसे कांटों को अपनाया

सहज भाव से जीवन में

फूलों का अनुभव दे गये

रस भर गये जीवन में।

 

मेंहदी के रंगों की तरह

जीवन के रंग भी अद्भुत हैं।

हरी मेंहदी

लाल रंग छोड़ जाती है।

ढलते-ढलते गुलाबी होकर

मिट जाती है

लेकिन अक्सर

हाथों के किसी कोने में

कुछ निशान छोड़ जाती है

जो देर तक बने रहते हैं

स्मृतियों के घेरे में

यादों के, रिश्तों के,

सम्बन्धों के,

अपने-परायों के

प्रेम-प्यार के

जो उम्र के साथ

ढलते हैं, बदलते हैं

और अन्त में

कितने तो मिट जाते हैं

मेंहदी के रंगों की तरह।

 

जैसे हम नहीं जानते

जीवन में

कब हरीतिमा होगी,

कब पतझड़-सा पीलापन

और कब छायेगी फूलों की लाली।

  

 

जीवन कितने पल

किसने जाना जीवन कितने पल।

अनमोल है जीवन का हर पल।

यहां दुख-सुख तो आने जाने हैं

आनन्द उठा जीवन में पल-पल।

   

अजब-सी भटकन है

फ़िरकी की तरह

घूमती है ज़िन्दगी।

कभी इधर, कभी उधर।

दुनियादारी में उलझी

कभी सुलझी, कभी न सुलझी।

अपनी-सी न लगती

जैसे उधारी किसी की।

अजब-सी भटकन है

कामनाओं का पर्वत है

उम्र पूछती है नाम।

अक्सर मन करता है

चादर ले

सिर ढक और लम्बी तान।

किन्तु

उन सलवटों का क्या करुं

जिन्हें वर्षों से छुपाती आ रही हूँ,

उन धागों का क्या करुँ

जिन्हें दुनिया-भर में तानती आ रही हूँ।

.

यार ! छोड़ अब ये ढकोसले।

बस, अपनी छान।

चादर ले

सिर ढक और लम्बी तान।

 

झूला झुलाये जिन्‍दगी

कहीं झूला झुलाये जिन्‍दगी

कभी उपर तो कभी नीचे

लेकर आये जिन्‍दगी

रस्सियों पर झूलती

दूर से तो दिखती है

आनन्‍द देती जिन्‍दगी

बैठना कभी झूले पर

आकाश और  धरा

एक साथ दिखा देती है जिन्‍दगी

कभी हाथ छूटा, कभी तार टूटी

तो दिन में ही

तारे दिखा देती है जिन्‍दगी

सम्‍हलकर बैठना जरा

कभी-कभी सीधे

उपर भी ले जाती है जिन्‍दगी

 

 

सलाह की कोई कीमत नहीं होती

मेरे पिता कहा करते थे

सलाह की

कोई कीमत नहीं होती

लेकिन इसका यह मतलब नहीं

कि यूं ही मुफ़्त में बांटते फ़िरो।

कभी-कभी मुफ़्त में

दी गई सलाह की

बड़ी कीमत

हाथ-पैरों, हड्डियों को

चुकानी पड़ती है,

ध्यान रहे।

.

और मेरे पिता

यह भी कहा करते थे

कि सलाह की

कोई कीमत नहीं होती

जो दे,

बस चुपचाप ले लिया करो,

और जोड़ते रहो

मन की तिजोरी में।

बिना कीमत की सलाह

कभी-कभी

बड़ी कीमती होती है।

लेकिन

यह भी कहा करते थे

कि जब तक

मिली सलाह की

कीमत समझ आती है

उसकी

एक्सपायरी डेट

निकल चुकी होती है।

-

और हंस देते थे

इसे मेरी

कीमती सलाह समझना।

 

 

शायद यही जीवन है

इन राहों पर

खतरनाक अंधे मोड़

होते हैं

जो दिखते तो नहीं

बस अनुभव की बात होती है

कि आप जान जायें

पहचान जायें

इन अंधों मोड़ों को

नहीं जान पाते

नहीं देख पाते

नहीं समझ पाते

कि उस पार से आने वाला

जीवन लेकर आ रहा है

या मौत।

इधर ऊँचे खड़े पहाड़

कभी  छत्रछाया-से लगते हैं

और कभी दरकते-खिसकते

जीवन लीलते।

उधर गहरी खाईयां डराती हैं

मोड़ों पर।

.

फिर

बादलों के घेरे

बरसती बूंदें

अनुपम, अद्भुत,

अनुभूत सौन्दर्य में

उलझता है मन।

.

शायद यही जीवन है। 

 

छोटा-सा जीवन है हंस ले मना

छोटा-सा जीवन है हंस ले मना     

जीवन में

बार-बार अवसर नहीं मिलते,

धूप ज्यादा हो

तो सदैव बादल नहीं घिरते,

चांद कभी कहीं नहीं जाता

बस हमारी ही समझ का फेर है

कभी पूर्णिमा

कभी ईद और कभी अमावस

की बात करते हैं

निभा सको तो निभा लो

हर मौसम को जीवन में

यूं जीने के अवसर

बार-बार नहीं मिलते

रूठने-मनाने का

सिला तो जीवन-भर चला रहता है

अपनों को मनाने के

अवसर बार -बार नहीं मिलते

कहते हैं छोटा-सा जीवन है

हंस ले मना,

यूं अकारण

खुश रहने के अवसर

बार-बार नहीं मिलते

 

 

 

हर दिन जीवन

जीवन का हर पल

अनमोल हुआ करता है

कुछ कल मिला था,

कुछ आज चला है

न जाने कितने अच्छे पल

भवितव्य में छिपे बैठे हैं

बस आस बनाये रखना

हर दिन खुशियां लाये जीवन में

एक आस बनाये रखना

मत सोचना कभी

कि जीवन घटता है।

बात यही कि

हर दिन जीवन

एक और,

एक और दिन का

सुख देता है।

फूलों में, कलियों में,

कल-कल बहती नदियों में

एक मधुर संगीत सुनाई देता है

प्रकृति का कण-कण

मधुर संगीत प्रवाहित करता है।

 

एक उपहार है ज़िन्दगी

हर रोज़ एक नई कथा पढ़ाती है जिन्दगी

हर दिन एक नई आस लाती है ज़िन्दगी

कभी हंसाती-रूलाती-जताती है ज़िन्दगी

हर दिन एक नई राह दिखाती है ज़िन्दगी

कदम दर कदम नई आस दिलाती है जिन्दगी

घनघोर घटाओं में भी धूप दिखाती है जिन्दगी

कभी बादलों में कड़कती-चमकती-सी है ज़िन्दगी

कुछ पाने के लिए निरन्तर भगाती है जिन्दगी

भोर से शाम तक देखो जगमगाती है जिन्दगी

झड़ी में भी कभी-कभी धूप दिखाती है जिन्दगी

कभी आशाओं का सागर लहराती है जिन्दगी

और कभी कभी खूब धमकाती भी है जिन्दगी

तब दांव पर पूरी लगानी पड़ती है जिन्दगी

यूं ही तो नहीं  आकाश दिला देती है जिन्दगी

पर कुल मिलाकर देखें तो एक उपहार है ज़िन्दगी

 

भूल-भुलैया की इक नगरी होती

भूल-भुलैया की इक नगरी होती

इसकी-उसकी बात न होती

सुबह-शाम कोई बात न होती

हर दिन नई मुलाकात तो होती

इसने ऐसा, उसने वैसा

ऐसे कैसे, वैसे कैसे

कोई न कहता।

रोज़ नई-नई बात तो होती

गिले-शिकवों की गली न होती,

चाहे राहें छोटी होतीं

या चौड़ी-चौड़ी होतीं

बस प्रेम-प्रीत की नगरी होती

इसकी-उसकी, किसकी कैसे

ऐसी कभी कोई बात न होती

 

 

 

ज़िन्दगी के रास्ते

यह निर्विवाद सत्य है

कि ज़िन्दगी

बने-बनाये रास्तों पर नहीं चलती।

कितनी कोशिश करते हैं हम

जीवन में

सीधी राहों पर चलने की।

निश्चित करते हैं कुछ लक्ष्य

निर्धारित करते हैं राहें

पर परख नहीं पाते

जीवन की चालें

और अपनी चाहतें।

ज़िन्दगी

एक बहकी हुई

नदी-सी लगती है,

तटों से टकराती

कभी झूमती, कभी गाती।

राहें बदलती

नवीन राहें बनाती।

किन्तु

बार-बार बदलती हैं राहें

बार-बार बदलती हैं चाहतें

बस,

शायद यही अटूट सत्य है।

 

 

गुनगुनाता है चांद

शाम से ही

गुनगुना रहा है चांद।

रोज ही की बात है

शाम से ही

गुनगुनाता है चांद।

सितारों की उलझनों में

वृक्षों की आड़ में

नभ की गहराती नीलिमा में

पत्‍तों के झरोखों से,

अटपटी रात में

कभी इधर से,

कभी उधर से

झांकता है चांद।

छुप-छुपकर देखता है

सुनता है,

समझता है सब चांद।

कुछ वादे, कुछ इरादे

जीवन भर

साथ निभाने की बातें

प्रेम, प्‍यार के किस्‍से,

कुछ सच्‍चे, कुछ झूठे

कुछ मरने-जीने की बातें

सब जानता है

इसीलिए तो

रोज ही की बात है

शाम से ही

गुनगुनाता है चांद

 

 

 

उम्र का एक पल: और पूरी ज़िन्दगी

पता ही नहीं लगा

उम्र कैसे बीत गई

अरे !

पैंसठ की हो गई मैं।

अच्छा !!

कैसे बीत गये ये पैंसठ वर्ष,

मानों कल की ही घटना हो।

-

स्मृतियों की

छोटी-सी गठरी है

जानती हूं

यदि खोलूंगी, खंगालूंगी

इस तरह बिखरेगी

कि समझने-समेटने में

अगले पैंसठ वर्ष लग जायेंगे।

और यह भी नहीं जानती

हाथ आयेगी रिक्तता

या कोई रस।

-

और कभी-कभी

ऐसा क्यों होता है

कि उम्र का एक पल

पूरी ज़िन्दगी पर

भारी हो जाता है

और हम

दिन, महीने, साल,

गिनते रह जाते हैं

लगता है मानों

शताब्दियां बीत गईं

और हम

अपने-आपको वहीं खड़ा पाते हैं।

 

अनछुए शब्द

 कुछ भाव

चेहरों पर लिखे जाते हैं

और कुछ को शब्द दिये जाते हैं

शब्द कभी अनछुए

एहसास दे जाते हैं ,

कभी बस

शब्द बनकर रह जाते हैं।

किन्तु चेहरे चाहकर भी

झूठ नहीं बोल पाते।

चेहरों पर लिखे भाव

कभी कभी

एक पूरा इतिहास रच डालते हैं।

और यही

भावों का स्पर्श

जीवन में इन्द्र्धनुषी रंग भर देता है।

 

हारना नहीं है

चलो आज ज़िन्दगी को हम कुछ सिखाएं।

कैसा भी समय हो, मन में मलाल न लाएं।

मन पुलकित होता है जब आस जगती है,

हारना नहीं है, इसी बात पर खिलखिलाएं।

 

 

जीवन महकता है

जीवन महकता है

गुलाब-सा

जब मनमीत मिलता है

अपने ख्वाब-सा

रंग भरे

महकते फूल

जीवन में आस देते हैं

एक विश्वास देते हैं

अपनेपन का आभास देते हैं।

सूखेंगे कभी ज़रूर

सूखने देना।

पत्ती –पत्ती सहेजना

यादों की, वादों की

मधुर-मधुर भावों से

जीवन-भर यूं ही मन हेलना ।

 

साथी तेरा प्यार

साथी तेरा प्यार

जैसे खट्टा-मीठा

मिर्ची का अचार।

कभी पतझड़

तो कभी बहार,

कभी कण्टक चुभते

कभी फूल खिलें।

कभी कड़क-कड़क

बिजली कड़के

कभी बिन बादल बरसात।

कभी नदियां उफ़ने

कभी तलछट बनते

कभी लहर-लहर

कभी भंवर-भंवर।

कभी राग बने

सुर-साज सजे

जीवन की हर तान बजे।

लुक-छिप, लुक-छिप

खेल चला

जीवन का यूं ही

मेल चला।

साथी तेरा प्यार

जैसे खट्टा-मीठा अचार।

 

परिवर्तन नियम है

 परिवर्तन नित्य है,

परिवर्तन नियम है

किन्तु कहां समझ पाते हैं हम।

रात-दिन,

दिन-रात में बदल जाते हैं

धूप छांव बन ढलती है

सुख-दुःख आते-जाते हैं

कभी कुहासा कभी झड़ी

और कभी तूफ़ान पलट जाते हैं।

हंसते-हंसते रो देता है मन

और रोते-रोते

होंठ मुस्का देते हैं

जैसे कभी बादलों से झांकता है चांद

और कभी अमावस्या छा जाती है।

सूरज तपता है,

आग उगलता है

पर रोशनी की आस देता है।

जैसे हवाओं के झोंकों से

कली कभी फूल बन जाती है

तो कभी झटक कर

मिट्टी में मिल जाती है।

बड़ा लम्बा उलट-फ़ेर है यह।

कौन समझा है यहां।

 

कुहासे में उलझी जि़न्दगी

कभी-कभी

छोटी-छोटी रोशनी भी

मन आलोकित कर जाती है।

कुहासे में उलझी जि़न्दगी

एक बेहिसाब पटरी पर

दौड़ती चली जाती है।

राहों में आती हैं

कितनी ही रोशनियां

कितने ठहराव

कुछ नये, कुछ पुराने,

जाने-अनजाने पड़ाव

कभी कोई अनायास बन्द कर देता है

और कभी उन्मुक्तु हो जाते हैं सब द्वार

बस मन आश्‍वस्‍त है

कि जो भी हो

देर-सवेर

अपने ठिकाने पहुंच ही जाती है।

 

अंधेरों और रोशनियों का संगम है जीवन

भाव उमड़ते हैं,

मिटते हैं, उड़ते हैं,

चमकते हैं।

पंख फैलाती हैं

आशाएं, कामनाएं।

लेकिन, रोशनियां

धीरे-धीरे पिघलती हैं,

बूंद-बूंद गिरती हैं।

अंधेरे पसरने लगते हैं।

रोशनियां यूं तो

लुभावनी लगती हैं,

लेकिन अंधेरे में

खो जाती हैं

कितनी ही रोशनियां।

मिटती हैं, सिमटती हैं,

जाते-जाते कह जाती हैं,

अंधेरों और रोशनियों का

संगम है जीवन,

यह हम पर है

कि हम किसमें जीते हैं।

 

बहुत बाद समझ आया

कितनी बार ऐसा हुआ है

कि समय मेरी मुट्ठी में था

और मैं उसे दुनिया भर में

तलाश कर रही थी।

मंजिल मेरे सामने थी

और मैं बार-बार

पीछे मुड़-मुड़कर भांप रही थी।

समस्याएं बाहर थीं

और समाधान भीतर,

और मैं

आकाश-पाताल नाप रही थी।

 

बहुत बाद समझ आया,

कभी-कभी,

प्रयास छोड़कर

प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए,

भटकाव छोड़

थोड़ा विश्राम कर लेना चाहिए।

तलाश छोड़

विषय बदल लेना चाहिए।

जीवन की आधी समस्याएं

तो यूं ही सुलझ जायेंगीं।

 

बस मिलते रहिए मुझसे,

ऐसे परामर्श का

मैं कोई शुल्क नहीं लेती।

 

हम मस्त हैं अपने ही बुने मकड़जाल में

जीवन में जरूरी है

किसी परिधि में सिमटना,

सीमाओं में बंधना।

और ये सीमाएं

हम स्वयं तय करें,

तय करें अपनी दूरियां,

अपनी दीवारें चुनें,

बनायें किले या ढहायें।

तुम कुछ भी सोचते रहो

कि फंस रहें हैं हम

अपने ही जाल में,

लेकिन सदा ऐसा नहीं होता।

जब हम

सबकी उपेक्षा कर

अपना सुरक्षा कवच

स्वयं बुनते हैं,

तो तकलीफ होती है,

कहानियां बुनी जाती हैं,

कथाएं सुनी जाती हैं।

कुछ भी कहो,

हम मस्त हैं

अपने ही बुने मकड़जाल में।