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चित्राधारित कथा
आज सबके पास घड़े और बाल्टियां तो थीं किन्तु खाली थीं। धूप और सूखी धरती पर चलते-चलते उनके पांव थक गये थे। गांव में एक ही कुंआ था आम लोगों के लिए और गर्मी आते ही पानी की कमी होने लगती थी और दूसरे कुंए और नहर के पानी पर उनका अधिकार नहीं था। आज कुंए से पानी खिंचा ही नहीं। सभी महिलाएं उदास थीं। कैसे खाना बनायेंगे, बच्चों को क्या खिलाएंगे।
उन्होंने मिलकर तय किया कि वे सरपंच से जाकर मिलेंगी और जब तक उन्हें नहर के पानी और दूसरे कुंए से पानी नहीं लेने दिया जाता वे घर ही नही जायेंगी।
गांव की सभी महिलाएं बच्चों के साथ जाकर सरपंच के घर के सामने बैठ गईं। पंचों ने और गांव के लोगों ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया किन्तु वे न मानीं। वे सब बोलीं कि जब उनके पास कुछ खाने-पीने के लिए ही नहीं है तो वे घर जाकर क्या करेंगीं। जब तक उनको नहर से या दूसरे कुंएं से पानी नहीं लेने दिया जायेगा, वे घर नहीं जायेंगी।
यह समाचार धीरे-धीरे सारे गांव में फैल गया और अन्य घरों की महिलाएं और बच्चे भी वहां आने लगे। भीड़ बढ़ती देख सरपंच ने पुलिस बुलाने का निर्णय लिया। किन्तु इससे पहले कि वे पुलिस बुलाते, सरपंच की पत्नी और बच्चे उनके सामने आ खड़े हुए। पत्नी ने कहा कि आप सोचिए कि अगर हमें एक दिन भी पानी न मिले तो हम क्या करेंगे। और ये लोग तो हर रोज़ कितनी दूर से पानी लाते हैं। मैंने इन महिलाओं और बच्चों को दिन में इतनी धूप और कड़ी गर्मी में दो-दो, तीन-तीन चक्कर लगाते देखा है। कैसे कर लेती हैं ये इतनी मेहनत। फिर घर जाकर घर के सारे काम करती हैं। आप कुछ तो इन पर दया कीजिए और अपना कुंआ इनके लिए खोल दीजिए।
सरपंच की मानों आंखें खुल गईं , इस तरह तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। उन्होंने तत्काल अपने कुंए से सारे गांव को पानी भरने की अनुमति दे दी और साथ ही पंचों के साथ मिलकर निर्णय लिया कि वे अपने गांव की पानी की समस्या को सदा के लिए हल करने के लिए नीतियां बनायेंगें।
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निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां
कुछ शहरों की हैं दूरियां, कुछ काम-काज की दूरियां।
मेल-मिलाप कैसे बने, निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां।
परिवार निरन्तर छिटक रहे, दूर-पार सब जा रहे,
तकनीक आज मिटा रही हम सबके बीच की दूरियां।
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महके हैं रंग
रंगों की आहट से खिली खिली है जिन्दगी
अपनों की चाहत से मिली मिली है जिन्दगी
बहके हैं रंग, चहके हैं रंग, महके हैं रंग,
रंगों की रंगीनियों से हंसी हंसी है जिन्दगी
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देश और ध्वज
देश
केवल एक देश नहीं होता
देश होता है
एक भाव, पूजा, अर्चना,
और भक्ति का आधार।
-
ध्वज
केवल एक ध्वज नहीं होता
ध्वज होता है प्रतीक
देश की आन, बान,
सम्मान और शान का।
.
और यह देश भारत है
और है आकाश में लहराता
हमारा तिरंगा
और जब वह भारत हो
और हो हमारा तिरंगा
तब शीश स्वयं झुकता है
शीश मान से उठता है
जब आकाश में लहराता है तिरंगा।
.
रंगों की आभा बिखेरता
शक्ति, साहस
सत्य और शांति का संदेश देता
हमारे मन में
गौरव का भाव जगाता है तिरंगा।
.
जब हम
निरखते हैं तिरंगे की आभा,
गीत गाते हैं
भारत के गौरव के,
शस्य-श्यामला
धरा की बात करते हैं
तल से अतल तक विस्तार से
गर्वोन्नत होते हैं
तब हमारा शीश झुकता है
उन वीरों की स्मृति में
जिनके रक्त से सिंची थी यह धरा।
.
स्वर्णिम आज़ादी का
उपहार दे गये हमें।
आत्मसम्मान, स्वाभिमान
का भान दे गये हमें
देश के लिए जिएँ
देश के लिए मरें
यह ज्ञान दे गये हमें।
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स्वर्णिम आज़ादी का
उपहार दे गये हमें।
आत्मसम्मान, स्वाभिमान
का भान दे गये हमें
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तिरंगे का एहसास
जब हम दोनों
साथ खड़े होते हैं
तब
तिरंगे का
एहसास होता है।
केसरिया
सफ़ेद और हरा
मानों
साथ-साथ चलते हैं
बाहों में बाहें डाले।
चलो, यूँ ही
आगे बढ़ते हैं
अपने इस मैत्री-भाव को
अमर करते हैं।
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सूर्यग्रहण के चित्र पर एक रचना
दूर कहीं गगन में
सूरज को मैंने देखा
चन्दा को मैंने देखा
तारे टिमटिम करते
जीवन में रंग भरते
लुका-छिपी ये खेला करते
कहते हैं दिन-रात हुई
कभी सूरज आता है
कभी चंदा जाता है
और तारे उनके आगे-पीछे
देखो कैसे भागा-भागी करते
कभी लाल-लाल
कभी काली रात डराती
फिर दिन आता
सूरज को ढूंढ रहे
कोहरे ने बाजी मारी
दिन में देखो रात हुई
चंदा ने बाजी मारी
तम की आहट से
दिन में देखो रात हुई
प्रकृति ने नवचित्र बनाया
रेखाओं की आभा ने मन मोहा
दिन-रात का यूं भाव टला
जीवन का यूं चक्र चला
कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे
कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते
बस, जीवन का यूं चक्र चला
कैसे समझा, किसने समझा
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बहुत किरकिरी होती है
अनुभव की बात कहती हूं
अनधिकार को
कभी मान मत देना
जिस घट में छिद्र हो
उसमें जल संग्रहण नहीं होता
कृत्रिम पुष्पों से
सज्जित रंग-रूप देकर
भले ही कुछ दिन सहेज लें
किन्तु दरारें तो फूटेंगी ही
फिर जो मिट्टी बिखरती है
बहुत किरकिरी होती है
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उदास है मौसम y
कई दिनों से
उदास-सा है मौसम।
न हॅंसता है,
न मुस्कुराता है,
मानों रोशनी से कतराता है।
बस गहरी चादर ओढ़े
जैसे मुॅंह छुपाकर बैठा है।
दिन-रात का एहसास
कहीं खो गया है,
कभी ओस-से आँसू
ढलकते हैं
कभी कोहरे में सिसकता है
और कभी आँसुओं से
सराबोर हो जाता है।
ये हल्की बारिश
ये कंपकंपाती हवाएं
ये बिखरे ओस-कण
लगता है
अब दर्द हुआ है जनवरी को
दिसम्बर के जाने का।
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टूटे घरों में कोई नहीं बसता
दिल न हुआ,
कोई तरबूज का टुकड़ा हो गया ।
एक इधर गया,
एक उधर गया,
इतनी सफाई से काटा ,
कि दिल बाग-बाग हो गया।
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जिसे देखो
आजकल
दिल हाथ में लिए घूमते हैं ,
ज़रा सम्हाल कर रखिए अपने दिल को,
कभी कभी अजनबी लोग,
दिल में यूं ही घर बसा लिया करते हैं,
और फिर जीवन भर का रोग लगा जाते हैं ।
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वैसे दिल के टुकड़े कर लिए
आराम हो गया ।
न किसी के इंतज़ार में हैं ।
न किसी के दीदार में हैं ।
टूटे घरों में कोई नहीं बसता ।
जीवन में एक ठीक-सा विराम हो गया ।
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नये भाव देती है ज़िन्दगी
भॅंवर-भॅंवर घूमती है ज़िन्दगी
जल में ही नहीं
हवाओं में भी परखती है ज़िन्दगी।
चक्र घूमता है,
चक्रव्यूह रोकता है
हर दिन नये भाव देती है ज़िन्दगी।
शांत जल में बह रही नाव
कब भॅंवर में फंसेगी
कहाॅं बता पाती है ज़िन्दगी।
रंग भी बदलते हैं,
ढंग भी बदलते हैं
हवाओं के रुख भी बदलते हैं।
नहीं सम्हाल पाता है खेवट
जब भावनाओं के भॅंवर में
फ़ंसती है ज़िन्दगी।