एक पंथ दो काज

आजकल ज़िन्दगी

न जाने क्यों

मुहावरों के आस-पास

घूमने लगी है

न तो एक पंथ मिलता है

न ही दो काज हो पाते हैं।

विचारों में भटकाव है

जीवन में टकराव है

राहें चौराहे बन रही हैं

काज कितने हैं

कहाँ सूची बना पाते हैं

कब चयन कर पाते हैं

चौराहों पर खड़े ताकते हैं

काज की सूची

लम्बी होती जाती है

राहें बिखरने लगती हैं।

जो राह हम चुनते हैं

रातों-रात वहां

नई इमारतें खड़ी हो जाती हैं

दोराहे

और न जाने कितने चौराहे

खिंच जाते हैं

और हम जीवन-भर

ऊपर और नीचे

घूमते रह जाते हैं।