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ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक

वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है

शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है

ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया

शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया

शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया

मन में एक जंगल है

मन में एक जंगल है

विचारों का, भावों का।

एक झंझावात की तरह आते हैं

अन्तर्मन को झिंझोड़ते हैं,

तहस-नहस करते हैं

और हवा के झोंके के साथ

अचानक

कहीं दूर उड़ जाते हैं।

कभी शब्द दे पाती हूं

और कभी नहीं।

लिखे शब्द पिघलने लगते हैं

आसमानी बादलों की तरह।

कहीं दूर उड़ जाते हैं

पक्षी की तरह।

हर बार एक कही-अनकही

आधी-अधूरी कहानी रह जाती है।

बोलना भूलने लगते  हैं

चुप रहने की

अक्सर

बहुत कीमत चुकानी पड़ती है

जब हम

अपने ही हक़ में

बोलना भूलने लगते  हैं।

केवल

औरों की बात

सुनने लगते हैं।

धीरे-धीरे हमारी सोच

हमारी समझ कुंद होने लगती है

और जिह्वा पर

काई लग जाती है

हम औरों के ढंग से जीने लगते हैं

या सच कहूॅं

तो मरने लगते हैं। 

क्षमा-मंत्र

कोई मांगने ही नहीं आता

हम तो

क्षमाओं का पिटारा लिए

कब से खड़े हैं।

सबकी ग़लतियां तलाश रहे हैं

भरने के लिए

टोकरा उठाये घूम रहे हैं।

आपको बता दें

हम तो दूध के धुले हैं,

महान हैं, श्रेष्ठ हैं,

सर्वश्रेष्ठ हैं,

और इनके

जितने पर्यायवाची हैं

सब हैं।

और समझिए

कितने दानी , महादानी हैं,

क्षमाओं का पिटारा लिए घूम रहे हैं,

कोई तो ले ले, ले ले, ले ले।

 

सब साथ चलें बात बने

भवन ढह गये, खंडहर देखो अभी भी खड़ा है।

लड़खड़ाते कदमों से कौन पर्वत तक चढ़ा है।

जीवन यूं चलता है, सब साथ चलें, बात बने,

कठिन समय सहायक बनें, इंसान वही बड़ा है।

बालपन को जी लें

अपनी छाया को पुकारा, चल आ जा बालपन को फिर से जी लें

यादों का झुरमुट खोला, चल कंचे, गोली खेलें, पापड़, इमली पी लें

कैसे कैसे दिन थे वे सड़कों पर छुपन छुपाई, गुल्ली डंडा खेला करते

वो निर्बोध प्यार की हंसी ठिठोली, चल उन लम्हों को फिर से जी लें

जीवन की नैया ऐसी भी होती है

जल इतना

विस्तारित होता है

जाना पहली बार।

अपने छूटे,

घर-वर टूटे।

लकड़ी से घर चलता था।

लकड़ी से घर बनता था।

लकड़ी से चूल्हा जलता था,

लकड़ी की चौखट के भीतर

ठहरी-ठहरी-सी थी ज़िन्दगी।

निडर भाव से जीते थे,

अपनों के दम पर जीते थे।

पर लकड़ी कब लाठी बन जाती है,

राह हमें दिखलाती है,

जाना पहली बार।

अब राहें अकेली दिखती हैं,

अब, राहें बिखरी दिखती हैं,

पानी में कहां-कहां तिरती हैं।

इस विस्तारित सूनेपन में

राहें आप बनानी है,

जीवन की नैया ऐसी भी होती है,

जाना पहली बार।

अब देखें, कब तक लाठी चलती है,

अब देखें, किसकी लाठी चलती है।

छोटी रोशनियां सदैव आकाश बड़ा देती हैं

छोटी-सी है अर्चना,

छोटा-सा है भाव।

छोटी-सी है रोशनी।

अर्पित हैं कुछ फूल।

नेह-घृत का दीप समर्पित,

अपनी छाया को निहारे।

तिरते-तिरते जल में

भावों का गहरा सागर।

हाथ जोड़े, आंख मूंदे,

क्या खोया, क्या पाया,

कौन जाने।

छोटी रोशनियां

सदैव आकाश बड़ा देती हैं,

हवाओं से जूझकर

आभास बड़ा देती हैं।

सहज-सहज

जीवन का भास बड़ा देती हैं।

हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या

इस जग में एक सुन्दर जीवन मिला है, मर्त्यन लोक है इससे क्या

सुख-दुख तो आने जाने हैं,पतझड़-सावन, प्रकाश-तम है हमको क्या

जब तक जीवन है, भूलकर मृत्यु के डर को जीत लें तो क्या बात है

कोई कुछ भी उपदेश देता रहे, हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या

बरसती बूॅंदें

बरसती बूंदों को रोककर जीवन को तरल करती हूं

बादलों से बरसती नेह-धार को मन से परखती हूं

कौन जाने कब बदलती हैं धाराएं और गति इनकी

अंजुरी में बांधकर मन को सरस-सरस करती हूं।

 

औरत

अपने आस-पास

नित नये-नये रंगों को,

घिरते-बिखरते अंघेरों को

देखते-देखते,

अक्सर मेरी मुट्ठियां

भिंच जाया करती हैं

पर कैसी विडम्बना है यह

कि मैं चुपचाप

सिर झुकाकर

उन कसी मुट्ठियों से

आटा गूंथने लग जाती हूं

और इसे ही

अपनी सफ़लता मान लेती हूं।

मेरी समझ कुछ नहीं आता

मां,

मास्टर जी कहते हैं

धरती गोल घूमती।

चंदा-तारे सब घूमते

सूरज कैसे आता-जाता

बहुत कुछ बतलाते।

मेरी समझ नहीं कुछ आता

फिर हम क्यों नहीं गिरते।

पेड़-पौधे खड़े-खड़े

हम पर क्यों नहीं गिरते।

चंदा लटका आसमान में

कभी दिखता

कभी खो जाता।

कैसे कहां चला जाता है

पता नहीं क्या-क्या समझाते।

इतने सारे तारे

घूम-घूमकर

मेरे बस्ते में क्यों नहीं आ जाते।

कभी सूरज दिखता

कभी चंदा

कभी दोनों कहीं खो जाते।

मेरी समझ कुछ नहीं आता

मास्टर जी

न जाने क्या-क्या बतलाते।

 

नहले पे दहला
तू 

नहले पे दहला

लगाना सीख ले

नहीं तो

गुलाम

बनकर

रह जायेगा

 

कुछ पल बस अपने लिये

उदित होते सूर्य की रश्मियां

मन को आह्लादित करती हैं।

विविध रंग

मन को आह्लादमयी सांत्वना

प्रदान करते हैं।

शांत चित्त, एकान्त चिन्तन

सांसारिक विषमताओं से

मुक्त करता है।

सांसारिकता से जूझते-जूझते

जब मन उचाट होता है,

तब पल भर का ध्यान

मन-मस्तिष्क को

संतुलित करता है।

आधुनिकता की तीव्र गति

प्राय: निढाल कर जाती है।

किन्तु एक दीर्घ उच्छवास

सारी थकान लूट ले जाता है।

जब मन एकाग्र होता है

तब अधिकांश चिन्ताएं

कहीं गह्वर में चली जाती हैं

और स्वस्थ मन-मस्तिष्क

सारे हल ढूंढ लाता है।

 

इन व्यस्तताओं में

कुछ पल तो निकाल

बस अपने लिये।

 

 

 

ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई

किसी ने कहा

ज़िन्दगी पर

एक उपन्यास लिखो।

सालों-साल का

हिसाब-बेहिसाब लिखो।

स्मृतियों को

उलटने-पलटने लगी।

समेटने लगी

सालों, महीनों, दिनों

और घंटों का,

पल-पल का गणित।

बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।

न जाने कितने झंझावात,

कितने विप्लव,

कितने भूचाल बिखर गये।

कहीं आंसू, कहीं हर्ष,

कहीं आहों के,

सुख-दुख के सागर उफ़न गये।

 

न जाने

कितने दिन-महीने, साल लग गये

कथाओं का समेटने में।

और जब

अन्तिम रूप देने का समय आया

तो देखा

एक क्षणिका भी न बन पाई।

 

ठहरा-सा लगता है  जीवन

नदिया की धाराओं में टकराव नहीं है

हवाओं के रुख वह में झनकार नहीं है

ठहरा-ठहरा-सा लगता है अब जीवन

जब मन में ही अब कोई भाव नहीं हैं

क्यों न कहे

आंखें देखती हैं,

कान सुनते हैं,

दिल जलता है,

माथा तपता है,

सब चुपचाप चलता है।

.

किन्तु यह जिह्वा

सह नहीं पाती,

सब कह बैठती है।

 

आंखों में तिरते हैं सपने

आंखों में तिरते हैं सपने,

कुछ गहरे हैं कुछ अपने।

पलकों के साये में

लिखते रहे

प्यार की कहानियां,

कागज़ पर न उकेरी कभी

तेरी मेरी रूमानियां।

 

कुछ मोती हैं,

नयनों के भीतर

कोई देख न ले,

पलकें मूंद सकते नहीं

कोई भेद न ले।

 

यूं तो कजराने नयना

काजर से सजते हैं

पर जब तुम्हारी बात उठती है

तब नयनों में तारे सजते हैं।

 

मिलन की घड़ियाॅं

चुभती हैं

मिलन की घड़ियाॅं,

जो यूॅं ही बीत जाती हैं,

कुछ चुप्पी में,

अनबोले भावों में,

कुछ कही-अनकही

शिकायतों में,

बातों की छुअन

वादों की कसम

घुटता है मन

और मिलन की घड़ियाॅं

बीत जाती हैं।

 

पाषाणों में पढ़ने को मिलती हैं

वृक्षों की आड़ से

झांकती हैं कुछ रश्मियां

समझ-बूझकर चलें

तो जीवन का अर्थ

समझाती हैं ये रश्मियां

मन को राहत देती हैं

ये खामोशियां

जीवन के एकान्त को

मुखर करती हैं ये खामोशियां

जीवन के उतार-चढ़ाव को

समझाती हैं ये सीढ़ियां

दुख-सुख के पल आते-जाते हैं

ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां

पाषाणों में

पढ़ने को मिलती हैं

जीवन की अनकही कठोर दुश्वारियां

समझ सकें तो समझ लें

हम ये कहानियां

अपनेपन से बात करती

मन को आश्वस्त करती हैं

ये तन्हाईयां

अपने लिए सोचने का

समय देती हैं ये तन्हाईयां

और जीवन में

आनन्द दे जाती हैं

छू कर जातीं

मौसम की ये पुरवाईयां

ज़िन्दगी के गीत

ज़िन्दगी के कदमों की तरह

बड़ा कठिन होता है

सितार के तारों को साधना।

बड़ा कठिन होता है

इनका पेंच बांधना।

यूँ तो मोतियों के सहारे

बांधी जाती हैं तारें

किन्तु ज़रा-सा

ढिलाई या कसाव

नहीं सह पातीं

जैसे प्यार में ज़िन्दगी।

मंद्र, मध्य, तार सप्तक की तरह

अलग-अलग भावों में

बहती है ज़िन्दगी।

तबले की थाप के बिना

नहीं सजते सितार के सुर

वैसे ही अपनों के साथ

उलझती है जिन्दगी

कभी भागती, कभी रुकती

कभी तानें छेड़ती,

राग गाती,

झाले-सी दनादन बजती,

लड़ती-झगड़ती

मन को आनन्द देती है ज़िन्दगी।

 

कहीं सच न बोल बैठे

रहने दो मत छेड़ो दर्द को

कहीं सच न बोल बैठे।

राहों में फूल थे

न जाने कांटे कैसे चुभे।

चांद-सितारों से सजा था आंगन

न जाने कैसे शूल बन बैठे।

हरी-भरी थी सारी दुनिया

न जाने कैसे सूखे पल्लव बन बैठे।

सदानीरा थी नदियां

न जाने कैसे हृदय के भाव रीत गये।

रिश्तों की भीड़ थी मेरे आस-पास

न जाने कैसे सब मुझसे दूर हो गये।

स्मृतियों का अथाह सागर उमड़ता था

न जाने कैसे सब पन्ने सूख गये।

सूरज-चंदा की रोशनी से

आंखें चुंधिया जाती थीं

न जाने कैसे सब अंधेरे में खो गये।

बंद आंखों में हज़ारों सपने सजाये बैठी थी

न जाने कैसे आंख खुली, सब ओझल हो गये।

नहीं चाहा था कभी बहुत कुछ

पर जो चाहा वह भी सपने बनकर रह गये।

मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है

बड़ी देर से निहार रही हूं

इस चित्र को]

और सोच रही हूं

क्या ये सास-बहू हैं

टैग ढूंढ रही हूं

कहां लिखा है

कि ये सास-बहू हैं।

क्यों सबको

सास-बहू ही दिखाई दे रही हैं।

मां-बेटी क्यों नहीं हो सकती

या दादी-पोती।

 

नाराज़ दादी अपनी पोती से

करती है इसरार

मैं भी चलूंगी साथ तेरे

मुझको भी ऐसा पहनावा ला दे

बहुत कर लिया चैका-बर्तन

मुझको भी माॅडल बनना है।

बूढ़ी हुई तो क्या

पढ़ा था मैंने अखबारों में

हर उमर में अब फैशन चलता है]

ले ले मुझसे चाबी-चैका]

मुझको

विश्व-सुन्दरी का फ़ारम भरना है।

चलना है तो चल साथ मेरे

तुझको भी सिखला दूंगी

कैसे करते कैट-वाक,

कैसे साड़ी में भी सब फबता है

दिखलाती हूं तुझको,

सिखलाती हूं तुझको

इन बालों का कैसे जूड़ा बनता है।

चल साथ मेरे

मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है।

दे देना दो लाईक

और देना मुझको वोट

प्रथम आने का जुगाड़ करना है,

अब तो मुझको ही विश्व-सुन्दरी बनना है।

 

 

 

जीवन है मेरा राहें हैं मेरी सपने हैं अपने हैं

साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं

जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं

अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या

जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं

उल्लू बोला मिठू से

उल्लू बोला मिठू से

चल आज नाम बदल लें

तू उल्लू बन जा

और मैं बनता हूँ तोता,

फिर देखें जग में

क्या-क्या होता।

जो दिन में होता

गोरा-गोरा,

रात में होता काला।

मैं रातों में जागूँ

दिन में सोता

मैं निद्र्वंद्व जीव

न मुझको देखे कोई

न पकड़ सके कोई।

-

आजा नाम बदल लें।

-

फिर तुझको भी

न कोई पिंजरे में डालेगा,

और आप झूठ बोल-बोलकर

तुझको न बोलेगा कोई

हरि का नाम बोल।

-

चल आज नाम बदल लें

चल आज धाम बदल लें

कभी तू रातों को सोना

कभी मैं दिन में जागूँ

फिर छानेंगे दुनिया का

सच-झूठ का कोना-कोना।

 

छोटा हूं पर समझ बड़ी है

छोटा हूं पर समझ बड़ी है।

मुझको छोटा न जानो।

बड़के भैया, छुटके भैया,

बहना मेरी और बाबा

सब अच्छे-अच्छे कपड़े पहनें।

सज-धजकर रोज़ जाते,

मैं और अम्मां घर रह जाते।

जब मैं कहता अम्मां से

मुझको भी अच्छे कपड़े दिलवा दे,

मुझको भी बाहर जाना है।

तब-तब मां से पड़ती डांट

तू अभी छोटा छौना है।

यह छौना क्या होता है,

न बतलाती मां।

न नहलाती, न कपड़े पहनाती,

बस कहती, ठहर-ठहर।

भैया जाते बड़की साईकिल पर

बहना जाती छोटी साईकिल पर।

बाबा के पास कार बड़ी।

मैं भी मांगू ,

मां मुझको घोड़ा ला दे रे।

मां के पीछे-पीछे घूम रहा,

चुनरी पकड़कर झूम रहा।

मां मुझको कपड़े पहना दे,

मां मुझको घोड़ा ला दे।

मां ने मुझको गैया पर बिठलाया।

यह तेरा घोड़ा है, बतलाया।

मां बड़ी सीधी है,

न जाने गैया और घोड़ा क्या होता है।

पर मैंने मां को न समझाया,

न मैंने सच बतलाया,

कि मां यह तो गैया है, मैया है।

संध्या बाबा आयेंगे।

उनको बतलाउंगा,

मां गैया को घोड़ा कहती है,

मां को इतना भी नहीं पता।

 

 

 

दिल  या दिमाग

मित्र कहते हैं,

बात पसन्द न आये

तो एक कान से सुनो,

दूसरे से निकाल दो।

किन्तु मैं क्या करूॅं।

मेरे दोनों कानों के बीच

रास्ता नहीं है।

या तो

दिल को जाकर लगती है

या दिमाग भन्नाती है।

 

मन के भीतर कल्पवृक्ष

मन के भीतर ही

उगे बैठे हैं

न जाने कितने कल्पवृक्ष।

रोज उगते हैं, फलते-फूलते हैं

जड़े जमाते हैं

और समय के प्रवाह में

सब कुछ दे जाते हैं।

न समुद्र मंथन की आवश्यकता,

न किसी युद्ध की

न देवताओं-असुरों की,

क्योंकि सब कुछ तो

इसी मन के भीतर है।

कहां बाहर भटकते हैं हम

क्यों बाहर भटकते हैं हम।

हां, यह और बात है

कि समय के प्रवाह में

बदल जाता है बहुत कुछ।

शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं

भाव बदल जाते हैं

प्रभाव बदल जाते हैं।

इसलिए

मन के इस कल्पवृक्ष से भी

बहुत आशाएं मत रखना।

खोज रहा हूं उस नेता को

खोज रहा हूं उस नेता को
हर पांच साल में आता है
एक रोटी का टुकड़ा
एक घर की चाबी लाता है
कुछ नये सपने दिखलाता, 
पैसे देने की बातें करता
देश-विदेश घूमकर आता
वेश बदल-बदलकर आता
बड़ी-बड़ी गाड़ी में आता
खूब भीड़ साथ में लाता
रोज़गार का वादा करता
अरबों-खरबों की बातें करता
नारों-हथियारों की बातें करता
जात-पात, धर्म, आरक्षण 
का मतलब बतलाता
वोटों का मतलब समझाता
कारड बनवाने की बातें करता
हाथ में परचा थमा कर जाता
बच्चों के गाल बजाकर जाता
बस मैं-मैं-मैं-मैं करता
अच्छी-अच्छी बातें करता
थाली में रोटी आयेगी
लड़की देखो स्कूल जायेगी।


कभी-कभी कहता है
रोटी खाउंगा, पानी पीउंगा।
खाली थाली बजा रहे हैं
ढोल पीटकर बता रहे हैं
पिछले पांच साल से बैठे हैं
अगले पांच साल की आस में।
 

सम्बन्धों का सम्मान
हमारे पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों में एक शब्द बहुत महत्व रखता है –“जैसा,जैसे,“समान क्या आपका किन्हीं सम्बन्धों के बीच इन शब्दों का सामना हुआ है।

सीधे-सीधे अपने मन की बात कहती हूं।

किसी ने मुझसे पूछा क्या यह आपकी बेटी है?”

मैंने कहा जी नहीं, मेरी बहू है।

उन्होंने मुझे कुछ तिरस्कार, कुछ उपेक्षा भरी दृष्टि से देखा और  बोले, बहू भी तो बेटी-समान ही होती है। क्या आप अपनी बहू को बेटी-जैसी नहीं मानते

मैंने कहा ,नहीं, मैं अपनी बहू को, बेटी जैसीनहीं मानती। बहू ही मानती हूं

उनके लिए एवं समाज के लिए मेरा यह उत्तर पर्याप्त नकारात्मक है।

 

मेरे इस कथन पर मुझे बहुत उपदेश मिले, तिरस्कार-पूर्ण भाव मिले, और मुझे समझाया गया कि सास-बहू में आज इसीलिए इतनी खटपट होती है क्योंकि सासें बहुंओं को अपनाती ही नहीं।

मैंने अपना स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया कि मैंने अपनाया है अपनी बहू को बहू के रूप में, बहू के अधिकार के रूप में , उसकी जो ‘‘पोस्’’ है उसी पर। इसी सम्बन्ध को बनाये रखने में हमारी गरिमा है, किन्तु प्रायः मेरा उत्तर किसी की समझ में नहीं आता। घर में कहते हैं तू क्यों सबसे पंगा लेती है, कहने दे जो कोई कहता है। मेरा प्रश्न है कि हर क्षेत्र के सम्बन्धों की अपनी गरिमा, रूप होता है, उस पर अन्य सम्बन्ध क्यों थोपे जाते हैं ? हम पारिवारिकसामाजिक सम्बन्धों में यह जैसा”, “समानजैसे शब्दों का प्रयोग क्यों करने लगे हैं। जो सम्बन्ध हैं, उनको उसी रूप में सम्मान क्यों नहीं दे पाते।

मैं कार्यरत हूं। अनेक बार कोई सहकर्मी कह देता है आप तो मेरी मां जैसी हैं।कोई कहता है आप तो हमारी बड़ी बहन जैसी हैं, किसी का वाक्य होता है : “मैं तो आपके बेटे जैसा हूं।

 मैं कहती हूं नहीं, आप केवल मेरे सहकर्मी हैं।

मेरा यह उत्तर नकारात्मक ही नहीं हास्यास्पद भी होता है।

हम अपने बच्चों को कहते हैं: भाभी को मां समान समझना, देवर को बेटे समान मानना। सास-ससुर की माता-पिता समान सेवा करना। एक महिला अपने ढाई वर्ष के बेटे को पड़ोस की दो वर्ष की बच्ची के लिए कह रही है, बेटा यह तेरी दीदी है। लेकिन साली को बहन समान समझना यह मैंने कभी नहीं सुना।

और  सबसे बड़ी बात: बेटी को बेटा जैसा मानें। जहां तक मेरी  समझ कहती है इसका अभिप्राय यह कि बेटे और बेटी के अधिकार समान रहें। तो मैंने कभी किसी को यह कहते नहीं सुना कि बेटे को बेटी जैसा मानें, जब समानता की बात करनी है तो दोनों ओर से की जा सकती है, अर्थात हम कहीं तो भेद-भाव लेकर चल ही रहे हैं।

हम वे ही रिश्ते क्यों मानें, जो वास्तव में हैं, उन्हीं सम्बन्धों में पूर्ण सम्मान दें, अधिकार एवं अपनत्व दें, तो क्या सम्बन्धों में ज़्यादा गहराई, ज़्यादा अपनत्व, ज़्यादा विश्वास का भाव नहीं उपजेगा।

क्या सामाजिक पारिवारिक सम्बन्धों को लेकर हमारे मन में कोई डर, कोई खौफ़ है जो हम हर सम्बन्ध पर एक लबादा ओढ़ाने में लगे हैं, अथवा परत-दर-परत चढ़ाने में लगे हैं।

लोग कहते हैं कि हम सम्बन्धों का नाम देकर सम्मान-भाव प्रदर्शित करते हैं। मेरा प्रश्र होता है कि जो सम्बन्ध वास्तव में है, उस पर कोई और  सम्बन्ध लादकर क्या हम वास्तविक सम्बन्धों का अपमान नहीं कर रहे।