शब्द अधूरे-से
प्रेम, प्यार

दो टूटू-फूटे-से शब्द

अधूरे-से लगते हैं।

पता नहीं क्यों

हम तरसते रहते हैं

इन अधूरे शब्दों को

पूरा करने के लिए

ज़िन्दगी-भर।

कहाॅं समझ पाता है कोई

हमारी भावनाओं को।

कहाॅं मिल पाता है कोई

जो इन

अधूरे शब्दों को

पूरा करने के लिए

अपना समर्पण दे।

यूॅं ही बीत जाती है

ज़िन्दगी।

  

जीना चाहती हूं

छोड़ आई हूं

पिछले वर्ष की कटु स्मृतियों को

पिछले ही वर्ष में।

जीना चाहती हूं

इस नये वर्ष में कुछ खुशियों

उमंग, आशाओं संग।

ज़िन्दगी कोई दौड़ नहीं

कि कभी हार गये

कभी जीत गये

बस मन में आशा लिए

भावनाओं का संसार बसता है।

जो छूट गया, सो छूट गया

नये की कल्पना में

अब मन रमता है।

द्वार खोल हवाएं परख रही हूं।

अंधेरे में रोशनियां ढूंढने लगी हूं।

अपने-आपको

अपने बन्धन से मुक्त करती हूं

नये जीवन की आस में

आगे बढ़ती हूं।

 

कल से डर-डरकर जीते हैं हम

आज को समझ नहीं पाते

और कल में जीने लगते हैं हम।

कल किसने देखा

कौन रहेगा, कौन मरेगा

कहां जान पाते हैं हम।

कल की चिन्ता में नींद नहीं आती

आज में जाग नहीं पाते हैं हम।

कल के दुख-सुख की चिन्ता करते

आज को पीड़ा से भर लेते हैं हम।

बोये तो फूलों के पौधे थे

पता नहीं फूल आयेंगे या कांटे

चिन्ता में

सर पर हाथ धरे बैठे रहते हैं हम।

धूप खिली है, चमक रही है चांदनी

फूलों से घर महक रहा

नहीं देखते हम।

कल किसी ने न देखा

पर कल से डर-डरकर जीते हैं हम।

.

कल किसी ने न देखा

लेकिन कल में ही जी रहे हैं हम।

 

झूठ न बोल

इतना बड़ा झूठ न बोल

कि याद नहीं अब कुछ

न जाने कितने जख़्म हैं

रिसते हैं

टीस देते हैं

कहीं दूर से पुकारते हैं

आंसू हम छिपाते हैं

डायरी के धुंधलाते पन्नों पर

उंगलियां घुमाते-घुमाते

कितने ही उपन्यास

भीतर लिखे जाते हैं।

अपने-आपको ही नकारते हैं

न जाने कैसे

ज़िन्दगी

जीते-जीते हार जाते हैं।

ज़िन्दगी की पूरी कहानी

लिखने को तो

ज़िन्दगी की

पूरी कहानी लिख दूं

दो शब्दों में।

लेकिन नयनों में आये भाव

तुम नहीं समझते।

चेहरे पर लिखीं

लकीरें तुम नहीं पढ़ते।

भावनाओं का ज्वार

तुम नहीं पकड़ते।

तो क्या आस करूं तुमसे

कि मेरी ज़िन्दगी की कहानी

दो शब्दों की ज़बानी

तुम कहां समझोगे।

 

मौसम बदलता है या मन

मौसम बदलता है या मन

समझ नहीं पाते हैं हम।

कभी शीत ऋतु में भी

मन चहकता है

कभी बसन्त भी

बहार लेकर नहीं आता।

ग्रीष्म में मन में

कोमल-कोमल भाव

करवट लेने लगते हैं

तब तपन का

एहसास नहीं होता

और शीत ऋतु में

मन जलता है।

मौसम बदलता है या मन

समझ नहीं पाते हैं हम।

 

बिखरती है ज़िन्दगी

अपनों के बीच

निकलती है ज़िन्दगी,

न जाने कैसे-कैसे

बिखरती है ज़िन्दगी।

बहुत बार रोता है मन

कहने को कहता है मन।

किससे कहें

कैसे कहें

कौन समझेगा यहां

अपनों के बीच

जब बीतती है ज़िन्दगी।

शब्दों को शब्द नहीं दे पाते

आंखों से आंसू नहीं बहते

किसी को समझा नहीं पाते।

लेकिन

जीवन के कुछ

अनमोल संयोग भी होते हैं

जब बिन बोले ही

मन की बातों को

कुछ गैर समझ लेते हैं

सान्त्वना के वे पल

जीवन को

मधुर-मधुर भाव दे जाते हैं।

अपनों से बढ़कर

अपनापन दे जाते हैं।

 

जीवन का गणित

बालपन से ही

हमें सिखा दी जाती हैं

जीवन जीने के लिए

अलग-अलग तरह की

जाने कितनी गणनाएं,

जिनका हल

किसी भी गणित में

नहीं मिलता।

.

लेकिन ज़िन्दगी की

अपनी गणनाएं होती हैं

जो अक्सर हमें

समझ ही नहीं आतीं।

यहां चलने वाला

जमा-घटाव, गुणा-भाग

और जाने कितने फ़ार्मूले

समझ से बाहर रहते हैं।

.

ज़िन्दगी

हमारे जीवन में

कब क्या जमा कर देगी

और कब क्या घटा देगी,

हम सोच ही नहीं सकते।

.

क्या ऐसा हो सकता है

कि गणित के

विषय को

हम जीवन से ही निकाल दें,

यदि सम्भव हो

तो ज़रूर बताना मुझे।

 

ज़िन्दगी के साथ एक और तकरार

अक्सर मन करता है

ज़िन्दगी

तुझसे शिकायत करुं।

न  जाने कहां-कहां से

सवाल उठा लाती है

और मेरे जीने में

अवरोध बनाने लगती है।

जब शिकायत करती हूं

तो कहती है

बस

सवाल एक छोटा-सा था।

लेकिन,

तुम्हारा एक छोटा-सा सवाल

मेरे पूरे जीवन को

झिंझोड़कर रख देता है।

उत्तर तो बहुत होते हैं

मेरे पास,

लेकिन देने से कतराती हूं,

क्योंकि

तर्क-वितर्क

कभी ख़त्म नहीं होते,

और मैं

आराम से जीना चाहती हूं।

बस इतना समझ ले

ज़िन्दगी

तुझसे

हारी नहीं हूं मैं

इतनी भी बेचारी नहीं हूं मैं।

 

 

जीवन के पल

जीवन के

कितने पल हैं

कोई न जाने।

कर्म कैसे-कैसे किये

कितने अच्छे

कितने बुरे

कौन बतलाए।

समय बीत जाता है

न समझ में आता है

कौन समझाये।

सोच हमारी ऐसी

अब आपको

क्या-क्या बतलाएं।

न थे, न हैं, न रहेंगे,

जानते हैं

तब भी मन

चिन्तन करता है हरपल,

पहले क्या थे,

अब क्या हैं,

कल क्या होंगे,

सोच-सोच मन घबराये।

जो बीत गया

कुछ चुभता है

कुछ रुचता है।

जो है,

उसकी चलाचल

रहती है।

आने वाले को

कोई न जाने

बस कुछ सपने

कुछ अपने

कुछ तेरे, कुछ मेरे

बिन जाने, बिन समझे

जीवन

यूं ही बीता जाये।

 

कह रहा है आइना

कह रहा है आईना

ज़रा रंग बदलकर देख

अपना मन बदलकर देख।

देख अपने-आपको

बार-बार देख।

न देख औरों की नज़र से

अपने-आपको,

बस अपने आईने में देख।

एक नहीं

अनेक आईने लेकर देख।

देख ज़रा

कितने तेरे भाव हैं

कितने हैं तेरे रूप।

तेरे भीतर

कितना सच है

और कितना है झूठ।

झेल सके तो झेल

नहीं तो

आईने को तोड़कर देख।

नये-नये रूप देख

नये-नये भाव देख

साहस कर

अपने-आपको परखकर देख।

देख-देख

अपने-आपको आईने में देख।

 

ज़िन्दगी प्रश्न या उत्तर

जिन्हें हम

ज़िन्दगी के सवाल समझकर

उलझे बैठे रहते हैं

वास्तव में

वे सवाल नहीं होते

निर्णय होते हैं

प्रथम और अन्तिम।

ज़िन्दगी

आपसे

न सवाल पूछती है

न किसी

उत्तर की

अपेक्षा लेकर चलती है।

बस हमें समझाती है

सुलझाती है

और अक्सर

उलझाती भी है।

और हम नासमझ

अपने को

कुछ ज़्यादा ही

बुद्धिमान समझ बैठे हैं

कि ज़िन्दगी से ही

नाराज़ बैठे हैं।

 

 

 

 

 

खेल दिखाती है ज़िन्दगी

क्या-क्या खेल दिखाती है ज़िन्दगी।

कभी हरी-भरी,

कभी तेवर दिखाती है ज़िन्दगी।

कभी दौड़ती-भागती,

कभी ठहरी-ठहरी-सी लगती है ज़िन्दगी।

कभी संवरी-संवरी,

कभी बिखरी-बिखरी-सी लगती है जिन्दगी।

स्मृतियों के सागर में उलझाकर,

भटकाती भी है ज़िन्दगी।

हँसा-हँसाकर खूब रुलाती है ज़िन्दगी।

पथरीली राहों पर चलना सिखाती है ज़िन्दगी।

एक गलत मोड़, एक अन्त का संकेत

दे जाती है ज़िन्दगी।

आकाश और धरा एक साथ

दिखा जाती है ज़िन्दगी।

कभी-कभी ठोकर मारकर

गिरा भी देती है ज़िन्दगी।

समय कटता नहीं,

अब घड़ी से नहीं चलती है ज़िन्दगी।

अपनों से नेह मिले

तो सरस-सरस-सी लगती है ज़िन्दगी।

 

 

  

डगमगाये नहीं कदम कभी

डगमगाये नहीं कदम कभी!!!

.

कैसे, किस गुरूर में

कह जाते हैं हम।

.

जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्ते

मन पर मौसम की मार

सफ़लता-असफ़लता की

सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते

अनचाही अव्यवस्थाएँ

गलत मोड़ काटते

अनजाने, अनचाहे गतिरोध

बन्द गलियों पर रुकते

लौट सकने के लिए

राहें नहीं मिलतीं।

भटकन कभी नहीं रुकती।

ज़िन्दगी निकल जाती है

नये रास्तों की तलाश में।

.

कैसे कह दूँ

डगमगाये नहीं कदम कभी!!!

 

दिल का  दिन

हमें

रचनाकारों से

ज्ञात हुआ

दिल का भी दिन होता है।

असमंजस में हैं हम

अपना दिल देखें

या सामने वाले का टटोलें।

एक छोटे-से दिल को

रक्त के आवागमन से

समय नहीं मिलता

और हम, उस पर

पता नहीं

क्या-क्या थोप देते हैं।

हर बात हम दिल के नाम

बोल देते हैं।

अपना दिल तो आज तक

समझ नहीं आया

औरों के दिलों का

पूरा हिसाब रखते हैं।

दिल टूटता है

दिल बिखरता है

दिल रोता है

दिल मसोसता है

दिल प्रेम-प्यार के

किस्से झेलता है।

विरह की आग में

तड़पता है

जलता है दिल

भावों में भटकता है दिल

सपने भी देखता है

ईष्र्या-द्वेष से भरा यह दिल

न जाने

किन गलियों में भटकता है।

तूफ़ान उठता है दिल में

ज्वार-भाटा 

उछालें मारता है।

वैसे कभी-कभी

हँसता-गाता

गुनगुनाता, खिलखिलाता

मस्ती भी करता है।

 

कैसा है यह दिल

नहीं सम्हलता है।

और इतने बोझ के बाद

जब रक्त वाहिनियों में

रक्त जमता है

तब दिमाग खनकता है।

 

यार !

जिसे ले जाना है

ले जाओ मेरा दिल

हम

बिना दिल ही

चैन की नींद सो लेंगे।

जीवन संवर जायेगा

जब हृदय की वादियों में

ग्रीष्म ऋतु हो

या हो पतझड़,

या उलझे बैठे हों

सूखे, सूनेपन की झाड़ियों में,

तब

प्रकृति के

अपरिमित सौन्दर्य से

आंखें दो-चार करना,

फिर देखना

बसन्त की मादक हवाएँ

सावन की झड़ी

भावों की लड़ी

मन भीग-भीग जायेगा

अनायास

बेमौसम फूल खिलेंगे

बहारें छायेंगी

जीवन संवर जायेगा।

 

शुभकामना संदेश
एक समय था

जब हम

हाथों से कार्ड बनाया करते थे

रंगों और मन की

रंगीनियों से सजाया करते थे।

अच्छी-अच्छी शब्दावली चुनकर

मन के भाव बनाया करते थे।

लिफ़ाफ़ों पर

सुन्दर लिखावट से

पता लिखवाया करते थे।

और प्रतीक्षा भी रहती थी

ऐसे ही कार्ड की

मिलेंगे किसी के मन के भावों से

सजे शुभकामना संदेश।

फिर धन्यवाद का पत्र लिखवाया करते थे।

.

समय बदला

बना-बनाया कार्ड आया

मन के रंग

बनाये-बनाये शब्दों के संग

बाज़ार में मिलने लगे

और हम अपने भावों को

छपे कार्ड पर ही समझने लगे।

.

और अब

भाव नहीं

शब्द रह गये

बने-बनाये चित्र

और नाम रह गये।

न कलम है, न कार्ड है

न पत्र है, न तार है

न टिकट है न भार है

न व्यय है

न समय की मार है

पल भर का काम है

सैंकड़ों का आभार है

ज़रा-सी अंगुली चलाईये

एक नहीं,

बीसियों

शुभकामना संदेश पाईये

औपचारिकताएँ निभाईये

काॅपी-पेस्ट कीजिए

एक से संदेश भेजिए

और एक से संदेश पाईये

 

एक पंथ दो काज

आजकल ज़िन्दगी

न जाने क्यों

मुहावरों के आस-पास

घूमने लगी है

न तो एक पंथ मिलता है

न ही दो काज हो पाते हैं।

विचारों में भटकाव है

जीवन में टकराव है

राहें चौराहे बन रही हैं

काज कितने हैं

कहाँ सूची बना पाते हैं

कब चयन कर पाते हैं

चौराहों पर खड़े ताकते हैं

काज की सूची

लम्बी होती जाती है

राहें बिखरने लगती हैं।

जो राह हम चुनते हैं

रातों-रात वहां

नई इमारतें खड़ी हो जाती हैं

दोराहे

और न जाने कितने चौराहे

खिंच जाते हैं

और हम जीवन-भर

ऊपर और नीचे

घूमते रह जाते हैं।

 

 

बहुत आनन्द आता है मुझे

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कहते हैं

सब ऊपर वाले की मर्ज़ी।

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कहते हैं

कर्म कर, फल की चिन्ता मत कर।

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कहते हैं

यह तो मेरे परिश्रम का फल है।

बहुत आनन्द आता है मुझे

जब लोग कर्मों का हिसाब करते हैं

और कहते हैं कि मुझे

कर्मानुसार मान नहीं मिला।

कहते हैं यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई।

कर्मों का लेखा-जोखा

अच्छा-बुरा सब लिखकर भेजा है।

.

आपको नहीं लगता

हम अपनी ही बात में बात

बात में बात कर-करके

और अपनी ही बात

काट-काटकर

अकारण ही

परेशान होते रहते हैं।

-

लेकिन मुझे

बहुत आनन्द आता है।

 

 

मेरी वीणा के तारों में ऐसी झंकार

काल की रेखाओं में

सुप्त होकर रह गये थे

मेरे मन के भाव।

दूरियों ने

मन रिक्त कर दिया था

सिक्त कर दिया था

आहत भावनाओं ने।

बसन्त की गुलाबी हवाएँ

उन्मादित नहीं करतीं थीं

न सावन की घटाएँ

पुकारती थीं

न सुनाती थीं प्रेम कथाएँ।

कोई भाव

नहीं आता था मन में

मधुर-मधुर रिमझिम से।

अपने एकान्त में

नहीं सुनना चाहती थी मैं

कोई भी पुकार।

.

किन्तु अनायास

मन में कुछ राग बजे

आँखों में झिलमिल भाव खिले

हुई अंगुलियों में सरसराहट

हृदय प्रकम्पित हुआ,

सुर-साज सजे।

तो क्या

वह लौट आया मेरे जीवन में

जिसे भूल चुकी थी मैं

और कौन देता

मेरी वीणा के तारों में

ऐसी झंकार।

 

 

कोई तो आयेगा

भावनाओं का वेग

किसी त्वरित नदी की तरह

अविरल गति से

सीमाओं को तोड़ता

तीर से टकराता

कंकड़-पत्थर से जूझता

इक आस में

कोई तो आयेगा

थाम लेगा गति

सहज-सहज।

.

जीवन बीता जाता है

इसी प्रतीक्षा में

और कितनी प्रतीक्षा

और कितना धैर्य !!!!

 

इन्द्रधनुष-सी   ज़िन्दगी

प्रतिदिन निरखती हूँ

आकाश को

भावों से सराबोर

कभी मुस्कुराता

कभी खिल-खिल हँसता

कभी रूठता-मनाता

सूरज, चंदा, तारों संग खेलता

कभी मुट्ठी में बाँधता कभी छोड़ता।

बादलों को अपने ऊपर ओढ़ता

फिर बादलों की ओट से

झाँक-झाँक देखता।

.

आकाश में बिखरे रंगों से

कभी मुलाकात की है आपने?

मेरे मन में अक्सर उतर आते हैं।

गिन नहीं पाती, परख नहीं पाती

बस हाथों में लिए

निरखती रह जाती हूँ।

आकाश से धरा तक बरसते

चाँद-तारों संग गीत गाते

बादलों में उलझते

दिन-रात, सांझ-सवेरे

नवीन आकारों में ढलते

पल-पल, हर पल रूप बदलते

वर्षा की रिमझिम बूँदों से झांकते।

पत्तों पर लहराती

ओस की बूँदों के भीतर

छुपन-छुपाई खेलते।

.

और फिर

सूरज की किरणों से झांकती

रिमझिम बारिश के बीच से

रंगों के बनते हैं भंवर

जिनमें डूबता-उतरता है मन

आकाश में लहराते हैं

लहरिए सात रँग।

.

इन रँगों को अपनी आँखों से

मन के भीतर तक ले जाती हूँ

और इस तरह

इन्द्रधनुष-सी रंगीन

हो जाती है ज़िन्दगी।

 

कैसी कैसी है ज़िन्दगी

कभी-कभी ठहरी-सी लगती है, भागती-दौड़ती ज़िन्दगी ।

कभी-कभी हवाएँ महकी-सी लगती हैं, सुहानी ज़िन्दगी।

गरजते हैं बादल, कड़कती हैं बिजलियाँ, मन यूँ ही डरता है,

कभी-कभी पतझड़-सी लगती है, मायूस डराती ज़िन्दगी।

वनचर इंसानों के भीतर

कहते हैं

प्रकृति स्वयंमेव ही

संतुलन करती है।

रक्षक-भक्षक स्वयं ही

सर्जित करती है।

कभी इंसान

वनचर था,

हिंसक जीवों के संग।

फिर वन छूट गये

वनचरों के लिए।

किन्तु समय बदला

इंसान ने छूटे वनों में

फिर बढ़ना शुरु कर दिया

और अपने भीतर भी

बसा लिए वनचर ।

और वनचर शहरों में दिखने लगे।

कुछ स्वयं आ पहुंचे

और कुछ को हम ले आये

सुरक्षा, मनोरजंन के लिए।

.

अब प्रतीक्षा करते हैं

इंसान फिर वनों में बसता है

या वनचर इंसानों के भीतर।

  

कहते हैं

प्रकृति स्वयंमेव ही

संतुलन करती है।

रक्षक-भक्षक स्वयं ही

सर्जित करती है।

कभी इंसान

वनचर था,

हिंसक जीवों के संग।

फिर वन छूट गये

वनचरों के लिए।

किन्तु समय बदला

इंसान ने छूटे वनों में

फिर बढ़ना शुरु कर दिया

और अपने भीतर भी

बसा लिए वनचर ।

और वनचर शहरों में दिखने लगे।

कुछ स्वयं आ पहुंचे

और कुछ को हम ले आये

सुरक्षा, मनोरजंन के लिए।

.

अब प्रतीक्षा करते हैं

इंसान फिर वनों में बसता है

या वनचर इंसानों के भीतर।

  

अपनी ज़िन्दगी

प्यास अपनी खुद बुझाना सीखो

ज़िन्दगी में बेवजह मुस्कुराना सीखो

कब तक औरों के लिए जीते रहोगे

अपनी ज़िन्दगी खुद संवारना सीखो

सीधी राहों की तलाश में जीवन

अपने दायरे आप खींच

न तकलीफ़ों से आंखें मींच

.

हाथों की लकीरें

अजब-सी

आड़ी-तिरछी होती हैं,

जीवन की राहें भी

शायद इसीलिए

इतनी घुमावदार होती हैं।

किन्तु इन

घुमावदार राहों

पर खिंची

आड़ी-तिरछी लकीरें

गोल दायरों में घुमाती रहती हैं

जीवन भर

और हम

इन राहों के आड़े-तिरछेपन,

और गोल दायरों के बीच

अपने लिए

सीधी राहों की तलाश में

घूमते रहते हैं जीवन भर।

 

जीने की चाहत

जीवन में

एक समय आता है

जब भीड़ चुभने लगती है।

बस

अपने लिए

अपनी राहों पर

अपने साथ

चलने की चाहत होती है।

बात

रोशनी-अंधेरे की नहीं

बस

अपने-आप से बात होती है।

जीवन की लम्बी राहों पर

कुछ छूट गया

कुछ छोड़ दिया

किसी से नहीं कोई आस होती है।

न किसी मंज़िल की चाहत है

न किसी से नाराज़गी-खुशी

बस अपने अनुसार

जीने की चाहत होती है।

 

हम हार नहीं माना करते

तूफ़ानों से टकराते हैं

पर हम हार नहीं माना करते।

प्रकृति अक्सर अपना

विकराल रूप दिखलाती है

पर हम कहाँ सम्हलकर चलते।

इंसान और प्रकृति के युद्ध

कभी रुके नहीं

हार मान कर

हम पीछे नहीं हटते।

प्रकृति बहुत सीख देती है

पर हम परिवर्तन को

छोड़ नहीं सकते,

जीवन जीना है तो

बदलाव से

हम पीछे नहीं हट सकते।

सुनामी आये, यास आये

या आये ताउते

नये-नये नामों के तूफ़ानों से

अब हम नहीं डरते।

प्रकृति

जितना ही

रौद्र रूप धारण करती है

मानवता उससे लड़ने को

उतने ही

नित नये साधन जुटाती है।

 

तब प्रकृति भी मुस्काती है।

 

जग का यही विधान है प्यारे

जग का यही विधान है प्यारे

यहां सोच-समझ कर चल।

रोते को बोले

हंस ले, हंस ले प्यारे,

हंसते पर करे कटाक्ष

देखो, हरदम दांत निपोरे।

चुप्पा लगता घुन्ना, चालाक,

जो मन से खुलकर बोले

बड़बोला, बेअदब कहलाए

जग का यही विधान है प्यारे।

सच्चे को झूठा बतलाए

झूठा जग में झण्डा लहराए।

चलती को गाड़ी कहें

जब तक गाड़ी चलती रहे

झुक-झुक करें सलाम।

सरपट सीधी राहों पर

सरल-सहज जीवन चलता है

उंची उड़ान की चाहत में

मन में न सपना पलता है।

मुझको क्या लेना

मोटर-गाड़ी से

मुझको क्या लेना

ऊँची कोठी-बाड़ी से

छोटी-छोटी बातों में

मन रमता है।

चढ़ते सूरज को करें सलाम।

पग-पग पर अंधेरे थे

वे किसने देखे

बस उजियारा ही दिखता है

जग का यही विधान है प्यारे

यहां सोच-समझ कर चल।

एैसे भी झूले झुलाती है ज़िन्दगी

वाह! ज़िन्दगी !

.

कहाँ पता था

एैसे भी झूले झुलाती है ज़िन्दगी।

आकाश-पाताल

सब एक कर दिखाती है ज़िन्दगी।

क्यों

कभी-कभी इतना डराती है ज़िन्दगी।

शेर-चीते तो सपनों में भी आयें

तब भी नींद उड़ जाती है।

न जाने

किसके लिए कह गये हैं

हमारे बुज़ुर्ग

कि न दोस्ती भली न दुश्मनी।

ये दोस्ती निभा रहे हैं

या दुश्मनी,

ये तो पता नहीं,

किन्तु मेरे

धरा और आकाश

दोनों छीनकर

आनन्द ले रहे हैं,

और मुझे कह रहे हैं

जा, जी ले अपनी ज़िन्दगी।