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पछताते लोग
झूठी शान जताते लोग
बातें खूब बनाते लोग
खुलती पोल सिर झुकता
तब देखो पछताते लोग
आज हम जीते हैं अपने हेतु बस अपने हेतु
मंदिरों की नींव में
निहित होती हैं हमारी आस्थाएं।
द्वार पर विद्यमान होती हैं
हमारी प्रार्थनाएं।
प्रांगण में विराजित होती हैं
हमारी कामनाएं।
और गुम्बदों पर लहराती हैं
हमारी सदाएं।
हम पत्थरों को तराशते हैं।
मूर्तियां गढ़ते हैं।
रंग−रूप देते हैं।
सौन्दर्य निरूपित करते हैं।
नेह, अपनत्व, विश्वास और श्रद्धा से
श्रृंगार करते हैं उनका।
और उन्हें ईश्वरीय प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं।
करते –करते कर लिए हमने
चौरासी करोड़ देवी –देवता।
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समय –प्रवाह में मूत्तियां खण्डित होने लगती हैं ।
और खण्डित मू्र्तियों की पूजा का विधान नहीं है।
खण्डित मू्र्तियों को तिरोहित कर दिया जाता है
कहीं जल –प्रवाह में।
और इन खण्डित होती मू्र्तियों के साथ ही
तिरोहित होने लगती हैं
हमारी आस्थाएं, विश्वास, अपनत्व और नेह।
श्रद्धा और विश्वास अंधविश्वास हो गये।
आस्थाएं विस्थापित होने लगीं
प्रार्थनाएं बिखरने लगीं
सदाएं कपट हो गईं
और मन –मन्दिर ध्वस्त हो गये।
उलझने लगे हम, सहमने लगे हम,
डरने लगे हम, बिखरने लगे हम,
अपनी ही कृतियों से, अपनी ही धर्मिता से
बंटने–बांटने लगे हम।
और आज हम जीते हैं अपने हेतु
बस अपने हेतु।
बस बातें करने में उलझे हैं हम
किस विवशता में कौन है, कहां है, कब समझे हैं हम।
दिखता कुछ और, अर्थ कुछ और, नहीं समझे हैं हम।
मां-बेटे-से लगते हैं, जीवनगत समस्याओं में उलझे,
नहीं इनका मददगार, बस बातें करने में उलझे हैं हम।
हां, मैं हूं कुत्ता
एक कुत्ते ने
फेसबुक पर अपना चित्र देखा,
और बड़बड़ाया
इस इंसान को देखो
फेसबुक पर भी मुझे ले आया।
पता नहीं क्या-क्या कह डालेगा मेरे बारे मे।
दुनिया-जहां में तो
नित्यप्रति मेरी कहानियां
गढ़-गढ़कर समय बिताता है।
पता नहीं कितने मुहावरे
बनाये हैं मेरे नाम से,
तरह तरह की बातें बनाता है।
यह तो शिष्ट-सभ्य,
सुशिक्षित बुद्धिजीवियों का मंच है,
मैं अपने मन की पीड़ा
यहां कह भी तो नहीं सकता।
कोई टेढ़ी पूंछ के किस्से सुनाता है,
तो कोई स्वामिभक्ति के गुण गाता है।
कोई तलुवे चाटने की बात करता है
तो कोई बेवजह ही दुत्कारता है।
किसी को मेरे भाग्य से ईर्ष्या होती है
तो कोई अपनी भड़ास निकालने के लिए
मुझे लात मारकर चला जाता है।
और महिलाओं के हाथ में
मेरा पट्टा देखकर तो
मेरी भांति ही लार टपकाता है।
बची बासी रोटी डालने से
कोई नहीं हिचकिचाता है।
बस,आज तक
एक ही बात समझ नहीं आई
कि मैं कुत्ता हूं, जानता हूं,
फिर मुझे कुत्ता-कुत्ता कहकर क्यों चिड़ाता है।
और हद तो तब हो गई
जब अपनी तुलना मेरे साथ करने लगता है।
बस, तभी मेरा मन
इस इंसान को
काट डालने का करता है।
अन्त होता है ज़िन्दगी की चालों का
स्याह-सफ़ेद
प्यादों की चालें
छोटी-छोटी होती हैं।
कदम-दर-कदम बढ़ते,
राजा और वज़ीर को
अपने पीछे छुपाये,
बढ़ते रहते हैं,
कदम-दर-कदम,
मानों सहमे-सहमे।
राजा और वज़ीर
रहते हैं सदा पीछे,
लेकिन सब कहते हैं,
बलशाली, शक्तिशाली
होता है राजा,
और वजीर होता है
सबसे ज़्यादा चालबाज़।
फिर भी ये दोनों,
प्यादों में घिरे
घूमते, बचते रहते हैं।
किन्तु, एक समय आता है
प्यादे चुक जाते हैं,
तब दो-रंगे,
राजा और वज़ीर,
आ खड़े होते हैं
आमने-सामने।
ऐसे ही अन्त होता है
किसी खेल का,
किसी युद्ध का,
या किसी राजनीति का।
अकेली हूं मैं
मेरे पास
बहुत सी अधूरी उम्मीदें हैं
और हर उम्मीद
एक पूरा आदमी मांगती है
अपने लिए।
और मेरे पास तो
बहुत सी
अधूरी उम्मीदें हैं
पर अकेली हूं मैं
अपने को
कहां कहां बांटूं ?
ज़िन्दगी की लम्बी राहों में
साथ कोई
उम्र-भर देता नहीं है
जानते हैं हम, फिर भी
मन को मनाते नहीं हैं।
मुड़-मुड़कर देखते रहते हैं
जाने वालों को हम
भुला पाते नहीं हैं।
ज़िन्दगी की लम्बी राहों में
न जाने कितने छूट गये
कितने हमें भूल गये
याद अब कर पाते नहीं हैं।
फिर भी इक टीस-सी अक्सर
दिल में उभरती रहती है
जिसे हम नकार पाते नहीं हैं।
अकेलापन
अच्छा लगता है.
अकेलापन।
समय देता है
कुछ सोचने के लिए
अपने-आपसे बोलने के लिए।
गुनगुनी धूप
सहला जाती है मन।
खिड़कियों से झांकती रोशनी
कुछ कह जाती है।
रात का उनींदापन
और अलसाई-सी सुबह,
कड़वी-मीठी चाय के साथ
दिन-भर के लिए
मधुर-मधुर भाव दे जाती है।
नदिया से मैंने पूछा
नदिया से मैंने पूछा
कल-कल कर क्यों बहती हो।
बहते-बहते
कभी सिमट-सिमट कर
कभी बिखर-बिखर जाती हो।
कभी मधुर संगीत छेड़ती
कभी विकराल रूप दिखाती हो।
कभी सूखी,
कभी लहर-लहर लहराती हो।
नदिया बोली,
मुझसे क्या पूछ रहे
तुम भी तो ऐसे ही हो मानव।
पर मैं आज तुम्हें चेताती हूं।
इसीलिए,
कल-कल की बातें कहती हूं।
समझ सको तो, सम्हल सको तो
रूक कर, ठहर-ठहर कर
सोचो तुम।
बहते-बहते, सिमट-सिमट कर
अक्सर क्यों बिखर-बिखर जाती हूं ।
मधुर संगीत छेड़ती
क्यों विकराल रूप दिखाती हूं।
जब सूखी,
फिर कहां लहर-लहर लहराती हूं।
मैं आज तुम्हें चेताती हूं।
भूल हुई कहाॅं थी
रुखसत क्या हुए ज़िन्दगी से, सब भूल-भुलैया हो गई
सीधे चलते-चलते ज़िन्दगी टेढ़े-मेढ़े मोड़ों में खो गई
समझ पाये नहीं, समझा सकते नहीं, भूल हुई कहाॅं थी
बदल गईं हाथों की लकीरें, किस्मत मानों सो गई।
मोबाईल: आवश्यकता अथवा व्यसन
हमारी एक प्रवृत्ति हो गई है कि हम बहुत जल्दी किसी भी बात की आलोचना अथवा सराहना करने लगते हैं। कोई एक करता है और फिर सब करने लगते हैं जैसे मानों नम्बर बनाने हों कि किसने कितनी आलोचना कर ली अथवा सराहना कर ली। जैसे हमारी विचार-शक्ति समाप्त हो जाती है और हम निर्भाव बहती धारा के साथ बहने लगते हैं।
मोबाईल!!!
आधुनिकता के इस युग में मोबाईल जीवन की आवश्यकता बन चुका है। चाहे कितनी भी आलोचना कर लें किन्तु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में इसके महत्व और आवश्यकता को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि आपको मोबाईल किस स्तर का चाहिए और किस कार्य के लिए।
एक समय था जब विद्यालयों में मोबाईल ले जाना प्रतिबन्धित था। फिर समय ऐसा आया कि यही मोबाईल शिक्षा का केन्द्र बन गया। कोराना काल ने आम आदमी के जीवन में इतने परिवर्तन कर दिये कि एक बार तो वह स्वयं ही समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो रहा है। जब तक समझ आती, जीवन की धाराएँ ही बदल चुकीं थीं।
शिक्षा का यह ऐसा काल था, लगभग दो वर्ष का, जिसने शिक्षा, ज्ञान और परीक्षाओं के सारे प्रतिमान ही बदल कर रख दिये। शिक्षा की इस नवीन प्रणाली ने पारिवारिक व्यवस्थाएँ, आवश्यकताएँ, जीवन का ढाँचा ही बदल कर रख दिया। देश के मध्यमवर्गीय परिवारों में रोटी से अधिक महत्वपूर्ण मोबाईल हो उठे। फिर वह पहली कक्षा का विद्यार्थी हो अथवा किसी बड़ी कक्षा का। किसी-किसी परिवार में एक साथ दो-दो लैपटॉप और तीन-चार मोबाईल की आवश्यकता उठ खड़ी हुई अर्थात लाखों का व्यय। आय बन्द, व्यवसाय बन्द, वेतन आधा और मोबाईल ज़रूरी। ऐसे कितने ही परिवार मैंने इस समय में देखे जहाँ माता-पिता के पास एक-एक मोबाईल था और पिता के पास लैपटॉप। अब तीन बच्चे। तीनों की एक समय ऑनलाईन क्लास। माता अध्यापिका। अब एक लैपटॉप और तीन मोबाईल की अनिवार्यता उठ खड़ी हुई। चाहिए भी एंड्राएड अर्थात कम से कम 15-20 हज़ार प्रति। जहाँ मोबाईल पढ़ाई की आवश्यकता बने वहाँ आदत का हिस्सा भी। असीमित ज्ञान का भण्डार। आय-व्यय, बैंकिंग, भुगतान-प्राप्ति का सरल साधन, डिजिटल पेमंट, खेल का माध्यम। बच्चे घर में बैठकर पूरी दुनिया से जुड़ रहे थे, ज्ञान का असीमित भण्डार का पिटारा मानों उनके सामने खुल गया था और वे अचम्भित थे। माता-पिता से जल्दी बच्चे यह सब सीखने लगे। इसमें कहीं भी कुछ भी ग़लत अथवा ठीक नहीं कहा जा सकता था, यह सब समय की आवश्यकता के कारण विकसित हो रहा था, जो धीरे-धीरे हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता गया। यदि शिक्षा के क्षेत्र में यह मोबाईल न होता तो बच्चे दो वर्ष पीछे चले जाते और उन्होंने ऑन लाईन जो ज्ञान प्राप्त किया, आधुनिकता से जुड़े, वह एक बहुत बड़ा अभाव रह जाता।
आज का समय ऐसा नहीं है कि बच्चे विद्यालय से निकले और घर। नहीं जी, ट्यूशन, डांस क्लास, स्विमिंग, क्रिकेट और न जाने क्या-क्या। तब माता-पिता और बच्चों के बीच यही एक वार्तालाप का सहारा बनता है
ऐसा नहीं कि कोरोना काल में ही मोबाईल ने हमारे जीवन को प्रभावित किया। इससे पूर्व भी विद्यालयों में सीनियर कक्षाओं में प्रोजेक्ट वर्क, आर्ट वर्क और अनेक गृह कार्य ऐसे दिये जाते थे जो गूगल देवता की सहायता से ही किये जाते थे। कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड और अनेक तकनीक प्रयोग में पहले से ही चल रहे थे, बस मोबाईल की इसमें वृद्धि हुई।
किसी सीमा तक यह बात ठीक है कि जब किसी वस्तु का हम अत्याधिक प्रयोग करने लगत हैं तब आवश्यकता से बढ़कर वह हमारी आदत बन जाती है, हमें उसकी लत लग जाती है और जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ने लगता है।
निश्चित रूप से बच्चे आज पक्षियों की भांति स्वतन्त्र पंछी नहीं रह गये हैं। इसका एक कारण मोबाईल हो सकता है किन्तु सारा दोष केवल मोबाईल को नहीं दिया जा सकता। आधुनिकतम जीवन शैली, शिक्षा एवं ज्ञान का माध्यम, बच्चे तो क्या हमारी पीढ़ी भी इसमें उलझी बैठी है। अब यह माता-पिता का कर्तव्य है और शिक्षा-संस्थानों का भी कि बच्चों को मोबाईल के उचित प्रयोग एवं सीमित प्रयोग के लिए प्रेरित करें न कि उन्हें आरोपित।
शोर बहुत होगा
बात ये न जाने कितनों को चुभती जायेगी
हमारी हॅंसी जब दूर तक सुनाई दे जायेगी
शोर बहुत होगा, पूछताछ होगी, जांच होगी
खुशियाॅं हमारे जीवन में कैसे समा जायेंगी
विघ्नहर्ता गणेश
लाखों नहीं
करोड़ों की संख्या में
विराजते हैं आप
हर वर्ष हमारे घरों में
आदरणीय गणेश जी।
दस दिन बाद
आपका विसर्जन कर
पुकारते हैं
अगले वर्ष जल्दी आना।
विसर्जित भी करते हैं
और चाहते हैं
कि आप पुनः-पुनः
हमारे घर पधारें
हर वर्ष पधारें।
गणेश जी के मूर्त रूप को तो
तिरोहित कर देते हैं
किन्तु उनका अमूर्त रूप
क्या रख पाते हैं हम
अपने भीतर,
अथवा केवल
पूजा-अर्चना में ही
याद आती है उनकी।
मूर्तियाॅं तिरोहित करें
किन्तु विघ्नहर्ता गणेश जी को
अपने भीतर ही रखें।
मैं करती हूं दुआ
धूप-दीप जलाकर, थाल सजाकर,
मां को अक्सर देखा है मैंने ज्योति जलाते।
टीका करते, सिर झुकाते, वन्दन करते,
पिता को देखा है मैंने आरती उतारते।
हाथ जोड़कर, आंख मूंदकर देखा है मैंने
भाई-बहनों को आरती गाते
मां कहती है सबके दुख-दर्द मिटा दे मां
पिता मांगते सबको बुद्धि, अन्न-धन दे मां
भाई-बहन शिक्षा का आशीष मांगे
और सब करते मेरे लिए दुआ।
मां, पिता, भाई-बहनों की बातें सुनती हूं
आज मैं भी करती हूं तुमसे इन सबके लिए दुआ।
क्या होगा वक्त के उस पार
वक्त के इस पार ज़िन्दगी है,
खुशियां हैं वक्त के इस पार।
दुख-सुख हैं, आंसू, हंसी है,
आवागमन है वक्त के इस पार।
कल किसने देखा है,
कौन जाने क्या होगा,
क्यों सोच में डूबे,
आज को जी लेते हैं,
क्यों डरें,
क्या होगा वक्त के उस पार।
जब आग लगती है
किसी आग में घर उजड़ते हैं ।
कहीं किसी के भाव जलते हैं ।
जब आग लगती है किसी वन में
मन के संताप उजड़ते हैं ।
शेर-चीतों को ले आये हम
अभयारण्य में ।
कोई बताये मुझे
क्या कहूं उस चिडि़या से,
किसी वृक्ष की शाख पर,
जिसके बच्चे पलते हैं ।
परिवर्तन नित्य है
सन्मार्ग पर चलने के लिए रोशनी की बस एक किरण ही काफ़ी है
इरादे नेक हों, तो, राही दो हों न हों, बढ़ते रहें, इतना ही काफ़ी है
सूर्य अस्त होगा, रात आयेगी, तम भी फैलेगा, संगी साथ छोड़ देंगे,
तब भी राह उन्मुक्त है, परिवर्तन नित्य है, इतना जानना ही काफ़ी है
विश्वास का एहसास
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
आस नहीं छोड़ी मैंने
प्रकृति के नियमों को
हम बदल नहीं सकते।
जीवन का आवागमन
तो जारी है।
मुझको जाना है,
नव-अंकुरण को आना है।
आस नहीं छोड़ी मैंने।
विश्वास नहीं छोड़ा मैंने।
धरा का आसरा लेकर,
आकाश ताकता हूं।
अपनी जड़ों को
फिर से आजमाता हूं।
अंकुरण तो होना ही है,
बनना और मिटना
नियम प्रकृति का,
मुझको भी जाना है।
न उदास हो,
नव-अंकुरण फूटेंगे,
यह क्रम जारी रहेगा,
अपना साहस परखता हूँ मैं
आसमान में तिरता हूँ मैं।
धरा को निहारता हूँ मैं।
अपना साहस परखता हूँ मैं।
मंज़िल पाने के लिए
खतरों से खेलता हूँ मैं।
यूँ भी जीवन का क्या भरोसा
लेकिन अपने भरोसे
आगे बढ़ता ही बढ़ता हूँ मैं।
हवाएँ घेरती हैं मुझे,
ज़माने की हवाओं को
परखता हूँ मैं।
साथी नहीं, हमसफ़र नहीं
अकेले ही
अपनी राहों को
तलाशता हूँ मैं।
कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो
राधा बोली कृष्ण से, चल श्याम वन में, रासलीला के लिए।
कृष्ण हतप्रभ, बोले गीता में दिया था संदेश हर युग के लिए।
बहुत अवतार लिए, युद्ध लड़े, उपदेश दिये तुम्हें हे मानव!
कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो मेरी आराधना के लिए ।
ज़िन्दगी कोई गणित नहीं
ज़िन्दगी
जब कभी कोई
प्रश्नचिन्ह लगाती है,
उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।
यह बात
हम समझ ही नहीं पाते।
किसी न किसी गणित में उलझे
अपने-आपको महारथी समझते हैं।
न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही
कुन्दन अब रहा किसका मन
बहके-बहके हैं यहां कदम
न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही
पारस पत्थर करता है क्रन्दन
जीवन के वे पल
जीवन के वे पल
बड़े
सुखद होते हैं जब
पलभर की पहचान से
अनजाने
अपने हो जाते हैं,
किन्तु
कहीं एक चुभन-सी
रह जाती है
जब महसूस होता है
कि जिनके साथ
सालों से जी रहे थे
कभी
समझ ही न पाये
कि वे
अपने थे या अनजाने।
मेरा आधुनिक विकासशील भारत
यह मेरा आधुनिक विकासशील भारत है
जो सड़क पर रोटियां बना रहा है।
यह मेरे देश की
पचास प्रतिशत आबादी है
जो सड़क पर अपनी संतान को
जन्म देती है
उनका लालन-पालन करती है
और इस प्राचीन
सभ्य, सुसंस्कृत देश के लिए
नागरिक तैयार करती है।
यह मेरे देश की वह भावी पीढ़ी है
जिसके लिए
डिजिटल इंडिया की
संकल्पना की जा रही है।
यह मेरे देश के वे नागरिक हैं
जिनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास
के विज्ञापनों पर
अरबों-खरबों रूपये लगाये जा रहे हैं,
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ
अभियान चला रहे हैं।
इन सब की सुरक्षा
और विकास के लिए
धरा से गगन तक के
मार्ग बनाये जा रहे हैं।
क्या यह भारत
चांद और उपग्रहों से नहीं दिखाई देता ?
मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे
कल तक
एक घर मेरा था।
आज अचानक
सब बदल गया।
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यह रूप-श्रृंगार
यह स्वर्ण-माल
मेरे
अगले जीवन का आधार
एक नया परिवार।
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मात्र, एक पल लगा
मुझे एक से
दूसरे में बदलने में।
नाम-धाम सब सिमटने में।
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नये सम्बन्ध, नये भाव
नये कर्तव्य और
पता नहीं कितने अधिकार।
सुना करती थी
बचपन से
पराया धन ! पराया धन !!
आज समझ पाई।
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यह एक पल
न काम आती है
शिक्षा, न ज्ञान, न अभिमान
बस जीवन-परिवर्तन।
नहीं जानती
क्या मिला, क्या पाया, क्या खोया।
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एक परिवार था मेरे पास
उसे मैं अपने जीवन के
पच्चीस वर्षों में न समझ पाई
किन्तु
एक नये परिवार को समझने के लिए
मुझे नहीं मिलेंगे
पच्चीस मिनट भी।
शायद पच्चीस पल में ही
मुझे सम्हालने होंगे
सारे नये सम्बन्ध
नये भाव, नया घर, नये लोग,
नई आशाएँ, आकांक्षाएँ।
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मस्तिष्क एक डायरी बन गया।
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पिछला क्या-क्या भूल जाना है मुझे
तिलांजलि देनी है
कौन-से सम्बन्धों को
और नया
क्या-क्या याद रखना है मुझे,
कितने कदम पीछे हटना है मुझे
कितने कदम आगे बढ़ना है मुझे।
ड्योढ़ी से अन्दर कदम रखते ही
ज्ञात हो जाना चाहिए सब मुझे।
रिश्तों के नये ताने-बाने को
संवारना है मुझे
सबकी भूख-प्यास का हिसाब
रखना है मुझे
अपने मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे।
हैं तो सब इंसान ही
एक असमंजस की स्थिति में हूं।
शब्दों के अर्थ
अक्सर मुझे भ्रमित करते हैं।
कहते हैं
पर्यायवाची शब्द
समानार्थक होते हैं,
तब इनकी आवश्यकता ही क्या ?
इंसान और मानव से मुझे,
इंसानियत और मानवीयता का बोध होता है।
आदमी से एक भीड़ का,
और व्यक्ति से व्यक्तित्व,
एकल भाव का।
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शायद
इन सबके संयोग से
यह जग चलता है,
और तब ईश्वर यहीं
इनमें बसता है।
बादल राजा
बादल राजा अब तो आओ
गर्मी को तुम जल्द भगाओ
सूरज दादा थक गये देखो
उनको कुछ आराम कराओ
धन्यवाद देते रहना हमें Keep Thanking
आकाश को थाम कर खड़े हैं नहीं तो न जाने कब का गिर गया होता
पग हैं धरा पर अड़ाये, नहीं तो न जाने कब का भूकम्प आ गया होता
धन्यवाद देते रहना हमें, बहुत ध्यान रखते हैं हम आप सबका सदैव ही
पानी पीते हैं, नहा-धो लेते हैं नहीं तो न जाने कब का सुनामी आ गया होता।
क्षणिक तृप्ति हेतु
घाट घाट का पानी पीकर पहुंचे हैं इस ठौर
राहों में रखते थे प्याउ, बीत गया वह दौर
नीर प्रवाह शुष्क पड़े, जल बिन तरसे प्राणी
क्षणिक तृप्ति हेतु कृत्रिम सज्जा का है दौर