द्वार उन्मुक्त किये बैठे हैं
मन में
आँगन का भाव लिए बैठे हैं।
घर छोटे हैं तो क्या,
मन में सद्भाव लिए बैठे हैं।
समय बदल गया
न आँगन रहा, न छत रही,
पर छोटी-छोटी खिड़कियों से
आकाश बड़ा लिए बैठे हैं।
दूरियाॅं शहरों की हैं,
पर मन में अपनेपन का
भाव लिए बैठे हैं।
मिलना-मिलाना नहीं ज़रूरी
दुख-सुख में आने-जाने की
प्रथा बनाये बैठे हैं।
आंधी, बादल, बिजली, बरसात
तो आनी-जानी है,
छत्र-छाया-से हाथ मिलाये बैठे हैं।
न कोई बन्धन, न ताले
जब चाहे आओ
द्वार उन्मुक्त किये बैठे हैं।