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धरा और आकाश के बीच उलझे स्वप्न

कुछ स्वप्न आकाश में टंगे हैं, कुछ धरा पर पड़े हैं,

किसे छोड़ें, किसे थामें, हम बीच में अड़े खड़े हैं।

असमंजस में उलझे, कोई तो मिले, हाथ थामे,

यहां नीचे कंकड़-पत्थर, उपर से ओले बरस रहे हैं।

 

ओस की बूंदें

अंधेरों से निकलकर बहकी-बहकी-सी घूमती हैं ओस की बूंदें ।

पत्तों पर झूमती-मदमाती, लरजतीं] डोलती हैं ओस की बूंदें ।

कब आतीं, कब खो जातीं, झिलमिलातीं, मानों खिलखिलातीं

छूते ही सकुचाकर, सिमटकर कहीं खो जाती हैं ओस की बूंदें। 

अब घड़ी से नहीं चलती ज़िन्दगी

 

अक्सर लगता है,

कुछ

निठ्ठलापन आ गया है।

वे ही सारे काम

जो खेल-खेल में

हो जाया करते थे,

पल भर में,

अब, दिनों-दिन

बहकने लगे हैं।

सुबह कब आती है,

शाम कब ढल जाती है,

आभास चला गया है।

अंधेरे -उजाले

एक-से लगने लगे हैं।

घर बंधन तो नहीं लगता,

किन्तु बंधे से रहते हैं,

फिर भी वे सारे काम,

जो खेल-खेल में

हो जाया करते थे,

अब, दिनों तक

टहलने लगे हैं।

समय बहुत है,

शायद यही एहसास

समय के महत्व को

समझने से रोकता है।

घड़ी के घंटों से

नहीं बंधे हैं अब।

न विलम्ब की चिन्ता,

न लम्बित कार्यों की।

मैं नहीं तो

कोई और कर लेगा,

मुझे चिन्ता नहीं।

खेल-खेल में

क्या समय का महत्व

घटने लगा है।

कहीं एक तकलीफ़ तो है,

बस शब्द नहीं हैं।

घड़ियां बन्द पड़ी हैं,

अब घड़ी से नहीं चलती ज़िन्दगी,

पर पता नहीं

समय कैसे कटने लगा है।

छनक-छन तारे छनके

ज़रा-सा मैंने हाथ बढ़ाया, नभ मेरे हाथ आया

छनक-छनक-छन तारे छनके, चंदा भी मुस्काया

सूरज की गठरी बांधी, सपनों की सीढ़ी तानी

इन्द्रधनुष ने रंग बिखेरे, मनमोहक चित्र बनाया

बदली के पीछे से कुछ बूंदे निकली, मन भरमाया

 

 

वीरों को नमन

उन वीरों को हम

सदा नमन करें

जो हमें खुली हवाओं में

सांस लेने का अवसर

देकर गये।

उनके बलिदान का हम

सदा सम्मान करें

जो देश के लिए

दीवारों में चिन दिये गये।

उनके लिए

अपना देश ही धर्म था

और था आज़ादी का सपना।

आज़ादी और अपने धर्म के लिए

उनकी जलाई ज्योति

अखंड जली

और भारत आज़ाद हुआ।

महत्व इस बात का नहीं

कि उनकी आयु क्या थी

महत्व इस बात का

कि उनका लक्ष्य क्या था।

बस इतना स्मरण रहे

कि हम उनसे मिले भाव को

मिटा न दें

ऐसा कोई कर्म न करें

कि उनका बलिदान शर्मिंदा हो।

 

विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था

जीवन में क्यों कोई हमारे हमराज़ नहीं था

यूं तो चैन था, हमें कोई एतराज़ नहीं था

मन चाहता है कि कोई मिले, पर क्या करें

विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था

नभ से झरते रंगों में

पत्तों पर बूंदें टिकती हैं कोने में रूकती हैं,  फिर गिरती हैं

मानों रूक-रूक कर कुछ सोच रही, फिर आगे बढ़ती हैं

नभ से झरते रंगों की रंगीनियों में सज-धज कर बैठी हैं ज्‍यों

पल-भर में आती हैं, जाती हैं, मैं ढूंढ रही, कहां खो जाती हैं

चंगू ने मंगू से पूछा

चंगू ने मंगू से पूछा

ये क्या लेकर आई हो।

मंगू बोली,

इंसानों की दुनिया में रहते हैं।

उनका दाना-पानी खाते हैं।

उनका-सा व्यवहार बना।

हरदम

बुरा-बुरा कहना भी ठीक नहीं है।

अब

दूर-दूर तक वृक्ष नहीं हैं,

कहां बनायें बसेरा।

देखो गर्मी-सर्दी,धूप-पानी से

ये हमें बचायेगा।

पलट कर रख देंगे,

तो बच्चे खेलेंगे

घोंसला यहीं बनायेंगे।

-

चंगू-मंगू दोनों खुश हैं।

 

हम नहीं लकीर के फ़कीर

हमें बचपन से ही

घुट्टी में पिलाई जाती हैं

कुछ बातें,

उन पर

सच-झूठ के मायने नहीं होते।

मायने होते हैं

तो बस इतने

कि बड़े-बुजुर्ग कह गये हैं

तो गलत तो हो ही नहीं सकता।

उनका अनुभूत सत्य रहा होगा

तभी तो सदियों से

कुछ मान्यताएं हैं हमारे जीवन में,

जिनका विरोध करना

संस्कृति-संस्कारों का अपमान

परम्पराओं का उपहास,

और बड़े-बुज़ुर्गों का अपमान।

 

आज की  शिक्षित पीढ़ी

नकारती है इन परम्पराओं-आस्थाओं को।

कहती है

हम नहीं लकीर के फ़कीर।

 

किन्तु

नया कम्प्यूटर लेने पर

उस पर पहले तिलक करती है।

नये आफ़िस के बाहर

नींबू-मिर्च लटकाती है,

नया काम शुरु करने से पहले

उन पण्डित जी से मुहूर्त निकलवाती है

जो संस्कृत-पोथी पढ़ना भूले बैठे हैं,

फिर नारियल फोड़ती है

कार के सामने।

पूजा-पाठ अनिवार्य है,

नये घर में हवन तो करना ही होगा

चाहे सामग्री मिले या न मिले।

बिल्ली रास्ता काट जाये

तो राह बदल लेते हैं

और छींक आने पर

लौट जाते हैं

चाहे गाड़ी छूटे या नौकरी।

हाथों में ग्रहों की चार अंगूठियां,

गले में चांदी

और कलाई में काला-लाल धागा

नज़र न लगे किसी की।

लेकिन हम नहीं लकीर के फ़कीर।

ये तो हमारी परम्पराएं, संस्कृति है

और मान रखना है हमें इन सबका।

 

काश ! इंसान वट वृक्ष सा होता

कहते हैं

जड़ें ज़मीन में जितनी गहरी हों

वृक्ष उतने ही फलते-फूलते हैं।

अपनी मिट्टी की पकड़

उन्हें उर्वरा बनाये रखती है।

किन्तु वट-वृक्ष !

मैं नहीं जानती

कि ज़मीन के नीचे

इसकी कहां तक  पैठ है।
किन्तु इतना समझती हूं

कि अपनी जड़ों को

यह धरा पर भी ले आया है।

डाल से डाल निकलती है

उलझती हैं,सुलझती हैं

बिखरती हैं, संवरती हैं,

वृक्ष से वृक्ष बनते हैं।

धरा से गगन,

और गगन से धरा की आेर

बार-बार लौटती हैं इसकी जड़ें

नव-सृजन के लिए।

-

बस 

इंसान की हद का ही पता नहीं लगता

कि कितना ज़मीन के उपर है

और कितना ज़मीन के भीतर।

 

 

इंसानों की बस्ती
इंसानों की बस्ती में चाल चलने से पहले मात की बात होती है

इंसानों की बस्ती में मुहब्बत से पहले घृणा-भाव की जांच होती है

कोई नहीं पहचानता किसी को, कोई नहीं जानता किसी को यहाँ

इंसानों की बस्ती में अपनेपन से ज़्यादा घात लगाने की बात होती है।

अपने भीतर झांक

नदी-तट पर बैठ

करें हम प्रलाप

हो रहा दूषित जल

क्‍या कर रही सरकार।

भूल गये हम

जब हमने

पिकनिक यहां मनाई थी

कुछ पन्नियां, कुछ बोतलें

यहीं जल में बहाईं थीं

कचरा-वचरा, बचा-खुचा

छोड़ वहीं पर

मस्‍ती में

हम घर लौटे थे।

साफ़-सफ़ाई पर

किश्‍तीवाले को

हमने खूब सुनाई थी।

फिर अगले दिन

नदियों की दुर्दशा पर

एक अच्‍छी कविता-कहानी

बनाई थी।  

कितने बन्दर झूम रहे हैं

शेर की खाल ओढ़कर शहर में देखो गीदड़ घूम रहे हैं

टूटे ढोल-पोल की ताल पर देखो कितने बन्दर झूम रहे हैं

कौन दहाड़ रहा पता नहीं, और कौन कर रहा हुआं-हुंआ

कौन है असली, कौन है नकली, गली-गली में ढूंढ रहे है।

खाली हाथ

मन करता है

रोज़ कुछ नया लिखूॅं

किन्तु न मन सम्हलता है

न अॅंगुलियाॅं साथ देती हैं

विचारों का झंझावात उमड़ता है

मन में कसक रहती है

लौट-लौटकर

वही पुरानी बातें

दोहराती हैं।

 नये विचारों के लिए

जूझती हूॅं

अपने-आपसे बहसती हूॅं

तर्क-वितर्क करती हूॅं

नया-पुराना सब खंगालती हूॅं

और खाली हाथ लौट आती हूॅं।

मन में सुबोल वरण कर

तर्पण कर,

मन अर्पण कर,

कर समर्पण।

भाव रख, मान रख,

प्रण कर, नमन कर,

सबके हित में नाम कर।

अंजुरि में जल की धार

लेकर सत्य की राह चुन।

मन-मुटाव छांटकर

वैर-भाव तिरोहित कर।

अपनों को स्मरण कर,

उनके गुणों का मनन कर।

राहों की तलाश कर

जल-से तरल भाव कर।

कष्टों का हरण कर,

मन में सुबोल वरण कर।

होली पर्व

जीवन को रंगीन बनाओ

कहती आई है होली

जीवन-संगीत सुनाओ

कहती  आई  है होली

आनन्द के ढोल बजाओ

कहती आई है होली

जीवन का राग

सुनाती आई है होली

मन में आनन्द के भाव

जगाती है होली

रंगों और रंगीनियों का नाम

है होली

कोई एक ही दिन क्यों

मन चाहे तो रोज़ मनाओ होली।

जीवन में

हर रोज ही आती है होली।

-

कहते हैं

आई है होली।

क्या हो ली,

कैसे हो ली?

अपनी तो समझ ही न आई

क्या-क्या हो ली।

क्या किसी से मुहब्बत होली?

किसके साथ किसकी होली

किस-किसके घर होली

मुझसे पूछे बिना

कैसे होली

किसके दम पर होली।

सच बोलो

लगता है

तुमने खा ली भांग की गोली।

 

उनकी यादों में

क्यों हमारे दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे

उनकी यादों में जीयेंगे, उनकी यादों में मर जायेंगे

मरने की बात न करना यारो, जीने की बात करें

दिल के आशियाने में उनकी एक तस्वीर सजायेंगे।

माणिक मोती ढलते हैं

सीपी में गिरती हैं बूंदे तब माणिक मोती ढलते हैं

नयनों से बहती हैं तब भावों के सागर बनते हैं

अदा इनकी मुस्कानों के संग निराली होती है

भीतर-भीतर रिसती हैं तब गहरे घाव पनपते हैं

यह कलियु‍ग है रे कृष्ण

देखने में तो

कृष्ण ही लगते हो

कलियुग में आये हो

तो पीसो चक्की।

न मिलेगी

यहां यशोदा, गोपियां

जो बहायेंगी

तुम्हारे लिए

माखन-दहीं की धार

वेरका का दूध-घी

बहुत मंहगा मिलता है रे!

और पतंजलि का

है तो तुम्हारी गैया-मैया का

पर अपने बजट से बाहर है भई।

तुम्हारे इस मोहिनी रूप से

अब राधा नहीं आयेगी

वह भी

कहीं पीसती होगी

जीवन की चक्की।

बस एक ही

प्रार्थना है तुमसे

किसी युग में तो

आम इंसान बनकर

अवतार लो।

अच्छा जा अब,

उतार यह अपना ताम-झाम

और रात की रोटी खानी है तो

जाकर अन्दर से

अनाज की बोरी ला ।

नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम

बाढ़ की विभीषिका से देखो डर रहे हैं हम

नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम

पेड़ काटे, नदी बांधी, जल-प्रवाह रोक लिए

आफ़त के लिए सरकार को कोस रहे हैं हम

न उदास हो मन

पथ पर कंटक होते है तो फूलों की चादर भी होती है

जीवन में दुख होते हैं तो सुख की आशा भी होती है

घनघोर घटाएं छंट जाती हैं फिर धूप छिटकती है

न उदास हो मन, राहें कठिन-सरल सब होती हैं

मेरी असमर्थ अभिव्यक्ति

जब भी

कुछ कहने का

प्रयास करती हूं कविता में,

तभी पाती हूं

कि उसे ही

एक अनजानी सी भाषा में,

अनजाने अव्यक्त शब्दों में,

जिनसे मैं जुड़ नहीं पाती

पूरी कोशिश के बावजूद भी,

किसी और ने

पहले ही कह रखी है वह बात।

.

या फिर

अनुभव मैं यह करती हूं,

कि जो मैं कहना चाहती हूं,

वह किसी और ने

मेरी ही भावनाएं चुराकर,

मानों मुझसे ही पूछकर,

मेरे ही विचार

मेरी ही इच्छानुसार,

लेकिन मुझसे पहले ही

अभिव्यक्त कर दिये हैं,

सही शब्दों में

सही लोगों के सामने

और सही रूप में।

शब्दों की तलाश में

भटकती थी मैं

जिनकी अभिव्यक्ति के लिए।

सारे शब्द

निर्थरक हो जाते थे

जिसे कहने के लिए मेरे सामने

वही बातें

कविता में व्यक्त कर दी हैं

किसी ने मानों

मेरी ही इच्छानुसार।

या फिर

तुम्हारा, उसका, इसका

सबका लिखा

गलत लगता है।

झूठ और छल।

मानों सब मिलकर

मेरे विरूद्ध

एक षड्यन्त्र के भागीदार हों।

मैं,

विरोध में कलम उठाती हूं

लिखना चाहती हूं

तुम्हारे, उसके, इसके लिखे के विरोध में।

बार बार लिखती हूं

पर फिर भी

अनलिखी रह जाती हूं

अनुभव बस एक अधूरेपन का।

आक्रोश, गुस्सा, झुंझलाहट,

विरोध, विद्रोह,

कुछ नहीं ठहरता।

इससे पहले कि लिखना पूरा करूं

चाय बनानी है, रोटी पकानी है

कपड़े धोने हैं

बीच में बच्चा रोने लगेगा

इसी बीच

स्याही चुक जाती है।

रोज़ नया आक्रोश जन्म लेता है

और चाय के साथ उफ़नकर

ठण्डा हो जाता है।

कभी लिख भी लेती हूं

तो बड़ा नाम नहीं है मेरे पास।

सम्पर्क साधन भी नहीं।

किसी गुट में भी नहीं।

फिर, किसी प्राध्यापक की

चरण रज भी नहीं ली मैंने।

किसी के बच्चे को टाफ़ियां भी नहीं खिलाईं

और न ही किसी की पत्नी को

भाभीजी बनाकर उसे तोहफ़े दिये।

मेरे पिता के पास भी

इतनी सामर्थ्य न थी

कि वे उनका कोई काम कर देते।

फिर वे मेरी रचनाओं में रूचि कैसे लेते।

और

इस सबके बाद भी लगता है

मैं ही गलत हूं कहीं

खामोश हो जीती हूं तब

अनकही, यह सोचकर

कि चलो

मेरे विचारों की अभिव्यक्ति हुई तो सही

मेरे द्वारा नहीं

तो किसी और के माध्यम से ही सही

पूर्णतया अस्पष्ट तो रही नहीं

प्रकट तो हुई

स्वयं नहीं कर पाई

तो किसी और की कृपा से

लोगों तक बात पहुंची तो सही

शायद यही कारण है

कि लोगों की लिखी कविताओं का

इतना बड़ा संग्रह मेरे पास है

जो कहीं मेरा अपना है।

पर सचमुच

आश्चर्य तो होता ही है

कि मेरे विचार

मेरी ही इच्छानुसार

मैं नहीं कोई और

कैसे अभिव्यक्त कर लेते हैं

इतने समर्थ होकर

.

जो मैं चाहती हूं

वही तुम भी चाहते हो

ऐसा कैसे।

तो क्या

इस दुनिया में

मेरे अतिरिक्त भी इंसान बसते हैं

या फिर

इस दुनिया में रहकर भी

मेरे भीतर इंसानियत बची है !

 

जिन्दगी संवारती हूं

भीतर ही भीतर

न जाने कितने रंग

बिखरे पड़े हैं,

कितना अधूरापन

खंगालता है मन,

कितनी कहानियां

कही-अनकही रह जाती हैं,

कितने रंग बदरंग हो जाते हैं।

 

आज उतारती हूं

सबको

तूलिका से।

अपना मन भरमाती हूं,

दबी-घुटी कामनाओं को

रंग देती हूं,

भावों को पटल पर

निखारती हूं,

तूलिका से जिन्दगी संवारती हूं।

 

 

 

 

अच्छे हो तुम

वैसे तो बहुत अच्छे हो तुम

बस बातों के कच्चे हो तुम

काम कोई पूरा करते नहीं

माना बुद्धि में बच्चे हो तुम

सावन की बातें मनभावन की बातें

वो सावन की बातें, वो मनभावन की बातें, छूट गईं।

वो सावन की यादें, वो प्रेम-प्यार की बातें, भूल गईं।

मन डरता है, बरसेगा या होगा महाप्रलय कौन जाने,

वो रिमझिम की यादें, वो मिलने की बातें, छूट गईं ।

अंधविश्वासों में जीते

कौओं की पंगत लगी

बैठे करें विचार

क्यों न हम सब मिलकर करें

इस मानव का बहिष्कार

किसी पक्ष में हमको पूजे

कभी उड़ायें पत्थर मार।

यूं कहते मुझको काला-काला,

मेरी कां-कां चुभती तुमको

मनहूस नाम दिया है मुझको

और अब मैं तुमको लगता प्यारा।

मुझको रोटी तब डाले हैं

जब तुम पर शामत आन पड़ी,

बासी रोटी, तैलीय रोटी

तुम मुझको खिलाते हो।

अपने कष्ट-निवारण के लिए

मुझे ढूंढते भागे हो।

किसी-किसी के नाम पर

हमें लगाते भोग

अंधविश्वासों में जीते

बाबाओं  के चाटें तलवे

मिट्टी में होते हैं लोट-पोट।

जब ज़िन्दा होता है मानव

तब क्या करते हैं ये लोग।

न चाहिए मुझको तेरी

दान-दक्षिणा, न पूजी रोटी।

मुंडेर तेरी पर कां-कां करता

बच्चों का मन बहलाता हूं।

अपनी मेहनत की खाता हूं।

घोंसले में जा आराम कर

छोटी-छोटी बातों पर चिल्लाया कर

मीठा आम आया है खाकर आराम कर

झुलसाती गर्मी से बचकर रहना प्यारे

पानी पीकर घोंसले में जा, आराम कर

खामोशियां भी बोलती है

नई बात। अब कहते हैं मौन रहकर अपनी बात कहना सीखिए, खामोशियाँ भी बोलती हैं। यह भी भला कोई बात हुई। ईश्वर ने गज़ भर की जिह्वा दी किसलिए है, बोलने के लिए ही न, शब्दाभिव्यक्ति के लिए ही तो। आपने तो कह दिया कि खामोशियाँ बोलती हैं, मैंने तो सदैव धोखा ही खाया यह सोचकर कि मेरी खामोशियाँ समझी जायेगी। न जी न, सरासर झूठ, धोखा, छल, फ़रेब और सारे पर्यायवाची शब्द आप अपने आप देख लीजिएगा व्याकरण में।

मैंने तो खामोशियों को कभी बोलते नहीं सुना। हाँ, हम संकेत का प्रयास करते हैं अपनी खामोशी से। चेहरे के हाव-भाव से स्वीकृति-अस्वीकृति, मुस्कान से सहमति-असहमति, सिर से सहमति-असहमति। लेकिन बहुत बार सामने वाला जानबूझकर उपेक्षा कर जाता है क्योंकि उसे हमें महत्व देना ही नहीं है। वह तो कह जाता है तुम बोली नहीं तो मैंने समझा तुम्हारी मना है।

कहते हैं प्यार-व्यार में बड़ी खामोशियाँ होती हैं। यह भी सरासर झूठ है। इतने प्यार-भरे गाने हैं तो क्या वे सब झूठे हैं? जो आनन्द अच्छे, सुन्दर, मन से जुड़े शब्दों से बात करने में आता है वह चुप्पी में कहाँ, और यदि किसी ने आपकी चुप्पी न समझी तो गये काम से। अपना ऐसा कोई इरादा नहीं है।

मेरी बात बड़े ध्यान से सुनिए और समझिए। खामोशी की भाषा अभिव्यक्ति करने वाले से अधिक समझने वाले पर निर्भर करती है। शायद स्पष्ट ही कहना पड़ेगा, गोलमाल अथवा शब्दों की खामोशी से काम नहीं चलने वाला।

मेरा अभिप्राय यह कि जिस व्यक्ति के साथ हम खामोशी की भाषा में अथवा खामोश अभिव्यक्ति में अपनी बात कहना चाह रहे हैं, वह कितना समझदार है, वह खामोशी की कितनी भाषा जानता है, उसकी कौन-सी डिग्री ली है इस खामोशी की भाषा समझने में। बस यहीं हम लोग मात खा जाते हैं।

इस भीड़ में, इस शोर में, जो जितना ऊँचा बोलता है, जितना चिल्लाता है उसकी आवाज़ उतनी ही सुनी जाती है, वही सफ़ल होता है। चुप रहने वाले को गूँगा, अज्ञानी, मूर्ख समझा जाता है।

ध्यान रहे, मैं खामोशी की भाषा न बोलना जानती हूँ और न समझती हूँ, मुझे अपने शब्दों पर, अपनी अभिव्यक्ति पर, अपने भावों पर पूरा विश्वास है और ईश प्रदत्त गज़-भर की जिह्वा पर भी।

  

वास्तविकता में नहीं जीते हम

मैं जानती हूं

मेरी सोच कुछ टेढ़ी है।

पर जैसी है

वैसा ही तो लिखूंगी।

* *  *  * 

नारी के

इस तरह के चित्र देखकर

आप सब

नारीत्व के गुण गायेंगे,

ममता, त्याग, तपस्या

की मूर्ति बतायेंगे।

महानता की

सीढ़ी पर चढ़ायेंगे।

बच्चों को गोद में

उठाये चल रही है,

बच्चों को

कष्ट नहीं देना चाहती,

नमन है तेरे साहस को।

 

अब पीछे

भारत का मानचित्र दिखता है,

तब हम समझायेंगे

कि पूरे भारत की नारियां

ऐसी ही हुआ करती हैं।

अपना सर्वस्व खोकर

बच्चों का पालन-पोषण करती हैं।

फिर हमें याद आ जायेंगी

दुर्गा, सती-सीता, सावित्री,

पद्मिनी, लक्ष्मी बाई।

हमें नहीं याद आयेंगी

कोई महिला वैज्ञानिक, खिलाड़ी

प्रधानमंत्री, राष्ट््रपति,

अथवा कोई न्यायिक अधिकारी

पुलिस, सेना अधिकारी।

समय मिला

तो मीडिया वाले

साक्षात्कार लेकर बतायेंगे

यह नारी

न न, नारी नहीं,

मां है मां ! भारत की मां !

मेहनत-मज़दूरी करके

बच्चों को पाल रही है।

डाक्टर-इंजीनियर बनाना चाहती है।

चाहती है वे पुलिस अफ़सर बनें,

बड़े होकर मां का नाम रोशन करें,

वगैरह, वगैरह।

 

* *  *  * 

लेकिन इस चित्र में

बस एक बात खलती है।

आंसुओं की धार

और अच्छी बहती,

गर‘ मां के साथ

लड़कियां दिखाते,

तो कविता लिखने में

और ज़्यादा आनन्द पाते।

* *  *  * 

वास्तव में

जीवन की

वास्तविकता में नहीं जीते हम,

बस थोथी भावुकता परोसने में

टसुए बहाने में

आंसू टपकाने में,

मज़ा लेते हैं हम।

* *  *  * 

ओहो !

एक बात तो रह ही गई,

इसके पति, बच्चों के पिता की

कोई ख़बर मिले तो बताना।

 

कुछ तो करवा दो सरकार

 कुएँ बन्द करवा दो सरकार।

अब तो मेरे घर नल लगवा दो सरकार।

इस घाघर में काम न होते

मुझको भी एक सूट सिलवा दो सरकार।

चलते-चलते कांटे चुभते हैं

मुझको भी एक चप्पल दिलवा दो सरकार।

कच्ची सड़कें, पथरीली धरती

कार न सही,

इक साईकिल ही दिलवा दो सरकार।

मैं कोमल-काया, नाज़ुक-नाज़ुक

तुम भी कभी घट भरकर ला दो सरकार।

कान्हा-वान्हा, गोपी-वोपी,

प्रेम-प्यार के किस्से हुए पुराने

तुम भी कुछ नया सोचो सरकार।

शहरी बाबू बनकर रोब जमाते फ़िरते हो

दो कक्षा

मुझको भी अब तो पढ़वा दो  सरकार।