कोहरे का कोहराम है

कोहरे का कोहराम है, हमें तो आराम है

छुट्टी मना रहे, घर में कहां कोई जाम है

आग तापते, जब मन चाहे सोते-जागते

कौन पूछने वाला, मनमर्जी से करते काम हैं

रंगों की दुनिया बड़ी निराली है

सुनते हैं इन्द्रधनुष के सप्त रंगों में श्वेताभा रहती है,

कैसे कह दूं इन रंगीनियों के पीछे कोई आस रहती हैं

रंगों की दुनिया बड़ी निराली है कौन कहां समझ पाया,

रंगों क भी भाव होते हैं, इतनी समझ हमें कहां आ पाती है।

विनाश प्रकृति का नियम है

ह्रास से न डर, उत्पत्ति प्रकृति का नियम है

पीत पत्र झड़ गये, नवपल्लव आना नियम है

गर विनाश लीला तूने मचाई अपने लाभ के लिए

तो समझ ले तेरा विनाश भी प्रकृति का नियम है

सही-गलत को मापने का साहस रखना चाहिए

विनाश के लिए न बम चाहिए न हथियार चाहिए

विनाश के लिए बस मन में नकारात्मक भाव चाहिए

सोच-समझ कुंद हो गई, सच समझने से डरने लगे

सही-गलत को मापने का तो साहस रखना चाहिए

प्रीत,रीत,मनमीत,विश्वास सब है अभी भी यहां

बेवजह व्याकुल रहने की आदत सी हो गई है

बेवजह बुराईयां जताने की आदत सी हो गई है

प्रीत,रीत,मनमीत,विश्वास सब है अभी भी यहां

बेवजह इनको नकारने की आदत सी हो गई है।

गहरे सागर में डूबे थे

सपनों की सुहानी दुनिया नयनों में तुमने ही बसाई थी

उन सपनों के लिए हमने अपनी हस्ती तक मिटाई थी

गहरे सागर में डूबे थे उतरे थे माणिक मोती के लिए

कब विप्लव आया और कब तुमने मेरी हस्ती मिटाई थी

रंगों की चाहत में बीती जिन्दगी

रंगों की भी अब रंगत बदलने लगी है
सुबह भी अब शाम सी ढलने लगी है
इ्द्र्षधनुषी रंगों की चाहत में बीती जिन्दगी
अब इस मोड़ पर आकर क्यों दरकने लगी है।

अर्थ को अभिव्यक्ति

मौन को शब्द दूं
शब्द को अर्थ 
और  अर्थ को अभिव्यक्ति
जाने राह में

कब कौन समझदार मिल जाये।

होंठों ने चुप्पी साधी थी

आंखों ने मन की बात कही

आंखों ने मन की बात सुनी

होंठों ने चुप्पी साधी थी

जाने, कैसे सब जान गये।

रोशनी का बस एक तीर

रोशनी का बस एक तीर निकलना चाहिए

छल-कपट और  पाप का घट फूटना चाहिए

तुम राम हो या रावण, कर्ण हो या अर्जुन

बस दुराचारियों का साहस तार-तार होना चाहिए

हर घड़ी सुख बाँटती है ज़िंदगी

शून्य से सौ तक निरंतर दौड़ती है ज़िंदगी !

और आगे क्या , यही बस खोजती है ज़िंदगी !

चाह में कुछ और मिलने की सभी क्यों जी रहे –

 देखिये तो हर घड़ी सुख बाँटती है ज़िंदगी !

बंधनों का विरोध कर

जीवन बड़ा सरल सहज अपना-सा हो जाता है

रूढ़ियों के प्रतिकार का जब साहस आ जाता है

डरते रहते हैं हम यूं ही समाज की बातों से

बंधनों का विरोध कर मन तुष्टि पा जाता है

सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी

साईकिल, हाथी, पंखा, छाता, लिए हाथ  में खड़े  रहे

जब  से आया झाड़ूवाला सब इधर-उधर हैं दौड़ रहे

छूट न जाये,रूठ न जाये, सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी

देखेंगे गिनती के बाद कौन-कौन कहां-कहां हैं गढ़े रहे

सूरज गुनगुनाया आज

सूरज गुनगुनाया आज

मेरी हथेली में आकर,

कहने लगा

चल आज

इस तपिश को

अपने भीतर महसूस कर।

मैं न कहता कि आग उगल।

पर इतना तो कर

कि अपने भीतर के भावों को

आकाश दे,

प्रभात और रंगीनियां दे।

उत्सर्जित कर

अपने भीतर की आग

जिससे दुनिया चलती है।

मैं न कहता कि आग उगल

पर अपने भीतर की

तपिश को बाहर ला,

नहीं तो

भीतर-भीतर जलती यह आग

तुझे भस्म कर देगी किसी दिन,

देखे दुनिया

कि तेरे भीतर भी

इक रोशनी है

आस है, विश्वास है

अंधेरे को चीर कर

जीने की ललक है

गहराती परछाईयों को चीरकर

सामने आ,

अपने भीतर इक आग जला।

 

 

 

 

विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था

जीवन में क्यों कोई हमारे हमराज़ नहीं था

यूं तो चैन था, हमें कोई एतराज़ नहीं था

मन चाहता है कि कोई मिले, पर क्या करें

विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था

शायद प्यार से मन मिला नहीं था

यूं तो उनसे कोई गिला नहीं था

यादों का कोई सिला नहीं था

कभी-कभी मिल लेते थे यूं ही

शायद प्यार से मन मिला नहीं था

 

न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही

कुन्दन अब रहा किसका मन

बहके-बहके हैं यहां कदम

न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही

पारस पत्थर करता है क्रन्दन

पूजने के लिए बस एक इंसान चाहिए

न भगवान चाहिए न शैतान चाहिए

पूजने के लिए बस एक इंसान चाहिए

क्या करेगा किसी के गुण दोष देखकर

मान मिले तो मन से प्रतिदान चाहिए

मन तो घायल होये

मन की बात करें फिर भी भटकन होये

आस-पास जो घटे मन तो घायल होये

चिन्तन तो करना होगा क्यों हो रहा ये सब

आंखें बन्द करने से बिल्ली न गायब होये

हंसी जिन्दगी जीने की बात करते हैं

न सोचते हैं न समझते हैं, बस बवाल करते हैं

न पूछते हैं न बताते हैं बस बेहाल बात करते हैं

ज़रा ठहर कर सोच-समझ कर कदम उठायें ‘गर

आईये बैठकर हंसी जिन्दगी जीने की बात करते हैं

 

आगजनी में अपने ही घर जलते हैं

जाने क्यों नहीं समझते, आगजनी में अपने ही घर जलते हैं

न हाथ सेंकना कभी, इस आग में अपनों के ही भाव मरते हैं

आओ, मिल-बैठकर बात करें, हल खोजें ‘गर कोई बात है

जाने क्यों आजकल बिन सोचे-समझे हम फै़सले करते हैं

आदत हो गई है बुराईयां खोजने की

शब्दों में अब मिठास कहां रह गई

बातों में अब आस कहां रह गई

आदत हो गई है बुराईयां खोजने की

सम्बन्धों में अब वह बात कहां रह गई

हमारी सोच बिगड़ती है

न जाने कौन कह गया भलाई का ज़माना चला गया

किस राह चलें, क्यों चलें, हमें कहां कोई समझा गया

ज़माने का मिज़ाज़ न बदला है कभी, न बदलेगा कभी

हमारी सोच बिगड़ती है, यह समझने का ज़माना आ गया

मन में बजती थी रूनझुन पायल

मन ही मन में थे उनके कायल

मन में बजती थी रूनझुन पायल

मिलने की बात पर शर्मा जाते थे

सपनों में ही कर गये हमको घायल

 

याद आता है भूला बचपन

कहते हैं जीवन है इक उपवन

महका-महका-सा है जीवन

कभी कभी जब कांटे चुभते हैं

तब याद आता है भूला बचपन

मन करता है लौट आये बचपन

यूं ही चलता रहता है जीवन

कभी रोता कभी हंसता है मन

राहों में जब आती हैं बाधाएं

मन करता है लौट आये बचपन

नये नये की आस में

नये नये की आस में क्यों भटकता है मन

न जाने क्यों इधर-उधर अटकता है मन

जो मिला है उसे तो जी भर जी ले प्यारे

क्यों औरों के सुख देखकर भटकता है मन

सूर्यग्रहण के चित्र पर एक रचना

दूर कहीं गगन में

सूरज को मैंने देखा

चन्दा को मैंने देखा

तारे टिमटिम करते

जीवन में रंग भरते

लुका-छिपी ये खेला करते

कहते हैं दिन-रात हुई

कभी सूरज आता है

कभी चंदा जाता है

और तारे उनके आगे-पीछे

देखो कैसे भागा-भागी करते

कभी लाल-लाल

कभी काली रात डराती

फिर दिन आता

सूरज को ढूंढ रहे

कोहरे ने बाजी मारी

दिन में देखो रात हुई

चंदा ने बाजी मारी

तम की आहट से

दिन में देखो रात हुई

प्रकृति ने नवचित्र बनाया

रेखाओं की आभा ने मन मोहा

दिन-रात का यूं भाव टला

जीवन का यूं चक्र चला

कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे

कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते

बस, जीवन का यूं चक्र चला

कैसे समझा, किसने समझा

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हमारे भीतर ही बसता है वह

कहां रूपाकार पहचान पाते हैं हम

कहां समझ पाते हैं

उसका नाम,

नहीं पहचानते,

कब आ जाता है सामने

बेनाम।

उपासना करते रह जाते हैं

मन्दिरों की घंटियां

घनघनाते रह जाते हैं

नवाते हैं सिर

करते हैं दण्डवत प्रणाम।

हर दिन

किसी नये रूप को आकार देते हैं

नये-नये नाम देते हैं,

पुकारते हैं

आह्वान करते हैं,

पर नहीं मिलता,

नहीं देता दिखाई।

पर हम ही

समझ नहीं पाये आज तक

कि वह

सुनता है सबकी,

बिना किसी आडम्बर के।

घूमता है हमारे आस-पास

अनेक रूपों में, चेहरों में

अपने-परायों में।

थाम रखा है हाथ

बस हम ही समझ नहीं पाते

कि कहीं

हमारे भीतर ही बसता है वह।

सोच हमारी लूली-लंगड़ी

विचार हमारे भटक गये

सोच हमारी लूली-लंगड़ी

टांग उठाकर भाग लिए

पीठ मोड़कर चल दिये

राह छोड़कर चल दिये

राहों को हम छोड़ चले

चिन्तन से हम भाग रहे

सोच-समझ की बात नहीं

सब मिल-जुलकर यही करें

गलबहियां डालें घूम रहे

सत्य से हम भाग रहे

बोल हमारे कुंद हुए

पीठ पर हम वार करें

बच-बचकर चलना आ गया

दुनिया कुछ भी कहती रहे

पीठ दिखाना आ गया

बच-बचकर रहना आ गया।

चरण-चिन्ह हम छोड़ रहे

पीछे-पीछे जग आयेगा