जीवन की गति एक  चक्रव्यूह

जीवन की गति

जब किसी चक्रव्यूह में

अटकती है

तभी

अपने-पराये का एहसास होता है।

रक्त-सम्बन्ध सब गौण हो जाते हैं।

पता भी नहीं लगता

कौन पीठ में खंजर भोंक गया ,

और किस-किस ने सामने से

घेर लिया।

व्यूह और चक्रव्यूह 

के बीच दौड़ती ज़िन्दगी,

अधूरे प्रश्र और अधूरे उत्तर के बीच

धंसकर रह जाती है।

अधसुनी, अनसुनी कहानियां

लौट-लौटकर सचेत करती हैं,

किन्तु हम अपनी रौ में

चेतावनी समझ ही नहीं पाते,

और  अपनी आेर से

एक अधबुनी कहानी छोड़कर

चले जाते हैं।

 

 

 

कहां जानती है ज़िन्दगी

कदम-दर-कदम

बढ़ती है ज़िन्दगी।

कभी आकाश

तो कभी पाताल

नापती है ज़िन्दगी।

पंछी-सा

उड़ान भरता है कभी मन,

तो कभी

रंगीनियों में खेलता है।

कब उठेंगे बवंडर

और कब फंसेंगे भंवर में,

यह बात कहां जानती है ज़िन्दगी।

यूं तो

साहस बहुत रखते हैं

आकाश छूने का

किन्तु नहीं जानते

कब धरा पर

ला बिठा देगी ज़िन्दगी।

 

खुशियों की कोई उम्र नहीं होती

उम्र का तकाज़ा मत देना मुझे,

कि जी चुके अपनी ज़िन्दगी,

अब भगवान-भजन के दिन हैं।

 

जीते तो हैं हम,

पर वास्तव में

ज़िन्दगी शुरु कब होती है,

कहां समझ पाते हैं हम।

कर्म किये जा, कर्म किये जा,

बस कर्म किये जा।

जीवन के आनन्द, खुशियों को

एक झोले में समेटते रहते हैं,

जब समय मिलेगा

भोग लेंगे।

और किसी खूंटी पर टांग कर

अक्सर भूल जाते हैं।

और जब-जब झोले को

पलटना चाहते हैं,

पता लगता है,

खुशियों की भी

एक्सपायरी डेट होती है।

 

या फिर,

फिर कर्मों की सूची

और उम्र का तकाज़ा मिलता है।

 

पर खुशियों की कोई उम्र

 नहीं होती,

बस जीने का सलीका आना चाहिए।

 

धूप-छांव में उलझता मन

कोहरे की चादर

कुछ मौसम पर ,

कुछ मन पर।

शीत में अलसाया-सा मन।

धूप-छांव में उलझता,

नासमझों की तरह।

बहती शीतल बयार।

न जाने कौन-से भाव ,

दबे-ढके कंपकंपाने लगे।

कहना कुछ था ,

कह कुछ दिया,

सर्दी के कारण

कुछ शब्‍द अटक से गये थे,

कहीं भीतर।

मूंगफ़ली के छिलके-सी

दोहरी परतें।

दोनों नहीं

एक तो उतारनी ही होगी।

नज़र-नज़र की बात

निराशाओं में भी

रोशनी की आस होती है।

अंधेरे में भी

किरणों की भास होती है।

भरोसे पर नहीं चलती दुनिया,

ज़िन्दगी बड़े रंग दिखाती है,

जांच-परख कर ही

आगे बात होती है।

बस, उम्मीद न छोड़ना कभी,

हार में भी

जीत ही की बात होती है।

खंडहरों में भी

हीरे-मोती तलाशते हैं,

यहां भी चकाचैंध होती है,

बस, नज़र-नज़र की बात होती है।

 

यह ज़िन्दगी है

यह ज़िन्दगी है,

भीड़ है, रेल-पेल है ।

जाने-अनजाने लोगों के बीच ,

बीतता सफ़र है ।

कभी अपने पराये-से,

और कभी पराये

अपने-से हो जाते हैं।

दुख-सुख के ठहराव ,

कभी छोटे, कभी बड़े पड़ाव,

कभी धूप कभी बरसात ।

बोझे-सी लदी जि़न्‍दगी, 

कभी जगह बन पाती है

कभी नहीं।

कभी छूटता सामान

कभी खुलती गठरियां ।

अन्‍तहीन पटरियों से सपनों का जाल ।

दूर कहीं दूर पटरियों पर

बेटिकट दौड़ती-सी ज़िन्दगी ।

मिल गई जगह तो ठीक,

नहीं तो खड़े-खड़े ही,

बीतती है ज़िन्दगी ।

एक मुस्कान का आदान-प्रदान

क्या आपके साथ

हुआ है कभी ऐसा,

राह चलते-चलते,  

सामने से आते

किसी अजनबी का चेहरा,

अपना-सा लगा हो।

बस यूं ही,

एक मुस्कान का आदान-प्रदान।

फिर पीछे मुड़कर देखना ,

कहीं देखा-सा लगता है चेहरा।

दोनों के चेहरे पर एक-से भाव।

फिर,  

एक हिचकिचाहट-भरी मुस्कान।

और अपनी-अपनी राह बढ़ जाना।

-

सालों-साल,  

याद रहती है यह मुस्कान,

और अकारण ही

चेहरे पर मुस्कान ले आती है।

 

जिजीविषा के लिए

 

 

रंगों की रंगीनियों में बसी है जि़न्दगी।

डगर कठिन है,

पर जिजीविषा के लिए

प्रतिदिन, यूं ही

सफ़र पर निकलती है जिन्‍दगी।

आज के निकले कब लौटेंगे,

यूं ही एकाकीपन का एहसास

देती रहती है जिन्दगी।

मृगमरीचिका है जल,

सूने घट पूछते हैं

कब बदलेगी जिन्दगी।

सुना है शहरों में, बड़े-बडे़ भवनों में

ताल-तलैया हैं,

घर-घर है जल की नदियां।

देखा नहीं कभी, कैसे मान ले मन ,

दादी-नानी की परी-कथाओं-सी

लगती हैं ये बातें।

यहां तो,

रेत के दानों-सी बिखरी-बिखरी

रहती है जिन्दगी।

 

ज़िन्दगी खुली मुट्ठी है या बन्द

 

अंगुलियां कभी मुट्ठी बन जाती हैं,

तो कभी हाथ।

कभी खुलते हैं,

कभी बन्द होते हैं।

कुछ रेखाएं इनके भीतर हैं,

तो कुछ बाहर।

-

रोज़ रात को

मुट्ठियों को

ठीक से

बन्द करके सोती हूं,

पर प्रात:

प्रतिदिन

खुली ही मिलती हैं।

-

देखती हूं,

कुछ रेखाएं नई,

कुछ बदली हुईं,

कुछ मिट गईं।

-

फिर दिन भर

अंगुलियां ,

कभी मुट्ठी बन जाती हैं,

तो कभी हाथ।

कभी खुलते हैं,

कभी बन्द होते हैं।

-

यही ज़िन्दगी है।

 

बस जीवन बीता जाता है

 

सब जीवन बीता जाता है ।

कुछ सुख के कुछ दुख के

पल आते हैं, जाते हैं,

कभी धूप, कभी झड़़ी ।

कभी होती है घनघोर घटा,

तब भी जीवन बीता जाता है ।

कभी आस में, कभी विश्‍वास में,

कभी घात में, कभी आघात में,

बस जीवन बीता जाता है ।

हंसते-हंसते आंसू आते,

रोते-रोते खिल-खिल करते ।

चढ़़ी धूप में पानी गिरता,

घनघोर घटाएं मन आतप करतीं ।

फिर भी जीवन बीता जाता है ।

नित नये रंगों से जीवन-चित्र संवरता

बस यूं ही जीवन बीता जाता है ।

 

मधुर-मधुर पल

 

प्रकृति अपने मन से

एक मुस्‍कान देती है।

कुछ रंग,

कुछ आकार देती है।

प्‍यार की आहट

और अपनेपन की छांव देती है।

कलियां

नवजीवन की आहट देती हैं।

खिलते हैं फूल

जीवन का आसार देती हैं।

जब गिरती हैं पत्तियां

रक्‍तवर्ण

मन में एक चाहत का भास देती हैं।

समेट लेती हूं मुट्ठी में

मधुर-मधुर पलों का आभास देती हैं।

 

कयामत के दिन चार होते हैं

 

कहीं से सुन लिया है

कयामत के दिन चार होते हैं,

और ज़िन्दगी भी

चार ही दिन की होती है।

तो क्या कयामत और ज़िन्दगी

एक ही बात है?

नहीं, नहीं,

मैं ऐसे डरने वाली नहीं।

लेकिन

कंधा देने वाले भी तो

चार ही होते हैं

और दो-दूनी भी

चार ही होते हैं।

और हां,

बातें करने वाले भी

चार ही लोग होते हैं,

एक है न कहावत

‘‘चार लोग क्या कहेंगे’’।

वैसे मुझे अक्सर

अपनी ही समझ नहीं आती।।

बात कयामत की करने लगी थी

और दो-दूनी चार के

पहाड़े पढ़ने लगी।

ऐसे थोड़े ही होता है।

चलो, कोई बात नहीं।

फिर कयामत की ही बात करते हैं।

सुना है, कोई

कोरोना आया है,

आयातित,

कहर बनकर ढाया है।

पूरी दुनिया को हिलाया है

भारत पर भी उसकी गहन छाया है।

कहते हैं,

उसके साथ

छुपन-छुपाई खेल लो चार दिन,

भाग जायेगा।

तुम अपने घर में बन्द रहो

मैं अपने घर में।

ढूंढ-ढूंढ थक जायेगा,

और अन्त में थककर मर जायेगा।

तब मिलकर करेंगे ज़िन्दगी

और कयामत की बात,

चार दिन की ही तो बात है,

तो क्या हुआ, बहुत हैं

ये भी बीत जायेंगे।

 

जीवन की कहानियां बुलबुलों-सी नहीं होतीं

 कहते हैं

जीवन पानी का बुलबुला है।

किन्तु कभी लगा नहीं मुझे,

कि जीवन

कोई छोटी कहानी है,

बुलबुले-सी।

सागर की गहराई से भी

उठते हैं बुलबुले।

और खौलते पानी में भी

बनते हैं बुलबुले।

जीवन में गहराई

और जलन का अनुभव

अद्भुत है,

या तो डूबते हैं,

या जल-भुनकर रह जाते हैं।

जीवन की कहानियां

बुलबुलों-सी नहीं होतीं

बड़े गहरे होते हैं उनके निशान।

वैसे ही जैसे

किसी के पद-चिन्हों पर,

सारी दुनिया

चलना चाहती है।

और किसी के पद-चिन्ह

पानी के बुलबुले से

हवाओं में उड़ जाते हैं,

अनदेखे, अनजाने,

अनपहचाने।

 

प्रभास है जीवन

हास है, परिहास है, विश्वास है जीवन

हर दिन एक नया प्रयास है जीवन

सूरज भी चंदा के पीछे छिप जाता है,

आप मुस्कुरा दें तो तो प्रभास है जीवन

सुन्दर है संसार

जीवन में

बहुत कुछ अच्छा मिलता है,

तो बुरा भी।

आह्लादकारी पल मिलते हैं,

तो कष्टों को भी झेलना पड़ता है।

सफ़लता आंगन में

कुलांचे भरती है,

तो कभी असफ़लताएं

देहरी के भीतर पसरी रहती हैं।

छल और प्रेम

दोनों जीवन साथी हैं।

कभी मन में

डर-डर कर जीता है,

तो कभी साहस की सीढ़ियां

हिमालय लांघ जाती हैं।

जीवन में खट्टा-मीठा सब मिलता है,

बस चुनना पड़ता है।

और प्रकृति के अद्भुत रूप तो

पल-पल जीने का

संदेश दे जाते हैं,

बस समझने पड़ते हैं।

एक सौन्दर्य

हमारे भीतर है,

एक सौन्दर्य बाहर।

दोनों को एक साथ जीने में

सुन्दर है संसार।

कामना मेरी

और सुन्दर हो संसार।

 

 

कौन जाने सूरज उदित हुआ या अस्त

उस दिन जैसे ही सूरज डूबा,

अंधेरा होते ही

सामने के सारे पहाड़ समतल हो गये।

वैसे भी हर अंधेरा

समतल हुआ करता है,

और प्रकाश सतरंगा।

अंधेरा सुविधा हुआ करता है,

औेर प्रकाश सच्चाई।

-

तुम चाहो तो अपने लिए

कोई भी रंग चुन लो।

हर रंग एक आकाश हुआ करता है,

एक अवकाश हुआ करता है।

मैं तो

बस इतना जानती हूं

कि सफ़ेद रंग

सात रंगों का मिश्रण।

यह एकता, शांति

और समझौते का प्रतीक,

-आधार सात रंग।

अतः बस इतना ध्यान रखना

कि सफे़द रंग तक पहुंचने के लिए

तुम्हें सभी रंगों से गुज़रना होगा।

-

पता नहीं सबने कैसे मान लिया

कि सूरज उगा करता है।

मैंने तो जब भी देखा

सूरज को डूबते ही देखा।

हर ओर पश्चिम ही पश्चिम है,

और हर कदम

अंधेरे की ओर बढ़ता कदम।

-  

मैं अक्सर चाहती हूं

कि कभी दिन रहते सूरज डूब जाये,

और दुनिया के लिए

खतरा उठ खड़ा हो।

-

सच कहना

क्या कभी तुमने सूरज उगता देखा है?

-

अगर तुमने कभी

सूरज को

उपर की ओर

आकाश की ओर बढ़ता देख लिया,

आग, तपिश और  रोशनी थी उसमें

बस !

इतने से ही तुमने मान लिया

कि सूरजा उग आया।

-

हर चढ़ता सूरज

मंजिल नहीं हुआ करता।

पता नहीं कब दिन ढल जाये।

और कभी-कभी तो सूरज चढ़ता ही नहीं,

और दिन ढल जाता है।

मैंने तो जब भी देखा

सूरज को ढलते ही देखा।

-

डूबते सूरज की पहचान,

अंधेरे से रोशनी की ओर,

अतल से उपर की ओर।

इसीलिए

मैंने तो जब भी देखा,

सूरज को डूबते ही देखा।

-

हर डूबता दिन,

उगते तारे,

एक नये आने वाले दिन का,

एक नयी जिंदगी का,

संदेश दे जाते हैं।

जाने वाले क्षण

आने वाले क्षणों के पोषक,

बता जाते हैं कि शाम केवल डूबती नहीं,

हर डूबने के पीछे

नया उदय ज़रूरी है।

हर शाम के पीछे

एक सुबह है,

और चांद के पीछे सूरज -

सूरज को तो डूबना ही है,

पर एक उदय का सपना लेकर ।

 

 

पतझड़

हरे पत्ते अचानक

लाल-पीले होने लगते हैं।

नारंगी, भूरे,

और गाढ़े लाल रंग के।

हवाएं डालियों के साथ

मदमस्त खेलती हैं,

झुलाती हैं।

पत्ते आनन्द-मग्न

लहराते हैं अपने ही अंदाज़ में।

हवाओं के संग

उड़ते-फ़िरते, लहराते,

रंग बदलते,

छूटते सम्बन्ध डालियों से।

शुष्कता उन्हें धरा पर

ले आती है।

यहां भी खेलते हैं

हवाओं संग,

बच्चों की तरह उछलते-कूदते

उड़ते फिरते,

मानों छुपन-छुपाई खेलते।

लोग कहते हैं

पतझड़ आया।

 

लेकिन मुझे लगता है

यही जीवन है।

और डालियों पर

हरे पत्ते पुनः अंकुरण लेने लगते हैं।

 

 

अन्त होता है ज़िन्दगी की चालों का

स्याह-सफ़ेद

प्यादों की चालें

छोटी-छोटी होती हैं।

कदम-दर-कदम बढ़ते,

राजा और वज़ीर को

अपने पीछे छुपाये,

बढ़ते रहते हैं,

कदम-दर-कदम,

मानों सहमे-सहमे।

राजा और वज़ीर

रहते हैं सदा पीछे,

लेकिन सब कहते हैं,

बलशाली, शक्तिशाली

होता है राजा,

और वजीर होता है

सबसे ज़्यादा चालबाज़।

फिर भी ये दोनों,

प्यादों में घिरे

घूमते, बचते रहते हैं।

किन्तु, एक समय आता है

प्यादे चुक जाते हैं,

तब दो-रंगे,

राजा और वज़ीर,

आ खड़े होते हैं

आमने-सामने।

ऐसे ही अन्त होता है

किसी खेल का,

किसी युद्ध का,

या किसी राजनीति का।

 

 

मन में बसन्त खिलता है

जीवन में कुछ खुशियां

बसन्त-सी लगती हैं।

और कुछ बरसात के बाद

मिट्टी से उठती

भीनी-भीनी खुशबू-सी।

बसन्त के आगमन की

सूचना देतीं,

आती-जाती सर्द हवाएं,

झरते पत्तों संग खेलती हैं,

और नव-पल्ल्वों को

सहलाकर दुलारती हैं।

पत्तों पर झूमते हैं

तुषार-कण,

धरती भीगी-भीगी-सी

महकने लगती है।

 

फूलों का खिलना

मुरझाना और झड़ जाना,

और पुनः कलियों का लौट आना,

तितलियों, भंवरों का गुनगुनाना,

मन में यूं ही

बसन्त खिलता है।

 

 

मन उदास क्यों है

कभी-कभी

हम जान ही नहीं पाते

कि मन उदास क्यों है।

और जब

उदास होती हूं,

तो चुप हो जाती हूं अक्सर।

अपने-आप से

भीतर ही भीतर

तर्क-वितर्क करने लगती हूं।

तुम इसे, मेरी

बेबात की नाराज़गी

समझ बैठते हो।

न जाने कब के रूके आंसू

आंखों की कोरों पर आ बैठते हैं।

मन चाहता है

किसी का हाथ

सहला जाये इस अनजाने दर्द को।

लेकिन तुम इसे

मेरा नाराज़गी जताने का

एहसास कराने का

नारीनुमा तरीका मान लेते हो।

.

पढ़ लेती हूं

तुम्हारी आंखों में

तुम्हारा नज़रिया,

तुम्हारे चेहरे पर खिंचती रेखाएं,

और तुम्हारी नाराज़गी।

और मैं तुम्हें मनाने लगती हूं।

 

 

मज़बूरी से बड़ी होती है जिद्द

सुना है मैंने,

रेत पर घरौंदे नहीं बनते।

धंसते हैं पैर,

कदम नहीं उठते।

.

वैसे ऐसा भी नहीं

कि नामुमकिन हो यह।

सीखते-सीखते

सब सीख जाता है इंसान,

‘गर मज़बूरी हो

या जिद्द।

.

मज़बूरी से बड़ी होती है जिद्द,

और जब जिद्द हो,

तो रेत क्या

और पानी क्या,

घरौंदे भी बनते हैं ,

पैर भी चलते हैं,

और ऐसे ही कारवां भी बनते हैं।

 

 

कभी कुछ नहीं बदलता

एक वर्ष

और गया मेरे जीवन से।

.

अथवा

यह कहना शायद

ज़्यादा अच्छा लगेगा,

कि

एक वर्ष

और मिला जीने के लिए।

.

जीवन एक रेखा है,

जिस पर हम

बढ़ते हैं,

चलते तो आगे हैं,

पर पता नहीं क्यों,

पीछे मुड़कर

देखने लगते हैं।

.

समस्याओं,

उलझनों से जूझते,

बीत रहा था 2020

जैसे रोज़, हर रोज़

प्रतीक्षा करते थे

एक नये वर्ष की,

खटखटाएगा द्वार।

भीतर आकर

सहलायेगा माथा।

न निराश हो,

आ गया हूं अब मैं

सब बदल दूंगा।

.

पर मुझे अक्सर लगता है,

कभी कुछ नहीं बदलता।

कुछ हेर-फ़ेर के साथ

ज़िन्दगी, दोहराती है,

बस हमारी समझ का फ़ेर है।

 

नहीं छूटता अतीत

मैं बागवानी तो नहीं जानती।

किन्तु सुना है

कि कुछ पौधे

सीधे नहीं लगते,

उनकी पौध लगाई जाती है।

नर्सरी से उखाड़कर

समूहों में लाये जाते हैं,

और बिखेरकर,

क्यारियों में

रोप दिये जाते हैं।

अपनी मिट्टी,

अपनी जड़ों से उखड़कर,

कुछ सम्हल जाते हैं,

कुछ मर जाते हैं,

और कुछ अधूरे-से

ज़िन्दगी की

लड़ाई लड़ते नज़र आते हैं।

-

हम,

जहां अपने अतीत से,

विगत से,

भागने का प्रयास करते हैं,

ऐसा ही होता है हमारे साथ।

 

 

छोटी छोटी खुशियों से खुश रहती है ज़िन्दगी

 

बस हम समझ ही नहीं पाते

कितनी ही छोटी छोटी खुशियां

हर समय

हमारे आस पास

मंडराती रहती हैं

हमारा द्वार खटखटाती हैं

हंसाती हैं रूलाती हैं

जीवन में रस बस जाती हैं

पर हम उन्हें बांध नहीं पाते।

आैर इधर

एक आदत सी हो गई है

एक नाराज़गी पसरी रहती है

हमारे चारों ओर

छोटी छोटी बातों पर खिन्न होता है मन

रूठते हैं, बिसूरते हैं, बहकते हैं।

उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से उजली क्यों

उसकी रिंग टोन मेरी रिंग टोन से नई क्यों।

गर्मी में गर्मी क्यों और   शीत ऋतु में ठंडक क्यों

पानी क्यों बरसा

मिट्टी क्यों महकी, रेत क्यों सूखी

बिल्ली क्यों भागी, कौआ क्यों बोला

ये मंहगाई

गोभी क्यों मंहगी, आलू क्यों सस्ता

खुशियों को पहचानते नहीं

नाराज़गी के कारण ढूंढते हैं।

चिड़चिड़ाते हैं, बड़बड़ाते हैं

अन्त में मुंह ढककर सो जाते हैं ।

और अगली सुबह

फिर वही राग अलापते हैं।

मंजी दे जा मेरे भाई

भाई मेरे

मंजी दे जा।

बड़े काम की है यह मंजी।

 -

सर्दी के मौसम में,

प्रात होते ही

यह मंजी

धूप में जगह बना लेती है।

सारा दिन

धीरे-धीरे खिसकती रहती है

सूरज के साथ-साथ।

यहीं से

हमारे दिन की शुरूआत होती है,

और यहीं शाम ढलती है।

पूरा परिवार समा जाता है

इस मंजी पर।

कोई पायताने, कोई मुहाने,

कोई बाण पर, कोई तान पर,

कोई नवार पर,

एक-दूसरे की जगह छीनते।

बतंगड़बाजी करते ]

निकलता है पूरा दिन

इसी मंजी पर।

सुबह का नाश्ता

दोपहर की रोटी,

दिन की झपकी,

शाम की चाय,

स्वेटर की बुनाई,

रजाईयों की तरपाई,

कुछ बातचीत, कुछ चुगलाई,

पापड़-बड़ियों की बनाई,

मटर की छिलकाई,

साग की छंटाई,

बच्चों की पढ़ाई,

आस-पड़ोस की सुनवाई।

सब इसी मंजी पर।

-

भाई मेरे, मंजी दे जा।

दे जा मंजी मेरे भाई।

 

मेरे मन की चांदनी

सुना है मैंने

शरद पूर्णिमा के

चांद की चांदनी से

खीर दिव्य हो जाती है।

तभी तो मैं सोचता था

तुम्हें चांद कह देने से

तुम्हारी सुन्दरता

क्यों द्विगुणित हो जाती है,

मेरे मन की चांदनी

खिल-खिल जाती है।

चंदा की किरणें

धरा पर जब

रज-कण बरसाती हैं,

रूप निखरता है तुम्हारा,

मोतियों-सा दमकता है,

मानों चांदनी की दमक

तुम्हारे चेहरे पर

देदीप्यमान हो जाती है।

कभी-कभी सोचता हूं,

तुम्हारा रूप चमकता है

चांद की चांदनी से,

या चांद

तुम्हारे रूप से रूप चुराकर

चांदनी बिखेरता है।

 

हवाओं के रंग नहीं होते

हवाओं के रंग नहीं होते,

हवाओं में रंग होते हैं।

भाव होते हैं,

कभी गर्म , कभी सर्द

तो कभी नम होते हैं।

फूलों संग

हवाएं महकती हैं,

मन को दुलारती, सहलाती हैं।

खुली हवाएं

जीना सिखलाती हैं।

कभी हवाओं के संग

बह-बह जाते हैं भाव,

आकांक्षाएं बहकती हैं,

मन उदास हो तो

सर पर हाथ फेर जाती हैं,

आंसुओं को सोखकर

मुस्कान बना जाती हैं।

चेहरे को छूकर

शर्मा कर बिखर-बिखर जाती हैं।

कानों में सन-सन गूंजती

न जाने कितने संदेश दे जाती हैं।

कभी शरारती-सी,

लटें बिखेरती,

कभी उलझाकर चली जाती हैं।

मन की तरह

बदलते हैं हवाओं के रूख,

कभी-कभी

अपना प्रचण्ड रूप भी दिखलाती हैं।

सुना है,

हवाओं के रूख को

अपने हित में मोड़ना भी एक कला है,

कैसे, यही नहीं समझ पाती हूं।

ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई

किसी ने कहा

ज़िन्दगी पर

एक उपन्यास लिखो।

सालों-साल का

हिसाब-बेहिसाब लिखो।

स्मृतियों को

उलटने-पलटने लगी।

समेटने लगी

सालों, महीनों, दिनों

और घंटों का,

पल-पल का गणित।

बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।

न जाने कितने झंझावात,

कितने विप्लव,

कितने भूचाल बिखर गये।

कहीं आंसू, कहीं हर्ष,

कहीं आहों के,

सुख-दुख के सागर उफ़न गये।

 

न जाने

कितने दिन-महीने, साल लग गये

कथाओं का समेटने में।

और जब

अन्तिम रूप देने का समय आया

तो देखा

एक क्षणिका भी न बन पाई।

 

यादों के पृष्ठ सिलती रही

ज़िन्दगी,

मेरे लिए

यादों के पृष्ठ लिखती रही।

और मैं उन्हें

सबसे छुपाकर,

एक धागे में सिलती रही।

 

कुछ अनुभव थे,

कुछ उपदेश,

कुछ दिशा-निर्देश,

सालों का हिसाब-बेहिसाब,

कभी पढ़ती,

कभी बिखरती रही।

 

समय की आंधियों में

लिखावट मिट गई,

पृष्ठ जर्जर हुए,

यादें मिट गईं।

 

तब कहीं जाकर

मेरी ज़िन्दगी शुरू हुई।

ज़िन्दगी कहीं सस्ती तो नहीं

बहुत कही जाती है एक बात

कि जब

रिश्तों में गांठें पड़ती हैं,

नहीं आसान होता

उन्हें खोलना, सुलझाना।

कुछ न कुछ निशान तो

छोड़ ही जाती हैं।

 

लेकिन सच कहूं

मुझे अक्सर लगता है,

जीवन में

कुछ बातों में

गांठ बांधना भी

ज़रूरी होता है।

 

टूटी डोर को भी

हम यूं ही नहीं जाने देते

गांठे मार-मारकर

सम्हालते हैं,

जब तक सम्हल सके।

 

ज़िन्दगी कहीं

उससे सस्ती तो नहीं,

फिर क्यों नहीं कोशिश करते,

यहां भी कभी-कभार,

या बार-बार।