अकेलापन
अच्छा लगता है.

अकेलापन।

समय देता है

कुछ सोचने के लिए

अपने-आपसे बोलने के लिए।

गुनगुनी धूप

सहला जाती है मन।

खिड़कियों से झांकती रोशनी

कुछ कह जाती है।

रात का उनींदापन

और अलसाई-सी सुबह,

कड़वी-मीठी चाय के साथ

दिन-भर के लिए

मधुर-मधुर भाव दे जाती है।

 

जागरण का आंखों देखा हाल

चलिए,

आज आपको

मेरे परिचित के घर हुए

जागरण का

आंखों देखा हाल सुनाती हूं।

मैं मूढ़

मुझे देर से समझ आया

कि वह जागरण ही था।

भारी भीड़ थी,

कनातें सजी थीं,

दरियां बिछी थीं।

लोगों की आवाजाही लगी थी।

चाय, ठण्डाई का

दौर चल रहा था।

पीछे भोजन का पंडाल

सज रहा था।

लोग आनन्द ले रहे थे

लेकिन मां की प्रतीक्षा कर रहे थे।

इतने में ही एक ट्रक में 

चार लोग आये

बक्सों में कुछ मूर्तियां लाये।

पहले कुछ टूटे-फ़ूटे

फ़ट्टे सजाये।

फिर मूर्तियों को जोड़ा।

आभूषण पहनाये, तिलक लगाये,

भक्त भाव-विभोर

मां के चरणों में नत नज़र आये।

जय-जयकारों से पण्डाल गूंज उठा।

फ़िल्मी धुनों के भक्ति गीतों पर

लोग झूमने लगे।

गायकों की टोली

गीत गा रही थी

भक्तगण झूम-झूमकर

भोजन का आनन्द उठा रहे थे।

भोजन सिमटने लगा

भीड़ छंटने लगी।

भक्त तन्द्रा में जाने लगे।

गायकों का स्वर डूबने लगा।

प्रात होने लगी

कनात लेने वाले

दरियां उठाने वाले

और मूर्तियां लाने वालों की

भीड़ रह गई।

पण्डित जी ने भोग लगाया।

मैंने भी प्रसाद खाया।

ट्रक चले गये

और जगराता सम्पन्न हुआ।

जय मां ।

 

ज़िन्दगी के साथ एक और तकरार

अक्सर मन करता है

ज़िन्दगी

तुझसे शिकायत करुं।

न  जाने कहां-कहां से

सवाल उठा लाती है

और मेरे जीने में

अवरोध बनाने लगती है।

जब शिकायत करती हूं

तो कहती है

बस

सवाल एक छोटा-सा था।

लेकिन,

तुम्हारा एक छोटा-सा सवाल

मेरे पूरे जीवन को

झिंझोड़कर रख देता है।

उत्तर तो बहुत होते हैं

मेरे पास,

लेकिन देने से कतराती हूं,

क्योंकि

तर्क-वितर्क

कभी ख़त्म नहीं होते,

और मैं

आराम से जीना चाहती हूं।

बस इतना समझ ले

ज़िन्दगी

तुझसे

हारी नहीं हूं मैं

इतनी भी बेचारी नहीं हूं मैं।

 

 

चींटियों के पंख

सुना है

चींटियों की

मौत आती है

तो पर निकल आते हैं।

.

किन्तु चिड़िया के

पर नहीं निकलते

तब मौत आती है।

.

कभी-कभी

इंसान के भी

पर निकल आते हैं

अदृश्य।

उसे आप ही नहीं पता होता

कि वह कब

आसमान में उड़ रहा है

और कब धराशायी हो जाता है।

क्योंकि

उसकी दृष्टि

अपने से ज़्यादा

औरों के

पर गिनने पर रहती है।

 

जीवन के पल

जीवन के

कितने पल हैं

कोई न जाने।

कर्म कैसे-कैसे किये

कितने अच्छे

कितने बुरे

कौन बतलाए।

समय बीत जाता है

न समझ में आता है

कौन समझाये।

सोच हमारी ऐसी

अब आपको

क्या-क्या बतलाएं।

न थे, न हैं, न रहेंगे,

जानते हैं

तब भी मन

चिन्तन करता है हरपल,

पहले क्या थे,

अब क्या हैं,

कल क्या होंगे,

सोच-सोच मन घबराये।

जो बीत गया

कुछ चुभता है

कुछ रुचता है।

जो है,

उसकी चलाचल

रहती है।

आने वाले को

कोई न जाने

बस कुछ सपने

कुछ अपने

कुछ तेरे, कुछ मेरे

बिन जाने, बिन समझे

जीवन

यूं ही बीता जाये।

 

जीवन के वे पल

जीवन के वे पल

बड़े

सुखद होते हैं जब

पलभर की पहचान से

अनजाने

अपने हो जाते हैं,

किन्तु

कहीं एक चुभन-सी

रह जाती है

जब महसूस होता है

कि जिनके साथ

सालों से जी रहे थे

कभी

समझ ही न पाये

कि वे

अपने थे या अनजाने।

 

लिख नहीं पाती

मौसम बदल रहा है

बाहर का

या मन का

समझ नहीं पाती अक्सर।

हवाएं

तेज़ चल रही हैं

धूल उड़ रही है,

भावों पर गर्द छा रही है,

डालियां

बहकती हैं

और पत्तों से रुष्ट

झाड़ देती हैं उन्हें।

खिली धूप में भी

अंधकार का एहसास होता है,

बिन बादल भी

छा जाती हैं घटाएं।

लगता है

घेर रही हैं मुझे,

तब लिख नहीं पाती।

 

कह रहा है आइना

कह रहा है आईना

ज़रा रंग बदलकर देख

अपना मन बदलकर देख।

देख अपने-आपको

बार-बार देख।

न देख औरों की नज़र से

अपने-आपको,

बस अपने आईने में देख।

एक नहीं

अनेक आईने लेकर देख।

देख ज़रा

कितने तेरे भाव हैं

कितने हैं तेरे रूप।

तेरे भीतर

कितना सच है

और कितना है झूठ।

झेल सके तो झेल

नहीं तो

आईने को तोड़कर देख।

नये-नये रूप देख

नये-नये भाव देख

साहस कर

अपने-आपको परखकर देख।

देख-देख

अपने-आपको आईने में देख।

 

सपने

अजीब सी होती हैं

ये रातें भी।

कभी जागते बीतती हैं

तो कभी सोते।

कभी सपने आते हैं

तो कभी

सपने डराकर

जगा जाते हैं।

कहते हैं

सिरहाने पानी ढककर

रख दें

तो बुरे सपने नहीं आते।

पर सपनों को

पानी नहीं दिखता।

उन्हें

आना है

तो ही जाते हैं।

कभी सोते-सोते

जगा जाते हैं

कभी पूरी-पूरी रात जगाकर

प्रात होते ही

सुला जाते हैं।

 

एक और अलग-सी बात

दिन हो या रात

अंधेरे में आंखें

बन्द हो ही जाती हैं।

और मुश्किल यह

कि जो देखना होता है

फिर भी देख ही लिया जाता है

क्योंकि

देखते तो हम

मन की आंखों से हैं

अंधेरे और रोशनी

दिन और रात को इससे क्या।

 

ज़िन्दगी प्रश्न या उत्तर

जिन्हें हम

ज़िन्दगी के सवाल समझकर

उलझे बैठे रहते हैं

वास्तव में

वे सवाल नहीं होते

निर्णय होते हैं

प्रथम और अन्तिम।

ज़िन्दगी

आपसे

न सवाल पूछती है

न किसी

उत्तर की

अपेक्षा लेकर चलती है।

बस हमें समझाती है

सुलझाती है

और अक्सर

उलझाती भी है।

और हम नासमझ

अपने को

कुछ ज़्यादा ही

बुद्धिमान समझ बैठे हैं

कि ज़िन्दगी से ही

नाराज़ बैठे हैं।

 

 

 

 

 

वहम की दीवारें

बड़ी नाज़ुक होती हैं

वहम की दीवारें

ज़रा-सा हाथ लगते ही

रिश्तों में

बिखर-बिखर जाती हैं

कांच की किरचों की तरह।

कितने गहरे तक

घाव कर जायेंगी

हम समझ ही नहीं पाते।

सच और झूठ में उलझकर

अनजाने में ही

किरचों को समेटने लग जाते हैं,

लेकिन जैसे

कांच

एक बार टूट जाने पर

जुड़ता नहीं

घाव ही देता है

वैसे ही

वहम की दीवारों से रिसते रिश्ते

कभी जुड़ते नहीं।

जब तक

हम इस उलझन को समझ सकें

दीवारों में

किरचें उलझ चुकी होती हैं।

 

खेल दिखाती है ज़िन्दगी

क्या-क्या खेल दिखाती है ज़िन्दगी।

कभी हरी-भरी,

कभी तेवर दिखाती है ज़िन्दगी।

कभी दौड़ती-भागती,

कभी ठहरी-ठहरी-सी लगती है ज़िन्दगी।

कभी संवरी-संवरी,

कभी बिखरी-बिखरी-सी लगती है जिन्दगी।

स्मृतियों के सागर में उलझाकर,

भटकाती भी है ज़िन्दगी।

हँसा-हँसाकर खूब रुलाती है ज़िन्दगी।

पथरीली राहों पर चलना सिखाती है ज़िन्दगी।

एक गलत मोड़, एक अन्त का संकेत

दे जाती है ज़िन्दगी।

आकाश और धरा एक साथ

दिखा जाती है ज़िन्दगी।

कभी-कभी ठोकर मारकर

गिरा भी देती है ज़िन्दगी।

समय कटता नहीं,

अब घड़ी से नहीं चलती है ज़िन्दगी।

अपनों से नेह मिले

तो सरस-सरस-सी लगती है ज़िन्दगी।

 

 

  

पर्यायवाची शब्दों में हेर-फ़ेर

इधर बड़ा हेर-फ़ेर

होने लगा है

पर्यायवाची शब्दों में।

लिखने में शब्द

अब

उलझने लगे हैं।

लिखा तो मैंने

अभिमान, गर्व था,

किन्तु तुम उसे

मेरा गुरूर समझ बैठे।

अपने अच्छे कर्मों को लेकर

अक्सर

हम चिन्तित रहते हैं।

प्रदर्शन तो नहीं,

किन्तु कभी तो कह बैठते हैं।

फिर इसे

आप मेरा गुरूर समझें

या कोई पर्यायवाची शब्द।

कभी-कभी

अपनी योग्यताएँ

बतानी पड़ती हैं

समझानी पड़ती हैं

क्योंकि

इस समाज को

बुराईयों का काला चिट्ठा तो

पूरा स्मरण रहता है

बस अच्छाईयाँ

ही नहीं दिखतीं।

इसलिए

जताना पड़ता है,

फिर तुम उसे

मेरा गुरूर समझो

या कुछ और।

नहीं तो ये दुनिया तुम्हें

मूर्खानन्द ही समझती रहेगी।

 

ज़िन्दगी सहज लगने लगी है

आजकल, ज़िन्दगी

कुछ नाराज़-सी लगने लगी है।

शीतल हवाओं से भी

चुभन-सी होने लगी है।

नयानाभिराम दृश्य

चुभने लगे हैं नयनों में,

हरीतिमा में भी

कालिमा आभासित होने लगी है।

सूरज की तपिश का तो

आभास था ही,

ये चाँद भी अब तो

सूरज-सा तपने लगा है।

मन करता है

कोई सहला जाये धीरे से

मन को,

किन्तु यहाँ भी कांटों की-सी

जलन होने लगी है।

ज़िन्दगी बीत जाती है

अपनों और परायों में भेद समझने में।

कल क्या था

आज क्या हो गया

और कल क्या होगा कौन जाने

क्यों तू सच्चाईयों से

मुँह मोड़ने लगी है।

कहाँ तक समझायें मन को

अब तो यूँ ही

ऊबड़-खाबड़ राहों पर

ज़िन्दगी सहज लगने लगी है।

 

 

प्रतिबन्धित स्मृतियाँ

जब-जब

प्रतिबन्धित स्मृतियों ने

द्वार उन्मुक्त किये हैं

मन हुलस-हुलस जाता है।

कुछ नया, कुछ पुराना

अदल-बदलकर

सामने आ जाता है।

जाने-अनजाने प्रश्न

सर उठाने लगते हैं

शान्त जीवन में

एक उबाल आ जाता है।

जान पाती हूँ

समझ जाती हूँ

सच्चाईयों से

मुँह मोड़कर

ज़िन्दगी नहीं निकलती।

अच्छा-बुरा

खरा-खोटा,

सुन्दर-असुन्दर

सब मेरा ही है

कुछ भोग चुकी

कुछ भोगना है

मुँह चुराने से

पीछा छुड़ाने से

ज़िन्दगी नहीं चलती

कभी-न-कभी

सच सामने आ ही जाता है

इसलिए

प्रतीक्षा करती हूँ

प्रतिबन्धित स्मृतियों का

कब द्वार उन्मुक्त करेंगी

और आ मिलेंगी मुझसे

जीवन को

नये अंदाज़ में

जीने का

सबक देने के लिए।

 

 

डगमगाये नहीं कदम कभी

डगमगाये नहीं कदम कभी!!!

.

कैसे, किस गुरूर में

कह जाते हैं हम।

.

जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्ते

मन पर मौसम की मार

सफ़लता-असफ़लता की

सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते

अनचाही अव्यवस्थाएँ

गलत मोड़ काटते

अनजाने, अनचाहे गतिरोध

बन्द गलियों पर रुकते

लौट सकने के लिए

राहें नहीं मिलतीं।

भटकन कभी नहीं रुकती।

ज़िन्दगी निकल जाती है

नये रास्तों की तलाश में।

.

कैसे कह दूँ

डगमगाये नहीं कदम कभी!!!

 

सिंदूरी शाम

अक्सर मुझे लगता है

दिन भर

आकाश में घूमता-घूमता

सूरज भी

थक जाता है

और संध्या होते ही

बेरंग-सा होने लगता है

हमारी ही तरह।

ठिठके-से कदम

धीमी चाल

अपने गंतव्य की ओर बढ़ता।

जैसे हम

थके-से

द्वार खटखटाते हैं

और परिवार को देखकर

हमारे क्लांत चेहरे पर

मुस्कान छा जाती है

दिनभर की थकान

उड़नछू हो जाती है

कुछ वैसे ही सूरज

जब बढ़ता है

अस्ताचल की ओर

गगन

चाँद-तारों संग

बिखेरने लगता है

इतने रंग

कि सांझ सराबोर हो जाती है

रंगों से।

और

बेरंग-सा सूरज

अनायास झूम उठता है

उस सिंदूरी शाम में

जाते-जाते हमें भी रंगीनियों से

भर जाता है।

 

दिल चीज़ क्या है

आज किसी ने पूछा

‘‘दिल चीज़ क्या है’’?

-

अब क्या-क्या बताएँ आपको

बड़़ी बुरी चीज़ है ये दिल।

-

हाय!!

कहीं सनम दिल दे बैठे

कहीं टूट गया दिल

किसी पर दिल आ गया,

किसी को देखकर

धड़कने रुक जाती हैं

तो कहीं तेज़ हो जाती हैं

कहीं लग जाता है किसी का दिल

टूट जाता है, फ़ट जाता है

बिखर-बिखर जाता है

तो कोई बेदिल हो जाता है सनम।

पागल, दीवाना है दिल

मचलता, बहकता है दिल

रिश्तों का बन्धन है

इंसानियत का मन्दिर है

ये दिल।

कहीं हो जाते हैं

दिल के हज़ार टुकड़े

और किसी -किसी का

दिल ही खो ही जाता है।

कभी हो जाती है

दिलों की अदला-बदली।

 फिर भी ज़िन्दा हैं जनाब!

ग़जब !

और कुछ भी हो

धड़कता बहुत है यह दिल।

इसलिए

अपनी धड़कनों का ध्यान रखना।

वैसे तो सुना है

मिनट-भर में

72 बार

धड़कता है यह दिल।

लेकिन

ज़रा-सी ऊँच-नीच होने पर

लाखों लेकर जाता है

यह दिल।

इसलिए

ज़रा सम्हलकर रहिए

इधर-उधर मत भटकने दीजिए

अपने दिल को।

 

सांझ-सवेरे भागा-दौड़ी

सांझ-सवेरे, भागा-दौड़ी

सूरज भागा, चंदा चमका

तारे बिखरे

कुछ चमके, कुछ निखरे

रंगों की डोली पलटी

हल्के-हल्के रंग बदले

फूलों ने मुख मोड़ लिए

पल्लव देखो सिमट गये

चिड़िया ने कूक भरी

तितली-भंवरे कहाँ गये

कीट-पतंगे बिखर गये

ओस की बूँदें टहल रहीं

देखो तो कैसे बहक रहीं

रंगों से देखो खेल रहीं

अभी यहीं थीं

कहाँ गईं, कहाँ गईं

ढूंढो-ढूंढों कहाँ गईं।

 

बचपन-बचपन खेलें

हमने फ़ोन बनाया

न बिल आया

न हैंग हुआ।

न पैसे लगे

न टैंग हुआ।

न टूटे-फ़ूटे,

न सिग्नल की चिन्ता

न चार्ज किया।

न लड़ाई

न बहस-बसाई।

जब तक

चाहे बात करो

कोई न रोके

कोई न टोके।

हम भी लें लें

तुम भी ले लो

आओ आओ

बचपन-बचपन खेलें।

 

औरत होती है एक किताब

औरत होती है एक किताब।

सबको चाहिए

पुरानी, नई, जैसी भी।

अपनी-अपनी ज़रूरत

अपनी-अपनी पसन्द।

उस एक किताब की

अपने अनुसार

बनवा लेते हैं

कई प्रतियाँ,

नामकरण करते हैं

बड़े सम्मान से।

सबका अपना-अपना अधिकार

उपयोग का

अपना-अपना तरीका

अदला-बदली भी चलती है।

कुछ पृष्ठ कोरे रखे जाते है

इस किताब में

अपनी मनमर्ज़ी का

लिखने के लिए।

और जब चाहे

फाड़ दिये जाते हैं कुछ पृष्ठ।

सब मालिकाना हक़

जताते हैं इस किताब पर,

किन्तु कीमत के नाम पर

सब चुप्पी साध जाते हैं।

सबसे बड़ा आश्चर्य यह

कि पढ़ता कोई नहीं

इस किताब को

दावा सब करते हैं।

उपयोगी-अनुपयोगी की

बहस चलती रहती है

दिन-रात।

वैसे कोई रैसिपी की

किताब तो नहीं होती यह

किन्तु सबसे ज़्यादा

काम यहीं आती है।

अपने-आप में

एक पूरा युग जीती है

यह किताब

हर पन्ने पर

लिखा होता है

युगों का हिसाब।

अद्भुत है यह किताब

अपने-आपको ही पढ़ती है

समझने की कोशिश करती है

पर कहाँ समझ पाती है।

 

ज़िन्दगी निकल जाती है

कहाँ जान पाये हम

किसका ध्वंस उचित है

और किसका पालन।

कौन सा कर्म सार्थक होगा

और कौन-सा देगा विद्वेष।

जीवन-भर समझ नहीं पाते

कौन अपना, कौन पराया

किसके हित में

कौन है

और किससे होगा अहित।

कौन अपना ही अरि

और कौन है मित्र।

जब बुद्धि पलटती है

तब कहाँ स्मरण रहते हैं

किसी के

उपदेश और निर्देश।

धर्म और अधर्म की

गाँठे बन जाती हैं

उन्हें ही

बांधते और सुलझाते

ज़िन्दगी निकल जाती है

और एक नये

युद्धघोष की सम्भावना

बन जाती है।

 

अपने-आपसे करते हैं  हम फ़रेब

अपने-आपसे करते हैं

हम फ़रेब

जब झूठ का

पर्दाफ़ाश नहीं करते।

किसी के धोखे को

सहन कर जाते हैं,

जब हँसकर

सह लेते हैं

किसी के अपशब्द।

हमारी सच्चाई

ईमानदारी का

जब कोई अपमान करता है

और हम

मन मसोसकर

रह जाते हैं

कोई प्रतिवाद नहीं करते।

हमारी राहों में

जब कोई कंकड़ बिछाता है

हम

अपनी ही भूल समझकर

चले रहते हैं

रक्त-रंजित।

औरों के फ़रेब पर

तालियाँ पीटते हैं

और अपने नाम पर

शर्मिंदा होते हैं।

 

 

मन ठोकर खाता
चलते-चलते मन ठोकर खाता

कदम रुकते, मन सहम जाता

भावों की नदिया में घाव हुए

समझ नहीं, मन का किससे नाता

अपनों की यादें

अपनों की यादें

कुछ कांटें, कुछ फूल

कुछ घाव, कुछ मरहम

कुछ हँसी, कुछ रुदन

धुंधलाते चेहरे।

.

ज़िन्दगी बीत गई

अपनों-परायों की

पहचान ही न हो पाई।

वे अपने थे या पराये

कभी समझ ही न पाये।

हमारे जीवन के

फीके पड़ते रंगों में

रिश्ते भी

फीके पड़ने लगे।

पहचान मिटने लगी,

नाम सिमटने लगे।

आंधियों में

वे सब

दूर ओट में खड़े

देखते रहे हमें

बिखरते हुए,

और 

इन्द्रधनुष खिलते ही

वे हमें पहचान गये।

अपने कौन होते हैं

आज तक

जान ही न पाये।

 

भोर की आस

चिड़िया आई

कहती है

भोर हुई,

उठ जा, भोर हुई।

आ मेरे संग

चल नये तराने गा,

रंगों से

मन में रंगीनीयाँ ला।

चल

एक उड़ान भर

मन में उमंग ला।

धरा पर पाँव रख।

गगन की आस रख।

जीवन में भाव रख।

रात की बात कर

भोर की आस रख।

चल मेरे संग उड़ान भर।

 

वहीं के वहीं खड़े हैं

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये।

अक्सर लगता है

जहाँ से चले थे

वहीं के वहीं खड़े हैं

कदम ठहरे से

भाव सहमे से

प्रश्न झुंझलाते से

उत्तर नाकाम।

न लहरों में

लहरें

न हवाओं में

सिरहन

न बातों में

मिठास

न अपनों से

अपनापन

भावहीन-सा मन

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये

एक अर्थहीन

ठहराव में जी रहे हैं

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये।

अक्सर लगता है

जहाँ से चले थे

वहीं के वहीं खड़े हैं।

 

अपना-अपना सूरज

द्वार पर पैर रखते ही निशि को माँ की नाराज़गी का सामना करना पड़ा, ‘‘अगर कल से इस तरह घर लौटने में आधी रात की न तो आगे से घर से लौटना बन्द कर दूँगी। रोज़ समझाती हूँ पर तेरे कान में बात नहीं पड़ती लड़की।’’

निशि डरते-डरते माँ के निकट आ खड़ी हुई, ‘‘लेकिन मम्मी मैं तो आपसे पूछकर ही गई थी यहीं पड़ोस में नीरा के घर। दूर थोड़े ही जाती हूँ और अभी तो अंधेरा भी नहीं हुआ। देखो धूप........।’’

माँ ने झल्लाकर बात काटी, ‘‘हाँ, अंधेरा तो तब होगा जब किसी दिन नाक कटवा लायेगी हमारी।’’

‘‘इसकी ज़बान ज़्यादा चलने लगी है मम्मी’’, अन्दर से नितिन की आवाज़ आई।

‘‘तू कौन होता है बीच में बोलने वाला?’’निशि को छोटे भाई का हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगा।

नितिन उठकर बाहर आया और निशि की चोटी खींचता हुआ बोला, ‘‘मम्मी, इसे समझाओ मैं कौन होता हूँ बोलने वाला।’’

बाल खिंचने से हुई निशि की पीड़ा माँ के तीखे स्वर में दबकर रह गई, ‘‘क्यों भाई नहीं है तेरा। यह तेरी चिन्ता नहीं करेगा तो कौन करेगा? कल को दुनियादारी तो इसे ही निभानी है। कौन सम्हालेगा अगर कोई ऊँच-नीच हो गई तो?’’

माँ की शह पर नितिन का यह रोब निशि के असहनीय था, किन्तु इससे पूर्व कि वह कुछ बोले, माँ नितिन की ओर उन्मुख हुई, ‘‘और तू यहाँ इस समय घर में बैठा क्या कर रहा ह? सूरज अभी ढला नहीं कि तू घर में मुँह छुपाकर बैठ जाता है। जा, बाहर जाकर दोस्तों के साथ खेल। शाम को ज़रा घूमा-फिराकर सेहत बनती है।’’

और निशि! अवाक् खड़ी थी। पूछना चाहती थी कि जब उसकी आधी रात हो जाती है, तब भाई का सूरज भी नहीं ढलता। ऐसा कैसे सम्भव है? क्या सबका सूरज अलग-अलग होता है? उसका और नितिन का सूरज एक साथ क्यों नहीं डूबता?

क्यों? क्यों?

वह घूम रही है, पूछ रही है, चिल्ला रही है, ‘‘बताओ, मेरा सूरज अलग क्यों डूबता है? क्यों डूबता है मेरा सूरज इतनी जल्दी? क्यों डूब जाता है मेरा सूरज धूप रहते?

 क्यों? क्यों?

पर कोई उत्तर नहीं देता। सब सुनते हैं और हँसते हैं। धरती-आकाश, पेड़-पौधे, चाँद-तारे, फूल-पत्थर, सब हँसते हैं,

बौरा गई है लड़की, इतना भी नहीं जानती कि लड़के और लड़कियों का सूरज अलग-अलग होता है।

पर निशि सच में ही बौरा गई है। हाथ फैलाए सूरज की ओर दौड़ रही है और कहती है मैं अपना सूरज डूबने नहीं दूँगी।

  

लज्जा:नारी का आभूषण
आज एक आप्त वाक्य मिला  ‘‘लज्जा नारी का आभूषण है।’’ वैसे एक ओर तो मुझे अच्छा लगा कि कोई एक तो आभूषण है जिस पर नारी को किसी भी व्यंग्य बाण का सामना नहीं करना पड़ता। जिस नारी के पास यह आभूषण नहीं है वह गहन आलोचना की पात्र होती है। और हाँ, इस आभूषण के साथ नीची नज़र, आँख की शर्म, घूँघट, पल्लू और न जाने कितने और आभूषण जुड़ जाते हैं। और मेरी अधिकतम जानकारी में यह भी आया है कि आधुनिक नारी अब अच्छी नहीं रही क्योंकि उसने इन आभूषणों को धारण करना बन्द कर दिया है।

यह तो हुई हास-परिहास की बात। किन्तु मुझे यह समझ नहीं आता कि लज्जा भाव की आवश्यकता नारी को ही क्यों?

लज्जा एक भाव एवं गुण है जो किसी के विनम्र स्वभाव की पहचान है। स्वनियन्त्रण, सबका आदर करना, विनम्रता आदि ही तो लज्जा के गुण हैं। कहा जाता है कि आधुनिक नारी में लज्जा भाव नहीं रह गया और यह उसके वस्त्रों से भी पता लगता है।  नारी के देह-प्रदर्शनीय वस्त्र निश्चय ही खलते हैं किन्तु जब बड़े-बड़े मंचों पर बड़े-बड़े देह प्रदर्शन करते हैं तो उसे सौन्दर्य,  कहा जाता है। जब भी ऐसी भारतीय संस्कृति, संस्कार, शील आदि की बात होती है जो परोक्ष रूप में लज्जा के साथ जोड़े जाते हैं तो केवल नारी की ही बात क्यों होती है, पुरुष की क्यों नहीं। यदि हमारे समाज में ये सारे गुण नारी के साथ-साथ पुरुषों में भी आ जायें तो सच में ही इस धरा पर स्वर्ग आ जाये यदि कहीं होता हो तो।

   

 

प्यार का नाता

एक प्यार का नाता है, विश्वास का नाता है

भाई-बहन से मान करता, अपनापन भाता है

दूर रहकर भी नज़दीकियाँ यूँ बनी रहें सदा

जब याद आती है, आँख में पानी भर आता है