भारत की है हिन्दी बोली
अच्छा लगता है मुझे
हिन्दी में बात करना।
अच्छा लगता है मुझे
किसी को हिन्दी में
बात करते हुए सुनना।
अच्छा लगता है मुझे
जब कोई बताता है
कि हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है,
जहाॅं जो कहा जाता है
वही लिखा जाता है
और वही सुना जाता है।
अच्छा लगता है मुझे
जब कोई कहता है
विश्व में
सर्वाधिक बोली-समझी जाने वाली
भाषाओं में एक है
हमारी हिन्दी भाषा।
किन्तु उस समय
मेरा मन
उदास हो जाता है
जब कोई कहता है
हिन्दी एक कठिन भाषा है
इसे सरल होना चाहिए,
अकारण ही
अन्य भाषाओं के
निरर्थक शब्दों का समावेश
चुभता है मुझे।
अपने शब्दों को
कठिन बताकर
विदेशी नवीन शब्दों को
ग्रहण कर लेते हैं हम
किन्तु हिन्दी के जाने-पहचाने शब्द
छोड़ जाते हैं हम।
रोमन में लिखते
हिन्दी वर्णमाला को भूल रहे हैं हम।
मानक वर्णमाला कहीं खो गई है
42, 48, 52 के चक्कर में फ़ंसे हुए हैं हम।
वैज्ञानिक भाषा की बात करें
बच्चों को कैसे समझाएॅं हम।
उच्चारण, लेखन का सम्बन्ध टूट गया
कुछ भी लिखते
कुछ भी बोल रहे हम।
चन्द्रबिन्दु गायब हो गये
अनुस्वर न जाने कहॉं खो गये
उच्चारण को भ्रष्ट किया,
सरलता के नाम पर
शुद्ध शब्दों से भाग रहें हम।
शिक्षा से दूर हो गई,
माध्यम भी न रह गई,
ऑनलाईन अंग्रेज़ी के माध्यम से
हिन्दी लिख-पढ़ सीख रहे हम।
अंग्रेज़ी में हिन्दी लिखकर
उनसे हिन्दी मॉंग रहे हम।
अनुवाद की भाषा बनकर रह गई,
इंग्लिश-विंग्लिश लिखकर
गूगल से कहते हिन्दी दे दो,
हिन्दी दे दो।
न जाने किस विवशता में
हिन्दी के बारे में न सोच रहे हैं हम।
चलो, आज
हिन्दी के लिए एक आन्दोलन करें
शिक्षा का माध्यम बने हिन्दी
जन-जन की भाषा बने हिन्दी
हर मन की भाषा बने हिन्दी
अपनी पहचान बने हिन्दी।
लेकिन फिर भी
हिन्दी सबसे प्यारी बोली।
हिन्दी सबसे न्यारी बोली।
भारत की है हिन्दी बोली।
दीपावली पर्व
दीपावली एक ऐसा पर्व जिसकी बात करते ही चेहरे पर मुस्कान आ जाती है और मन में उल्लास। न जाने कितने पर्व मनाए जाते हैं हमारे देश में, किन्तु सर्वाधिक आकर्षण एवं सौन्दर्य का यह पर्व जीवन में रंग भर देता है।
वर्तमान में दीपावली के साथ आने वाले अन्य पर्वों को मिलाकर पंचदिवसीय पर्व के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। पहले धनतेरस, छोटी दीपावली, बड़ी दीपावली, गोवर्धन पूजा और अन्त में भाई-दूज। पर्वों की यह श्रृंखला केवल परिवार में ही नहीं, समाज में भी सम्बन्धों एवं नेह की श्रृंखला बन जाती है। पर्व से पूर्व भी और उपरान्त भी, लम्बे समय तक इन पर्वों की स्मृतियां, सम्बन्धों की मधुरता और नयेपन का भाव जीवन को मुखरित रखते हैं।
दीपावली क्यों मनाई जाती है, कैसे मनाई जाती है, पूजन विधि कैसी होती है, सब जानते हैं। हम इतना कह सकते हैं कि आधुनिकता ने जहां हमारा परिवेश, वेशभूषा, खान-पान एवं सामाजिकता को प्रभावित किया है वहां ये महत्वपूर्ण पर्व भी इस परिवर्तन से अछूते नहीं रह पाये। हां, यह कह सकते हैं कि धर्म, पूजा, विश्वास, परम्पराएं सभी आज भी जीवन्त हैं, केवल व्यवहार में परिवर्तन आया है।
पहले समय में जहां सयुंक्त परिवारों में दीपावली की तैयारी महीनों पहले ही आरम्भ हो जाती थी, अब बाज़ार पर आश्रित हो गई है।
कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाने वाला यह पर्व भारत के सबसे बड़े और सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। वास्तव में दीपावली (संस्कृत दीपावलिः दीप $ आवलि = पंक्ति अर्थात् पंक्ति में रखे हुए दीपक उत्तरी गोलार्ध में प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला एक पौराणिक सनातन उत्सव है। आध्यात्मिक रूप से यह अन्धकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है।
भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी पर्वों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात (हे भगवान! मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाइए। यह उपनिषदों की आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। जैन धर्म के लोग इसे महावीर के मोक्ष दिवस के रूप में मनाते हैं तथा सिख समुदाय इसे बन्दी छोड़ दिवस के रूप में मनाता है।
भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदैव जीत होती है और असत्य का नाश होता है। दीपावली यही चरितार्थ करती है- असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है।
हमारे अधिकांश पर्व बदलते मौसम के सूचक हैं। दीपावली भी ऐसी ही पर्व है। ग्रीष्म एवं वर्षा के समापन के साथ शीत ऋतु की आहट यह पर्व अपने साथ लेकर आता है।
इस रूप में घरों में स्वच्छता के साथ ऋतु-परिवर्तन की तैयारी भी हो जाती है। पुराने का निष्पादन एवं नवीनता का आग्रह इस पर्व की बहुत बड़ी विशेषता है। परिवार पूरे वर्ष प्रतीक्षा करते हैं कि इस वर्ष नया क्या लाना है और दीपावली पर ही लाना है। कपड़े, घर का सामान एवं साज-सज्जा विशेष आकर्षण का केन्द्र रहते हैं। अपनों को उपहार एवं मिष्ठान्न देकर हम सम्बन्धों को नया रूप देने का प्रयास करते हैं।
इस पर्व की एक अन्य विशेषता यह कि यह पर्व हमारी तीन-तीन पीढ़ियों की भावनाओं को संजोकर चलता है। भारतीयता का यह रंग जो इस पर्व में देखने को मिलता है वह है संयुक्त परिवार का आनन्द और मिलन। आज के समय में बच्चे अक्सर घरों से दूर पराये शहरों में काम एवं व्यवसाय के लिए बस जाते हैं किन्तु दीपावली के अवसर पर सब अपने घरों को लौट आते हैं। वास्तविक उत्सव यही होता है जहां तीन पीढ़ियां एक साथ इस उत्सव को मनाती हैं और पर्वों में तीन ही रंग देखने को मिलते हैं। माता-पिता प्राचीन परम्पराओं के पालन की ओर ध्यान देते हैं, घी के दीपक, लक्ष्मी-गणेश-पूजन, रंगोली से घर को सजाना, पूजा की विविध सामग्री से मन्दिर की शोभा, विविध मिष्ठान्न, शगुन का लेन-देन, परिचितों को उपहार, बच्चों को नये कपड़े एवं उनकी पसन्द के खिलौने और अन्य उपहार, अपनी प्राचीन परम्पराओें के महत्व से बच्चों को परिचित करवाना, परिवारों में कई दिन तक आनन्द का वातावरण बना रहता है। बेटे-बहुएं उनकी इच्छानुसार पूजा-विधि करते हुए, आधुनिकता के साथ उन्हें जोड़ते हैं और बच्चे प्राचीनता के प्रति उत्सुक नवीनता के आग्रही, आकर्षक लड़ियों, नये तरह के पटाखों, मिठाई के साथ-साथ चाॅकलेट, तरह-तरह के घर के बने और बाहर के भोजन का आनन्द लेते हैं।
यही वास्तविक भारतीयता और भारतीय पर्वों की पहचान है।
वर्तमान में धनतेरस एवं दीपावली के शुभ अवसर पर वाहन एवं स्वर्ण की खरीददारी सबसे अधिक की जाती है। बाज़ारीकरण, व्यवसायीकरण एवं विज्ञापनों की दुनिया ने हमारे पर्वों को एक नये रंग में बदल दिया है। दिनों दिन की तैयारी अब पलभर में हो जाती है। मिट्टी के दीपक का स्थान डिज़ाईनर मोमबत्तियों एवं विद्युत लड़ियों ने ले लिया है।
यह हमारे लिए गर्व की बात है कि विदेशों में भी दीपावली पर्व अत्यन्त हर्षोल्लास एवं धार्मिक रीति से मनाया जाता है एवं अनेक देशों में भारत की ही भांति सरकारी अवकाश भी होता है।
दीपावली के दिन नेपाल, भारत,, श्रीलंका, म्यांमार, मारीशस, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, सूरीनाम, मलेशिया, सिंगापुर, फिजी, पाकिस्तान और औस्ट्रेलिया की बाहरी सीमा पर क्रिसमस द्वीप पर एक सरकारी अवकाश होता है।
सूर्य उत्तरायण हो गये आज
सूर्यदेव उत्तरायण हो गये आज।
दिन बड़े होने लगे,रातें छोटी।
प्रकाश बढ़ने लगता है
और अंधेरी रातों का डर
कम होने लगता है,
और प्रकाश के साथ
सकारात्मकता का बोध
होने लगता है।
कथा है कि
भीष्म पितामह ने
प्रतीक्षा की थी
देह-त्याग के लिए
सूर्य के उत्तारयण की।
हमारे ग्रंथ कहते हैं
कि उत्तरायण के प्रकाश में
देह-त्याग करने वालों को
पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता,
मुक्त हो जाते हैं वे
जन्म-मरण के जाल से।
.
मैं नहीं चाहती मुक्ति।
चाहती हूॅं
जन्म मिले बार-बार,
न मरने से डरती हूॅं
न जीने से।
अच्छा लगता है
एक इंसान होना,
इच्छाओं के साथ जीना,
कामनाओं को पूरा करना।
जो इस बार न कर पाई
अगले जन्म में
या उससे भी
अगले जन्म में करुॅं,
बार-बार जीऊॅं,
बार- बार मरुॅं।
न जीने से डरती हूॅं
न मरने से।
हमारी हिन्दी
हिन्दी सबसे प्यारी बोली
कहॉं मान रख पाये हम।
.
रोमन में लिखते हिन्दी को
वर्णमाला को भूल रहे हम।
मानक वर्णमाला कहीं खो गई है
42, 48, 52 के चक्कर में फ़ंसे हुए हैं हम।
वैज्ञानिक भाषा की बात करें तो
बच्चों को क्या समझाएॅं हम।
उच्चारण, लेखन का सम्बन्ध टूट गया
कुछ भी लिखते
कुछ भी बोल रहे हम।
चन्द्रबिन्दु गायब हो गये
अनुस्वर न जाने कहॉं खो गये
उच्चारण को भ्रष्ट किया,
सरलता के नाम पर
शुद्ध शब्दों से भाग रहे हम।
अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़ारसी को
सरल कहकर हिन्दी को
नकार रहे हम।
शिक्षा से दूर हो गई,
माध्यम भी न रह गई,
न जाने किस विवशता में
हिन्दी को ढो रहे हैं हम।
ऑनलाईन अंग्रेज़ी के माध्यम से
हिन्दी लिख-पढ़ सीख रहे हैं हम।
अंग्रेज़ी में अंग्रेज़ी लिखकर
उससे हिन्दी मॉंग रहे हम।
अनुवाद की भाषा बनकर रह गई है
इंग्लिश-विंग्लिश लिखकर
गूगल से कहते हिन्दी दे दो,
हिन्दी दे दो।
फिर कहते हैं
हिन्दी सबसे प्यारी बोली
हिन्दी सबसे न्यारी बोली।
आगमन बसन्त का
बसन्त
यूं ही नहीं आ जाता
कि वर्ष बदले,
तिथि बदली,
दिन बदले
और लीजिए
आ गया बसन्त।
मन के उपवन में
सुमधुर भावों की रिमझिम
कहीं धूप, कहीं छाया निखरी।
पल्ल्व मचल रहे
ओस की बूंदे बिखरीं,
कलियां फूल बनीं
रंगों में रंग खिले।
कहीं कोयल कूकी,
कुछ खुशबू
कुछ रंगों के संग
महका-बहका मन
होली पर्व
जीवन को रंगीन बनाओ
कहती आई है होली
जीवन-संगीत सुनाओ
कहती आई है होली
आनन्द के ढोल बजाओ
कहती आई है होली
जीवन का राग
सुनाती आई है होली
मन में आनन्द के भाव
जगाती है होली
रंगों और रंगीनियों का नाम
है होली
कोई एक ही दिन क्यों
मन चाहे तो रोज़ मनाओ होली।
जीवन में
हर रोज ही आती है होली।
-
कहते हैं
आई है होली।
क्या हो ली,
कैसे हो ली?
अपनी तो समझ ही न आई
क्या-क्या हो ली।
क्या किसी से मुहब्बत होली?
किसके साथ किसकी होली
किस-किसके घर होली
मुझसे पूछे बिना
कैसे होली
किसके दम पर होली।
सच बोलो
लगता है
तुमने खा ली भांग की गोली।
विश्वास का एहसास
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
विश्वास का धागा
भाई-बहन का प्यार है राखी
रिश्तों की मधुर सौगात है राखी
विश्वास का एक धागा होता है
अनुपम रिश्तों का आधार है राखी
मज़दूर दिवस मनाओ
तुम मेरे लिए
मज़दूर दिवस मनाओ
कुछ पन्ने छपवाओ
दीवारों पर लगवाओ
सभाओं का आयोजन करवाओ
मेरी निर्धनता, कर्मठता
पर बातें बनाओ।
मेरे बच्चों की
बाल-मज़दूरी के विरुद्ध
आवाज़ उठाओ।
उनकी शिक्षा पर चर्चा करवाओ।
अपराधियों की भांति
एक पंक्ति में खड़ाकर
कपड़े, रोटी और ढेर सारे
अपराध-बोध बंटवाओ।
एक दिन
बस एक दिन बच्चों को
केक, टाफ़ी, बिस्कुट खिलाओ।
.
कभी समय मिले
तो मेरी मेहनत की कीमत लगाओ
मेरे बनाये महलों के नीचे
दबी मेरी झोंपड़ी
की पन्नी हटवाओ।
मेरी हँसी और खुशी
की कीमत में कभी
अपने महलों की खुशी तुलवाओ।
अतिक्रमण के नाम पर
मेरी उजड़ी झोंपड़ी से
कभी अपने महल की सीमाएँ नपवाओ।
विश्व-कविता-दिवस
विश्व कविता दिवस के अवसर पर लिखी एक रचना
*-*-*-*-*
और दिनों की तरह
विश्व-कविता-दिवस भी
आया और चला गया।
न कुछ नया मिला
न पुराना गया।
हम दिनभर
कुछ पुस्तकें लिए,
समाचार पत्रों को कुतरते,
टी वी पर कुछ
सुनने की चाह लिए
बैठे रहे
और टूंगते रहे नमकीन।
फे़सबुक पर
लेते-देते रहे बधाईयाँ
मुझ जैसे तथाकथित कवियों को
एक और विषय मिल गया
एक नई कविता लिखने के लिए,
एक काव्य-पाठ के लिए,
अपना चेहरा लिए
प्रस्तुत होती रहे हम।
और अन्त में
पढ़ते और सुनते रहे
अपनी ही कविताएँ
सदा की तरह।
नव वर्ष की प्रतीक्षा में
नव वर्ष की प्रतीक्षा में
कामना लिए कुछ नयेपन की
एक बदलाव, एक नये एहसास की,
हम एक पूरा साल
कैलेण्डर की और ताकते रहते हैं।
कैलेण्डर पर तारीखें बदलती हैं।
दिन, महीने बदलते हैं।
और हम पृष्ठ पलटते रहते हैं
उलझे रहते हैं बेमतलब ही कुछ तारीखों-दिनों में।
चिह्नित करते हैं रंगों से
कुछ अच्छे दिनों की आस को।
और उस आस को लिए–लिए
बीत जाता है पूरा साल।
वे अच्छे दिन
टहलते हैं हमारे आस-पास,
जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर जाते हैं
बेमतलब उलझे
काल्पनिक आशंकाओं और चिन्ताओं में।
फिर चौंक कर कहते हैं
अरे ! एक साल और यूं ही बीत गया।
शायद बुरा-सा लगता है कहीं
कि लो, एक साल और बीत गया यूं ही
बस जताते नहीं हैं।
फिर पिछले पूरे साल को
मुट्ठी में समेटकर आगे बढ़ते हैं
फिर से एक नयेपन की
आशाओं-आकांक्षाओं के साथ।
बस एक पल का ही तो अन्तर है
इस नये और पुराने के बीच।
उस एक पल के अन्तर को भूलकर
एक पल के लिए
निरन्तरता में देखें
तो कुछ भी तो नहीं बदलता।
पता नहीं
गत वर्ष के समापन की खुशियां मनाते हैं
या आने वाले दिनों की आस को जगाते हैं
किन्तु वास्तविकता यह
कि हम चाहते ही नहीं
कि कभी साल दर साल बीतें।
बस प्रतीक्षा में रहते हैं
एक नयेपन की , एक परिवर्तन की,
कुछ नई चाहतों की
वह साल हो या कुछ और ।
हर साल, साल-दर-साल
पता नहीं हम
गत वर्ष के समापन की खुशियां मनाते हैं
या आने वाले दिनों की आस को जगाते हैं।
बस देखते रहते हें कैलेण्डर की ओर
दिन, महीने, तिथियां बदलती हैं
पृष्ठ पलटते हैं
और हम उलझे रहते हैं
बेमतलब कुछ दिनों तारीखों को
किन्तु वास्तविकता यह
कि हम चाहते ही नहीं
कि कभी साल दर साल बीतें।
बस प्रतीक्षा में रहते हैं
एक नयेपन की , एक परिवर्तन की,
कुछ नई चाहतों की
वह साल हो या कुछ और ।
एक साल और मिला
अक्सर एक एहसास होता है
या कहूं
कि पता नहीं लग पाता
कि हम नये में जी रहे हैं
या पुराने में।
दिन, महीने, साल
यूं ही बीत जाते हैं,
आगे-पीछे के
सब बदल जाते हैं
किन्तु हम अपने-आपको
वहीं का वहीं
खड़ा पाते हैं।
** ** ** **
अंगुलियों पर गिनती रही दिन
कब आयेगा वह एक नया दिन
कब बीतेगा यह साल
और सब कहेंगे
मुबारक हो नया साल
बहुत-सी शुभकामनाएं
कुछ स्वाभाविक, कुछ औपचारिक।
** ** ** **
वह दिन भी
आकर बीत गया
पर इसके बाद भी
कुछ नहीं बदला
** ** ** **
कोई बात नहीं,
नहीं बदला तो न सही।
पर चलो
एक दिन की ही
खुशियां बटोर लेते हैं
और खुशियां मनाते हैaa
कि एक साल और मिला
आप सबके साथ जीने के लिए।
हमारा हिन्दी दिवस
वर्ष 1975 में पहली बार किसी राज्य स्तरीय कवि सम्मेलन में हिस्सा लिया और उसके बाद मेरी प्रतिक्रिया ।
उस समय कवि सम्मेलन में कवियों को सौ रूपये मानदेय मिलता था
**************
हमारा हिन्दी दिवस।
14 सितम्बर हमारा हिन्दी दिवस।
भाषण माला हमारा हिन्दी दिवस।
कवि गोष्ठी हमारा हिन्दी दिवस।
कवि कवि, कवि श्रोता, श्रोता कवि
सारे कवि सारे श्रोता , बस कवि कवि,
सारे श्रोता सारे कवि हमारा हिन्दी दिवस।
-
कुछ नेता कुछ नेता वेत,्ता
कुछ मंत्री, मंत्री के साथ संतरी
हल्ला गुल्ला, तालियां हार मालाएं, उद्घाटन,
फ़ोटो, कैमरा, रेडियो, टी.वी. हमारा हिन्दी दिवस।
वादा है सौ रूपये का, कुछ पुरस्कारों,
मान चिन्हों का, सम्मान पदकों का। मिलेंगे।
कविता, भाषण, साहित्य, सम्मान भाड़ में।
सौ रूपया है, किराया, नई जगह घूमना।
रसद पानी, वाह वाही,
कुछ उखड़ी बिखरी कुछ टूटी फूटी हिन्दी।
हमारा हिन्दी दिवस सम्पन्न।
फिर वर्ष भर का अवकाश।
न हिन्दी न दिवस। न गोष्ठी न रूपये।
वर्ष भर की बेकारी।
मुझे लगता है
हमारा हिन्दी दिवस
सरकार का एक दत्तक पुत्र है
14 सितम्बर 1949 को गोद लिया
और उसी दिन उसकी हत्या कर दी।
अब सरकार हर 14 सितम्बर को
उसकी पुण्य तिथि धूमधाम से मनाती है
उनके नाम पर वर्ष भर से रूके
अपने कई काम पूरे करवाती है
वर्ष भर बाद
कुछ दक्षिणा मिल पाती है।
-
आह ! एक वर्ष !
फिर हिन्दी दिवस ! फिर सौ रूपये
फिर एक वर्ष ! फिर हिन्दी दिवस !
फिर ! फिर ! शायद अब तक
हिन्दी का रेट कुछ बढ़ गया हो।
अच्छा ! अगले वर्ष फिर मिलेंगे
हर वर्ष मिलेंगे।
हम हिन्दी के चौधरी हैं
हिन्दी सिर्फ हमारी बपौती है।
जीवन अंधेरे और रोशनियों के बीच
अंधेरे को चीरती
ये झिलमिलाती रोशनियां,
अनायास,
उड़ती हैं
आकाश की ओर।
एक चमक और आकर्षण के साथ,
कुछ नये ध्वन्यात्मक स्वर बिखेरतीं,
फिर लौट आती हैं धरा पर,
धीरे-धीरे सिमटती हैं,
एक चमक के साथ,
कभी-कभी
धमाकेदार आवाज़ के साथ,
फिर अंधेरे में घिर जाती हैं।
जीवन जब
अंधेरे और रोशनियों में उलझता है,
तब चमक भी होती है,
चिंगारियां भी,
कुछ मधुर ध्वनियां भी
और धमाके भी,
आकाश और धरा के बीच
जीवन ऐसे ही चलता है।
बेटी दिवस पर एक रचना
बेटियों के बस्तों में
किताबों के साथ
रख दी जाती हैं कुछ सतर्कताएं,
कुछ वर्जनाएं,
कुछ आदेश, और कुछ संदेश।
डर, चिन्ता, असुरक्षा की भावना,
जिन्हें
पैदा होते ही पिला देते हैं
हम उन्हें
घुट्टी की तरह।
बस यहीं नहीं रूकते हम।
और बोझा भरते हैं हम,
परम्पराओं, रीति-रिवाज़
संस्कार, मान्यताओं,
सहनशीलता और चुप्पी का।
इनके बोझ तले
दब जाती हैं
उनकी पुस्तकें।
कक्षाएं थम जाती हैं।
हम चाहते हैं
बेटियां आगे बढ़ें,
बेटियां खूब पढें,
बेबाक, बिन्दास।
पर हमारा नज़र रहती है
हर समय
बेटी की नज़र पर।
जैसे ही कोई घटना
घटती है हमारे आस-पास,
हम बेटियों का बस्ता
और भारी कर देते हैं,
और भारी कर देते हैं।
कब दब जाती हैं,
उस भार के नीचे,
सांस घुटती है उनकी,
कराहती हैं,
बिलखती हैं
आज़ादी के लिए
पर हम समझ ही नहीं पाते
उनका कष्ट,
इस अनचाहे बोझ तले,
कंधे झुक जाते हैं उनके,
और हम कहते हैं,
देखो, कितनी विनम्र
परम्परावदी है यह।
लाल बहादुर शास्त्री की स्मृति में
राजनीति में,
अक्सर
लोग बात करते हैं,
किसी के
पदचिन्हों पर चलने की।
किसी के विचारों का
अनुसरण करने की।
किसी को
अपनी प्रेरणा बनाने की।
एक सादगी, सीधापन,
सरलता और ईमानदारी!
क्यों रास नहीं आई हमें।
क्यों पूरे वर्ष
याद नहीं आती हमें
उस व्यक्तित्व की,
नाम भूल गये,
काम भूल गये,
उनका हम बलिदान भूल गये।
क्या इतना बदल गये हम!
शायद 2 अक्तूबर को
गांधी जी की
जयन्ती न होती
तो हमें
लाल बहादुर शास्त्री
याद ही न आते।
हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
घूमता जहान है।
किसकी भाषा,
कौन सी भाषा,
किसको कितना ज्ञान है।
जबसे जागे
तब से सुनते,
हिन्दी को अपनाना है।
समझ नहीं पाई आज तक
कहां से इसको लाना है।
जब है ही अपनी
तो फिर से क्यों अपनाना है।
कहां गई थी चली
कि इसको
फिर से अपना मनवाना है।
’’’’’’’’’.’’’’’’
कुछ बातें
समय के साथ
समझ से बाहर हो जाती हैं,
उनमें हिन्दी भी एक है।
काश! कविताएं लिखने से,
एक दिन मना लेने से,
महत्व बताने से,
किसी का कोई भला हो पाता।
मिल जाती किसी को सत्ता,
खोया हुआ सिंहासन,
जिसकी नींव
पिछले 72 वर्षों से
कुरेद रहे हैं।
अपनी ही
भाषाओं और बोलियों के बीच
सत्ता युद्ध करवा रहे हैं।
कबूतर के आंख बंद करने मात्र से
बिल्ली नहीं भाग जाती।
काश!
यह बात हमारी समझ में आ जाती,
चलने दो यारो
जैसा चल रहा है।
हां, हर वर्ष
दो-चार कविताएं लिखने का मौका
ज़रूर हथिया ले लेना
और कोई पुरस्कार मिले
इसका भी जुगाड़ बना लेना।
फिर कहना
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
यहां रंगीनियां सजती हैं
दीवारों पर
उकेरित ये कृतियां
भाव अनमोल।
नेह, अपनत्व, संस्कारों का
न लगा सके कोई मोल।
घर की रंगीनियां,
खुशियां यहां बरसती हैं,
सबके हित की कामना
यहां करती हैं।
प्रतिदिन यहां
रंगीनियां सजती हैं,
पर्वों पर हर बार
जीवन में नये रंग भरती हैं।
किन्तु
जब समय चलता है
तो जीवन में बहुत कुछ बदलता है।
नहीं कहते कि ठीक है या नहीं,
किन्तु
रह गई अब स्मृतियां अशेष,
नवरंगों से सजी दीवारों पर
अब ये कृतियां
किन्हीं मूल्यवान
बंधन में बंधी दीवारों पर लटकती हैं।
स्मृतियां यूं ही भटकती हैं।
सूर्यग्रहण के अवसर पर लिखी गई एक रचना
दूर कहीं गगन में
सूरज को मैंने देखा
चन्दा को मैंने देखा
तारे टिमटिम करते
जीवन में रंग भरते
लुका-छिपी ये खेला करते
कहते हैं दिन-रात हुई
कभी सूरज आता है
कभी चंदा जाता है
और तारे उनके आगे-पीछे
देखो कैसे भागा-भागी करते
कभी लाल-लाल
कभी काली रात डराती
फिर दिन आता
सूरज को ढूंढ रहे
कोहरे ने बाजी मारी
दिन में देखो रात हुई
चंदा ने बाजी मारी
तम की आहट से
दिन में देखो रात हुई
प्रकृति ने नवचित्र रचाया
रेखाओं की आभा ने मन मोहा
दिन-रात का यूं भाव टला
जीवन का यूं चक्र चला
कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे
कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते
बस, जीवन का यूं चक्र चला
कैसे समझा, किसने समझा
कुछ सपने कुछ अपने
कहने की ही बातें है कि बीते वर्ष अब विदा हुए
सारी यादें, सारी बातें मन ही में हैं लिए हुए
कुछ सपने, कुछ अपने, कुछ हैं, जो खो दिये
आने वाले दिन भी, मन में हैं एक नयी आस लिए
नश्वर जीवन का संदेश
देखिए, दीप की लौ सहज-सहज मुस्काती है
सतरंगी आभा से मन मुदित कर जाती है
दीपदान रह जायेगा लौ रूप बदलती रहती है
मिटकर भी पलभर में कितनी खुशियां बांट जाती है
लहराकर नश्वर जीवन का संदेश हमें दे जाती है
दीपावली पर्व की शुभकामनाएं
नेह की बाती, अपनत्व की लौ, घृत है विश्वास
साथ-साथ चलते रहें तब जीवन है इक आस
जानती हूं चुक जाता है घृत समय की धार में
मन में बना रहें ये भाव तो जीवन भर है हास
कहते हैं कोई फ़ागुन आया
फ़ागुन आया, फ़ागुन आया, सुनते हैं, इधर कोई फ़ागुन आया
रंग-गुलाल, उमंग-रसरंग, ठिठोली-होली, सुनते हैं फ़ागुन लाया
उपवन खिले, मन-मनमीत मिले, ढोल बजे, कहीं साज सजे
आकुल-व्याकुल मन को करता, कहते हैं, कोई फ़ागुन आया।
चेहरा गुलाल हुआ
यादों में उनकी चेहरा गुलाल हुआ
मन की बात कही नहीं, मलाल हुआ
राग बेसुरे हो गये, साज़ बजे नहीं
प्यार करना ही जी का जंजाल हुआ
एक संस्मरण आम का अचार
आम का अचार डालना भी
एक पर्व हुआ करता था परिवार में।
आम पर बूर पड़ने से पहले ही
घर भर में चर्चा शुरू हो जाती थी।
इतनी चर्चा, इतनी बात
कि होली दीपावली पर्व भी फीके पड़ जायें।
परिवार में एक शगुन हुआ करता था
आम का अचार।
इस बार कितने किलो डालना है अचार
कितनी तरह का।
कुतरा भी डलेगा, और गुठली वाला भी
कतौंरा किससे लायेंगे
फिर थोड़ी-सी सी चटनी भी बनायेंगे।
तेल अलग से लाना होगा
मसाले मंगवाने हैं, धूप लगवानी है
पिछली बार मर्तबान टूट गया था
नया मंगवाना है।
तनाव में रहती थी मां
गर्मी खत्म होने से पहले
और बरसात शुरू होने से पहले
डालना है अचार।
और हम प्रतीक्षा करते थे
कब आयेंगे घर में अचार के आम।
और जब आम आ जाते थे घर में
सुच्चेपन का कर्फ्यू लग जाता था।
और हम आंख बचाकर
दो एक आम चुरा ही लिया करते थे
और चाहते थे कि दो एक आम
तो पके हुए निकल आयें
और हमारे हवाले कर दिये जायें।
लाल मिर्च और नमक लगाकर
धूप में बैठकर दांतों से गुठलियां रगड़ते
और मां चिल्लाती
“ओ मरी जाणयो दंद टुटी जाणे तुहाड़े”।
और जब नया अचार डल जाता था
तो पूरा घर एक आनन्द की सांस लेता था
और दिनों तक महकता था घर
और जब नया अचार डल जाता था
तब दिनों दिनों तक महकता था घर
उस खुशनुमा एहसास और खुशबू से
और जब नया अचार डल जाता था
मानों कोई किला फ़तह कर लिया जाता था।
और उस रात बड़ी गहरी नींद सोती थी मां।
अब चिन्ता शुरू हो जाती थी
खराब न हो जाये
रोज़ धूप लगवानी है
सीलन से बचाना है
तेल डलवाना है।
फिर पता नहीं किस जादुई कोने से
पिछले साल के अचार का एक मर्तबान
बाहर निकल आता था।
मां खूब हंसती तब
छिपा कर रख छोड़ा था
आने जाने वालों के लिए
तुम तो एक गुठली नहीं छोड़ते।
ये त्योहार
ये त्योहार रोज़ रोज़, रोज़ रोज़ आयें
हम मेंहदी लगाएं वे ही रोटियां बनाएं
चूड़ियां, कंगन, हार नित नवीन उपहार
हम झूले पर बैठें वे संग झूला झुलाएं
हिन्दी की हम बात करें
शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें
हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने
विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का
वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें
और भर दे पिचकारी में
शब्दों में नवरस घोल और भर दे पिचकारी में
स्नेह की बोली बोल और भर दे पिचकारी में
आशाओं-विश्वासों के रंग बना, फिर जल में डाल
इस रंग को रिश्तों में घोल और भर दे पिचकारी में
मन की सारी बातें खोल और भर दे पिचकारी में
मन की बगिया में फूल खिला, और भर दे पिचकारी में
अगली-पिछली भूल, नये भाव जगा,और भर दे पिचकारी में
हंसी-ठिठोली की महफिल रख और भर दे पिचकारी में
सब पर रंग चढ़ा, सबके रंग उड़ा, और भर दे पिचकारी में
मीठे में मिर्ची डाल, मिर्ची में मीठा घोल और भर दे पिचकारी में
इन्द्रधनुष को रोक, रंगों के ढक्कन खोल और भर दे पिचकारी में
मीठा-सा कोई गीत सुना, नई धुन बना और भर दे पिचकारी में
भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर दे पिचकारी में
छन्द की चिन्ता छोड़, टूटा फूटा जोड़ और भर दे पिचकारी में
मात्राओं के बन्धन तोड़, कर ले तू भी होड़ और भर दे पिचकारी में
भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर दे पिचकारी में
इतना ही सूझा है जब और सूझेगा तब फिर भर दूंगी पिचकारी में
बसन्त पंचमी पर
कामना है बस मेरी
जिह्वा पर सदैव
सरस्वती का वास हो।
वीणा से मधुर स्वर
कमल-सा कोमल भाव
जल-तरंगों की तरलता का आभास हो।
मिथ्या भाषण से दूर
वाणी में निहित
भाव, रस, राग हो।
गगन की आभा, सूर्य की उष्मा
चन्द्र की शीतलता, या हों तारे द्युतिमान
वाणी में सदैव सत्य का प्रकाश हो।
हंस सदैव मोती चुगे
जीवन में ऐसी शीतलता का भास हो।
किन्तु जब आन पड़े
तब, कलम क्या
वाणी में भी तलवार की धार सा प्रहार हो।
योग दिवस पर एक रचना
उदित होते सूर्य की रश्मियां
मन को आह्लादित करती हैं।
विविध रंग
मन को आह्लादमयी सांत्वना
प्रदान करते हैं।
शांत चित्त, एकान्त चिन्तन
सांसारिक विषमताओं से
मुक्त करता है।
सांसारिकता से जूझते-जूझते
जब मन उचाट होता है,
तब पल भर का ध्यान
मन-मस्तिष्क को
संतुलित करता है।
आधुनिकता की तीव्र गति
प्राय: निढाल कर जाती है।
किन्तु एक दीर्घ उच्छवास
सारी थकान लूट ले जाता है।
जब मन एकाग्र होता है
तब अधिकांश चिन्ताएं
कहीं गह्वर में चली जाती हैं
और स्वस्थ मन-मस्तिष्क
सारे हल ढूंढ लाता है।
इन व्यस्तताओं में
कुछ पल तो निकाल
बस अपने लिये।