जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर

किसी छैनी हथौड़ी के प्रहार से नहीं तराशे जाते हैं ये पत्थर

प्रकृति के प्यार मनुहार, धार धार से तराशे जाते हैं ये पत्थर

यूं तो  ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर-निखर जाता है

इस संतुलन को निहारती हूं तो जीवन डांवाडोल दिखाई देता है
मैं भाव-संतुलन नहीं कर पाती, जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर

देखो तो सूर्य भी निहारता है जब आकार ले लेते हैं ये पत्थर 

छोड़ के देख घूंट

कभी शाम ढले घर लौट, पर छोड़ के लालच के दो घूंट

द्वार पर टिकी निहारती दो आंखें हर पल पीती हैं दो घूंट

डरते हैं, रोते भी हैं पर  महकते भी हैं तेरी बगिया में फूल।

जिन्दगी सुहानी है हाथ की तेरे बात है बस छोड़ के देख घूंट।

 

रे मन अपने भीतर झांक

सागर से गहरे हैं मन के भाव, किसने पाई थाह

सीपी में मोती से हैं मन के भाव, किसने पाई थाह

औरों के चिन्तन में डूबा है रे मन अपने भीतर झांक

जीवन लभ्य हो जायेगा जब पा लेगा अपने मन की थाह

चांद को पाल पर बांध लिया

चांद को पाल पर बांध लिया है, ज़रा मेरी हिम्मत देखो

ध्वज फहराया है सागर बीच, ज़रा मैंने मेरी हिम्मत देखो

न आंधियां न तूफान न ज्वार भाटा न भंवर रोकती है मुझे

बांध कर सबको पाल में बहती हूं अनवरत,ज़रा मेरी हिम्मत देखो

इस जग की आपा-धापी में

उलट-पलट कर चित्र को देखो तो, डूबे हैं दोनों ही जल में

मेरी छोड़ो मैं तो डूबी, तुम उतरो ज़रा जग के प्रांगण में

इस जग की आपा-धापी में मेरे संग जीकर दिखला दो तो

गैया,मैया,दूध,दहीं,चरवाहे,माखन,भूलोगे सब पल भर में

 

जल की बूंदों का आचमन कर लें

सावन की काली घटाएं मन को उजला कर जाती हैं
सावन की झड़ी मन में रस-राग-रंग भर जाती है
पत्तों से झरते जल की बूंदों का आचमन कर लें
सावन की नम हवाएं परायों को अपना कर जाती हैं

ये त्योहार

ये त्योहार रोज़ रोज़, रोज़ रोज़ आयें

हम मेंहदी लगाएं वे ही रोटियां बनाएं

चूड़ियां, कंगन, हार नित नवीन उपहार

हम झूले पर बैठें वे संग झूला झुलाएं

 

कथा प्रकाश की

बुझा भी दोगे इस दीप की लौ को, प्रतिच्छाया मिटा न पाओगे

बूंद बूंद में लिखी जा चुकी है कथा प्रकाश की, मिटा न पाओगे

कांच की दीवार के आर हो या पार, सत्य तो सुरभित होकर रहेगा

बाती और धूम्र पहले ही लिख चुके इतिहास को, मिटा न पाओगे

कृष्ण आजा चक्र अपना लेकर

आज तेरी राधा आई है तेरे पास बस एक याचना लेकर

जब भी धरा पर बढ़ा अत्याचार तू आया है अवतार लेकर

काल कुछ लम्बा ही खिंच गया है हे कृष्ण ! अबकी बार

आज इस धरा पर तेरी है ज़रूरत, आजा चक्र अपना लेकर

विश्वास का एहसास

र दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में

हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में

कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते

इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में

मदमस्त जिये जा

जीवन सरल सहज है बस मस्ती में जिये जा

सुख दुख तो आयेंगे ही घोल पताशा पिये जा

न बोल, बोल कड़वे, हर दिन अच्छा बीतेगा

अमृत गरल जो भी मिले हंस बोलकर लिये जा

कौन क्या कहता है भूलकर मदमस्त जिये जा

 

निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था

माखन की हांडी ले बैठे रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था

बस राधे राधे रटते रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था

निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था गीता में उसको कैसे भूले तुम

पत्थर गढ़ गढ़ मठ मन्दिर में बैठे रहना, ऐसा मैंने कब बोला था

द्वार खुले हैं तेरे लिए

विदा तो करना बेटी को किन्तु कभी अलविदा न कहना

समाज की झूठी रीतियों के लिए बेटी को न पड़े कुछ सहना

खीलें फेंकी थीं पीठ पीछे छूट गया मेरा मायका सदा के लिए

हर घड़ी द्वार खुले हैं तेरे लिए,उसे कहना,इस विश्वास में रहना

अपने कदम बढ़ाना

किसी के कदमों के छूटे निशान न कभी देखना

अपने कदम बढ़ाना अपनी राह आप ही देखना

शिखर तक पहुंचने के लिए बस चाहत ज़रूरी है

अपनी हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक देखना

हिन्दी की हम बात करें

शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें

हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने

विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का

वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें

ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक

वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है

शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है

ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया

शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया

शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया

जीवन की नश्वरता का सार

अंगुलियों से छूने की कोशिश में भागती हैं ये ओस की बूंदें

पत्तियों पर झिलमिलाती, झूला झूलती हैं ये ओस की बूंदें

जीवन की नश्वरता का सार समझा जाती हैं ये ओस की बूंदें

मौसम बदलते ही कहीं लुप्त होने लगती हैं ये ओस की बूंदे

क्षणिक तृप्ति हेतु

घाट घाट का पानी पीकर पहुंचे हैं इस ठौर

राहों में रखते थे प्याउ, बीत गया वह दौर

नीर प्रवाह शुष्क पड़े, जल बिन तरसे प्राणी

क्षणिक तृप्ति हेतु कृत्रिम सज्जा का है दौर

वसुधैव कुटुम्बकम्

एक आस हो, विश्वास हो, बस अपनेपन का भास हो

न दूरियां हो, न संदेह की दीवार, रिश्तों में उजास हो

जीवन जीने का सलीका ही हम शायद भूलने लगे हैं

नि:स्वार्थ, वसुधैव कुटुम्बकम् का एक तो प्रयास हो

आज भी वहीं के वहीं हैं हम

कहां छूटा ज़माना पीछे, आज भी वहीं के वहीं हैं हम

न बन्दूक है न तलवार दिहाड़ी पर जा रहे हैं हम

नज़र बदल सकते नहीं किसी की कितनी भी चाहें

ये आत्म रक्षा नहीं जीवन यापन का साधन लिए हैं हम

स्वप्न हों साकार

तुम बरसो, मैं थाम लूं मेह की रफ्तार

न कहीं सूखा हो न धरती बहे धार धार

नदी, कूप, सर,निर्झर सब हों अमृतमय

शस्यश्यामला धरा पर स्वप्न  हों साकार

आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन

झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है

न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है

इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये

और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है

थक गई हूं इस बनावट से

जीवन में
और भी बहुत रोशनियां हैं
ज़रा बदलकर देखो।
सजावट की
और भी बहुत वस्तुएं हैं
ज़रा नज़र हटाकर देखो।
प्रेम, प्रीत, अश्रु, सजन
विरह, व्यथा, श्रृंगार,
इन सबसे हटकर
ज़रा नज़र बदलकर देखो,
थक गई हूं
इस बनावट से
ज़रा मुझे भी
आम इंसान बनाकर देखो।

पाषाणों में पढ़ने को मिलती हैं

वृक्षों की आड़ से

झांकती हैं कुछ रश्मियां

समझ-बूझकर चलें

तो जीवन का अर्थ

समझाती हैं ये रश्मियां

मन को राहत देती हैं

ये खामोशियां

जीवन के एकान्त को

मुखर करती हैं ये खामोशियां

जीवन के उतार-चढ़ाव को

समझाती हैं ये सीढ़ियां

दुख-सुख के पल आते-जाते हैं

ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां

पाषाणों में

पढ़ने को मिलती हैं

जीवन की अनकही कठोर दुश्वारियां

समझ सकें तो समझ लें

हम ये कहानियां

अपनेपन से बात करती

मन को आश्वस्त करती हैं

ये तन्हाईयां

अपने लिए सोचने का

समय देती हैं ये तन्हाईयां

और जीवन में

आनन्द दे जाती हैं

छू कर जातीं

मौसम की ये पुरवाईयां

जब बजता था डमरू

कहलाते शिव भोले-भाले थे 
पर गरल उन्होंने पिया था
नरमुण्डों की माला पहने,
विषधर उनके आभूषण थे 
भूत-प्रेत-पिशाच संगी-साथी
त्रिशूल हाथ में लिया था
त्रिनेत्र खोल जब बजता था डमरू 
तीनों लोकों के दुष्टों का 
संहार उन्होंने किया था
चन्द्र विराज जटा पर,
भागीरथी को जटा में रोक
विश्व को गंगामयी किया था। 
भांग-धतूरा सेवन करते
भभूत लगाये रहते थे।
जग से क्‍या लेना-देना
सुदूर पर्वत पर रहते थे।
 *     *     *     *
अद्भुत थे तुम शिव
नहीं जानती 
कितनी कथाएं सत्य हैं
और कितनी कपोल-कल्पित 
किन्तु जो भी हैं बांधती हैं मुझे। 
*      *     *     *     *
तुम्हारी कथाओं से
बस 
तुम्हारा त्रिनेत्र, डमरू 
और त्रिशूल चाहिए मुझे
शेष मैं देख लूंगी ।

संधान करें अपने भीतर के शत्रुओं का

ऐसा क्यों होता है

कि जब भी कोई गम्भीर घटना

घटती है कहीं,

देश आहत होता है,

तब हमारे भीतर

देशभक्ति की लहर

हिलोरें  लेने लगती है,

याद आने लगते हैं

हमें वीर सैनिक

उनका बलिदान

देश के प्रति उनकी जीवनाहुति।

हुंकार भरने लगते हैं हम

देश के शत्रुओं के विरूद्ध,

बलिदान, आहुति, वीरता

शहीद, खून, माटी, भारत माता

जैसे शब्द हमारे भीतर खंगालने लगते हैं

पर बस कुछ ही दिन।

दूध की तरह

उबाल उठता है हमारे भीतर

फिर हम कुछ नया ढूंढने लगते हैं।

और मैं

जब भी लिखना चाहती हूं

कुछ ऐसा, 

नमन करना चाहती हूं

देश के वीरों को

बवंडर उठ खड़ा होता है

मेरे चारों ओर

आवाज़ें गूंजती हैं,

पूछती हैं मुझसे

तूने क्या किया आज तक

देश हित में ।

वे देश की सीमाओं पर

अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं

और तुम यहां मुंह ढककर सो रहे हो।

तुम संधान करो उन शत्रुओं का

जो तुम्हारे भीतर हैं।

शत्रु और भी हैं देश के

जिन्हें पाल-पोस रहे हैं हम

अपने ही भीतर।

झूठ, अन्याय के विरूद्ध

एक छोटी-सी आवाज़ उठाने से डरते हैं हम

भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी अनैतिकता

के विरूद्ध बोलने का

हमें अभ्यास नहीं।

काश ! हम अपने भीतर बसे

इन शत्रुओं का दमन कर लें

फिर कोई बाहरी शत्रु

इस देश की ओर

आंख उठाकर नहीं देख पायेगा।

काश ! हम कोई शिला होते

पत्थरों में प्यार तराशते हैं

और जिह्वा को कटार बनाये घूमते हैं।

छैनी जब रूप-आकार तराशती है

तब एक संसार आकार लेता है।

तूलिका जब रंग बिखेरती है

तब इन्द्रधनुष बिखरते हैं।

किन्तु जब हम

अन्तर्मन के भावों को

रूप-आकार, रंगों का संसार

देने लगते हैं,

सम्बन्धों को तराशने लगते हैं

तब न जाने कैसे

छैनी-हथौड़े

तीखी कटार बन जाते हैं,

रंग उड़ जाते हैं

सूख जाते हैं।

काश हम भी

वास्तव में ही कोई शिला होते

कोई तराशता हमें,

रूप-रंग-आकार देता

स्नेह उंडेलता

कोई तो कृति ढलती,

कोई तो आकृति सजती।

कौन जाने

फिर रंग भी रंगों में आ जाते

और छैनी-हथौड़ी भी

सम्हल जाते।

 

वर्षा ऋतु पर हाईकू

पानी बरसा

चांद-सितारे डूबे

गगन हंसा

*********

पानी बरसा

धरती भीगी-भीगी

मिट्टी महकी

***********

पानी बरसा

अंकुरण हैं फूटे

पुष्प महके

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पानी बरसा

बूंद-बूंद टपकती

मन हरषा

************

पानी बरसा

अंधेरा घिर आया

चिड़िया फुर्र

**************

पानी बरसा

मन है आनन्दित

तुम ठिठुरे

खैरात में मिले, नाम बाप के मिले

शिक्षा की मांग कीजिए, प्रशिक्षण की मांग कीजिए, तभी बात बन पायेगी

खैरात में मिले, नाम  बाप के मिले, कोई नौकरी, न बात कभी बन पायेगी

मन-मन्दिर में न अपनेपन की, न प्रेम-प्यार की, न मधुर भाव की रचना है

द्वेष-कलह,वैर-भाव,मार-काट,लाठी-बल्लम से कभी,कहीं न बात बन पायेगी

एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में

एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में

मेरे दिमाग में।

आपसे आज साझा करना चाहती हूं।

असमंजस में रहती हूं।

बात कुछ और चल रही होती है

और मैं कुछ और अर्थ निकाल लेती हूं।

अब आज की ही बात लीजिए।

नवरात्रों में

मां की चुनरी की बात हो रही थी

और मुझे होलिका की याद हो आई।

अब आप इसे मेरे दिमाग की भटकन ही तो कहेंगे।

लेकिन मैं क्या कर सकती हूं।

जब भी चुनरी की बात उठती है

मुझे होलिका जलती हुई दिखाई देती है,

और दिखाई देती है उसकी उड़ती हुई चुनरी।

कथाओं में पढ़ा है

उसके पास एक वरदान की चुनरी थी ।

शायद वैसी ही कोई चुनरी

जो हम कन्याओं का पूजन करके

उन्हें उढ़ाते हैं और आशीष देते हैं।

किन्तु कभी देखा है आपने

कि इन कन्याओं की चुनरी कब, कहां

और कैसे कैसे उड़ जाती है।

शायद नहीं।

क्योंकि ये सब किस्से कहानियां

इतने आम हो चुके हैं

कि हमें इसमें कुछ भी अनहोनी नहीं लगती।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से

और आपने रोका नहीं मुझे।

बात तो माता की चुनरी और

होलिका की चुनरी की कर रही थी

और मैं कहां कन्या पूजन की बात कर बैठी।

फिर लौटती हूं अपनी बात की आेर,

पता नहीं होलिका मां थी या नहीं।

किन्तु एक भाई की बहिन तो थी ही

और एक कन्या

जिसने भाई की आज्ञा का पालन किया था।

उसके पास एक वरदानमयी चुनरी थी।

और था एक अत्याचारी भाई।

शायद वह जानती भी नहीं थी

भाई के अत्याचारों, अन्याय को

अथवा प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति को।

और अपने वरदान या श्राप को।

लेकिन उसने एक बुरी औरत बनकर

बुरे भाई की आज्ञा का पालन किया।

अग्नि देवता आगे आये थे

प्रह्लाद की रक्षा के लिए।

किन्तु होलिका की चुनरी न बचा पाये,

और होलिका जल मरी।

वैसे भी चुनरी की आेर

किसी का ध्यान ही कहां जाता है

हर पल तो उड़ रही हैं चुनरियां।

और हम !

हमारे लिए एक पर्व हो जाता है

एक औरत जलती है

उसकी चुनरी उड़ती है और हम

आग जलाकर खुशियां मनाते हैं।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से

और आपने रोका नहीं मुझे।

अब आग तो बस आग होती है

जलाती है

और जिसे बचाना हो बचा भी लेती है।

अब देखिए न, अग्नि देव ले आये थे

सीता को ले आये थे सुरक्षित बाहर,

पवित्र बताया था उसे।

और राम ने अपनाया था।

किन्तु कहां बच पाई थी उसकी भी चुनरी

घर से बेघर हुई थी अपमानित होकर

फिर मांगा गया था उससे पवित्रता का प्रमाण।

और वह समा गई थी धरा में

एक आग लिए।

कहते हैं धरा के भीतर भी आग है।

आग मेरे भीतर भी धधकती है।

देखिए, मैं फिर भटक गई बात से

और आपने रोका नहीं मुझे।