मेरे आस-पास की आम-सी नारी वो खास
कैसे लिखूँ किसी एक के बारे में। मेरे आस-पास की तो हर नारी खास है किसी न किसी रूप में। चाहे वह गृहिणी है, कामकाजी है, किसी ऊँचे पद पर अवस्थित है, मज़दूर है, सुशिक्षित है, अशिक्षित है, कम या ज़्यादा पढ़ी-लिखी है, हर नारी किसी न किसी रूप में खास ही है। किसी न किसी रूप में हर नारी मेरे लिए प्रेरणा का माध्यम बनती है।
मेरे परिचय में एक महिला जो स्वयं दिल की रोगी है, चिकित्सकों के अनुसार उसका दिल केवल 55 प्रतिशत कार्य करता है, पूरा घर सम्हालती है, पति भी अस्वस्थ रहते हैं उनकी पूरी देखभाल करती है। उन्हें कार में अस्पताल लाना, ले जाना आदि सब। बच्चे विदेश में हैं। किन्तु इस बात की कभी शिकायत नहीं करती।
मेरे घर काम करने वाली महिला अपने तीन बच्चों को अच्छी शिक्षा देने का प्रयास कर रही है, चार घरों में काम करती है, उपरान्त पति के काम में हाथ बंटाती है।
बस हम एक भ्रम में जीते हैं कि कोई नारी खास है। कहाँ खास हो पाती है कोई नारी। बस भुलावे में जीते हैं और भुलावों में सबको रखते हैं। कोई नारी किसी बड़े पद पर कार्यरत है, कोई बहुत पुरस्कारों से सम्मानित है, बड़ी लेखिका, कलाकार अथवा अन्य किसी क्षेत्र में जाना-पहचाना नाम है, किन्तु फिर भी खास कहाँ बन पाती हैं वे। अपने आस-पास मुझे एक भी ऐसी नारी कभी नहीं मिली जो अपने मन से, अपने अधिकार से, अपनी इच्छाओं से जीवन व्यतीत करती हो। फिर कोई नारी खास कैसे हो सकती है। मेरी इस बात पर आप शायद कहेंगे कि नारी को तो परिवार को भी देखना होता है, बच्चों का पालन-पोषण, बड़ों की सेवा, छोटों को संस्कार, भला कौन देगा, ऐसी ही नारी तो खास होती है। यह तो हर नारी का हमारी दृष्टि में कर्तव्य है, इसमें कोई खास बात कहाँ।
मुझे आज तक ऐसी कोई नारी नहीं मिली, जो अपने मन से जीती हो, अपनी इच्छाओं का दमन न करती हो, दोहरी ज़िन्दगी न जीती हो। संस्कारी भी बनकर रहना है और समय के साथ चलने के लिए आधुनिका भी बनना है। गृहस्थी तो उसका दायित्व है ही, किन्तु पढ़ी-लिखी है, तो नौकरी भी करे और बच्चों को भी पढ़ाए। आप कहेंगे यह तो नारी के कर्तव्य हैं। तो खास कैसे हुई। मैंने आज तक ऐसी कोई नारी नहीं देखी जो मन से स्वतन्त्र हो, स्वतन्त्र होने का अभिप्राय उच्छृंखलता, दायित्वों की उपेक्षा नहीं होता, इसका अभिप्राय होता है कि वह अपने मन से अपने लिए कोई निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र है। परिवार के प्रत्येक कार्य में वह भागीदार है, उसे हर कदम पर साथ लेकर चला जाता है, उसकी इच्छा-अनिच्छा का आदर किया जाता है।
माता-पिता आज भी लड़कियों को इसलिए नहीं पढ़ाते कि पढ़ाना चाहते हैं बल्कि इसलिए पढ़ाते हैं कि लड़के आजकल पढ़ी-लिखी लड़की ढूंढते हैं और अक्सर नौकरी वाली। किन्तु अगर किसी लड़के को लड़की तो पसन्द आ जाती है किन्तु परिवार कहता है कि हमें नौकरी नहीं करवानी तो लड़की के माता-पिता और स्वयं लड़की भी इसी दबाव में नौकरी न करना स्वीकार कर लेती है।