थक गई हूॅं मैं अब

थक गई हूॅं मैं अब

झूठे रिश्ते निभाते-निभाते।

थक गई हूॅं मैं अब

ज़िन्दगी का सच छुपाते-छुपाते।

थक गई हूॅं मैं अब

झूठ को सच बनाते-बनाते।

थक गई हूॅं मैं अब

किस्से कहानियाॅं सुनाते-सुनाते।

थक गई हूॅं मैं अब

आॅंसुओं को छुपाते-छुपाते।

थक गई हूॅं मैं अब

बिन बात ठहाके लगाते-लगाते।

थक गई हूॅं मैं अब

नाराज़ लोगों को मनाते-मनाते।

थक गई हूॅं मैं अब

चेहरे पर चेहरा लगाते-लगाते।

 

सम्बन्ध एक पुल होते हैं

सम्बन्ध

एक पुल होते हैं

अपनों के साथ

अपनों के बीच।

लेकिन

केवल सम्बन्धों के पुल

बना लेने से ही

राहें सुगम नहीं हो जातीं।

दिन-प्रति-दिन मरम्मत

भी करवानी पड़ती है

और देखभाल भी करनी पड़ती है।

अतिक्रमण भी हटाना पड़ता है

और स्पीड-ब्रेकर,

बैरीकेड भी लगाने पड़ते हैं।

है तो मंहगा सौदा

पर निभ जाये तो

जीवन बन जाता है।

रिश्ते भी मौसम से हो गये हैं

रिश्ते भी

मौसम से हो गये हैं,

कभी तपती धूप-से जलते हैं

और जब सावन-से

बरसते हैं

तो नदी-नाले-से उफ़न पड़ते हैं

और सब तहस-नहस कर जाते हैं।

पीढ़ियों से संवारी ज़िन्दगी

टूट-बिखर जाती है।

हो सकता है

कुछ वृक्ष मैंने भी काटे हों

कुछ टहनियों से

फल मैंने भी लूटे हों,

हिसाब बराबर करने को

कोई पीछे नहीं रहता।

किसे दोष दूॅं,

किसे परखूॅं, किसे समझूॅं।

ढहाये गये वृक्ष

कभी खड़े नहीं हो पाते दोबारा

चाहे जड़ें कितनी भी गहरी हों।

कितना भी बच लें

परिणाम तो

सबको ही भुगतना पड़ेगा।

तेरा साथ

तेरा साथ

छूटे कभी हाथ।

सोचती थी मैं,

पर

कब दिन ढला

कब रात हुई,

डूबे चंदा-तारे

ऐसी ही कुछ बात हुई।

*-*

तेरा साथ

हाथों में हाथ।

कांटों की चुभन

मन में कोई शूल

ऐसी ही ज़िन्दगी

सरगम

टूटे कभी,

होगा क्या ऐसा।

 

स्मृतियां सदैव मधुर नहीं होतीं
आओगे जब तुम साजना

द्वार पर खड़ी नहीं मिलूंगी मैं

घर-बाहर संवारती नहीं दिखूंगी मैं।

भाव मिट जाते हैं

इच्छाएं मर जाती हैं

सब अधूरा-सा लगता है

जब तुम वादे नहीं निभाते,

कहकर भी नहीं आते।

मन उखड़ा-उखड़ा-सा रहता है।

प्रतीक्षा के पल

सदैव मोहक नहीं होते,

स्मृतियां सदैव मधुर नहीं होतीं।

समय के साथ

स्मृतियां धुल जाती हैं

नेह-भाव पर

धूल जम जाती है।

ज़िन्दगी ठहर-सी जाती है।

इस ठहरी हुई ज़िन्दगी में ही

अपने लिए फूल चुनती हूं।

नहीं कोई आस रखती किसी से,

अपने लिए जीती हूं

अपने लिए हंसती हूं।

  

अपनेपन की कामना
रेशम की डोरी

कोमल भावों से बंधी

बन्धन नहीं होती,

प्रतिदान की

लालसा भी नहीं होती।

बस होती है तो

एक चाह, एक आशा

अपनेपन की कामना

नेह की धारा।

बस, जुड़े रहें

मन से मन के तार,

दुख-सुख की धार

बहती रहे,

अपनेपन का एहसास

बना रहे।

लेन-देन की न कोई बात हो

न आस हो

बस

रिश्तों का एहसास हो।

 

वहम की दीवारें

बड़ी नाज़ुक होती हैं

वहम की दीवारें

ज़रा-सा हाथ लगते ही

रिश्तों में

बिखर-बिखर जाती हैं

कांच की किरचों की तरह।

कितने गहरे तक

घाव कर जायेंगी

हम समझ ही नहीं पाते।

सच और झूठ में उलझकर

अनजाने में ही

किरचों को समेटने लग जाते हैं,

लेकिन जैसे

कांच

एक बार टूट जाने पर

जुड़ता नहीं

घाव ही देता है

वैसे ही

वहम की दीवारों से रिसते रिश्ते

कभी जुड़ते नहीं।

जब तक

हम इस उलझन को समझ सकें

दीवारों में

किरचें उलझ चुकी होती हैं।

 

ज़िन्दगी सहज लगने लगी है

आजकल, ज़िन्दगी

कुछ नाराज़-सी लगने लगी है।

शीतल हवाओं से भी

चुभन-सी होने लगी है।

नयानाभिराम दृश्य

चुभने लगे हैं नयनों में,

हरीतिमा में भी

कालिमा आभासित होने लगी है।

सूरज की तपिश का तो

आभास था ही,

ये चाँद भी अब तो

सूरज-सा तपने लगा है।

मन करता है

कोई सहला जाये धीरे से

मन को,

किन्तु यहाँ भी कांटों की-सी

जलन होने लगी है।

ज़िन्दगी बीत जाती है

अपनों और परायों में भेद समझने में।

कल क्या था

आज क्या हो गया

और कल क्या होगा कौन जाने

क्यों तू सच्चाईयों से

मुँह मोड़ने लगी है।

कहाँ तक समझायें मन को

अब तो यूँ ही

ऊबड़-खाबड़ राहों पर

ज़िन्दगी सहज लगने लगी है।

 

 

अपनों की यादें

अपनों की यादें

कुछ कांटें, कुछ फूल

कुछ घाव, कुछ मरहम

कुछ हँसी, कुछ रुदन

धुंधलाते चेहरे।

.

ज़िन्दगी बीत गई

अपनों-परायों की

पहचान ही न हो पाई।

वे अपने थे या पराये

कभी समझ ही न पाये।

हमारे जीवन के

फीके पड़ते रंगों में

रिश्ते भी

फीके पड़ने लगे।

पहचान मिटने लगी,

नाम सिमटने लगे।

आंधियों में

वे सब

दूर ओट में खड़े

देखते रहे हमें

बिखरते हुए,

और 

इन्द्रधनुष खिलते ही

वे हमें पहचान गये।

अपने कौन होते हैं

आज तक

जान ही न पाये।

 

धागों का रिश्ता
कहने को कच्चे धागों का रिश्ता, पर मज़बूत बड़ा होता है

निःस्वार्थ भावों से जुड़ा यह रिश्ता बहुत अनमोल होता है

भाई यादों में जीता है जब बहना दूर चली चली जाती है

राखी-दूज पर मिलने आती है, तब आनन्द दूना होता है।

माँ का प्यार

माँ का अँक

एक सुरक्षा-कवच

कभी न छूटे

कभी न टूटे

न हो विलग।

 

माँ के प्राण

किसी तोते समान

बसते हैं

अपने शिशु में

कभी न हों  विलग।

जीवन की आस

बस तेरे साथ

जीवन यूँ ही बीते

तेरी साँस मेरी आस।

 

घर की पूरी खुशियाँ

आंगन में चरखा चलता था

आंगन में मंजी बनती थी

पशु पलते थे आंगन में

आँगन  में कुँआ होता था

आँगन  में पानी भरते थे

आँगन  में चूल्हा जलता था

आँगन  में रोटी पकती थी

आँगन में सब्ज़ी उगती थी

आँगन में बैठक होती थी

आँगन में कपड़े धुलते थे

आँगन में बर्तन मंजते थे।

गज़ भर के आँगन  में

सब हिल-मिल रहते थे

घर की पूरी खुशियाँ

इस छोटे-से आँगन में बसती थीं

पूरी दुनिया रचती थीं।

अपनेपन को समझो

रिश्तों में जब बिखराव लगे तो अपनी सीमाएं समझो

किसी और की गलती से पहले अपनी गलती परखो

इससे पहले कि डोरी हाथ से छूटती, टूटती दिखे

कुछ झुक जाओ, कुछ मना लो, अपनेपन को समझो

जीवन की डगर चल रही

राहें पथरीली

सुगम सुहातीं।

कदम-दर कदम

चल रहे

साथ न छूटे

बात न छूटे,

अगली-पिछली भूल

बस बढ़ते जाते।

साथ-साथ

चलते जाते।

क्यों आस करें किसी से

हाथों में हाथ दे

बढ़ते जाते।

जीवन की डगर चल रही,

मंज़िल की ओर बढ़ रही,

न किसी से शिकवा

न शिकायत।

धीरे-धीरे

पग-भर सरक रही,

जीवन की डगर चल रही।

 

मेरे मित्र

उपर वाला

बहुत रिश्ते बांधकर देता है

लेकिन कहता है

कुछ तो अपने लिए

आप भी मेहनत कर

इसलिए जिन्दगी में

दोस्त आप ही ढूंढने पड़ते हैं

लेकिन कभी-कभी उपरवाला भी

दया दिखाता है

और एक अच्छा दोस्त झोली में

डालकर चला जाता है

लेकिन उसे समझना

और पहचानना आप ही पड़ता है।

.

कब क्या कह बैठती हूं

और क्या कहना चाहती हूं

अपने-आप ही समझ नहीं पाती

शब्द खिसकते है

कुछ अर्थ बनते हैं

भाव संवरते हैं

और कभी-कभी लापरवाही

अर्थ को अनर्थ बना देती है

.

सब कहते हैं मुझे

कम बोला कर, कम बोला कर

.

पर न जाने कितने दिन रह गये हैं

जीवन के बोलने के लिए

.

मन करता है

जी भर कर बोलूं

बस बोलती रहूं,  बस बोलती रहूं

.

लेकिन ज्यादा बोलने की आदत

बहुत बार कुछ का कुछ

कहला देती है

जो मेरा अभिप्राय नहीं होता

लेकिन

जब मैं आप ही नहीं समझ पाती

तो किसी और को

कैसे समझा सकती हूं

.

किन्तु सोचती हूं

मेरे मित्र

मेरे भाव को समझेंगे

.

हास-परिहास को समझेंगे

न कि

शब्दों का बुरा मानेंगे

उलझन को सुलझा देंगे

कान खींचोंगे मेरे

आंख तरेरेंगे

न कोई

लकीर बनने दोगे अनबन की।

.

कई बार यूं ही

खिंची लकीर भी

गहरी होती चली जाती है

फिर दरार बनती है

उस पर दीवार चिनती है

इतना होने से पहले ही

सुलझा लेने चाहिए

बेमतलब मामले

तुम मेरे कान खींचो

और मै तुम्हारे

 

 

 

शब्द नहीं, भाव चाहिए

शब्द नहीं, भाव चाहिए
अपनों को अपनों से
प्यार चाहिए
उंची वाणी चाहे बोलिए
पर मन में एक संताप चाहिए
क्रोध कीजिए, नाराज़गी जताईये
पर मन में भरपूर विश्वास चाहिए
कौन किसका, कब कहां
दिखाने की नहीं
जताने की नहीं
समय आने पर 
अपनाने की बात है। 
न मांगने से मिलेगा
न चाहने से मिलेगा,
सच्चे मन से 
भावों का आदान-प्रदान चाहिए
आदर-सत्कार तो कहने की बात है
शब्द नहीं, भाव चाहिए,
अपने-पराये का भेद भूलकर 
बस एक भाव चाहिए। 

 

यह रिश्ते

माता-पिता के लिए बच्चे वरदान होते हैं।

बच्चों के लिए माता-पिता सरताज होते हैं।

इन रिश्तों में गंगा-यमुना-सी पवित्र धारा बहती है,

यह रिश्ते मानों जीवन का मधुर साज़ होते हैं।

 

रिश्तों में

माता-पिता न मांगें कभी बच्चों से प्रतिदान।

नेह, प्रेम, अपनापन, सुरक्षा, नहीं कोई एहसान।

इन रिश्तों में लेन-देन की तुला नहीं रहती,

बदले में न मांगें बच्चों से कभी बलिदान।

 

बस नेह मांगती है

कोई मांग नहीं करती बस नेह मांगती है बहन।

आशीष देती, सुख मांगती, भाई के लिए बहन।

दुख-सुख में साथी, पर जीवन अधूरा लगता है,

जब भाई भाव नहीं समझता, तब रोती है बहन।

 

रिश्तों का असमंजस

कुछ रिश्ते

फूलों की तरह होते हैं

और कुछ कांटों की तरह।

फूलों को सहेज लीजिए

कांटों को उखाड़ फेंकिए।

नहीं तो, बहुत

असमंजस की स्थिति

बनी रहती है।

किन्तु, कुछ कांटे

फूलों के रूप में आते हैं ,

और कुछ फूल

कांटों की तरह

दिखाई देते हैं।

और कभी कभी,

दोनों

साथ-साथ उलझे भी रहते हैं।

बड़ा मुश्किल होता है परखना।

पर परखना तो पड़ता ही है।

 

निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

कुछ शहरों की हैं दूरियां, कुछ काम-काज की दूरियां

मेल-मिलाप कैसे बने, निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

परिवार निरन्तर छिटक रहे, दूर-पार सब जा रहे,

तकनीक आज मिटा रही हम सबके बीच की दूरियां

 

कहानी टूटे-बिखरे रिश्तों की

कुछ यादें,

कुछ बातें चुभती हैं

शीशे की किरचों-सी।

रिसता है रक्त, धीरे-धीरे।

दाग छोड़ जाता है।

सुना है मैंने

खुरच कर नमक डालने से

खुल जाते हैं ऐसे घाव।

किरचें छिटक जाती हैं।

अलग-से दिखाई देने लगती हैं।

घाव की मरहम-पट्टी को भूलकर,

हम अक्सर उन किरचों को

समेटने की कोशिश करते हैं।

कि अरे !

इस छोटे-से टुकड़े ने

इतने गहरे घाव कर दिये थे,

इतना बहा था रक्त

इतना सहा था दर्द।

और फिर अनजाने में

फिर चुभ जाती हैं वे किरचें।

और यह कहानी

जीवन भर दोहराते रहते हैं हम।

शायद यह कहानी

किरचों की नहीं,

टूटे-बिखरे रिश्तों की है ,

या फिर किरचों की

या फिर टूटे-बिखरे रिश्तों की ।।।।

 

अपनी कमज़ोरियों को बिखेरना मत

 

ज़रा सम्हलकर रहना,

अपनी पकड़ बनाकर रखना।

मन की सीमाओं पर

प्रहरी बिठाकर रखना।

मुट्ठियां बांधकर रखना।

भौंहें तानकर रखना।

अपनी कमज़ोरियों को

मंच पर

बिखेरकर मत रखना।

 

मित्र हो या शत्रु

नहीं पहचान पाते,

जब तक

ठोकर नहीं लगती।

 

फिर आंसू मत बहाना,

कि किसी ने धोखा दिया,

या किया विश्वासघात।

मां तो बस मां होती है

मां का कोई नाम नहीं होता,

मां का कोई दाम नहीं होता

मां तो बस मां होती है

उसका कोई अलग पता नहीं होता

मेरे संग पढ़ती,

 खेल खिलौने देती,

रातों की नींदों में

सपनों में,

 लोरी में,

परियों की कथा कहानी में,

कपड़े लत्ते में,

रोटी टिफिन में ,

सब जगह रहती है मां

कब सोती है

कब उठती,

 पता नहीं होता

जो चाहिए वो देती है मां।

मेरे अन्दर बाहर है मां,

मां तो बस मां होती है ।

कोई मुझसे पूछे ,

कहां कहां होती है मां।

क्या होती है मां।

मां तो बस मां होती है ।

 

 

अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता

मां का कोई नाम नहीं होता, मां का कोई दाम नहीं होता

मां तो बस मां होती है उसका कोई अलग पता नहीं होता

घर के कण-कण में, सहज-सहज अनदेखी-अनबोली मां

अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता

क्‍यों करें किसी से गिले

कांटों के संग फूल खिले

अनजाने कुछ मीत मिले

सारी बातें आनी जानी हैं

क्‍यों करें किसी से गिले

ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं रिश्ते

वे चुप-चुप थे ज़रा, हमने पूछा कई बार, क्या हुआ है

यूं ही छोटी-छोटी बातों पर भी कभी कोई गैर हुआ है

ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं कुछ अच्छे रिश्ते

सबसे हंस-बोलकर समय बीते, ऐसा  कब-कब हुआ है

समय ने बदली है परिवार की परिल्पना

समय ने बदली है परिवार की परिल्पना, रक्त-सम्बन्ध बिखर गये

जहां मिले अपनापन, सुख-दुख हो साझा, वहीं मन-मीत मिल गये

झूठे-रूठे-बिगड़े सम्बन्धों को कब तक ढो-ढोकर जी पायेंगे

कौन है अपना, कौन पराया, स्वार्थान्धता में यहां सब बदल गये

कच्चे धागों से हैं जीवन के रिश्ते

हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में

हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में

कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते

इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में

 

जब मांगो हाथ मदद का तब छिपने के स्थान बहुत हैं

बातों में, घातों में, शूरवीर, बलशाली, बलवान,  बहुत हैं

जब मांगो हाथ मदद का, तब छिपने के स्थान बहुत हैं

कैसे जाना, कितना जाना, किसको माना था अपना,

क्या बतलाएं, कैसे बतलाएं, वैसे लेने को तो नाम बहुत है