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उड़ती चिड़िया के पर न गिनूं मैं
आप अब तक मेरी कविताएँ पढ़कर जान ही चुके होंगे कि मेरी विपरीत बुद्धि है। एक चित्र आया कावय रचना के लिए। आपको इस चित्र में किसके दर्शन हुए? मेरे सभी मित्रों को, किसी को विरहिणी नायिका दिखी, किसी को राधा, किसी को मीरा, किसी को बाट जोहती प्रेमिका आदि-आदि-इत्यादि। किन्तु मुझे जैसा यह चित्र प्रतीत हुआ, रचना आपके सामने है।
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फ़ोटू हो गई हो
मेरे सैयां
तो ये ताम-झाम हटवा दे।
इक कुर्सी-मेज़ ला दे।
उड़ती चिड़िया के पर न गिनूं मैं
फ़्रिज से
थोड़ा शीतल जल पिलवा दे।
कब तक नुमाईश करेगा मेरी,
आप आधुनिक बन बैठा है
मुझको भी नयी ड्रैस सिलवा दे।
अब खाना-वाना
न बनता मुझसे
स्वीगी से मंगवा दे।
आंखों में लरजते कुछ सपने देखो
न चूड़ियां देखो, न मेंहदी
न साज-श्रृंगार।
बस, आंखों में लरजते
कुछ सपने देखो।
कुछ पीछे छूट गये ,
कुछ बनते, कुछ सजते
कुछ वादे कुछ यादें।
आधी ज़िन्दगी
इधर थी, आधी उधर है।
पर, सपनों की गठरी
इक ही है।
कुछ बांध लिए, कुछ छिन लिए
कुछ पैबन्द लगे, कुछ गांठ पड़ी
कुछ बिखर गये , कुछ नये बुने
कुछ नये बने।
फिर भी सपने हैं, हैं तो, अपने हैं
कोई देख नहीं पायेगा
इस गठरी को, मन में है।
सपने हैं, जैसे भी हैं
हैं तो बस अपने हैं।
ये आंखें
मन के भीतर प्रवेश का द्वार हैं ये आंखें
सुहाने सपनों से सजा संसार हैं ये आंखें
होंठ बेताब हैं हर बात कह देने के लिए
शब्द को भाव बनने का आधार हैं ये आंखें
मैमोरैण्डम
हर डायरी के
प्रारम्भ और अन्त में
जड़े कुछ पृष्ठ पर
जिन पर लिखा होता है
‘मैमोरैण्डम’ अर्थात् स्मरणीय।
मैमोरी के लिए
स्मरण रखने के लिए है क्या ?
वे बीते क्षण
जो बीतकर
या तो बीत गये हैं
या बीतकर भी
अनबीते रह गये हैं।
अथवा वे आने वाले क्षण
जो या तो आये ही नहीं
या बिना आये ही चले गये हैं।
बीत गये क्षण: एक व्यर्थता -
बडे़-बड़े विद्वानों ने कहा है
भूत को मत देखो
भविष्य में जिओ।
भविष्य: एक अनबूझ पहेली
उपदेश मिलता है
आने वाले कल की
चिन्ता क्यों करते हो
आज को तो जी लो।
और आज !
आज तो आज है
उसे क्या याद करें।
तो फिर मैमोरैण्डम फाड़ डालें।
फिर वही कहानी
कछुए से मिलना
अच्छा लगा मुझे।
धूप सेंकता
आराम से बैठा
कभी जल में
कभी थल में।
कभी पत्थर-सा दिखता
तो कभी सशरीर।
मैंने बात करनी चाही
किन्तु उसने मुँह फ़ेर लिया।
फिर अचानक पलटकर बोला
जानता हूँ
वही सैंकड़ों वर्ष पुरानी
कहानी लेकर आये होंगे
खरगोश सो गया था
और कछुआ जीत गया था।
पता नहीं किसने गढ़ी
यह कथा।
मुझे तो कुछ स्मरण नहीं,
और न ही मेरे पूर्वजों ने
मुझे कोई ऐसी कथा सुनाई थी
न अपनी ऐसी जीत की
कोई गुण-गाथा गाई थी।
नया तो कुछ लिखते नहीं
उसी का पिष्ट-पेषण करने में
लगे रहते हो।
कब तक बच्चों को
खरगोश-कछुए,
शेर-बकरी और बन्दर मामा की
अर्थहीन कहानियाँ
सुनाकर बहलाते रहोगे,
कब तक
मेरी चाल का उपहास
बनाते रहोगे।
अरे,
साहस से
अपने बारे में लिखो,
अपने रिश्तों को उकेरो
अपनी अंधी दौड़ को लिखो,
आरोप-प्रत्यारोप,
बदलते समाज को लिखो।
यूँ तो अपनी
हज़ारों साल पुरानी संस्कृति का
लेखा-जोखा लिखते फ़िरते हो
किन्तु
जब काम की बात आती है
तो मुँह फ़ेरे घूमते हो।
भ्रष्टाचार पर चर्चा
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और दूसरे की ओर अंगुली उठाते हैं तो चार अंगुलियाँ स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।
वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रुपये की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रुपये वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और अपना आवश्यकता, विवशता।
यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार अंगुलियों के प्रश्न और उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:
पहली अंगुली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकती हूँ कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूँ ।
दूसरी अंगुली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूँ ?
तीसरी अंगुली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूँ ।
और अंत में चौथी अंगुली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की अंगुली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।
नेह का बस एक फूल
जीवन की इस आपाधापी में,
इस उलझी-बिखरी-जि़न्दगी में,
भाग-दौड़ में बहकी जि़न्दगी में,
नेह का बस कोई एक फूल खिल जाये।
मन संवर संवर जाता है।
पत्ती-पत्ती , फूल-फूल,
परिमल के संग चली एक बयार,
मन बहक बहक जाता है।
देखएि कैसे सब संवर संवर जाता है।
वहम की दीवारें
बड़ी नाज़ुक होती हैं
वहम की दीवारें
ज़रा-सा हाथ लगते ही
रिश्तों में
बिखर-बिखर जाती हैं
कांच की किरचों की तरह।
कितने गहरे तक
घाव कर जायेंगी
हम समझ ही नहीं पाते।
सच और झूठ में उलझकर
अनजाने में ही
किरचों को समेटने लग जाते हैं,
लेकिन जैसे
कांच
एक बार टूट जाने पर
जुड़ता नहीं
घाव ही देता है
वैसे ही
वहम की दीवारों से रिसते रिश्ते
कभी जुड़ते नहीं।
जब तक
हम इस उलझन को समझ सकें
दीवारों में
किरचें उलझ चुकी होती हैं।
कल डाली पर था आज गुलदान में
कवियों की सोच को न जाने क्या हुआ है, बस फूलों पर मन फिदा हुआ है
किसी के बालों में, किसी के गालों में, दिखता उन्हें एक फूल सजा हुआ है
प्रेम, सौन्दर्य, रस का प्रतीक मानकर हरदम फूलों की चर्चा में लगे हुये हैं
कल डाली पर था, आज गुलदान में, और अब देखो धरा पर पड़ा हुआ है।
कांगड़ी बोली में छन्दमुक्त कविता
चल मनां अज्ज सिमले चलिए,
पहाड़ां दी रौनक निरखिए।
बसा‘च जाणा कि
छुक-छुक गड्डी करनी।
टेडे-फेटे मोड़़ा‘च न डरयां,
सिर खिड़किया ते बा‘र न कड्यां,
चल मनां अज्ज सिमले चलिए।
-
माल रोडे दे चक्कर कटणे
मुंडु-कुड़ियां सारे दिखणे।
भेडुआं साई फुदकदियां छोरियां,
चुक्की लैंदियां मणा दियां बोरियां।
बालज़ीस दा डोसा खादा
जे न खादे हिमानी दे छोले-भटूरे
तां सिमले दी सैर मनदे अधूरे।
रिज मदानां गांधी दा बुत
लकड़ियां दे बैंचां पर बैठी
खांदे मुंगफली खूब।
गोल चक्कर बणी गया हुण
गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।
लक्कड़ बजारा जाणा जरूर
लकड़िया दी सोटी लैणी हजूर।
जाखू जांगें तां लई जाणी सोटी,
चड़दे-चड़दे गोडे भजदे,
बणदी सा‘रा कन्ने
बांदरां जो नठाणे‘, कम्मे औंदी।
स्कैंडल पाईंट पर खड़े लालाजी
बोलदे इक ने इक चला जी।
मौसम कोई बी होये जी
करना नीं कदी परोसा जी।
सुएटर-छतरी लई ने चलना
नईं ता सीत लई ने हटणा।
यादां बड़ियां मेरे बाॅल
पर बोलदे लिखणा 26 लाईनां‘च हाल।
हिन्दी अनुवाद
चल मन आज शिमला चलें,
पहाडों की रौनक देखें।
बस में जाना या
छुक-छुक गाड़ी करनी।
टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से न डरना
सिर खिड़की से बाहर न निकालना
चल मन आज शिमला चलें।
माल रोड के चक्कर काटने
लड़के-लड़कियां सब देखने
भेड़ों की तरह फुदकती हैं लड़कियां
उठा लेती हैं मनों की बोरियां।
बालज़ीस का डोसा खाया
और यदि न खाये हिमानी के भटूरे
तो शिमले की सैर मानेंगे अधूरे।
रिज मैदान पर गांधी का बुत।
लकड़ियों के बैंचों पर बैठकर
खाई मूंगफ़ली खूब।
गोल चक्कर बन गया अब
गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।
लक्कड़ बाज़ार जाना ज़रूर।
लकड़ी की लाठी लेना हज़ूर।
जाखू जायेंगे तो ले जाना लाठी,
चढ़ते-चढ़ते घुटने टूटते
साथ बनती है सहारा,
बंदरों को भगाने में आती काम।
स्कैंडल प्वाईंट पर खड़े लालाजी
कहते हैं एक के साथ एक चलो जी।
मौसम कोई भी हो
करना नहीं कभी भरोसा,
स्वैटर-छाता लेकर चलना,
नहीं तो शीत लेकर हटना।
यादें बहुत हैं मेरे पास
पर कहते हैं 26 पंक्तियों में लिखना है हाल।
मित्रता
मैं नहीं जानती कि मैं क्यों मित्र नहीं बना पाती थी। जहॉं मैं स्वभाव की बहुत बड़बोली मानी जाती थी वहॉं व्यक्तिगत रूप से बहुत संकोची थी। अर्थात मन की बात किसी से कह देना मेरे स्वभाव में कभी नहीं रहा। और जब हम मित्रों से अपने बारे में छुपाने लगते हैं और झूठ बोलने लगते हैं तो वे दूर हो जाते हैं क्योंकि हर कोई इतना तो समझदार होता ही है कि वह वास्तविकता और छुपाव में अन्तर कर लेता है।
किन्तु कवि गोष्ठियों एवं समारोहों में मेरी एक मित्र बनी मीरा दीक्षित। यह शायद 1994-95 के आस-पास की बात है। हम प्रायः मिलते, घर भी आते-जाते और परस्पर खुलकर बातें भी करते। यद्यपि मैं यहॉं इस रूप में संकोची ही रही किन्तु मीरा शायद मेरे इस स्वभाव को जान गई थी और इसे उसने सहज लिया और हमारी मित्रता अच्छी रही।
किन्तु सन् 2000 के आस-पास मेरे जीवन में कुछ ऐसी घटनाएॅं-दुर्घटनाएॅं घटीं कि हम शहर छोड़कर सारी स्मृतियॉं पीछे छोड़कर बहुत दूर निकल गये। नया शहर, नये लोग, नई परिस्थितियॉं, नये संघर्ष, पिछला कुछ तो मिट गया, कुछ छूट गया। स्मृतियॉं विश्रृंखलित हो गईं।
इस बीच 2011 में मैं फ़ेसबुक से जुड़ी और मेरा लेखन पुनः आरम्भ हुआ। 2016 में मेरी एक रचना पर मेरी मित्र मीरा का संदेश आया कि कविता कहॉं हो। मुझे याद ही नहीं आया। फिर संदेश बाक्स में बात होती रही, वे पूछती रहीं और मैं अनुमान लगाती रही। बाद में उन्होंने कुछ संकेत दिये तो मैं पहचान पाई। जितनी प्रसन्नता हुई उतना ही दुख कि मैं अपनी ऐसी मित्र को कैसे भूल सकती थी। फिर बीच-बीच में कभी बातचीत, विचारों का आदान-प्रदान, रचनाओं पर प्रतिक्रियाएॅं।
किन्तु मेरे लिए वह एक बहुत ही सुन्दर दिन था जब मेरा एक साहित्यिक समारोह में लखनउ जाने का कार्यक्रम बना। मीरा लखनउ में ही थीं। मैंने उन्हें तत्काल फ़ोन किया और मिलने का कार्यक्रम बनाया। मेरे पास समय कम था, 26 मई को मैं समारोह के लिए पहुॅची और 27 दोपहर की मेरी वापसी थी।
लगभग 24 साल बाद हम मिले। मीरा मुझसे मिलने प्रातः 8 बजे मेरे होटल आईं। हमने मात्र दो घंटे साथ बिताए, किन्तु वे दो घंटे मेरे लिए अविस्मरणीय रहे। इतना आनन्द, सुखानुभूति, लिखना असम्भव है।
हमने यही कहा, यदि ईश्वर ने यह अवसर दिया है तो आगे भी ज़रूर मिलेंगे।
गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
बोली मायके से भाई आया था कितने दिन
क्या-क्या लाया, क्या दे गया और क्या बात हुई
मां की बहुत याद आई रो पड़ी, गौरैया उस दिन
करें किससे आशाएँ
मन में चिन्ताएँ सघन
मानों कानन में अगन
करें किससे आशाएँ
कैसे बुझाएँ ये तपन
तेरा साथ
तेरा साथ
न छूटे कभी हाथ।
सोचती थी मैं,
पर
कब दिन ढला
कब रात हुई,
डूबे चंदा-तारे
ऐसी ही कुछ बात हुई।
*-*
तेरा साथ
हाथों में हाथ।
न कांटों की चुभन
न मन में कोई शूल
ऐसी ही ज़िन्दगी
सरगम
न टूटे कभी,
होगा क्या ऐसा।
मन कुहुकने लगा है
इधर भीतर का मौसम
करवटें लेने लगा है
बाहर शिशिर है
पर मन बहकने लगा है
चली है बासंती बयार
मन कुहुकने लगा है
तुम्हारी बस याद ही आई
मन महकने लगा है
छायावाद
छायावादी साहित्य को हिन्दी का स्वर्ण युग कहा जाता है। @ब्रज भाषा से निकलकर हिन्दी खड़ी बोली, द्विवेदी काल की इतिवृत्तात्मकता स्थूलता और नैतिकता के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप से बाहर आकर छायावादी काल ने हिन्दी साहित्य को एक नवीन चिन्तन, भाषा एवं स्वच्छन्दता प्रदान की।
साहित्य की कोई ऐसी विधा नहीं जो इस काल में विकसित न हुई हो। भाषा की प्रांजलता, नवीन भावों की अभिव्यक्ति, सांस्कृतिक चेतना की लहर, कालानुसार विषय, काव्य-रूढ़ियों से मुक्ति, प्रेम, प्रकृति प्रेम, राष्ट्रवाद, एक नवीन सौन्दर्यबोध को रूपायित करती, रहस्यवाद, प्रगतिवाद एवं नई कविता की ओर बढ़ते कदम, छायावादी कविता ने साहित्य लेखन की दिशा ही बदल दी। इस काल में काव्य विधा ही प्रधान रही, यद्यपि नाटक, संस्मरण, निबन्ध, उपन्यास एवं अन्य गद्य विधाओं में भी उत्कृष्ट साहित्य का सृजन हुआ।
1918 से 1936 तक का काल छायावादी काल माना जाता है। वर्ष 1921 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित लेख ‘हिन्दी में छायावाद’से ही इस काल के साहित्य को छायावाद नाम मिला, यह माना जाता है। मुकुटधर पाण्डेय को ही इस नामकरण का श्रेय दिया गया है। छायावाद के चार प्रमुख स्तम्भ माने जाते हैं: जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889-15 नवंबर 1937) सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला (21 फ़रवरीए 1896- 15 अक्टूबर 1961) सुमित्रानंदन पंत (20 मई 1900 28 दिसंबर 1977) महादेवी वर्मा (26 मार्चए 1907-11 सितम्बर 1987)
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में इन चारों में वैयक्तिक आवेगों की आयासहीन अभिव्यक्ति है, चारों की कविताओं में कल्पना अविरल प्रवाह से घन-संश्लिष्ट आवेगों की उमड़ती हुई भावधारा का प्राबल्य है।, जयशंकर प्रसाद की संस्कृतनिष्ठ भाषा शैली, प्रवाह, अद्भुत सौन्दर्यात्मक प्रकृति चित्रण, सुमित्रानन्दन पन्त की कोमलकान्त पदावली, प्रेम व सौन्दर्य की अभिव्यक्ति, महादेवी वर्मा की कोमल भावों से परिपूर्ण मन को छूती रचनाएं और सूर्यकान्त त्रिपाठी की नवीन भाषा-शैली, बेबाक लेखन, भावों का खुलापन, नई कविता की ओर बढ़ते कदम एवं छन्दमुक्त रचनाएं पूर्ण छायावाद युग को सार्थक करते हैं।
छायावादी काव्य को प्रसाद ने प्रकृति-तत्व दिया, निराला ने मुक्त छन्द दिया, पन्त ने सरसता एवं कोमलता दी तो महादेवी ने उसे सप्राणता एवं भावात्मकता देकर सम्पन्न किया।
छायावाद को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न आलोचकों ने अनेक परिभाषाएं दी हैं एवं व्याख्यायित किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने छायावाद का अर्थ दो रूपों में बताया है : प्रथम रहस्यवाद के अर्थ में और दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति विशेष के अर्थ में । महादेवी वर्मा ने छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद माना है।
बाबू गुलाबराय, डा. रामकुमार वर्मा, शान्तिप्रिय द्विवेदी छायावाद और रहस्यवाद में कोई विशेष भेद नहीं मानते। उनके अनुसार छायावाद और रहस्यवाद दोनों ही मानव और प्रकृति का एक आध्यात्मिक आधार बनाकर एकात्मवाद की पुष्टि करते हैं। उनके अनुसार आत्मा और परमात्मा का गुप्त वाग्विलास रहस्यवाद है और वही छायावाद है। आचार्य नन्दुलारे वाजपेयी के शब्दों में मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौन्दर्य में आध्यात्मिक छाया का भान छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है। गंगाप्रसाद पाण्डेय के शब्दों में छायावाद नाम से ही उसकी छायात्मकता स्पष्ट है। जयशंकर प्रसाद ने छायावाद को अपने ढंग से स्पष्ट करते हुए लिखा है कि कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुन्दरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी में उसे छायावद के नाम से अभिहित किया गया। डा. देवराज छायावाद को आधुनिक पौराणिक धार्मिक चेतना के विरुद्ध आधुनिक लौकिक चेतना का विद्रोह स्वीकार करते हैं। डा. नगेन्द्र के शब्दों में छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव-पद्धति है, जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का भावात्मक दृष्टिकोण है।
छायावाद अपने युग की राजनीतिक, स्वतन्त्रता आन्दोलन, धार्मिक और दार्शनिक परिस्थितियों से भी प्रभावित हुआ। छायावाद पर रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, गांधी, टैगोर एवं अरविन्द जैसे महापुरुषों की भी छाप है। दर्शन के क्षेत्र में भी इन कवियों की रचनाओं में अद्वैतवाद एवं सर्वात्मवाद के भाव दृष्टिगत होते हैं। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में छायावाद एक विशाल सांस्कृतिक चेतना का परिणाम था, जिनमें मानवीय आचारों, क्रियाओं, चेष्टाओं और विश्वासों के बदले हुए और बदलते हुए मूल्यों को अंगीकार करने की प्रवृत्ति थी, जिनमें छंद, अलंकार, रस, ताल, लय आदि सभी विषयों में गतानुगतिकता से बचने का प्रयत्न था, शास्त्रीय रूढ़ियों के प्रति कोई आस्था नहीं दिखाई गई थी।
निर्विवाद रूप से सभी समीक्षक जयशंकर प्रसाद को ही छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं। 1913-14 के आस-पास प्रसाद की कविताएं इन्दु पत्रिका में प्रतिमास प्रकाशित हो रही थीं जो बाद में कानन-कुसुम पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुईं। यद्यपि कुछ समीक्षक सुमित्रानन्दन पन्त को भी छायावाद का प्रवर्तक कवि मानते हैं किन्तु इस विषय में स्पष्ट कहा जा सकता है कि प्रसाद काव्य क्षेत्र में पन्त से पहले आये और उनकी रचनाओं में आरम्भ से ही छायावाद की मूलभूल प्रवृत्तियां-आत्मनिष्ठता, अन्तर्मुखी दृष्टि, प्रकृति के प्रति नवीन दृष्टिकोण, अभिव्यक्ति की नूतन शैली आदि मिलती है, इस कारण प्रसाद को ही निर्विवाद रूप से छायावाद के प्रवर्तक कवि के रूप में स्वीकार किया गया है।
हिन्दी के प्रमुख छायावादी कवि
-------.---------
जयशंकर प्रसाद
============
प्रसाद की रचनाओं में छायावाद का उत्तम स्वरूप मिलता है। जयशंकर प्रसाद बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न साहित्यकार थे। वे कवि, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार, निबन्ध लेखन सभी विधाओं में पारंगत थे, किन्तु उनका कवि-रूप उनकी समस्त कृतियों में विद्यमान है। नौ वर्ष की आयु में उन्होंने कलाधर उपनाम से अत्यन्त मनोहर और सरस छन्द की रचना की। सत्रह वर्ष की आयु में इनकी रचनाएं इन्दु पत्रिका में प्रकाशित होने लगीं। उपरान्त ये कविताएं चित्राधार और कानन-कुसुम संग्रहों में प्रकाशित हुईं।
प्रेम तत्व की व्यंजना प्रसाद काव्य की प्रथम और प्रमुख प्रवृत्ति है। उनके द्वारा अभिव्यक्त प्रेम लौकिक होकर भी आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख है। नारी सौन्दर्य को सुन्दर रूप में प्रस्तुत करने में प्रसाद की लेखनी सर्वोत्तम है। उनका सौन्दर्य चित्रण स्थूल न होकर सूक्ष्म है। कामायनी में चित्रित श्रद्धा का सौन्दर्य हमें आकृष्ट करता है।
इसके अतिरिक्त काव्य और दर्शन का विलक्षण समन्वय प्रसाद की रचनाओं में मिलता है। दर्शन में भी प्रसाद वेदान्त दर्शन से ज़्यादा प्रभावित हैं। किन्तु कामायनी में उन्होंने जिस आनन्दवाद का प्रतिपादन किया है वह शैव दर्शन से प्रभावित है। कामायनी महाकाव्य कला की दृष्टि से छायावाद का सर्वोत्तम प्रतीक है एवं आंसू प्रसाद की अन्यतम कृतियां हैं।
भारतीय इतिहास, संस्कृति, के प्रति प्रेम, वैभवमय अतीत के प्रति आग्रह, मानवतावाद एवं प्रकृति का एक नये स्वरूप में चित्रण प्रसाद की रचनाओं की एक अन्य विशेषता है। प्रकृति का मानवीकरण, नवीन बिम्ब एवं प्रतीकों के माध्यम से प्रसाद की रचनाओं में प्रकृति सौन्दर्य मुखरित होकर बोलता है। उनकी भाषा में लाक्षणिकता, ध्वन्यात्मकता, चित्रमयता एवं उच्च कोटि की प्रतीकात्मकता है। उन्होंने हिन्दी साहित्य को नूतन भावराशि, नूतन अभिव्यंजना, नूतन भाषा शैली एवं कला-कौशल से समृद्ध किया है।
प्रसाद के अधिकांश नाटक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित हैं जिनमें राष्ट्रप्रेम की भावना बहुत गहरे से है। नाटकों की कविताएं भी उनके देश-प्रेम, प्रकृति की अन्यतम अभिव्यक्ति, सौन्दर्य भाव को व्याख्यायित करती हैं
सुमित्रानन्दन पन्त
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पन्त का प्रथम काव्य-संग्रह पल्लव नवीन काव्य गुणों को लेकर हिन्दी साहित्य जगत में आया। पन्त की रचनाओं में सौन्दर्य के प्रति अत्यन्त कोमल मनोभाव हैं। पल्लव की भूमिका में ही कवि की सम्पूर्ण छायावादी दृष्टि स्पष्ट हो जाती है। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में इस भूमिका में समस्त छायावादी कविता के लिए क्षेत्र प्रस्तुत किया। इस भूमिका से पन्त की उस महत्वपूर्ण बौद्धिक क्षमता का पता लगता है जिसके द्वारा उन्होंने शब्दों की प्रकृति, उनकी अर्थबोधन क्षमता, उनके अर्थों के भेदक पहलुओं की विशिष्टता, छन्दों की प्रकृति, तुक और ताल का महत्व समझा था और समझने के बाद काव्य में प्रयोग किया था।
पन्त का छन्द-प्रवाह अत्यन्त शक्तिशाली है। प्रकृति और मानव-सौन्दर्य के सम्मिलन से उनकी रचनाओं में अद्भुत सौन्दर्य की सृष्टि होती है । कवि बंधी रूढ़ियों के प्रति कठोर नहीं है। मनुष्य के कोमल स्वभाव, अकृत्रिम प्रीति स्निग्ध हृदय और प्रकृति के विराट् और विपुल रूपों में अन्तर्निहित शोभा का ऐसा मनोहारी हृदयकारी चित्रण छायावादी काव्य में अन्यत्र नहीं देखा गया।
पन्त मूलतः गीतिकाव्य के एवं रोमांटिक कवि हैं। ज्योत्सना आदि नाटकों के सभी पात्र गीतिकाव्यात्मक एवं रोमांटिक हैं। उन्होंने कभी कथाकाव्य लिखने का प्रयास नहीं किया। उनके काव्य के तीन उत्थान हैं। प्रथम में वे छायावादी कवि हैं, द्वितीय में वे समाजवादी आदर्शों से चालित हैं और तीसरे में आध्यात्मिक। पन्त अरविन्द के आध्यात्मिक तत्वदर्शन से भी प्रभावित हैं। किन्तु पन्त वस्तुतः सौन्दर्य की महिमा के अनासक्त साक्षी कवि हैं। छायावाद को स्थापित करने में पन्त की रचनाओं का महत्वपूर्ण योगदान है।
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
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निराला छायावादी कवियों में प्रमुख होते हुए भी एक नवीन विचारधारा लेकर चले। वे आरम्भ से ही विद्रोही कवि के रूप में दिखाई दिये। गतानुगतिका के प्रति तीव्र विद्रोह इनकी कविताओं में आदि से अन्त तक बना रहा। निराला की प्रतिभा बहुमुखी है। निबन्ध, आलोचना, उपन्यास भी निराला की लेखनी से लिखे गये हैं। व्यंग्य और कटाक्ष उनकी प्रायः सभी रचनाओं में देखा जा सकता है। निराला का छन्दों के प्रति विद्रोह छन्दों का विरोध नहीं था, वे भावों की , व्यक्तिगत अनुभूति के भावों को स्वछन्द अभिव्यक्ति को महत्व देना चाहते थे। उनके मुक्त छन्द में एक प्रकार का झंकार और ताल विद्यमान है। इनकी रचनाओं में कथाकाव्य के प्रति झुकाव देखा जा सकता है।
उनकी आरम्भिक रचनाओं में ही उनकी स्वच्छन्दतावादी प्रकृति पूरे वेग से मिलती है। वस्तुतः निराला से बढ़कर हिन्दी में स्वच्छन्दतावादी कवि नहीं है। उनकी तुम और मैं, जूही की कली जैसी कविताओं में कल्पनाओं का आवेग है जिस कारण यह रचनाएं अत्यन्त लोकप्रिय हुईं। तुलसीदास, राम की शक्ति पूजा एवं सरोज-स्मृति जैसी कथात्मक रचनाएं निराला की सर्वोत्तम कृतियां हैं।
महादेवी वर्मा
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महादेवी वर्मा एक संवेदनशील कवियत्री हैं।उनकी रचनाएं गीतिकाव्यात्मक हैं लाक्षणिक वक्रता एवं मनोवृत्तियों की मूर्त योजना उनकी रचनाओं में विद्यमान है। महादेवी अपनी रचनाओं में अत्यधिक संवेदनशील हैं अतः उनकी रचनाओं में अनुभूति की गहन तीव्रता है। नीहार के बाद की रचनाओं में उनकी रचनाओं में रहस्यवादी प्रवृत्ति देखी जा सकती है। वेदनाभाव महादेवी की रचनाओं की प्रमुख विशेषता है। यद्यपि यह वेदनाभाव प्रियतम के अद्वैत का साधन रूप ही है तथापि महादेवी ने वेदना को आनन्द से सर्वथा उंचा स्थान दिया है। दुखानुभूति को लेकर महादेवी अज्ञात सत्ता की ओर उन्मुख हुई हैं। इस सत्ता को उन्होंने अपने प्रियतम के रूप में स्वीकार किया। प्रकृति का महादेवी के काव्य में भी प्रमुख स्थान है।
महादेवी के भाव एवं कला पक्ष दोनों ही सबल एवं समृद्ध हैं। भाषा अत्यन्त परिष्कृत, सरस एवं कोमल है। इनकी भाषा में लाक्षणिकता अधिक एवं अनुभूतियां अन्तर्मुखी हैं। तन्मयता, अनुभूति की तीव्रता तथा माधुर्य महादेवी के गीतों की प्रमुख विशेषताएं हैं।
यद्यपि छायावाद के ये ही चार कवि स्तम्भ माने जाते हैं किन्तु इस काल में अन्य अनेक कवियों ने उत्कृष्ट रचनाएं लिखीं जो तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, एवं कालिक चेतना से प्रभावित एवं छायावादी प्रवृत्तियों से भी प्रभावित रहीं।
हरिवंशराय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सियारामशरण गुप्त, भगवतीचरण वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, रामकुमार वर्मा, पं. नरेन्द्र शर्मा, हरिकृष्ण प्रेमी, जानकी वल्लभ शास्त्री, उदयशंकर भट्ट, रामेश्वर शुक्ल अंचल, रामनरेश त्रिपाठी, आदि कवि भी इस काल के प्रभावी रचनाकार रहे।
इन कवियों की कविताएं यद्यपि छायावादी काल में रची गईं किन्तु इनकी रचनाओं पर इनकी अपनी दृष्टि अधिक प्रभावी रही। हरिवंशराय बच्चन की कविता मौज, मस्ती, उमंग और उल्लास की कविता है। इनकी कविता की मादकता ने सहृदयों को आकर्षित किया। लाक्षणिक वक्रता से हटकर सहज-सीधी भाषा के प्रयोग के कारण बच्चन बहुत लोकप्रिय हुए। रामधारी सिंह दिनकर व्यक्तिवादी दृष्टि का प्रत्याख्यान लेकर साहित्य मंच पर आये। वे छायावादी एवं प्रगतिवादी के बीच की कड़ी हैं।
बालकृष्ण शर्मा नवीन फ़क्कड़ कवि के रूप में जाने जाते हैं इनकी कविताएं राजनीतिक परिदृश्य से जुड़ी रहीं। सियारामशरण गुप्त चिन्तनशील कवि रहे। सहानुभूति से भरा हृदय, संसार के प्रति अनासक्त जिज्ञासा इनके काव्य के मूल में है। इनकी रचनाओं पर गांधी का प्रभाव स्पष्ट है। भगवतीचरण वर्मा की रचनाओं में मस्ती और उल्लास है और अपने प्रति दृढ़ विश्वास। उनकी आत्मकेन्द्रित मस्ती बाद में उनके उपन्यासों में व्यक्त हुई।
माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं में छायावादी तत्वों से अधिक देश-प्रेम एवं देश-कल्याण के लिए उत्कट भावना है। यद्यपि आरभ्भिक रचनाओं में निर्गुण एवं सगुण भक्ति और रहस्य-भावना भी लक्षित होती है।
सुभद्राकुमारी चौहान राजनीति में सक्रिय भाग लेती रहीं अतः इनकी रचनाओं में राष्ट् प्रेम का भाव प्रमुख है। इसके अतिरिक्त इनकी कुछ रचनाएं पारिवारिक जीवन से प्रेरित हैं।
अन्य उल्लिखित कवियों की रचनाओं में भी छायावादी तत्वों के साथ अन्य समसामयिक विषय प्रधान रहे।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि छायावाद ने अभिव्यक्ति-शैली के क्षेत्र में बहुत बड़ी क्रांति की।
छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह माना गया। वैयक्तिकता, भावात्मकता, संगीतात्मकता, संक्षिप्तता, कोमलता आदि सभी गीति-तत्वों का समावेश छायावादी काव्य में मिलता है। छन्द योजना में मौलिकता है। निराला ने अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए मुक्त छन्द का आविष्कार किया। प्रतीकात्मकता छायावाद की एक अन्य विशेषता है। अपने सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति के लिए लाक्षणिक प्रतीकात्मक शैली अपनाई, शब्द-शक्ति में अभिधा के स्थान पर लक्षणा व व्यंजना से काम लिया। उपमान-विधान के क्षेत्र में छायावादी कवियों ने मूर्त के लिए अमूर्त उपमान प्रयोग किये। इन कवियों ने जहां एक ओर उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक आदि पारम्परिक अलंकारों को लिया वहां दूसरी ओर उसमें मानवीकरण, विरोधाभास, विशेषण-विपर्पय आदि पाश्चात्य ढंग के अलंकार भी समाहित किये। छायावाद की भाषा का रूप प्रौढ़ हैं इसमें प्रायः संस्कृत की कोमल-कांत पदावली के दर्शन होते हैं। खड़ी बोली को संवारने में छायावादी कवियों का महत्त योगदान है।
सारांश यह कि भाव-पक्ष एवं कला-पक्ष दोनों ही दृष्टियों से छायावाद काव्य अत्यन्त प्रौढ़ है।
प्रश्न सुलझा नहीं पाती मैं
वैसे तो
आप सबको
बहुत बार बता चुकी हूँ
कि समझ ज़रा छोटी है मेरी।
आज फिर एक
नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ
मेरे सामने।
पता नहीं क्यों
बहुत छोटे-छोटे प्रश्न
सुलझा नहीं पाती मैं
इसलिए
बड़े प्रश्नों से तो
उलझती ही नहीं मैं।
जब हम छोटे थे
तब बस इतना जानते थे
कि हम बच्चे हैं
लड़का-लड़की
बेटा-बेटी तो समझ ही नहीं थी
न हमें
न हमारे परिवार वालों को।
न कोई डर था न चिन्ता।
पूजा-वूजा के नाम पर
ज़रूर लड़कियों की
छंटाई हुआ करती थी
किन्तु और किसी मुद्दे पर
कभी कोई बात
होती हो
तो मुझे याद नहीं।
अब आधुनिक हो गये हैं हम
ठूँस-ठूँसकर भरा जाता है
सोच में
लड़का-लड़की एक समान।
बेटा-बेटी एक समान।
किसी को पता हो तो
बताये मुझे
अलग कब हुए थे ये।
लिखने को तो बहुत कुछ है
पढ़ने की ललक है,
आगे बढ़ने की ललक है।
न जाने कहां तक
राह खुली है ,
और कहां ताला बन्द है।
आजकल
विज्ञापन बहुत हैं,
बनावट बहुत है,
तरह तरह की
सजावट बहुत है।
सरल-सहज
कहां जीवन रह गया,
कसावट बहुत है।
राहें दुर्गम हैं,
डर बहुत है।
पढ़ ले, पढ़ ले।
आजकल
पढ़ी-लिखी लड़कियों की
डिमांड बहुत है।
पर साथ-साथ
चूल्हा-चौका-घिसाई भी सीख लेना,
उसके बिना
लड़कियों का जीवन
नरक है।
अंग्रज़ी में गिट-पिट करना सीख ले,
पर मानस भी रट लेना ,
यह भी जीवन का जरूरी पक्ष है।
तुम्हारी सादगी, तुम्हारी यह मुस्कुराहट
आकर्षित करती है,
पर
सजना-संवरना भी सीख ले,
यहां भी होना दक्ष है।
लिखने को तो बहुत कुछ है,
पर कलम रोकती है,
चुप कर ,
यहां बहुत बड़ा विपक्ष है।
सूर्यग्रहण के अवसर पर लिखी गई एक रचना
दूर कहीं गगन में
सूरज को मैंने देखा
चन्दा को मैंने देखा
तारे टिमटिम करते
जीवन में रंग भरते
लुका-छिपी ये खेला करते
कहते हैं दिन-रात हुई
कभी सूरज आता है
कभी चंदा जाता है
और तारे उनके आगे-पीछे
देखो कैसे भागा-भागी करते
कभी लाल-लाल
कभी काली रात डराती
फिर दिन आता
सूरज को ढूंढ रहे
कोहरे ने बाजी मारी
दिन में देखो रात हुई
चंदा ने बाजी मारी
तम की आहट से
दिन में देखो रात हुई
प्रकृति ने नवचित्र रचाया
रेखाओं की आभा ने मन मोहा
दिन-रात का यूं भाव टला
जीवन का यूं चक्र चला
कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे
कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते
बस, जीवन का यूं चक्र चला
कैसे समझा, किसने समझा
कुछ कह रही ओस की बूंदे
रंग-बिरंगी आभाओं से सजकर रवि हुआ उदित
चिड़ियां चहकीं, फूल खिले, पल्लव हुए मुदित
देखो भाग-भागकर कुछ कह रही ओस की बूंदे
इस मधुर भाव में मन क्यों न हो जाये प्रफुल्लित
हम मस्त हैं अपने ही बुने मकड़जाल में
जीवन में जरूरी है
किसी परिधि में सिमटना,
सीमाओं में बंधना।
और ये सीमाएं
हम स्वयं तय करें,
तय करें अपनी दूरियां,
अपनी दीवारें चुनें,
बनायें किले या ढहायें।
तुम कुछ भी सोचते रहो
कि फंस रहें हैं हम
अपने ही जाल में,
लेकिन सदा ऐसा नहीं होता।
जब हम
सबकी उपेक्षा कर
अपना सुरक्षा कवच
स्वयं बुनते हैं,
तो तकलीफ होती है,
कहानियां बुनी जाती हैं,
कथाएं सुनी जाती हैं।
कुछ भी कहो,
हम मस्त हैं
अपने ही बुने मकड़जाल में।
खुशियों के रंग
द्वार पर अल्पना
मानों मन की कोई कल्पना
रंगों में रंग सजाती
मन के द्वार खटखटाती
पाहुन कब आयेगा
द्वार खटखटाएगा।
मन के भीतर
रंगीनियां सजेंगी
घर के भीतर
खुशियां बसेंगीं।
संसार है घर-द्वार
अपनेपन, सम्बन्धों का आधार है घर-द्वार
रिश्तों का, विश्वास का संसार है घर-द्वार
जीवन बीत जाता है संवारने-सजाने में
सुख-दुख के सामंजस्य का आधार है घर-द्वार
यह वह मेरा सूरज तो नहीं
यह वह सूरज तो नहीं
जिसकी मैं बात किया करती थी।
यह वह सूरज भी नहीं
जो अक्सर
मेरे सपनों में आया करता था।
यह वह सूरज तो नहीं
जो मुझे राह दिखाया करता था।
यह वह सूरज भी नहीं
जो मेरी राहें आलोकित
किया करता था।
यह वह सूरज भी नहीं
जिस पर मैं विश्वास किया करती थी।
यह वह सूरज भी नहीं
जो मुझे रोज़ मिला करता था।
गली-गली ढूंढ रही
मेरा सूरज कहां गया।
यह सूरज तो राहों से भटक गया।
अंधेरे-रोशनी की
पहचान भूल गया।
जहां रोशनी चाहिए
वहां अंधेरा पसरता है,
किसी के घर में
झांके बिना ही निकल जाता है,
और कहीं आग बरसाता है।
मेरा सूरज तो ऐसा नासमझ नहीं था।
कल मिला बड़े दिनों के बाद।
पूछा मैंने कहाँ गये,
ऐसे कैसे हो गये।
सूरज मुस्काया,
समय के साथ चलना सीख।
नज़र बदल, सड़क बदल
कुछ कांटे बिछा, कुछ ज़हर उगल।
न अंधेरे से डर
न रोशनी की चाहत रख
जो मिले, उसे निगल
आगे बढ़, सबकी खींच।
न आस रख, न विश्वास रख
न जी का जंजाल रख।
सबको तोड़, अपने को जोड़
बस ऐसा जीवन जी
इशारा कर दिया मैंने
शेष अपनी बुद्धि लगा
और मस्त जीवन जी।
द्वार खुले हैं तेरे लिए
विदा तो करना बेटी को किन्तु कभी अलविदा न कहना
समाज की झूठी रीतियों के लिए बेटी को न पड़े कुछ सहना
खीलें फेंकी थीं पीठ पीछे छूट गया मेरा मायका सदा के लिए
हर घड़ी द्वार खुले हैं तेरे लिए,उसे कहना,इस विश्वास में रहना
कड़वा-कड़वा देते रहना
नीम करेले का रस पी ले
हंस-बोलकर जीवन जी ले
कड़वा-कड़वा देते रहना
खट्टे की खुद चटनी पी ले
मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई
ज़िन्दगियाँ पानी-पानी हो रहीं
जंग खातीं काली-काली हो रहीं
मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई
चाहें थालियाँ खाली-खाली हो रहीं।
आज मुझे देश की याद सता गई
सोच में पड़ गई
आज न तो गणतन्त्र दिवस है,
न स्वाधीनता दिवस, न शहीदी दिवस
और न ही किसी बड़े नेता की जयन्ती ।
न ही समाचारों में ऐसा कुछ देखा
कि देश की याद सता जाती।
फिर आज मुझे
देश की याद क्यों सता गई ।
कुछ गिने-चुने दिनों पर ही तो
याद आती है हमें अपने देश की,
जब एक दिन का अवकाश मिलता है।
और हम आगे-पीछे के दिन गिनकर
छुट्टियां मनाने निकल जाते हैं
अन्यथा अपने स्वार्थ में डूबे,
जोड़-तोड़ में लगे,
कुछ भी अच्छा-बुरा होने पर
सरकार को कोसते,
अपना पल्ला झाड़ते
चाय की चुस्कियों के साथ राजनीति डकारते
अच्छा समय बिताते हैं।
पर सोच में पड़
आज मुझे देश की याद क्यों सता गई
पर कहीं अच्छा भी लगा
कि अकारण ही
आज मुझे देश की याद सता गई ।
हिम्मतों का सफ़र है ज़िन्दगी
हिम्मतों का सफ़र है ज़िन्दगी।
राहों में खतरा है ज़िन्दगी।
पर्वतों-सी बाधाएं झेलती है ज़िन्दगी।
साहस और श्रम का नाम है ज़िन्दगी।
कहते हैं जहां चाह वहां राह,
यह बात यहां बताती है ज़िन्दगी।
कहीं गहरी खाई और कहीं
सिर पर पहाड़-सी समस्याओं से
डराती है ज़िन्दगी।
राह देना
और सही राह लेना
समझाती है ज़िन्दगी।
चलना सदा सम्हल कर
यह समझाती है जिन्दगी।
एक गलत मोड़
एक अन्त का संकेत
दे जाती है ज़िन्दगी।
दादाजी से गुड़िया बोली
दादाजी से गुड़िया बोली,
स्कूल चलो न, स्कूल चलो न।
दादाजी को गुड़िया बोली
मेरे संग पढ़ो न, मेरे संग पढ़ो न।
मां हंस हंस होती लोट-पोट,
भैया देखे मुझको।
दादाजी बोले,
स्कूल चलूंगा, स्कूल चलूंगा।
मुझको एक ड्र्ैस सिलवा दे न।
सुन्दर सा बस्ता,
काॅपी-पैन ला दे न।
अपनी क्लास में
मेरा नाम लिखवा दे न।
तू मुझको ए बी सी सिखलाना,
मैं तुझको अ आ इ ई सिखलाउंगा।
मेरी काम करेगी तू,
मैं तुझको टाॅफ़ी दिलवाउंगा।
मेरी रोटी भी बंधवा लेना
नहीं तो मैं तेरी खा जाउंगा।
गुड़िया बोली,
न न न न, दादाजी,
मैं अपनी रोटी न दूंगी,
आप अभी बहुत छोटे हैं,
थोड़े बड़े हो जाओ न।
अभी तो तुम
मेरे घोड़े ही बन जाओ न।