रिश्ते भी मौसम से हो गये हैं

रिश्ते भी

मौसम से हो गये हैं,

कभी तपती धूप-से जलते हैं

और जब सावन-से

बरसते हैं

तो नदी-नाले-से उफ़न पड़ते हैं

और सब तहस-नहस कर जाते हैं।

पीढ़ियों से संवारी ज़िन्दगी

टूट-बिखर जाती है।

हो सकता है

कुछ वृक्ष मैंने भी काटे हों

कुछ टहनियों से

फल मैंने भी लूटे हों,

हिसाब बराबर करने को

कोई पीछे नहीं रहता।

किसे दोष दूॅं,

किसे परखूॅं, किसे समझूॅं।

ढहाये गये वृक्ष

कभी खड़े नहीं हो पाते दोबारा

चाहे जड़ें कितनी भी गहरी हों।

कितना भी बच लें

परिणाम तो

सबको ही भुगतना पड़ेगा।