झूठ न बोल
इतना बड़ा झूठ न बोल
कि याद नहीं अब कुछ
न जाने कितने जख़्म हैं
रिसते हैं
टीस देते हैं
कहीं दूर से पुकारते हैं
आंसू हम छिपाते हैं
डायरी के धुंधलाते पन्नों पर
उंगलियां घुमाते-घुमाते
कितने ही उपन्यास
भीतर लिखे जाते हैं।
अपने-आपको ही नकारते हैं
न जाने कैसे
ज़िन्दगी
जीते-जीते हार जाते हैं।