अपनी-अपनी कयामत

किसी दिन।

आसमान टूट पड़े

धरती हिल जाये

सागर उफ़न पड़े

दुनिया डूबने लगे

शायद

इसे ही कहते हैं न कयामत।

 

नहीं रे !!

सबकी ज़िन्दगी की

अपनी-अपनी कयामत भी होती है।

न आसमान गिरता है

न धरा फ़टती है

न सागर सूखता है

फिर भी

आ जाती है कयामत।

कोई एक बात,

कोई एक शब्द, एक चुटकी,

एक कसक,

कोई नाराज़गी,

कुछ दूरियाॅं

कोई मन-मुटाव,

आॅंख-भर का इशारा

और हो जाती है कयामत।