संयुक्त परिवार या एकल परिवार
समाज में, जीवन में एवं परिवारों में कुछ परिवर्तन सहज होते हैं किन्तु हम उन्हें उतनी सहजता से स्वीकार नहीं करते। इसका सबसे बड़ा कारण यह कि हमारे मन-मस्तिष्क में प्राचीनता बहुत गहरे से पहरा डालकर बैठी है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि संयुक्त परिवार समाप्त होते जा रहे हैं। मेरी दृष्टि में यह पारिवारिक जीवन में परिवर्तन की एक सहज स्थिति है जिस पर हमारा वश नहीं है।
हाँ, इस पर हमारा वश अवश्य है कि यदि हम वयोवृद्ध हैं तो नई पीढ़ी पर सारा आरोप थोप देते हैं कि युवा पीढ़ी दिशा भटक गई है, बुज़ुर्गों को बोझ समझती है, उन्हें पसन्द नहीं करती, उसकी देखभाल नहीं करती, श्रवण कुमार नहीं है। संस्कृति, परम्पराओं, नैतिक मूल्यों का सम्मान नहीं करती, बड़ों का आदर नहीं करती।
मैंने आज तक युवा पीढ़ी में किसी को यह कहते नहीं सुना कि हमारे माता-पिता हमारे बच्चों यानी अपने नाती-पोतियों का ध्यान नहीं रखते, उनसे प्यार नहीं करते अथवा उनकी देखभाल में समय नहीं देते। सारी की सारी शिकायत गुज़री हुई पीढ़ी को ही है।
यदि हम, हमसे भी पिछली पीढ़ी की बात करें तब पूर्णतया संयुक्त परिवार ही होते थे। अर्थात् प्रायः पूरी तीन पीढ़ियाँ एक साथ रहती थीं। यदि चार भाई हैं तो वे भी एक ही छत और व्यवस्था के भीतर साथ ही रहते थे। और प्रायः सभी परिवारों में पाँच-सात बच्चे तो होते ही थे। उस समय अधिकांश परिवार व्यवसाय-आधारित अथवा कृषि पर ही आश्रित हुआ करते थे। और यदि किसी परिवार से कोई एक सदस्य नौकरी करने जाता भी था तो ‘‘दूर देस’’ जाता था, उसका अपना परिवार अर्थात् पत्नी और बच्चे वहीं रहते थे। वह एक व्यवस्था थी। अपने घर, खुले स्थान, घर की दाल-रोटी एवं कार्यों का अनकहा बंटवारा हुआ करता था फिर वह घर से बाहर पुरुषों का कार्यक्षेत्र हो अथवा घर के भीतर महिलाओं का।
फिर परिवर्तन का दौर शुरु हुआ। परिवार छोटे होने लगे। दो या तीन बच्चे। व्यवसाय एवं कृषि से परिवारों का पालन कठिन होने लगा और पुरुष नौकरी करने लगे। नारी शिक्षा आरम्भ हुई और महिलाओं के जीवन में एक गहरा परिवर्तन आया। शिक्षा का विस्तार होने लगा और माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए शहरों की ओर बढ़ने लगे। यह विकास का एक सहज-स्वाभाविक रूप था। अपने घर एवं स्थान से जुड़े माता-पिता अपना स्थान नहीं छोड़ना चाहते, नवीनता एवं आधुनिकता को सहजता से स्वीकार नहीं करते और युवा अपनी नौकरी, कार्य-स्थल, प्रगति, शिक्षा के अवसरों के कारण शहरों में बसने लगी। इस समस्या का कोई समाधान नहीं है। समाधान है तो केवल इतना कि इस परिवर्तन को सहज रूप से स्वीकार किया जाये और जितना सामंजस्य बिठाया जा सके, बिठाया जाये न कि दोषारोपण पद्धति पर चला जाये। प्रश्न संयुक्त परिवार के पक्ष-विपक्ष का है ही नहीं, बदली जीवन-शैली का है, शिक्षा के बदले स्वरूप का है, वैश्विक दौर का है, विकास की गति का है, जिसे हम कदापि दोष नहीं दे सकते।
अब हम आज भी कहें कि गाँवों की जीवन-शैली बहुत अच्छी थी, भारत की गुरुकुल शिक्षा जैसी कोई पद्धति नहीं थी, निःसंदेह नहीं थी किन्तु आज तो सम्भव नहीं है ये सब। तो जो आज सम्भव है उसमें सन्तोष करें और अकारण पीढ़ियों, संस्कारों, परम्पराओं को कोसना और राग अलापना बन्द करें।