शायद कुछ बदले

इधर ग्रीष्म से उद्वेलित थे

उधर धूल ने चादर तान दी

हवाएं कहीं घुट रहीं

यूं तो दिन की बात थी

पर सूरज ने आंख मूंद ली

मन धुंआ-धुंआ-सा हो रहा

न पता दे कोई

कि घटाएं हैं जो बरसेंगी

या सांस रोकेगा धुंआ।

मन में कुछ घुटा-घुटा।

फिर तेज़ आंधी ने

सन्नाटा तोड़ा

धूम-धड़ाका, बिजली कौंधी,

कहीं बादल बरसे,

कहीं धूल उड़ी, कहीं धूल अटी

पर प्रात में, हर बात में

धूल अटी थी,

झाड़-झाड़ कर हार गये।

फिर बरसेगा पानी

तब शायद कुछ बदले।