इंसानियत गमगीन हुई है

जबसे मुट्ठी रंगीन हुई हैं,

तब से भावना क्षीण हुई हैं।

बात करते इंसानियत की

पर इंसानियत

अब कहां मीत हुई है।

रंगों से पहचान रहे,

हम अपनों को  

और परख रहे परायों को,

देखो यहां

इंसानियत गमगीन हुई है।

रंगों को बांधे  मुट्ठी में

इनसे ही अब पहचान हुई है।

बाहर से कुछ और दिखें

भीतर रंगों में तकरार हुई है।

रंगों से मिलती रंगीनियां

ये  पुरानी बात हुई है।

बन्द मुट्ठियों से अब मन डरता है

न जाने कहां क्या बात हुई है।

 

चल मुट्ठियों को खोलें

रंग बिखेरें,

तू मेरा रंग ले ले,

मैं तेरा रंग ले लूं

तब लगेगा, कोई बात हुई है।