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बहुत आनन्द आता है मुझे
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
सब ऊपर वाले की मर्ज़ी।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
कर्म कर, फल की चिन्ता मत कर।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
यह तो मेरे परिश्रम का फल है।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कर्मों का हिसाब करते हैं
और कहते हैं कि मुझे
कर्मानुसार मान नहीं मिला।
कहते हैं यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई।
कर्मों का लेखा-जोखा
अच्छा-बुरा सब लिखकर भेजा है।
.
आपको नहीं लगता
हम अपनी ही बात में बात
बात में बात कर-करके
और अपनी ही बात
काट-काटकर
अकारण ही
परेशान होते रहते हैं।
-
लेकिन मुझे
बहुत आनन्द आता है।
गुम हो जाये चाबी स्कूल की
हाथ जोड़कर तुम क्या मांग रहे मुझको कुछ भी नहीं पता
बैठा था गर्मी की छुट्टी की आस में, क्या की थी मैंने खता
मैं तो बस मांगूं एक टी.वी.,एक पी.सी,एक आई फोन 6
और मांगू, गुम हो जाये चाबी स्कूल की, और मेरा बस्ता
संगम का भाव
संगम का भाव मन में हो तो गंगा-घाट घर में ही बसता है
रिश्तों में खटास हो तो मन ही भीड़-तन्त्र का भाव रचना है
वर्षों-वर्षों बाद आता है कुम्भ जहाँ मिलते-बिछड़ते हैं अपने
ज्ञान-ध्यान, कहीं आस-विश्वास, इनसे ही जीवन चलता है
ज़मीन से उठते पांव थे
आकाश को छूते अरमान थे
ज़मीन से उठते पांव थे
आंखों पर अहं का परदा था
उल्टे पड़े सब दांव थे
एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।
हर वर्ष आती है यह विभीषिका।
प्रतीक्षा में बैठै रहते हैं
कब बरसेगा जल
कब होगी अतिवृष्टि
डूबेंगे शहर-दर-शहर
टूटेंगे तटबन्ध
मरेगा आदमी
भूख से बिलखेगा
त्राहि-त्राहि मचेगी चारों ओर।
फिर लगेंगे आरोप-प्रत्यारोप
वातानुकूलित भवनों में
योजनाओं का अम्बार लगेगा
मीडिया को कई दिन तक
एक समाचार मिल जायेगा,
नये-पुराने चित्र दिखा-दिखा कर
डरायेंगे हमें।
कितनी जानें गईं
कितनी बचा ली गईं
आंकड़ों का खेल होगा।
पानी उतरते ही
भूल जायेंगे हम सब कुछ।
मीडिया कुछ नया परोसेगा
जो हमें उत्तेजित कर सके।
और हम बैठे रहेंगे
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
नहीं पूछेंगे अपने-आपसे
कितने अपराधी हैं हम,
नहीं बनायेंगे
कोई दीर्घावधि योजना
नहीं ढूंढेगे कोई स्थायी हल।
बस, एक-दूसरे का मुंह ताकते
बैठे रहेंगे
एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।
मर्यादाओं की चादर ओढ़े
मर्यादाओं की चादर में लिपटी खड़ी है नारी
न इधर राह न उधर राह, देख रही है नारी
किसको पूछे, किससे कह दे मन की व्यथा
फ़टी-पुरानी, उधड़ी चादर ओढ़े खड़ी है नारी
मेरी आंखों में आँसू देख
मुझसे
प्याज न कटवाया करो।
मुझे
प्याज के आँसू न रुलाया करो।
मेरी आंखों में आँसू देख
न मुस्कुराया करो।
खाना बनाने की
रोज़-रोज़
नई-नई
फ़रमाईशें न बताया करो।
रोज़-रोज़ मुझसे खाना बनवाते हो
कभी तो बनाकर खिलाया करो।
चलो, न बनाओ
तो बस
कभी तो हाथ बंटाया करो।
श्रृंगार किये बैठी थी मैं
कुछ तो
मुझ पर तरस खाया करो।
श्रृंगार का सामान मांगती हूँ
तब मँहगाई का राग न गाया करो।
मेरी आँसू देखकर
न जाने कितनी कहानियाँ बनेंगीं,
हँस-हँसकर मुझे न चिड़ाया करो।
शब्दों से न सही
भावों से ही
कभी तो प्रेम-भाव जतलाया करो।
रूठकर बैठती हूँ
कभी तो मनाने आ जाया करो।
आने वाला कल
अपने आज से परेशान हैं हम।
क्या उपलब्धियां हैं
हमारे पास अपने आज की,
जिन पर
गर्वोन्नत हो सकें हम।
और कहें
बदलेगा आने वाला कल।
.
कैसे बदलेगा
आने वाला कल,
.
डरे-डरे-से जीते हैं।
सच बोलने से कतराते हैं।
अन्याय का
विरोध करने से डरते हैं।
भ्रमजाल में जीते हैं -
आने वाला कल अच्छा होगा !
सही-गलत की
पहचान खो बैठे हैं हम,
बनी-बनाई लीक पर
चलने लगे हैं हम।
राहों को परखते नहीं।
बरसात में घर से निकलते नहीं।
बादलों को दोष देते हैं।
सूरज पर आरोप लगाते हैं,
चांद को घटते-बढ़ते देख
नाराज़ होते हैं।
और इस तरह
वास्तविकता से भागने का रास्ता
ढूंढ लेते हैं।
-
तो
कैसे बदलेगा आने वाला कल ?
क्योंकि
आज ही की तो
प्रतिच्छाया होता है
आने वाला कल।
नारी में भी चाहत होती है
ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है
कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी ही राहत होती है
पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है
चल आज काम बदल लें
चल आज काम बदल लें
मैं चलाऊॅं हल, खोदूंगी खेत
तुम घर चलाना।
राशन-पानी भर लाना
भोजन ताज़ा है बनाना
माता-पिता की सेवा करना
घर अच्छे-से बुहारना।
बर्तन-भांडे सब मांज कर लगाना।
फ़सल की रखवाली मैं कर लूंगी
तुम ज़रा झाड़ू-पोचा लगाना।
सब्ज़ी-भाजी अच्छे-से ले आना।
दूध-दहीं भी लेकर आना।
बच्चों की दूध-मलाई-रोटी
माता-पिता और भाई-बहन का खाना
सब अलग-अलग-से है बनाना।
बच्चों के कपड़े अच्छे से प्रैस हों,
जूते पालिश, बैग में पुस्तकें
और होम-वर्क सब है करवाना।
न करना देरी
स्कूल समय से जायें
टिफ़िन अच्छे-से बनाना।
नाश्ता, दोपहरी रोटी,
संध्या का जल-पान
और रात की रोटी
सब ताज़ा, अलग-अलग
और सबकी पसन्द का है बनाना।
मां की रोटी में नमक कम रहे
पिता की थाली में मीठा
भाई को देना घी की रोटी
बहन मांगेगी पिज़्जा बर्गर
सब कुछ है लाना।
कपड़ों का भी ध्यान रहे
धोकर धूप में है सुखाना।
और हां,
मेरी रोटी दोपहरी में दे जाना
ज़रा ध्यान रहे,
रोटी, साग, सब्ज़ी, लस्सी, पानी,
अचार-मिर्ची सब रहे।
कुछ लेबर के लिए भी लेते आना।
बैल की कमान थामी है मैंने
चूड़ी, कंगन, माला, हार
सब रख आई हूं
ज़रूरत पड़े तो पहन जाना।
शब्द और भाव
बड़े सुन्दर भाव हैं
दया, करूणा, कृपा।
किन्तु कभी-कभी
कभी-कभी क्यों,
अक्सर
आहत कर जाते हैं
ये भाव
जहां शब्द कुछ और होते हैं
और भाव कुछ और।
मेरे मित्र
उपर वाला
बहुत रिश्ते बांधकर देता है
लेकिन कहता है
कुछ तो अपने लिए
आप भी मेहनत कर
इसलिए जिन्दगी में
दोस्त आप ही ढूंढने पड़ते हैं
लेकिन कभी-कभी उपरवाला भी
दया दिखाता है
और एक अच्छा दोस्त झोली में
डालकर चला जाता है
लेकिन उसे समझना
और पहचानना आप ही पड़ता है।
.
कब क्या कह बैठती हूं
और क्या कहना चाहती हूं
अपने-आप ही समझ नहीं पाती
शब्द खिसकते है
कुछ अर्थ बनते हैं
भाव संवरते हैं
और कभी-कभी लापरवाही
अर्थ को अनर्थ बना देती है
.
सब कहते हैं मुझे
कम बोला कर, कम बोला कर
.
पर न जाने कितने दिन रह गये हैं
जीवन के बोलने के लिए
.
मन करता है
जी भर कर बोलूं
बस बोलती रहूं, बस बोलती रहूं
.
लेकिन ज्यादा बोलने की आदत
बहुत बार कुछ का कुछ
कहला देती है
जो मेरा अभिप्राय नहीं होता
लेकिन
जब मैं आप ही नहीं समझ पाती
तो किसी और को
कैसे समझा सकती हूं
.
किन्तु सोचती हूं
मेरे मित्र
मेरे भाव को समझेंगे
.
हास-परिहास को समझेंगे
न कि
शब्दों का बुरा मानेंगे
उलझन को सुलझा देंगे
कान खींचोंगे मेरे
आंख तरेरेंगे
न कोई
लकीर बनने दोगे अनबन की।
.
कई बार यूं ही
खिंची लकीर भी
गहरी होती चली जाती है
फिर दरार बनती है
उस पर दीवार चिनती है
इतना होने से पहले ही
सुलझा लेने चाहिए
बेमतलब मामले
तुम मेरे कान खींचो
और मै तुम्हारे
दिल चीज़ क्या है
आज किसी ने पूछा
‘‘दिल चीज़ क्या है’’?
-
अब क्या-क्या बताएँ आपको
बड़़ी बुरी चीज़ है ये दिल।
-
हाय!!
कहीं सनम दिल दे बैठे
कहीं टूट गया दिल
किसी पर दिल आ गया,
किसी को देखकर
धड़कने रुक जाती हैं
तो कहीं तेज़ हो जाती हैं
कहीं लग जाता है किसी का दिल
टूट जाता है, फ़ट जाता है
बिखर-बिखर जाता है
तो कोई बेदिल हो जाता है सनम।
पागल, दीवाना है दिल
मचलता, बहकता है दिल
रिश्तों का बन्धन है
इंसानियत का मन्दिर है
ये दिल।
कहीं हो जाते हैं
दिल के हज़ार टुकड़े
और किसी -किसी का
दिल ही खो ही जाता है।
कभी हो जाती है
दिलों की अदला-बदली।
फिर भी ज़िन्दा हैं जनाब!
ग़जब !
और कुछ भी हो
धड़कता बहुत है यह दिल।
इसलिए
अपनी धड़कनों का ध्यान रखना।
वैसे तो सुना है
मिनट-भर में
72 बार
धड़कता है यह दिल।
लेकिन
ज़रा-सी ऊँच-नीच होने पर
लाखों लेकर जाता है
यह दिल।
इसलिए
ज़रा सम्हलकर रहिए
इधर-उधर मत भटकने दीजिए
अपने दिल को।
सपना देखने में क्या जाता है
कोई भी उड़ान
इतनी सरल नहीं होती
जितनी दिखती है।
बड़ा आकर्षित करता है
आकाश को चीरता यान।
रंगों में उलझता।
दोनों बाहें फैलाये
आकाश को
हाथों से छू लेने की
एक नाकाम कोशिश,
अक्सर
मायूस तो करती है,
लेकिन आकाश में
चमकता चांद !
कुछ सपने दिखाता है
पुकारता है
साहस देता है,
चांद पर
घर बसाने का सपना
दिखाता है,
जानती हूं , कठिन है
असम्भव-प्रायः
किन्तु सपना देखने में क्या जाता है।
कौन से रिश्ते अपने, कौन से पराये
हम रह-रहकर मरम्मत करवाते रहे
लोग टूटी छतें आजमाते रहे।
दरारों से झांकने में
ज़माने को बड़ा मज़ा आता है
मौका मिलते ही दीवारें तुड़वाते रहे।
छत तक जाने के लिए
सीढ़ियां चिन दी
पर तरपाल डालने से कतराते रहे।
कब आयेगी बरसात, कब उड़ेंगी आंधियां
ज़िन्दगी कभी बताती नहीं है
हम यूं ही लोगों को समझाते रहे।
कौन से रिश्ते अपने, कौन से पराये
उलझते रहे हम यूं ही इन बातों में
पतंग के उलझे मांझे सुलझाते रहे
अपनी उंगलियां यूं ही कटवाते रहे।
अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
वैकल्पिक अवसर कहां देती है ज़िन्दगी,
जब चाहे कुछ भी छीन लेती है ज़िन्दगी
भाग्य को नहीं मानती मैं, पर फिर भी
अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
श्वेत हंसों का जोड़ा
अपनी छाया से मोहित मन-मग्न हुआ हंसों का जोड़ा
चंदा-तारों को देखा तो कुछ शरमाया हंसों का जोड़ा
इस मिलन की रात को देख चंदा-तारे भी मग्न हुए
नभ-जल की नीलिमा में खो गया श्वेत हंसों का जोड़ा
प्रकृति का सौन्दर्य चित्र
कभी-कभी सूरज
के सामने ही
बादल बरसने लगते हैं।
और जल-कण,
रजत-से
दमकने लगते हैं।
तम
खण्डित होने लगता है,
घटाएं
किनारा कर जाती हैं।
वे भी
इस सौन्दय-पाश में
बंध दर्शक बन जाती हैं।
फिर
मानव-मन कहां
तटस्थ रह पाता है,
सरस-रस से सराबोर
मद-मस्त हो जाता है।
स्त्री की बात
जब कोई यूं ही
स्त्री की बात करता है
मैं समझ नहीं पाती
कि यह राहत की बात है
अथवा चिन्ता की
एक पंथ दो काज
आजकल ज़िन्दगी
न जाने क्यों
मुहावरों के आस-पास
घूमने लगी है
न तो एक पंथ मिलता है
न ही दो काज हो पाते हैं।
विचारों में भटकाव है
जीवन में टकराव है
राहें चौराहे बन रही हैं
काज कितने हैं
कहाँ सूची बना पाते हैं
कब चयन कर पाते हैं
चौराहों पर खड़े ताकते हैं
काज की सूची
लम्बी होती जाती है
राहें बिखरने लगती हैं।
जो राह हम चुनते हैं
रातों-रात वहां
नई इमारतें खड़ी हो जाती हैं
दोराहे
और न जाने कितने चौराहे
खिंच जाते हैं
और हम जीवन-भर
ऊपर और नीचे
घूमते रह जाते हैं।
कानून तोड़ना अधिकार हमारा
अधिकारों की बात करें
कर्तव्यो का ज्ञान नहीं,
पढ़े-लिखे अज्ञानी
इनको कौन दे ज्ञान यहां।
कानून तोड़ना अधिकार हमारा।
पकड़े गये अगर
ले-देकर बात करेंगे,
फिर महफिल में बीन बजेगी
रिश्वतखोरी बहुत बढ़ गई,
भ्रष्टाचारी बहुत हो गये,
कैसे अब यह देश चलेगा।
आरोपों की झड़ी लगेगी,
लेने वाला अपराधी है
देने वाला कब होगा ?
बताते हैं क्या कीजिए
सुना है ज्ञान, ध्यान, स्नान एक अनुष्ठान है, नियम, काल, भाव से कीजिए
तुलसी-नीम डालिए, स्वच्छ जल लीजिए, मंत्र पढ़िए, राम-राम कीजिए।।
शून्य तापमान, शीतकाल, शीतल जल, काम इतना कीजिए बस चुपचाप
चेहरे को चमकाईए, क्रीम लगाईए, और हे राम ! हे राम ! कीजिए ।।
व्यवसाय बनी है शिक्षा
शिक्षक का नअब मान रहा।
छात्र का न अब प्रतिदान रहा।
व्यवसाय बनी है शिक्षा अब,
व्यापार बना, यह काम रहा।
सपने तो सपने होते हैं
सपने तो सपने होते हैं
कब-कब अपने होते हैं
आँखो में तिरते रहते हैं
बातों में अपने होते हैं।
जीना चाहती हूं
छोड़ आई हूं
पिछले वर्ष की कटु स्मृतियों को
पिछले ही वर्ष में।
जीना चाहती हूं
इस नये वर्ष में कुछ खुशियों
उमंग, आशाओं संग।
ज़िन्दगी कोई दौड़ नहीं
कि कभी हार गये
कभी जीत गये
बस मन में आशा लिए
भावनाओं का संसार बसता है।
जो छूट गया, सो छूट गया
नये की कल्पना में
अब मन रमता है।
द्वार खोल हवाएं परख रही हूं।
अंधेरे में रोशनियां ढूंढने लगी हूं।
अपने-आपको
अपने बन्धन से मुक्त करती हूं
नये जीवन की आस में
आगे बढ़ती हूं।
मतदान मेरा कर्त्तव्य भी है
मतदान मेरा अधिकार है
पर किसने कह दिया
कि ज़िम्मेदारी भी है।
हां, अधिकार है मेरा मतदान।
पर कौन समझायेगा
कि अधिकार ही नहीं
कर्त्तव्य भी है।
जिस दिन दोनों के बीच की
समानान्तर रेखा मिट जायेगी
उस दिन मतदान सार्थक होगा।
किन्तु
इतना तो आप भी जानते ही होंगें
कि समानान्तर रेखाएं
कभी मिला नहीं करतीं।
छोटी छोटी खुशियों से खुश रहती है ज़िन्दगी
बस हम समझ ही नहीं पाते
कितनी ही छोटी छोटी खुशियां
हर समय
हमारे आस पास
मंडराती रहती हैं
हमारा द्वार खटखटाती हैं
हंसाती हैं रूलाती हैं
जीवन में रस बस जाती हैं
पर हम उन्हें बांध नहीं पाते।
आैर इधर
एक आदत सी हो गई है
एक नाराज़गी पसरी रहती है
हमारे चारों ओर
छोटी छोटी बातों पर खिन्न होता है मन
रूठते हैं, बिसूरते हैं, बहकते हैं।
उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से उजली क्यों
उसकी रिंग टोन मेरी रिंग टोन से नई क्यों।
गर्मी में गर्मी क्यों और शीत ऋतु में ठंडक क्यों
पानी क्यों बरसा
मिट्टी क्यों महकी, रेत क्यों सूखी
बिल्ली क्यों भागी, कौआ क्यों बोला
ये मंहगाई
गोभी क्यों मंहगी, आलू क्यों सस्ता
खुशियों को पहचानते नहीं
नाराज़गी के कारण ढूंढते हैं।
चिड़चिड़ाते हैं, बड़बड़ाते हैं
अन्त में मुंह ढककर सो जाते हैं ।
और अगली सुबह
फिर वही राग अलापते हैं।
ऋण नहीं मांगता दान नहीं मांगता
समय बदला, युग बदले,
ज़मीन से आकाश तक,
चांद तारों को परख आया मानव।
और मैं !! आज भी
उसी खेत में
बंजर ज़मीन पर
अपने उन्हीं बूढ़े दो बैलों के साथ
हल जोतता ताकता हूं आकाश
कब बरसेगा मेह मेरे लिए।
तब धान उगेगा
भरपेट भोजन मिलेगा।
ऋण नहीं मांगता। दान नहीं मांगता।
बस चाहता हूं
अपने परिश्रम की दो रोटी।
नहीं मरना चाहता मैं बेमौत।
अगर यूं ही मरा
तब मेरे नाम पर राजनीति होगी।
सुर्खियों में आयेगा मेरा नाम।
फ़ोटो छपेगी।
मेरी गरीबी और मेरी यह मौत
अनेक लोगों की रोज़ी-रोटी बनेगी।
धन बंटेगा, चर्चाएं होंगी
मेरी उस लाश पर
और भी बहुत कुछ होगा।
और इन सबसे दूर
मेरे घर के लोग
इन्हीं दो बैलों के साथ
उसी बंजर ज़मीन पर
मेरी ही तरह
नज़र गढ़ाए बैठे होंगे आकाश पर
कब बरसेगा मेह
और हमें मिलेगी
अपने परिश्रम की दो रोटी
हां ! ये मैं ही हूं।
तरुणी की तरुणाई
मौसम की तरुणाई से मन-मग्न हुई तरुणी
बादलों की अंगड़ाई से मन-भीग गई तरूणी
चिड़िया चहकी, कोयल कूकी, मोर बोले मधुर
मन मधुर-मधुर, प्रेम-रस में डूब गई तरुणी
चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
अच्छी नहीं लगती
घर के किसी कोने में
चुपचाप जलती अगरबत्ती।
मना करती थी मेरी मां
फूंक मारकर बुझाने के लिए
अगरबत्ती।
मुंह की फूंक से
जूठी हो जाती है।
हाथ की हवा देकर
बुझाई जाती है अगरबत्ती।
डब्बी में सहेजकर
रखी जाती है अगरबत्ती।
खुली नहीं छोड़ी जाती
उड़ जायेगी खुशबू
टूट जायेगी
टूटने नहीं देनी है अगरबत्ती।
क्योंकि सीधी खड़ी कर
लपट दिखाकर
जलानी होती है अगरबत्ती।
लेकिन जल्दी चुक जाती है
मज़ा नहीं देती
लपट के साथ जलती अगरबत्ती।
फिर गिर जाये कहीं
तो सब जला देगी अगरबत्ती।
इसलिए
लपट दिखाकर
अदृश्य धुएं में लिपटी
चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
किसी कोने में सजानी होती है अगरबत्ती।
रोज़ डांट खाती हूं मैं।
लपट सहित जलती
छोड़ देती हूं अगरबत्ती।