नयनों में घिर आये बादल
धूप खिली, मौसम खुशनुमा, घूम रहे बादल
हवाएं चलीं-चलीं, गगन पर छितराए बादल
कुछ बूंदें बरसी, मन महका-बहका-पगला
तुम रूठे, नयनों में गहरे घिर आये बादल
स्मृतियों के धुंधलके से
कुछ स्मृतियों को
जीवन्त रखने के लिए
दीवारों पर
टांग देते हैं कुछ चित्र।
धीरे-धीरे
चेहरे धुंधलाने लगते हैं
यादें स्याह होने लगती हैं।
कभी जाले लग जाते हैं।
भूलवश
कभी छू देते है हाथ से
तब मिट्टी झरने लगती है,
तब अजब सी स्थितियां हो जाती हैं।
कभी तो चेहरे ही गायब !
कभी बदल कर
आगे-पीछे हो चुके होते हैं
कुछ चित्रों से बाहर निकलकर
गले मिलना चाहते हैं
आंसू बहाते हैं
और कुछ एकाएक भागने लगते हैं
मानों पीछा छुड़ाकर।
और कुछ अजनबी से चेहरे
बहुत बोलते हैं, यादें दिलाते हैं
प्रश्न करते हैं, कुछ पूछते हैं
कुछ कहते हैं, कुछ सुनाते हैं
अक्सर आवाजें नहीं छूती हमें
असली चेहरे
हमारी पहचान में आते नहीं
अनुमान हम लगा पाते नहीं ।
तब हम उन धुंधलाते चित्रों को
दीवार से उतारकर
कोने में
सहेज देते हैं
फिर धीरे-धीरे वे
दरवाजे से बाहर होने लगते हैं]
और हम परेशान रहते हैं
चित्र के स्थान पर पड़े निशान को
कैसे ढंकें।
बूंदें कुछ कह जाती हैं
बूंदें कुछ कह जाती हैं
मुझको
सहला-सहला जाती हैं
हंस-हंस कह रहीं
जी ले, जी ले,
रंग-बिरंगी दुनिया
रंग-बिरंगी सोच
उड़ ले, उड़ ले
टप-टप गिरती बूंदें
छप-छपाक-छप
छप-छपाक-छप
खिल-खिल-खिल हंसती
इधर-उधर
मचल-मचलकर
उछल-उछलकर
हंस-हंस बतियाती
कुछ कहती मुझसे
लुढ़क-लुढ़क कर
मस्त-मस्त
पत्ता-पत्ता, डाली-डाली
घूम रहीं,
कानों में कुछ कह जातीं
मैं मुस्का कर रह जाती
हरियाली को छू रहीं
कहीं छुपन-छुपन खेल रहीं,
कब आईं
और कब जायेंगी
देखो-देखो धूप खिली
पकड़ो बूंदें
भागी-भागी
‘गर किसी पर न हो मरना तो जीने का मजा क्या
कुछ यूं बात हुई
उनसे आंखें चार हुईं
दिल, दिल से छू गया
कहां-कहां से बात हुई
कुछ हम न समझे
कुछ वे न समझे
कुछ हम समझे
और कुछ वे समझे
कभी नींद उड़ी
कभी दिन में तारे चमके
कभी सपनों ही सपनों में बात हुई
बहके-बहके भाव चले
आंखों ही आंखों में कुछ बात हुई
उम्र हमारी साठ हुई
मिलने लगे कुछ उलाहने
सुनने में आया
ये क्या कर बैठे
हम तो उन पर मर बैठे
ये भी क्या बात हुई
जी हां,
हमने उनको समझाया
‘गर किसी पर
न हो मरना
तो
जीने का मजा क्या
यादों के उजाले नहीं भाते
यादों के उजाले
नहीं भाते।
घिर गये हैं
आज के अंधेरों में।
गहराती हैं रातें।
बिखरती हैं यादें।
सिहरती हैं सांसें
नहीं सुननी पुरानी बातें।
बिखरते हैं एहसास।
कहता है मन
नहीं चाहिए यादें।
बस आज में ही जी लें।
अच्छा है या बुरा
बस आज ही में जी लें।
पूजा में हाथ जुड़ते नहीं
पूजा में हाथ जुड़ते नहीं,
आराधना में सिर झुकते नहीं।
मंदिरों में जुटी भीड़ में
भक्ति भाव दिखते नहीं।
पंक्तियां तोड़-तोड़कर
दर्शन कर रहे,
वी आई पी पास बनवा कर
आगे बढ़ रहे।
पण्डित चढ़ावे की थाली देखकर
प्रसाद बांट रहे,
फिल्मी गीतों की धुनों पर
भजन बज रहे,
प्रायोजित हो गई हैं
प्रदर्शन और सजावट
बन गई है पूजा और भक्ति,
शब्दों से लड़ते हैं हम
इंसानियत को भूलकर
जी रहे।
सच्चाई की राह पर हम चलते नहीं।
इंसानियत की पूजा हम करते नहीं।
पत्थरों को जोड़-जोड़कर
कुछ पत्थरों के लिए लड़ मरते हैं।
पर किसी डूबते को
तिनका का सहारा
हम दे सकते नहीं।
शिक्षा के नाम पर पाखण्ड
बांटने से कतराते नहीं।
लेकिन शिक्षा के नाम पर
हम आगे आते नहीं।
कैसे बढ़ेगा देश आगे
जब तक
पिछले कुछ किस्से भूलकर
हम आगे आते नहीं।
कांटों की चुभन
बात पुरानी हो गई जब कांटों से हमें मुहब्बत न थी
एक कहानी हो गई जब फूलों की हमें चाहत तो थी
काल के साथ फूल खिल-खिल बिखर गये बदरंग
कांटों की चुभन आज भी हमारे दिल में बसी क्यों थी
कांटों से मुहब्बत हो गई
समय बदल गया हमें कांटों से मुहब्बत हो गई
रंग-बिरंगे फूलों से चाहत की बात पुरानी हो गई
कहां टिकते हैं अब फूलों के रंग और अदाएं यहां
सदाबहार हो गये अब कांटें, बस इतनी बात हो गई
जिन्दगी में दोस्त आप ही ढूंढने पड़ते हैं
उपर वाला
बहुत रिश्ते बांधकर देता है
लेकिन कहता है
कुछ तो अपने लिए
आप भी मेहनत कर
इसलिए जिन्दगी में
दोस्त आप ही ढूंढने पड़ते हैं
लेकिन कभी-कभी उपरवाला भी
दया दिखाता है
और एक अच्छा दोस्त झोली में
डालकर चला जाता है
लेकिन उसे समझना
और पहचानना आप ही पड़ता है।
कब क्या कह बैठती हूं
और क्या कहना चाहती हूं
अपने-आप ही समझ नहीं पाती
शब्द खिसकते है
कुछ अर्थ बनते हैं
भाव संवरते हैं
और कभी-कभी लापरवाही
अर्थ को अनर्थ बना देती है
सब कहते हैं मुझे
कम बोला कर, कम बोला कर
पर न जाने कितने दिन रह गये हैं
जीवन के बोलने के लिए
मन करता है
जी भर कर बोलूं
बस बोलती रहूं , बस बोलती रहूं
लेकिन ज्यादा बोलने की आदत
बहुत बार कुछ का कुछ
कहला देती है
जो मेरा अभिप्राय नहीं होता
लेकिन
जब मैं आप ही नहीं समझ पाती
तो किसी और को
कैसे समझा सकती हूं
किन्तु सोचती हूं
मेरे मित्र
मेरे भाव को समझोगे
हास-परिहास को समझोगे
न कि
शब्दों का बुरा मान जाओगे
उलझन को सुलझा दोगे
कान खींचोंगे मेरे
आंख तरेरोगे
न कोई
लकीर बनने दोगे अनबन की।
कई बार यूं ही
खिंची लकीर भी
गहरी होती चली जाती है
फिर दरार बनती है
उस पर दीवार चिनती है
इतना होने से पहले ही
सुलझा लेने चाहिए
बेमतलब मामले
तुम मेरे कान खींचो
और मै तुम्हारे
काश! यह दुनिया कोई सपना होती
काश!
यह दुनिया कोई सपना होती,
न तेरी होती न मेरी होती।
न किस्से होते
न कोई कहानी होती।
न झगड़ा, न लफ़ड़ा।
न मेरा न तेरा,
ये दुनिया कितनी अच्छी होती।
न जात-पात,
न धर्म-कर्म, न भेद-भाव।
आकाश भी अपना,
जमीन भी अपनी होती,
बहक-बहक कर,
चहक-चहक कर,
दिन-भर मीठे गीत सुनाते।
रात-रात भर
तारों संग
टिम-टिम-टिम-टिम घूमा करते,
सबका अपना चंदा होता,
चांदनी से न कोई शिकायत होती।
सब कुछ अपना-अपना लगता।
काश!
यह दुनिया कोई सपना होती,
न तेरी होती न मेरी होती।
कुछ सपने बोले थे कुछ डोले थे
कागज की कश्ती में
कुछ सपने थे
कुछ अपने थे
कुछ सच्चे, कुछ झूठ थे
कुछ सपने बोले थे
कुछ डोले थे
कुछ उलझ गये
कुछ बिखर गये
कुछ को मैंने पानी में छोड़ दिया
कुछ को गठरी में बांध लिया
पानी में कश्ती
इधर-उधर तिरती
हिलती
हिचकोले खाती
कहती जाती
कुछ टूटेंगे
कुछ नये बनेंगे
कुछ संवरेंगे
गठरी खुल जायेगी
बिखर-बिखर जायेगी
डरना मत
फिर नये सपने बुनना
नई नाव खेना
कुछ नया चुनना
बस तिरते रहना
बुनते रहना
बहते रहना
स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार
नित परखें हम आचार-विचार
औरों की सोच पर करते प्रहार
अपने भाव परखते नहीं हम कभी
स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार
खाली कागज़ पर लकीरें खींचता रहता हूं मैं
खाली कागज पर लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
यूं तो
अपने दिल का हाल लिखती हूं,
पर सुना नहीं सकती
इस जमाने को,
इसलिए कह देती हूं
यूं ही
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
जब कोई देख लेता है
मेरे कागज पर
उतरी तुम्हारी तस्वीर,
पन्ना पलट कर
कह देती हूं,
यूं ही
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर
लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
कोई गलतफहमी न
हो जाये किसी को
इसलिए
दिल का हाल
कुछ लकीरों में बयान कर
यूं ही
खाली कागज पर
लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
पर समझ नहीं पाती,
यूं ही
कागज पर खिंची खाली लकीरें
कब रूप ले लेती हैं
मन की गहराईयों से उठी चाहतों का
उभर आती है तुम्हारी तस्वीर ,
डरती हूं जमाने की रूसवाईयों से
इसलिए
अब खाली कागज पर लकीरें
भी नहीं खींचती हूं मैं।
मन उदास-उदास क्यों है
हवाएं बहक रहीं
मौसम सुहाना है
सावन में पंछी कूक रहे
वृक्षों पर
डाली-डाली
पल्लव झूम रहे
कहीं रिमझिम-रिमझिम
तो कहीं फुहारें
मन सरस-सरस
कोयल कूके
पिया-पिया
मैं निहार रही सूनी राहें
कब लौटोगे पिया
और तुम पूछ रहे
मन उदास-उदास क्यों है ?
सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी।
कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे
आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।
तरल-तरल भाव सी
बहकती है ज़िन्दगी।
राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी।
चलें हिल-मिल
कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी।
किसी और से क्या लेना,
जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी।
आज भीग ले अन्तर्मन,
कदम-दर-कदम
मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी।
राहें सूनी हैं तो क्या,
तुम साथ हो
तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
आगे बढ़ते रहें
तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी।
तिनके का सहारा
कभी किसी ने कह दिया
एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है,
किस्मत साथ दे
तो सीखा हुआ
ककहरा भी बहुत होता है।
लेकिन पुराने मुहावरे
ज़िन्दगी में साथ नहीं देते सदा।
यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को
यूं ही लांघ जाता है आदमी,
लेकिन कभी-कभी एक तिनके की चोट से
घायल मन
हर आस-विश्वास खोता है।
कुछ कह रही ओस की बूंदे
रंग-बिरंगी आभाओं से सजकर रवि हुआ उदित
चिड़ियां चहकीं, फूल खिले, पल्लव हुए मुदित
देखो भाग-भागकर कुछ कह रही ओस की बूंदे
इस मधुर भाव में मन क्यों न हो जाये प्रफुल्लित
इक नल लगवा दे भैया
कहां है अब पनघट
कहां है अब कृष्ण कन्हैया
क्यो इन सबमें
अब उलझा है मन दैया
इतना ही है तू
कृष्ण कन्हैया
तो मेरे घर में
इक नल लगवा दे भैया।
युग बदल गया
तू भी अपना यह वेश बदल,
न छेड़ बैठना किसी को
गोपी समझ के
कारागार के द्वार खुले हैं दैया।
गीत-संगीत सब बदल गये
रास-बिहारी खिसक गये
ढोल की ताल अब बहक गई
रास-बिहारी चले गये
किचन में कितना काम पड़ा है मैया
इतना ही है तू
कृष्ण कन्हैया
तो अपनी अंगुली से
मेरे घर के सारे काम
करवा दे रे भैया।
हाय-हैल्लो मत कहना
यूं क्यों ताड़ रहा है
टुकुर-टुकुर तू मुझको
मम्मी ने मेरी बोला था
किसी लफड़े में मत आ जाना
रूप बदलकर आये कोई
कहे मैं कान्हा हूं
उसको यूं ही
हाय-हैल्लो मत कहना
देख-देख मैं कितनी सुन्दर
कितने अच्छे मेरे कपड़े
हाअअ!!
तेरी मां ने तुझको कैसे भेजा
हाअअ !!
हाय-हाय, मैं शर्म से मरी जा रही
तेरी कुर्ती क्या मां ने धो दी थी
जो तू यूं ही चला आया
हाअअ!!
जा-जा घर जा
अपनी कुर्ती पहनकर आ
फिर करना मुझसे बात।
निशा पड़ाव पल भर
निशा !
दिन भर के थके कदमों का
पड़ाव पल भर।
रोशनी से शुरू होकर
रोशनी तक का सफ़र।
सूर्य की उष्मा से राहत
पल भर।
चांद की शीतलता का
मधुर हास।
चमकते तारों से बंधी आस।
-अंधेरा छंटेगा।
फिर सुबह होगी।
नई सुबह।
यह सफ़र जारी रहेगा।
परिवर्तन नित्य है
सन्मार्ग पर चलने के लिए रोशनी की बस एक किरण ही काफ़ी है
इरादे नेक हों, तो, राही दो हों न हों, बढ़ते रहें, इतना ही काफ़ी है
सूर्य अस्त होगा, रात आयेगी, तम भी फैलेगा, संगी साथ छोड़ देंगे,
तब भी राह उन्मुक्त है, परिवर्तन नित्य है, इतना जानना ही काफ़ी है
छनक-छन तारे छनके
ज़रा-सा मैंने हाथ बढ़ाया, नभ मेरे हाथ आया
छनक-छनक-छन तारे छनके, चंदा भी मुस्काया
सूरज की गठरी बांधी, सपनों की सीढ़ी तानी
इन्द्रधनुष ने रंग बिखेरे, मनमोहक चित्र बनाया
बदली के पीछे से कुछ बूंदे निकली, मन भरमाया
हां हूं मैं बगुला भक्त
यह हमारी कैसी प्रवृत्ति हो गई है
कि एक बार कोई धारणा बना लेते हैं
तो बदलते ही नहीं।
कभी देख लिया होगा
किसी ने, किसी समय
एक बगुले को, एक टांग पर खड़ा
मीन का भोजन ढूंढते
बस उसी दिन से
हमने बगुले के प्रति
एक नकारात्मक सोच तैयार कर ली।
बीच सागर में
एक टांग पर खड़ा बगुला
इस विस्तृत जल राशि
को निहार रहा है
एकाग्रचित्त, वासी,
अपने में मग्न ।
सोच रहा है
कि जानते नहीं थे क्या तुम
कि जल में मीन ही नहीं होती
माणिक भी होते हैं।
किन्तु मैंने तो
अपनी उदर पूर्ति के लिए
केवल मीन का ही भक्षण किया
जो तुम भी करते हो।
माणिक-मोती नहीं चुने मैंने
जिनके लिए तुम समुद्र मंथन कर बैठते हो।
और अपने भाईयों से ही युद्ध कर बैठते हो।
अपने ही भ्राताओं से युद्ध कर बैठे।
किसी प्रलोभन में नहीं रहा मैं कभी।
बस एक आदत सी थी मेरी
यूं ही खड़ा होना अच्छा लगता था मुझे
जल की तरलता को अनुभव करता
और चुपचाप बहता रहता।
तुमने भक्त कहा मुझे
अच्छा लगा था
पर जब इंसानों की तुलना के लिए
इसे एक मुहावरा बना दिया
बस उसी दिन आहत हुआ था।
पर अब तो आदत हो गई है
ऐसी बातें सुनने की
बुरा नहीं मानता मैं
क्योंकि
अपने आप को भी जानता हूं
और उपहास करने वालों को भी
भली भांति पहचानता हूं।
चैन से सो लेने दो
अच्छे-भले मुंह ढककर सो रहे थे यूं ही हिला हिलाकर जगा दिया
अच्छा-सा चाय-नाश्ता कराओं खाना बनाओ, हुक्म जारी किया
अरे अवकाश हमारा अधिकार है, चैन से सो लेने दो, न जगाओ
नींद तोड़ी हमारी तो मीडिया बुला लेंगे हमने बयान जारी किया
अपनी हिम्मत से जीते हैं
बस एक दृढ़ निश्चय हो तो राहें उन्मुक्त हो ही जाती हैं
लक्ष्य पर दृष्टि हो तो बाधाएं स्वयं ही हट जाती हैं
कौन रोक पाता है उन्हें जो अपनी हिम्मत से जीते हैं
प्रयास करते रहने वालों को मंज़िल मिल ही जाती है
रोशनी की चकाचौंध में
रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम
सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम
तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं
ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम
मानव के धोखे में मत आ जाना
समझाया था न तुझको
जब तक मैं न लौटूं
नीड़ से बाहर मत जाना
मानव के
धोखे में मत आ जाना।
फैला चारों ओर प्रदूषण
कहीं चोट मत खा जाना।
कहां गये सब संगी साथी
कहां ढूंढे अब उनको।
समझाकर गई थी न
सब साथ-साथ ही रहना।
इस मानव के धोखे में मत आ जाना।
उजाड़ दिये हैं रैन बसेरे
कहां बनाएं नीड़।
न फल मिलता है
न जल मिलता है
न कोई डाले चुग्गा।
हाथों में पिंजरे है
पकड़ पकड़ कर हमको
इनमें डाल रहे हैं
कोई अभयारण्य बना रहे हैं,
परिवारों से नाता टूटे
अपने जैसा मान लिया है।
फिर कहते हैं, देखो देखो
हम जीवों की रक्षा करते हैं।
चलो चलो
कहीं और चलें
इन शहरों से दूर।
करो उड़ान की तैयारी
हमने अब यह ठान लिया है।
अपनापन आजमाकर देखें
चलो आज यहां ही सबका अपनापन आजमाकर देखें
मेरी तुकबन्दी पर वाह वाह की अम्बार लगाकर देखें
न मात्रा, न मापनी, न गणना, छन्द का ज्ञान है मुझे
मेरे तथाकथित मुक्तक की ज़रा हवा निकालकर देखें
बहके हैं रंग
रंगों की आहट से खिली खिली है जिन्दगी
अपनों की चाहत से मिली मिली है जिन्दगी
बहके हैं रंग, चहके हैं रंग, महके हैं रंग,
रंगों की रंगीनियों से हंसी हंसी है जिन्दगी
अस्त्र उठा संधान कर
घृणा, द्वेष, हिंसा, अपराध, लोभ, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता के रावण बहुत हैं।
और हम हाथ जोड़े, बस राम राम पुकारते, दायित्व से भागते, सयाने बहुत हैं।
न आयेंगे अब सतयुग के राम तुम्हारी सहायता के लिए इन का संधान करने।
अपने भीतर तलाश कर, अस्त्र उठा, संधान कर, साहस दिखा, रास्ते बहुत हैं।