आंसुओं के निशान

आॅंख से बहता पानी

उतना ही खारा होता है

जितना सागर का पानी।

उतनी ही गहराई होती है

जैसी सागर में।

आॅंखों के भीतर भी

उठती हैं उत्ताल तरंगें,

डूबते हैं भाव,

कसकती हैं आशाएॅं, इच्छाएॅं।

कोरों पर जमती है काई,

भीतर ही भीतर

उठते हैं बवंडर,

भंवर में डूब जाते हैं

न जाने कितने सपने।

बस अन्तर इतना ही है

कि सागर का पानी

कभी सूखता नहीं,

चिन्ह रेत पर छोड़ता नहीं,

मिलते हैं माणिक-मोती

सुच्चे सीपी-शंख।

लेकिन आॅंख का पानी

जब-जब सूखता है

तब-तब भीतर तक

सागर भर-भर जाता है,

लेकिन

फिर भी

देता है शुष्कता का एहसास

और अपने पीछे छोड़ जाता है

अनदेखे जीवन भर के निशान।