जबसे मुट्ठी रंगीन हुई हैं,
तब से भावना क्षीण हुई हैं।
बात करते इंसानियत की
पर इंसानियत
अब कहां मीत हुई है।
रंगों से पहचान रहे,
हम अपनों को
और परख रहे परायों को,
देखो यहां
इंसानियत गमगीन हुई है।
रंगों को बांधे मुट्ठी में
इनसे ही अब पहचान हुई है।
बाहर से कुछ और दिखें
भीतर रंगों में तकरार हुई है।
रंगों से मिलती रंगीनियां
ये पुरानी बात हुई है।
बन्द मुट्ठियों से अब मन डरता है
न जाने कहां क्या बात हुई है।
चल मुट्ठियों को खोलें
रंग बिखेरें,
तू मेरा रंग ले ले,
मैं तेरा रंग ले लूं
तब लगेगा, कोई बात हुई है।
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क्लोज़िंग डे
हर छ: महीने बाद
वर्ष में दो बार आने वाला
क्लोज़िंग डे
जब पिछले सब खाते
बन्द करने होते हैं
और शुरू करना होता है
फिर से नया हिसाब किताब।
मिलान करना होता है हर प्रविष्टि का,
अनेक तरह के समायोजन
और एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति।
मैंने कितनी ही बार चाहा
कि अपनी ज़िन्दगी के हर दिन को
बैंक का क्लोज़िंग डे बना दूं।
ज़िन्दगी भी तो बैंक का एक खाता ही है
पर फर्क बस इतना है कि
बैंक और बैंक के खाते
कभी तो लाभ में भी रहते हैं
ब्याज दर ब्याज कमाते हैं।
पर मेरी ज़िन्दगी तो बस
घाटे का एक उधार खाता बन कर रह गई है।
रोज़ शाम को
जब ज़िन्दगी की किताबों का
मिलान करने बैठती हूं
तो पाती हूं
कि यहां तो कुछ भी समायोजित नहीं होता।
कहीं कोई प्रविष्टि ही गायब है
तो कहीं एक के उपर एक
इतनी बार लिखा गया है कई कुछ
कि अपठनीय हो गया है सब।
फिर कहीं पृष्ट ही गायब हैं
और कहीं पर्चियां बिना हस्ताक्षर।
सब नियम विरूद्ध।
और कहीं दूर पीछे छूटते लक्ष्य।
कितना धोखा धड़ी भरा खाता है यह
कि सब नामे ही नामे है
जमा कुछ भी नहीं।
फिर खाता बन्द कर देने पर भी
उधार चुकता नहीं होता
उनका नवीनीकरण हो जाता है।
पिछला सब शेष है
और नया शुरू हो जाता है।
पिछले लक्ष्य अधूरे
नये लक्ष्यों का खौफ़।
एक एक कर खिसकते दिन।
दिन दिन से जुड़कर बनते साल।
उधार ही उधार।
कैसे चुकता होगा सब।
विचार ही विचार।
यह दिनों और सालों का हिसाब।
और उन पर लगता ब्याज।
इतिहास सदा ही लम्बा होता है
और वर्तमान छोटा।
इतिहास स्थिर होता है
और वर्तमान गतिशील।
सफ़र जारी है
उस दिन की ओर
जिस दिन
अपनी ज़िन्दगी के खातों में
कोई समायोजित प्रविष्टि,
कोई मिलान प्रविष्टि
करने में सफ़लता मिलेगी।
वही दिन
मेरी जिन्दगी का
ओपनिंग डे होगा
पर क्या कोई ऐसा भी दिन होगा ?
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अन्तर्मन की आवाजें
अन्तर्मन की आवाजें अब कानों तक पहुंचती नहीं
सन्नाटे को चीरकर आती आवाजें अन्तर्मन को भेदती नहीं
यूं तो पत्ता भी खड़के, तो हम तलवार उठा लिया करते हैं
पर बडे़-बडे़ झंझावातों में उजडे़ चमन की बातें झकझोरती नहीं
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कोई नहीं अपना
काफ़िलों में हम चले, लगा कोई सहारा मिला
राहों में कौन छूट गया, कौन अलग हो चला
देखते-देखते ही बिखराव की एक आंधी आई
अपना रहा न कोई पराया, विलग हो ही भला
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सृजनकर्ता का आभार
उस सृजनकर्ता का
आभार व्यक्त नहीं कर पाती मैं
जिसने इतने सुन्दर,
मोहक संसार की रचना की।
उस आनन्द को
व्यक्त नहीं कर सकती मैं
जो इस सृष्टिकर्ता ने
हमें दिया।
उससे ही मिले
आकाश को विस्तार देकर
गर्वोन्नत होने लगते हैं हम।
उससे मिली अमूल्य धरोहर को
अपना कहकर
अधिकार जमाने लगते हैं हम।
भूल जाते हैं उसे।
-
किन्तु नहीं जानते
कब जीवन में सब
उलट-पुलट हो जायेगा,
खाली हो जायेंगे हाथ।
और ये खाली हाथ
जुड़ जायेंगे
उसकी सत्ता स्वीकार करते हुए।
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भ्रम-जाल
पता नहीं किस
भ्रम में रहते हैं हम
कि बदल रहा है
बहुत कुछ,
या आने वाला कल
बदलकर आयेगा
और अब
बहुत कुछ
अच्छा ही अच्छा लायेगा।
लेकिन कुछ नहीं बदलता।
बस तरीके बदलते हैं
ढर्रे बदलते हैं
रास्ते अलग-से लगते हैं
लेकिन
आज का दौर
हो या कल का
सब एक-सा ही होता है,
शेष तो भ्रम-जाल होता है।
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भावनाएं पत्थर हो गईं
सड़कों पर आदमी भूख से मरता रहा।
मंदिरों में स्वर्ण, रजत, हीरा चढ़ता रहा।
भावनाएं पत्थर हो गईं, कौन समझा यहां
बेबस इंसान भगवान की मूतियां गढ़ता रहा।
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धर्म-कर्म के नाम
धर्म-कर्म के नाम पर पाखण्ड आज होय
मंत्र-तंत्र के नाम पर घृणा के बीज बोयें
परम्परा के नाम पर रूढ़ियां पाल रहे हम
किसकी मानें, किसकी छोड़ें, इसी सोच में खोय
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कुछ छूट गया जीवन में
गांव तक कौन सी राह जाती है कभी देखी नहीं मैंने
वह तरूवर, कुंआ, बाग-बगीचे, पनघट, देखे नहीं मैंने
पीपल की छाया, चौपालों का जमघट, नानी-दादी के किस्से
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पार जरूर उतरना है
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मोती माणिक का क्या करना है।
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यह अथाह शांत जलराशि
गगन की व्यापकता
ठहरी-ठहरी सी हवा,
निश्चल, निश्छल-सा समां
दूर कहीं घूमतीं
हल्की हल्की सी बदरिया।
तैरने लगती हूं, डूबने लगती हूं
फिर तरती हूं, दूर तक जाती हूं
फिर लौट लौट आती हूं।
इस सूनेपन में, इक अपनापन है।
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जब जैसी आन पड़े वैसी होती है मां
मां मां ही नहीं होती
पूरा घर होती है मां।
दरवाज़े, खिड़कियां, दीवारें,
चौखट, परछत्ती, परदे, बाग−बगीचे,
बाहर−भीतर सब होती है मां।
चूल्हे की लकड़ी − उपले से लेकर
गैस, माइक्रोवेव और माड्यूल किचन तक होती है मां।
दाल –रोटी, बर्तन –भांडे, कपड़े –लत्ते,
साफ़ सफ़ाई, सब होती है मां।
कैलेण्डर, त्योहार, दिन,तारीख
सब होती है मां।
मीठी चीनी से लेकर नीम की पत्ती, तुलसी,
बर्गर − पिज्जा तक सब होती है मां।
कलम दवात से लेकर
कम्प्यूटर, मोबाईल तक सब होती है मां।
स्कूल की पढ़ाई, कालेज की मस्ती,
जब चाहा जेब खर्च
आंचल मे गलतियों को छुपाती
सब होती है मां।
कभी सोती नहीं, बीमार होती नहीं।
सहज समर्पित,
रिश्तों को बांधती, सहेजती, समेटती,
दुर्गा, काली, चंडी,
सहस्रबाहु, सहस्रवाहिनी,
जब जैसी आन पड़े, वैसी होती है मां।