जिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल
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हम तो रह गये पांच जमाती

क्या बतलाएं आज अपनी पीड़ा, टीचर मार-मार रही पढ़ाती

घर आने पर मां कहती गृह कार्य दिखला, बेलन मार लिखाती

पढ़ ले, पढ़ ले,कोई कहता टीचर बन ले, कोई कहता डाक्टर

नहीं ककहरा समझ में आया, हम तो रह गये पांच जमाती

अपनी बत्‍ती गुल हो जाती है

बड़ा हर्ष होता है जब दफ्तर में बिजली गुल हो जाती है

काम छोड़ कर चाय-पानी की अच्‍छी दावत हो जाती है

इधर-उधर भटकते, इसकी-उसकी चुगली करते, दिन बीते

काम नहीं, वेतन नहीं, यह सुनकर अपनी बत्‍ती गुल हो जाती है

न इधर मिली न उधर मिली

नहीं जा पाये हम शाला, बाहर पड़ा था गहरा पाला

राह में इधर आई गउशाला, और उधर आई मधुशाला

एक कदम इधर जाता था, एक कदम उधर जाता था

न इधर मिली, न उधर मिली, हम रह गये हाला-बेहाला

अतिथि तुम तिथि देकर आना

शीत बहुत है, अतिथि तुम तिथि देकर आना

रेवड़ी, मूगफ़ली, गचक अच्‍छे से लेकर आना

लोहड़ी आने वाली है, खिचड़ी भी पकनी है

पकाकर हम ही खिलाएंगे, जल्‍दी-जल्‍दी जाना

दुनिया नित नये रंग बदले

इधर केशों ने रंग बदला और उधर सम्बोधन भी बदल गये

कल तक जो कहते थे बहनजी उनके हम अम्मां जी हो गये

दुनिया नित नये रंग बदले, हमने देखा, परखा, भोगा है जी

तो हमने भी केशों का रंग बदला, अब हम आंटी जी हो गये 

सोने की  हैं ये कुर्सियां

सरकार अपनी आ गई है चल अब तोड़ाे जी ये कुर्सियां

काम-धाम छोड़-छाड़कर अब सोने की  हैं जी ये कुर्सियां

पांच साल का टिकट कटा है हमरे इस आसन का

कई पीढ़ियों का बजट बनाकर देंगी देखो जी ये कुर्सियां

मंचों पर बने रहने के लिए

अब तो हमको भी आनन-फ़ानन में कविता लिखना आ गया

बिना लय-ताल के प्रदत्त शीर्षक पर गीत रचना आ गया

जानते हैं सब वाह-वाह करके किनारा कर लेते हैं बिना पढ़े

मंचों पर बने रहने के लिए हमें भी यह सब करना आ गया

कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल

कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल बना रहे हैं राजाजी

हरदम केतली चढ़ा अपनी वीरता दिखा रहे हैं राजाजी

पानी खौल गया, आग बुझी, कभी भड़क गई देखो ज़रा

फीकी, बासी चाय पिला-पिलाकर बहका रहे हैं राजाजी

अच्‍छी नींद लेने के लिए

अच्‍छी नींद लेने के लिए बस एक सरकारी कुर्सी चाहिए

कुछ चाय-नाश्‍ता और कमरे में एक ए सी होना चाहिए

फ़ाईलों को बनाईये तकिया, पैर मेज़ पर ज़रा टिकाईये

काम तो होता रहेगा, टालने का तरीका आना चाहिए

होगा कैसे मनोरंजन

कौन कहे ताक-झांक की आदत बुरी, होगा कैसे मनोरंजन

किस घर में क्या पकता, नहीं पता तो कैसे मानेगा मन

अपने बर्तन-भांडों की खट-पट चाहे सुनाये पूरी कथा

औरों की सीवन उधेड़ कर ही तो मिलता है चैन-अमन

“आपने “कुच्छछ” किया है क्या”
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हांजी बजट बिगड़ गया
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‘गर किसी पर न हो मरना तो जीने का मजा क्या
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इक नल लगवा दे भैया
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चैन से सो लेने दो

अच्छे-भले मुंह ढककर सो रहे थे यूं ही हिला हिलाकर जगा दिया

अच्छा-सा चाय-नाश्ता कराओं खाना बनाओ, हुक्म जारी किया

अरे अवकाश  हमारा अधिकार है, चैन से सो लेने दो, न जगाओ

नींद तोड़ी हमारी तो मीडिया बुला लेंगे हमने बयान जारी किया

अपनापन आजमाकर देखें

चलो आज यहां ही सबका अपनापन आजमाकर देखें

मेरी तुकबन्दी पर वाह वाह की अम्बार लगाकर देखें

न मात्रा, न मापनी, न गणना, छन्द का ज्ञान है मुझे

मेरे तथाकथित मुक्तक की ज़रा हवा निकालकर देखें

 

बताते हैं क्या कीजिए

सुना है ज्ञान, ध्यान, स्नान एक अनुष्ठान है, नियम, काल, भाव से कीजिए

तुलसी-नीम डालिए, स्वच्छ जल लीजिए, मंत्र पढ़िए, राम-राम कीजिए।।

शून्य तापमान, शीतकाल, शीतल जल, काम इतना कीजिए बस चुपचाप

चेहरे को चमकाईए, क्रीम लगाईए, और हे राम ! हे राम ! कीजिए ।।

राधिके सुजान

अपनी तो हाला भी राधिके सुजान होती है

हमारी चाय भी उनके लिए मद्यपान होती है

कहा हमने चलो आज साथ-साथ आनन्द लें बोले

तुम्हारी सात की,हमारी सात सौ की कहां बात होती है

मदमस्त जिये जा

जीवन सरल सहज है बस मस्ती में जिये जा

सुख दुख तो आयेंगे ही घोल पताशा पिये जा

न बोल, बोल कड़वे, हर दिन अच्छा बीतेगा

अमृत गरल जो भी मिले हंस बोलकर लिये जा

कौन क्या कहता है भूलकर मदमस्त जिये जा

 

मुखौटे चढ़ाए बेधड़क घूमते हैं
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लौट गये वे भटके-भटके

जिनको समझी थी मैं भूले-भटके, वे सब निकले हटके-हटके
ज्ञान-ध्यान वे बांट रहे थे, हम अज्ञानी रह गये अटके-अटके
पोथी बांची, कथा सुनाई, फिर दान-धर्म की बात समझाई
हमने भी अपनी कविता कह डाली, लौट गये वे भटके-भटके

मान-सम्मान की आस में

मान-सम्मान की आस में सौ-सौ ग्रंथ लिखकर हम बन-बैठे “कविगण”

स्वयं मंच-सज्जा कर, सौ-सौ बार, करवा रहे इनका नित्य-प्रति विमोचन

नेता हो या अभिनेता, ज्ञानी हो या अज्ञानी कोई फ़र्क नहीं पड़ता

छायाचित्र छप जायें, समाचारों में नाम देखने को तरसें हमरे लोचन

मन की भोली-भाली हूं

डील-डौल पर जाना मत

मुझसे तुम घबराना मत

मन की भोली-भाली हूं

मुझसे तुम कतराना मत

हम सब तो बस बन्दर हैं
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गांधी जी ने ऐसा तो नहीं कहा था
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औकात दिखा दी

ऐसा थोड़े ही होता है कि एक दिन में ही तुमने मेरी औकात गिरा दी

जो कल था आज भी वही, वहीं हूं मैं, बस तुमने अपनी समझ हटा दी

आज गया हूं बस कुछ रूप बदलने, कल लौटूंगा फिर आओगे गले लगाने

एक दिन क्या रोका मुझको,देखा मैंने कैसे तुम्हें,तुम्हारी औकात दिखा द

सिक्के सारे खन-खन गिरते
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हमको छुट्टा दे सरकार
रंजोगम में डूब गये हैं, गोलगप्पे हो गये बीस के चार

कितने खायें, कैसे खायें, नोट मिला है दो हज़ार

कहता है भैया हमसे, सारे खाओ या फिर जाओ

हम ढाई आने के ग्राहक हैं, हमको छुट्टा दे सरकार

तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा
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