कांगड़ी बोली में छन्दमुक्त कविता

चल मनां अज्ज सिमले चलिए,

पहाड़ां दी रौनक निरखिए।

बसा‘च जाणा कि

छुक-छुक गड्डी करनी।

टेडे-फेटे मोड़़ा‘च न डरयां,

सिर खिड़किया ते बा‘र न कड्यां,

चल मनां अज्ज सिमले चलिए।

-

माल रोडे दे चक्कर कटणे

मुंडु-कुड़ियां सारे दिखणे।

भेडुआं साई फुदकदियां छोरियां,

चुक्की लैंदियां मणा दियां बोरियां।

बालज़ीस दा डोसा खादा

जे न खादे हिमानी दे छोले-भटूरे

तां सिमले दी सैर मनदे अधूरे।

रिज मदानां गांधी दा बुत

लकड़ियां दे बैंचां पर बैठी

खांदे मुंगफली खूब।

गोल चक्कर बणी गया हुण

गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।

लक्कड़ बजारा जाणा जरूर

लकड़िया दी सोटी लैणी हजूर।

जाखू जांगें तां लई जाणी सोटी,

चड़दे-चड़दे गोडे भजदे,

बणदी सा‘रा कन्ने

बांदरां जो नठाणे‘, कम्मे औंदी।

स्कैंडल पाईंट पर खड़े लालाजी

बोलदे इक ने इक चला जी।

मौसम कोई बी होये जी

करना नीं कदी परोसा जी।

सुएटर-छतरी लई ने चलना

नईं ता सीत लई ने हटणा।

यादां बड़ियां मेरे बाॅल

पर बोलदे लिखणा 26 लाईनां‘च हाल।

 

 

हिन्दी अनुवाद

चल मन आज शिमला चलें,

पहाडों की रौनक देखें।

बस में जाना या

छुक-छुक गाड़ी करनी।

टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से न डरना

सिर खिड़की से बाहर न निकालना

चल मन आज शिमला चलें।

 

माल रोड के चक्कर काटने

लड़के-लड़कियां सब देखने

भेड़ों की तरह फुदकती हैं लड़कियां

उठा लेती हैं मनों की बोरियां।

बालज़ीस का डोसा खाया

और यदि न खाये हिमानी के भटूरे

तो शिमले की सैर मानेंगे अधूरे।

रिज मैदान पर गांधी का बुत।

लकड़ियों के बैंचों पर बैठकर

खाई मूंगफ़ली खूब।

गोल चक्कर बन गया अब

गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।

लक्कड़ बाज़ार जाना ज़रूर।

लकड़ी की लाठी लेना  हज़ूर।

जाखू जायेंगे तो ले जाना लाठी,

चढ़ते-चढ़ते घुटने टूटते

साथ बनती है सहारा,

बंदरों को भगाने में आती काम।

स्कैंडल प्वाईंट पर खड़े लालाजी

कहते हैं एक के साथ एक चलो जी।

मौसम कोई भी हो

करना नहीं कभी भरोसा,

स्वैटर-छाता लेकर चलना,

नहीं तो शीत लेकर हटना।

यादें बहुत हैं मेरे पास

पर कहते हैं 26 पंक्तियों में लिखना है हाल।

 

 

 

 

 

समय के साथ

हवा आती है

और बन्द खिड़कियों से टकराकर

लौट जाती है।

हमें अब

खिड़कियां खोलने की

आदत नहीं रही।

ताज़ी हवा

और पहली बरसात से हमें

सर्दी लग जाती है।

मिट्टी से सौंधी-सौंधी गंध आने पर

हम नाक पर

रुमाल रख लेते हैं

और चढ़ते सूरज की धूप से

लूह लग जाने का

डर लगता है।

फिर खिड़कियां खोल देने पर

हो सकता है

ताज़ी हवा के साथ

कुछ मिट्टी, कुछ कंकड़

कुछ नया-पुराना, कुछ अच्छा-बुरा

भी चला आये।

अब हवा में ये सब

ज़्यादा हो गये हैं

और इन सबको

सहने की हमारी आदत कम।

हम आदी हो गये हैं

पंखे की हवा, बिजली की रोशनी 

और फ्रिज के पानी के अपने-आप में बंद।

हवा की छुअन से

नहीं महसूस होती अब

वह मीठी-सी सिहरन

जो मन में उमंग जगाती थी

और अन्तर्मन के तारों को

कोई मीठा गीत गाने के लिए

झंकृत कर जाती थी।

हवा ने भी हमारी ही तरह

बच-बचकर निकलना सीख लिया है

न इस पर किसी का कोई रंग चढ़ता है

और न इसका रंग किसी पर चढ़ता है।

और कौन जीता है

कौन मरता है

किसी को क्या फ़र्क पड़ता है।

हमें भी अब

मौसम के अनुसार जीने की आदत नहीं रही।

इसलिए हमने

हवा को बाहर कर दिया हे

और अपने-आपको

कमरे में बन्द।

हवा के बदलते रुख पर

चर्चा करने के लिए

हमने अपने कमरों को

वातानुकूलित कर लिया है

सावन-भादों, ज्येष्ठ-पौष

सब वातानुकूलित होकर

हमारे कमरों में बन्द हो गये हैं

और हम

अपने-आपमें।

 

यह मेरा शिमला है

बस एक छोटी सी सूचना मात्र है

तुम्हारे लिए,

कि यह शहर

जहां तुम आये हो,

इंसानों का शहर है।

इसमें इतना चकित होने की

कौन बात है।

कि यह कैसा अद्भुत शहर है।

जहां अभी भी इंसान बसते हैं।

पर तुम्हारा चकित होना,

कहीं उचित भी लगता है ।

क्योंकि ,जिस शहर से तुम आये हो,

वहां सड़कों पर,

पत्थरों को चलते देखा है मैंने,

बातें गाड़ियां और मोटरें करती हैं हवा से।

हंसते और खिलखिलाते हैं

भोंपू और बाजे।

सिक्का रोटी बन गया है।

 पर यह शहर जहां तुम अब आये हो,

यहां अभी भी इंसान ही बसते हैं।

स्वागत है तुम्हारा।

 

समाचार पत्र की आत्मकथा

 

अब समाचार-पत्र

समाचारों की बात नहीं करते,

क्या बात करते हैं

यही समझने में दिन बीत जाता है।

बस एक नज़र में

पूरा समाचार-पत्र पढ़ लिया जाता है।

जब समाचार-पत्र लेने की बात आती है,

तब उसकी गुणवत्ता से अधिक

उसकी रद्दी

कितने अच्छे भाव में बिकेगी,

यह ख्याल आता है।

कौन सा समाचार-पत्र

क्या उपहार लेकर आयेगा,

इस पर विचार किया जाता है।

कभी समय था

समाचार-पत्र घर में आने पर

कोहराम मच जाता था।

किसको कौन-सा पृष्ठ चाहिए ,

इस बात पर युद्ध छिड़ जाता था।

पिता की टेढ़ी आंख

कोई समाचार-पत्र को

उनसे पूछे बिना

हाथ नहीं लगा सकता था।

सम्पादकीय पृष्ठ पर

पिताजी का अधिकार,

सामान्य ज्ञान बड़े भाई के पास ,

और मां के नाम महिलाओं का पृष्ठ,

बच्चों का कोना, कार्टून और चुटकुले।

सालों-साल समाचार-पत्रों की कतरनें

अलमारियों से झांकती थी।

हिन्दी का समाचार-पत्र

बड़ी कठिनाई से

मां के आग्रह पर लिया जाता था।

और वह सस्ते भाव बिकता था।

धारावाहिक कहानियां,

बुनाई-कढ़ाई के डिज़ाईन,

रंग-बिरंगे चित्र,

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए,

सामान्य ज्ञान की फ़ाईलें,

पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई जाती थीं।

यही समाचार-पत्र अलमारियों में

बिछाये जाते थे,

पुस्तकों-कापियों पर चढ़ाये जाते थे,

और दोपहर के भोजन के लिए भी

यही टिफ़न, फ़ायल हुआ करते थे।

शनिवार-रविवार का समाचार-पत्र

वैवाहिक विज्ञापनों के लिए

लिया जाता था।

 

समाचार-पत्रों पर लिखना

यूं लगा

मानों जीवन के किसी अनुभूत

सुन्दर सत्य, संस्मरण,

यात्रा-वृतान्त का लिखना

जिसका कोई आदि नहीं, अन्त नहीं।

 

असमंजस

भीड़ से बचते हैं हम

लेकिन

अकेलापन पूछता है

क्या तुम्हारा कोई नहीं।

क्या कहूं

अपने-आप से

या अकेलेपन से।

भीड़ इतनी

कि अपने-पराये की पहचान

कहीं खो गई है।

या तो सब अपने-से लगते हैं

या कोई नहीं।

और भीड़ का तो

कोई चेहरा भी नहीं,

किसे कहूं अपना

और किसे छोड़ दूं।

 

यह कैसा असमंजस है।

 

कभी गोल हुआ करता था पैसा

कभी गोल हुआ करता था पैसा

इसलिए कहा जाता था

टिकता नहीं किसी के पास।

पता नहीं

कब लुढ़क जाये,

और हाथ ही न आये।

फिर खन-खन भी करता था पैसा।

भरी और भारी रहती थीं

जेबें और पोटलियां।

बचपन में हम

पैसों का ढेर देखा करते थे,

और अलग-अलग पैसों की

ढेरियां बनाया करते थे।

घर से एक पैसा मिलता था

स्कूल जाते समय।

जिस दिन पांच या दस पैसे मिलते थे,

हमारे अंदाज़ शाही हुआ करते थे।

लेकिन अब कहां रह गये वे दिन,

जब पैसों से आदमी

शाह हुआ करता था।

अब तो कागज़ से सरक कर

एक कार्ड में पसर कर

रह गया है पैसा।

वह आनन्द कहां

जो रेज़गारी गिनने में आता था।

तुम क्या समझोगे बाबू!!!

 

 

आत्मस्वीकृति

कौन कहता है

कि हमें ईमानदारी से जीना नहीं आता

अभी तो जीना सीखा है हमने।

 

दुकानदार जब सब्जी तोलता है

तो दो चार मटर, एक दो टमाटर

और कुछ छोटी मोटी

हरी पत्तियां तो चखी ही जा सकती हैं।

वैसे भी तो वह ज्यादा भाव बताकर

हमें लूट ही रहा था।

राशन की दुकान पर

और कुछ नहीं तो

चीनी तो मीठी ही है।

 

फिर फल वाले का यह कर्त्तव्य है

कि जब तक हम

फलों को जांचे परखें, मोल भाव करें

वह साथ आये बच्चे को

दो चार दाने अंगूर के तो दे।

और फल चखकर ही तो पता लगेगा

कि सामान लेने लायक है या नहीं

और बाज़ार से मंहगा है।

 

किसे फ़ुर्सत है देखने की

कि सिग्रेट जलाती समय

दुकानदार की माचिस ने

जेब में जगह बना ली है।

और अगर बर्तनों की दुकान पर

एक दो चम्मच या गिलास

टोकरी में गिर गये हैं

तो इन छोटी छोटी चीज़ों में

क्या रखा है

इन्हें महत्व मत दो

इन छोटी छोटी वारदातों को

चोरी नहीं ज़रूरत कहते हैं

ये तो ऐसे ही चलता है।

 

कौन परवाह करता है

कि दफ्तर के कितने पैन, कागज़ और रजिस्टर

घर की शोभा बढ़ा रहे हैं

बच्चे उनसे तितलियां बना रहे हैं

हवाई जहाज़ उड़ा रहे हैं

और उन कागज़ों पर

काले चोर की तस्वीर बनाकर

तुम्हें ही डरा रहे हैं।

लेकिन तुम क्यों डरते हो  ?

कौन पहचानता है इस तस्वीर को

क्योंकि हम सभी का चेहरा

किसी न किसी कोण से

इस तस्वीर के पीछे छिपा है

यह और बात है कि

मुझे तुम्हारा और तुम्हें मेरा दिखा है।

इसलिए बेहतर है दोस्त

हाथ मिला लें

और इस चित्र को

बच्चे की हरकत कह कर जला दें।

 

क्लोज़िंग डे

हर छ: महीने बाद

वर्ष में दो बार आने वाला

क्लोज़िंग डे

जब पिछले सब खाते

बन्द करने होते हैं

और शुरू करना होता है

फिर से नया हिसाब किताब।

मिलान करना होता है हर प्रविष्टि का,

अनेक तरह के समायोजन

और एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति।

मैंने कितनी ही बार चाहा

कि अपनी ज़िन्दगी के हर दिन को

बैंक का क्लोज़िंग डे बना दूं।

ज़िन्दगी भी तो बैंक का एक खाता ही है

पर फर्क बस इतना है कि

बैंक और बैंक के खाते

कभी तो लाभ में भी रहते हैं

ब्याज दर ब्याज कमाते हैं।

पर मेरी ज़िन्दगी तो बस

घाटे का एक उधार खाता बन कर रह गई है।

 

रोज़ शाम को

जब ज़िन्दगी की किताबों का

मिलान करने बैठती हूं

तो पाती हूं

कि यहां तो कुछ भी समायोजित नहीं होता।

कहीं कोई प्रविष्टि ही गायब है

तो कहीं एक के उपर एक

इतनी बार लिखा गया है कई कुछ

कि अपठनीय हो गया है सब।

फिर कहीं पृष्ट ही गायब हैं

और कहीं पर्चियां बिना हस्ताक्षर।

सब नियम विरूद्ध।

और कहीं दूर पीछे छूटते लक्ष्य।

कितना धोखा धड़ी भरा खाता है यह

कि सब नामे ही नामे है

जमा कुछ भी नहीं।

फिर खाता बन्द कर देने पर भी

उधार चुकता नहीं होता

उनका नवीनीकरण हो जाता है।

पिछला सब शेष है

और नया शुरू हो जाता है।

पिछले लक्ष्य अधूरे

नये लक्ष्यों का खौफ़।

एक एक कर खिसकते दिन।

दिन दिन से जुड़कर बनते साल।

उधार ही उधार।

कैसे चुकता होगा सब।

विचार ही विचार।

यह दिनों और सालों का हिसाब।

और उन पर लगता ब्याज।

इतिहास सदा ही लम्बा होता है

और वर्तमान छोटा।

इतिहास स्थिर होता है

और वर्तमान गतिशील।

सफ़र जारी है

उस दिन की ओर 

जिस दिन

अपनी ज़िन्दगी के खातों में

कोई समायोजित प्रविष्टि,

कोई मिलान प्रविष्टि

करने में सफ़लता मिलेगी।

वही दिन

मेरी जिन्दगी का

ओपनिंग  डे होगा

पर क्या कोई ऐसा भी दिन होगा ?

 

भेदभावकारी योजनाएं

(पंजाब नैशनल बैंक में एक योजना है “बहुलाभकारी”

बैंक में लिखा था “बहू लाभकारी”

इस मात्रा भेद ने मुझे इस रचना के लिए प्रेरित किया)

 

प्रबन्धक महोदय हैरान थे।

माथे पर

परेशानी के निशान थे।

बैंक के बाहर शहर भर की सासें जमा थीं

और मज़े की बात यह

कि इन सासों की नेता

प्रबन्धक महोदय की अपनी अम्मां थीं।

 

उनके हाथों में

बड़ी बड़ी तख्तियां थीं

नारे थे और फब्तियां थीं :

“प्रबन्धक महोदय को हटाओ

नहीं तो सासलाभकारी योजना चलाओ।

ये बैंक में परिवारवाद फैला रहे हैं

पत्नियों के नाम से

न जाने कितना कमा रहे हैं।

और हम सासों को

सड़क का रास्ता दिखा रहे हैं।

 

वे नये नये प्रबन्धक बने थे।

शादी भी नयी नयी थी।

अपनी पत्नी और माता के संग

इस शहर में आकर

अभी अभी बसे थे

फिर सास बहू में खूब पटती थी,

प्रबन्धक महोदय की जिन्दगी

बढ़िया चलती थी।

 

पर यह आज क्या हो गया?

अपनी अम्मां को देख

प्रबन्धक महोदय घबराये।

केबिन से उठकर बाहर आये।

और अम्मां से बोले

“क्या हो गया है तुम्हें अम्मां

ये तख्तियां लिए जुलूस में खड़ी हो।

क्यों मुझे नौकरी से निकलवाने पर तुली हो।

घर जाओ, खाओ पकाओ

सास बहू मौज उड़ाओ।

 

अम्मां ने दो आंसू टपकाए

और भरे गले से बोलीं

“बेटा, दुनिया कहती थी

शादी के बाद

बेटे बहुओं के होकर रह जाते हैं

पर मैं न मानती थी।

पर आज मैंने

अपनी आंखों से देख ली तुम्हारी करतूत।

बहू के आते ही

हो गये तुम कपूत।

सुन लो,

मैं इन सासों की नेता हूं।

और हम सासों की भीड़

यहां से हटानी है

तो इस बोर्ड पर लिख दो

कि तुम्हें

सासलाभकारी योजना चलानी है।“

 

यह सुन प्रबन्धक महोदय बोले,

“सुन ओ सासों की नेता,

जो कहता है तेरा बेटा,

ये योजनाएं तो उपर वाले बनाते हैं

इसमें हम प्रबन्धक कुछ नहीं कर पाते हैं।“

 

“झूठ बोलते हो तुम,

“परबन्धक “ अपनी बहू के”

सासों की नेता बोलीं

“शादी के बाद इधर आये हो

तभी तो ये बोर्ड लगवाए हो।

पुराने दफ्तर में तो

ये योजनाएं न थीं

वहां तो कोई तख्तियां जड़ीं न थीं।“

 

“ओ सासों की नेता

मैं पहले क्षेत्रीय कार्यालय में काम था करता।

किसी योजना में हाथ नहीं होता मेरा

किसने तुम्हें भड़का दिया

मैं सच्चा सुपूत हूं तेरा।“

प्रबन्धक महोदय बोले

“किसी भी योजना में

धन लगा दो, ओ सासो !

बैंक सबको

 

बिना भेद भाव

समान दर से है ब्याज है देता।

इस सासलाभकारी योजना की याद

तुम्हें क्यों आई ?

मेरे बैंक की

कौन सी योजना तुम्हें नहीं भाई ?

 

सासों की सामूहिक आवाज़ आई,

“यदि बैंक भेद भाव नहीं करता

तो यह बहू लाभकारी योजना क्यों चलाई?

तभी तो हमें

सासलाभकारी योजना की याद आई।

यदि सासों की भीड़ यहां से हटानी है

तो इस तख्ती पर लिख दो

कि तुम्हें

सास लाभकारी योजना चलानी है।

और यदि

सास लाभकारी योजना न चलाओ,

तो अपनी यह

बहू लाभकारी योजना हटाओ,

और सास बहू के लिए

कोई एक सी योजना चलाओ।“

 

मैमोरैण्डम

हर डायरी के

प्रारम्भ और अन्त में

जड़े कुछ पृष्ठ पर

जिन पर लिखा होता है

‘मैमोरैण्डम’ अर्थात् स्मरणीय।

मैमोरी के लिए

स्मरण रखने के लिए है क्या ?

वे बीते क्षण

जो बीतकर

या तो बीत गये हैं

या बीतकर भी

अनबीते रह गये हैं।

अथवा वे आने वाले क्षण

जो या तो आये ही नहीं

या बिना आये ही चले गये हैं।

बीत गये क्षण: एक व्यर्थता -

बडे़-बड़े विद्वानों ने कहा है

भूत को मत देखो

भविष्य में जिओ।

भविष्य: एक अनबूझ पहेली

उपदेश मिलता है

आने वाले कल की

चिन्ता क्यों करते हो

आज को तो जी लो।

और आज !

आज तो आज है

उसे क्या याद करें।

तो फिर मैमोरैण्डम फाड़ डालें।

नकारने के लिए अपने आप को ही

कमरे और बरामदे के बीच

दरवाज़ा और दहलीज

दरवाज़े आड़ हुआ करते हैं

और दहलीज सीमा।

आड़ यानी दरवाज़े

सुविधानुसार हटाये जा सकते हैं।

दहलीज स्थायी है।

नये मकानों में, सुविधा की दृष्टि से

दहलीज हटा दी गई है

और हम सीमा मुक्त हो गये हैं।

अब कमरे की सफ़ाई करते समय

यह ज़रूरी नहीं है

कि दरवाज़ा खोला ही जाये।

अब हर किसी ने

अपने अपने घर का

कूड़ा कचरा बाहर कर दिया है

दरवाज़ा बन्द रखकर ही।

जिससे किसी को पहचान न होने पाये।

और इस सफ़ाई अभियान के बाद

बाहर आकर, दरवाज़ों पर ताला जड़कर

अपने अपने घरों को कठघरों में बन्द करके

सब लोग बाहर आ गये हैं

कूड़े के ढेर पर

अपने अपने कूड़े को  नकारने के लिए।

या फिर

नकारने के लिए

अपने आप को ही।

 

मेरे पास बहुत सी उम्मीदें हैं

मेरे पास बहुत सी उम्मीदें हैं

जिन्हें रखने–सहेजने के लिए,

मैं बार बार पर्स खरीदती हूं–

बहुत सी जेबों वाले

चेन, बटन, खुले मुंह

और ताले वाले।

फिर अलग अलग जेबों में

अलग अलग उम्मीदों को

सम्हालकर रख देती हूं।

और चिट लगा देती हूं

कि कहीं

किसी उम्मीद को भुनाते समय

कोई और उम्मीद न निकल जाये।

पर पता नहीं, कब

सब उम्मीदें गड्ड मड्ड हो जाती हैं।

कभी कहीं कोई उम्मीद गिर जाती है

तो कभी बिखर जाती है।

चिट लगी रहने के बावजूद,

ताला और चेन जड़े रहने के बावजूद,

उम्मीदों का रंग बदल जाता है,

तो कभी चिट पर लिखा नाम ही

और कभी उसका स्थान।

फिर पर्स में कहीं कोई छिद्र भी नहीं

फिर भी सिलती हूं, टांकती हूं, बदलती हूं।

पर उम्मीद है कि टिकती नहीं

पर मुझे

अभी भी उम्मीद है

कि एक दिन हर उम्मीद पूरी होगी।

चाहती हूं खोल दूं कपाट सारे

चाहती हूं खोल दूं कपाट सारे

पर स्वतन्त्र नहीं हैं ये कपाट

चिटखनियों, कुण्डों

और कब्ज़ों में जकड़े ये कपाट।

जंग खाया हुआ सब।

पुराना और अर्थहीन।

कहीं से टेढ़े, टूटे, उलझे

ये पुरातात्विक पहरेदार।

चाहती हूं

उखाड़ फेंकूं इन सबको।

बदल देना चाहती हूं

सब पल भर में ।

औज़ार भी जुटाये हैं मैंने।

पर मैं ! विवश !

कपाट को कपाट के रूप में

प्रयोग करने में असमर्थ।

मेरे औज़ार छोटे

पहरेदार बड़े, मंजे हुए।

फिर इन्हें जंग भी पसन्द है

और अपना टेढ़ा टूटापन भी।

मेरे औज़ार इन्हें

विपक्ष का समझौता लगते हैं।

ताज़ी हवा को ये

घुसपैठिया समझते हैं।
और फूलों की गंध से इन्हें

विदेशी हस्तक्षेप की बू आती है।

इनका कहना है

कि कपाट खोल का प्रयास

हमारा षड्यन्त्र है।

पुरातात्विक अवशेषों,

इतिहास और संस्कृति को

नष्ट कर देने का।

पर अद्भुत तो यह

कि ये पुरातात्विक अवशेष

इतिहास और संस्कृति के ये जड़ प्रतीक

बन्द कपाटों के भीतर भी

बढ़ते ही जा रहे हैं दिन प्रति दिन।

ज़मीन के भीतर भी

और ज़मीन के बाहर भी।

वैसे, इतना स्वयं भी नहीं जानते वे

कि यदि उनका जंग घिसा नहीं गया

तेल नहीं दिया गया इनमें

तो स्वयं ही काट डालेगा

इन्हें एक दिन।

और अनजाने में ही

बन्द कपाटों पर

इनकी पकड़ कमज़ोर हो जायेगी।

कपाट खोलने

बहुत ज़रूरी हो गये हैं।

क्योंकि, हम सब

बाहर होकर भी कहीं न कहीं

कपाटों के भीतर जकड़े गये हैं।

अत: मैंने सोच लिया है

कि यदि औज़ार काम नहीं आये

तो मैं दीमक बनकर

कपाटों पर लग जाउंगी।

न सही तत्काल, धीरे धीरे ही सही

कपाट अन्दर ही अन्दर मिट्टी होने लगेंगे।

पहरेदार समझेंगे

उनके हाथ मज़बूत हो रहे हैं।

फिर एक दिन

पहरेदार, खड़े के खड़े रह जायेंगे

और बन्द दरवाज़े, टूटी खिड़कियां

पुरानी दीवारें

सब भरभराकर

गिर जायेंगे

कपाट स्वयंमेव खुल जायेंगे।

फिर रोशनी ही रोशनी

नयापन, ताज़ी हवा और ज़िन्दगी

सब मिलेगा एक दिन

सब बदलेगा एक दिन।

उड़ती चिड़िया के पर गिन लिया करते हैं

सुना है कुछ लोग

उड़ती चिड़िया के

पर गिन लिया करते हैं।

 

कौन हैं वे लोग

जो उड़ती चिड़िया के

पर गिन लिया करते हैं।

 

क्या वे

कोई और काम भी करते हैं,

अथवा बस,

उड़ती चिड़िया के

पर ही गिनते रहते हैं।

 

 कौन उड़ा रहा है चिड़िया ?

कितनी चिड़िया उड़ रही हैं ?

जिनके पर गिने जा रहे हैं ?

 

पहले पकड़ते हैं,

पिंजरे में

पालन-पोषण करते हैं।

लाड़-प्यार जताते हैं।

कुछ पर काट देते हैं,

कि चिड़िया उड़ न जाये।

फिर एक दिन उकता जाते हैं,

और छोड़ देते हैं उसे

आधी-अधूरी उड़ानों के लिए।

 

फिर अपना अनुभव बखानते हैं,

हम तो उड़ती चिड़िया के

पर गिन लेते हैं।

 

सच में ही

बहुत गुणी हैं ये लोग।

 

 

वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर

शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें

हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने

विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का

वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें

खड़ी करनी है मज़बूत इमारत, प्यादों पर भरोसा कीजिए

जोकर, इक्का, बेगम, गुलाम, सबकी चाल चलनी आनी चाहिए

सारी चालें हैं वज़ीर के हाथ, इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए

मुहावरों पर मत जाना कि गिरते देखे हैं ताश के महल भरभरा कर

गर खड़ी करनी है मज़बूत इमारत, प्यादों पर भरोसा करना चाहिए

उतरना होगा ज़मीनी सच्चाईयों पर

कभी था समय जब जनता जागती थी साहित्य की ललकार से

आज कहां समय किसी के पास जो जुड़े किसी की पुकार से

मात्र कलम से नहीं बदलने वाली अब समाज की ये दुश्वारियां

उतरना होगा ज़मीनी सच्चाईयों पर आम आदमी की पुकार से

अमृत गरल जो भी मिले

जीवन सरल सहज है बस मस्ती में जिये जा

सुख दुख तो आयेंगे ही घोल पताशा पिये जा

न बोल,बोल कड़वे,हर दिन अच्छा बीतेगा

अमृत गरल जो भी मिले हंस बोलकर लिये जा

कौन क्या कहता है, भूलकर मदमस्त जिये जा

क्रांति

क्रांति उस चिड़िया का नाम है

जिसे नई पीढ़ी ने जन्म दिया।

पुरानी पीढ़ी उसके पैदा होते ही

उसके पंख काट देना चाहती है।

लेकिन नई पीढ़ी उसे उड़ना सिखाती है।

जब वह उड़ना सीख जाती है

तो पुरानी पीढ़ी

उसके लिए,

एक सोने का पिंजरा बनवाती है

और यह कहकर उसे कैद कर लेती है

कि नई पीढ़ी तो उसे मार ही डालती।

यह तो उसकी सुरक्षा सुविधा का प्रबन्ध है।

 

वर्षों बाद

जब वह उड़ना भूल जाती है

तो पिंजरा खोल दिया जाता है

क्योंकि

अब तक चिड़िया उड़ना भूल गई है

और सोने का मूल्य भी बढ़ गया है

इसलिए उसे बेच दिया जाता हे

नया लोहे का लिया जाता है

जिसमें नई पीढ़ी को

इस अपराध में बन्द कर दिया जाता है

आजीवन

कि उसने हमें खत्म करने,

मारने का षड्यन्त्र रचा था

हत्या करनी चाही थी हमारी।

बोध

बोध 

खण्डित दर्पण में चेहरा देखना

अपशकुन होता है

इसलिए तुम्हें चाहिए

कि तुम

अपने इस खण्डित दर्पण को

खण्ड-खण्ड कर लो

और हर टुकड़े में

अपना अलग चेहरा देखो।

फिर पहचानकर

अपना सही चेहरा अलग कर लो

इससे पहले

कि वह फिर से

किन्हीं गलत चेहरों में खो जाये।

 

असलियत तो यह

कि हर टुकड़े का

अपना एक चेहरा है

जो हर दूसरे से अलग है

हर चेहरा एक टुकड़ा है

जो दर्पण में बना करता है

और तुम, उस दर्पण में

अपना सही चेहरा

कहीं खो देते हो

इसलिए तुम्हें चाहिए

कि दर्पण मत संवरने दो।

 

पर अपना सही चेहरा अलगाते समय

यह भी देखना

कि कभी-कभी, एक छोटा-टुकड़ा

अपने में

अनेक चेहरे आेढ़ लिया करता है

इसलिए

अपना सही अलगाते समय

इतना ज़रूर देखना

कि कहीं तुम

गलत चेहरा न उठा डालो।

 

आश्चर्य तो यह

कि हर चेहरे का टुकड़ा

तुम्हारा अपना है

और विडम्बना यह

कि इन सबके बीच

तुम्हारा सही चेहरा

कहीं खो चुका है।

 

ढू्ंढ सको तो अभी ढूंढ लो

क्योंकि दर्पण बार-बार नहीं टूटा करते

और हर खण्डित दर्पण

हर बार

अपने टुकड़ों में

हर बार चेहरे लेकर नहीं आया करता

टूटने की प्रक्रिया में

अक्सर खरोंच भी पड़ जाया करती है

तब वह केवल

एक शीशे का टुकड़ा होकर रह जाता है

जिसकी चुभन

तुम्हारे अलग-अलग चेहरों की पहचान से

कहीं ज़्यादा घातक हो सकती है।

 

जानती हूं,

कि टूटा हुआ दर्पण कभी जुड़ा नहीं करता

किन्तु जब भी कोई दर्पण टूटता है

तो मैं भीतर ही भीतर

एक नये सिरे से जुड़ने लगती हूं

और उस टूटे दर्पण के

छोटे-छोटे, कण-कण टुकड़ों में बंटी

अपने-आपको

कई टुकड़ों में पाने लगती हूं।

समझने लगती हूं

टूटना

और टूटकर, भीतर ही भीतर

एक नये सिरे से जुड़ना।

टूटने का बोध मुझे

सदा ही जोड़ता आया है।

दो चाय पिला दो

प्रात की नींद से न अच्‍छा समय कोई

दो चाय पिला दो आपसे अच्‍छा न कोई

मोबाईल की टन-टन न हमें जगा पाये

कुम्‍भकरण से कम न जाने हमें कोई

बजता था डमरू

कहलाते शिव भोले-भाले थे पर गरल उन्होंने पिया था

विषधर उनके आभूषण थे त्रिशूल हाथ में लिया था

भूत-प्रेत संग नरमुण्डों की माला पहने, बजता था डमरू

त्रिनेत्र खोल तीनों लोकों के दुष्टों का  संहार उन्होंने किया था

मेरा घर जलाता कौन है

घर में भी अब नहीं सुरक्षित, विचलित मन को यह बात बताता कौन है,

भीड़-तन्त्र हावी हो रहा, कानून की तो बात यहं अब समझाता कौन है,

कौन है अपना, कौन पराया, कब क्या होगा, कब कौन मिटेगा, पता नहीं

यू तो सब अपने हैं, अपने-से लगते हैं, फिर मेरा घर जलाता कौन है।

सोच हमारी लूली-लंगड़ी

विचार हमारे भटक गये

सोच हमारी लूली-लंगड़ी

टांग उठाकर भाग लिए

पीठ मोड़कर चल दिये

राह छोड़कर चल दिये

राहों को हम छोड़ चले

चिन्तन से हम भाग रहे

सोच-समझ की बात नहीं

सब मिल-जुलकर यही करें

गलबहियां डालें घूम रहे

सत्य से हम भाग रहे

बोल हमारे कुंद हुए

पीठ पर हम वार करें

बच-बचकर चलना आ गया

दुनिया कुछ भी कहती रहे

पीठ दिखाना आ गया

बच-बचकर रहना आ गया।

चरण-चिन्ह हम छोड़ रहे

पीछे-पीछे जग आयेगा

स्मृतियों के धुंधलके से

कुछ स्मृतियों को
जीवन्त रखने के लिए
दीवारों पर
टांग देते हैं कुछ चित्र।
धीरे-धीरे
चेहरे धुंधलाने लगते हैं
यादें स्याह होने लगती हैं।
कभी जाले लग जाते हैं।
भूलवश
कभी छू देते है हाथ से
तब मिट्टी झरने लगती है,
तब अजब सी स्थितियां हो जाती हैं।
कभी तो चेहरे ही गायब !
कभी बदल कर
आगे-पीछे हो चुके होते हैं
कुछ चित्रों  से बाहर निकलकर
गले मिलना चाहते हैं
आंसू बहाते हैं
और कुछ एकाएक भागने लगते हैं
मानों पीछा छुड़ाकर।
और कुछ अजनबी से चेहरे
बहुत बोलते हैं, यादें दिलाते हैं
प्रश्न करते हैं, कुछ पूछते हैं
कुछ कहते हैं, कुछ सुनाते हैं
अक्सर आवाजें नहीं छूती हमें
असली चेहरे
हमारी पहचान में आते नहीं
अनुमान हम लगा पाते नहीं ।
तब हम उन धुंधलाते चित्रों को
दीवार से उतारकर
कोने में
सहेज देते हैं
फिर धीरे-धीरे वे
दरवाजे से बाहर होने लगते हैं]
और हम परेशान रहते हैं
चित्र के स्थान पर पड़े निशान को
कैसे ढंकें।

यादों के उजाले नहीं भाते

यादों के उजाले

नहीं भाते।

घिर गये हैं

आज के अंधेरों में।

गहराती हैं रातें।

बिखरती हैं यादें।

सिहरती हैं सांसें

नहीं सुननी पुरानी बातें।

बिखरते हैं एहसास।

कहता है मन

नहीं चाहिए यादें।

बस आज में ही जी लें।

अच्छा है या बुरा

बस आज ही में जी लें।

 

 

काश! यह दुनिया कोई सपना होती

काश!

यह दुनिया कोई सपना होती,

न तेरी होती न मेरी होती।

न किस्से होते

न कोई कहानी होती।

न झगड़ा, न लफ़ड़ा।

न मेरा न तेरा,

ये दुनिया कितनी अच्छी होती।

न जात-पात,

न धर्म-कर्म, न भेद-भाव।

आकाश भी अपना,

जमीन भी अपनी होती,

बहक-बहक कर,

चहक-चहक कर,

दिन-भर मीठे गीत सुनाते।

रात-रात भर

तारों संग

टिम-टिम-टिम-टिम घूमा करते,

सबका अपना चंदा होता,

चांदनी से न कोई शिकायत  होती।

सब कुछ अपना-अपना लगता।

काश!

यह दुनिया कोई सपना होती,

न तेरी होती न मेरी होती।

 

 

 

त्रिवेणी विधा में रचना २

चेहरे अब अपने ही चेहरे पहचानते नहीं

मोहरे अब चालें चलना जानते ही नहीं

रीति बदल गई है यहां प्रहार करने की

त्रिवेणी विधा में रचना

दर्पण में अपने ही चेहरे को देखकर मुस्कुरा देती हूं

फिर उसी मुस्कान को तुम्हारे चेहरे पर लगा देती हूं

पर तुम कहां समझते हो मैंने क्या कहा है तुमसे

रोशनियां अब उधार की बात हो गई हैं

रोशनियां

अब उधार की बात हो गई हैं।

कौन किसकी छीन रहा

यह तहकीकात की बात हो गई है।

गगन पर हो

या हो धरा पर

किसने किसका रूप लिया

यह पहचानने की बात हो गई है।

प्रकाश और तम के बीच

जैसे एक

प्रतियोगिता की बात हो गई है।

कौन किस पर कर रहा अधिकार

यह समझने-समझाने की बात हो गई है।

कौन लघु और कौन गुरू

नज़र-नज़र की बात हो गई है।

कौन जीता, कौन हारा

यह विवाद की बात हो गई है।

कौन पहले आया, कौन बाद में

किसने किसको हटाया

यह तकरार की बात हो गई है।

अब आप से क्या छुपाना

अपनी हद से बाहर की बात हो गई है।