मन मिलते हैं

जब हाथों से हाथ जुड़ते हैं

जीवन में राग घुलते हैं
रिश्तों की डोर बंधती है

मन से फिर मन मिलते हैं

 

मन की भोली-भाली हूं

डील-डौल पर जाना मत

मुझसे तुम घबराना मत

मन की भोली-भाली हूं

मुझसे तुम कतराना मत

हम सब तो बस बन्दर हैं

नाचते तो सभी हैं

बस

इतना ही पता नहीं लगता

कि डोरी किसके हाथ में है।

मदारी कौन है और बन्दर कौन।

बहुत सी गलतफहमियां रहती हैं मन में।

खूब नाचते हैं हम

यह सोच कर , कि देखों

कैसा नाच नचाया हमने सामने वाले को।

लेकिन बहुत बाद में पता लगता है कि

नाच तो हम ही रहे थे

और सामने वाला तो तमाशबीन था।

किसके इशारे पर

कब कौन नाचता है

और कौन नचाता है पता ही नहीं लगता।

इशारे छोड़िए ,

यहां तो लोग

उंगलियों पर नचा लेते हैं

और नाच भी लेते हैं।

और भक्त लोग कहते हैं

कि डोरी तो उपर वाले के हाथ में है

वही नचाता है

हम सब तो बस बन्दर हैं।

कुछ कर्म करो

राधा बोली कृष्ण से, चल श्याम वन में, रासलीला के लिए

कृष्ण हतप्रभ, बोले गीता में दिया था संदेश हर युग के लिए

बहुत अवतार लिए, युद्ध लड़े, उपदेश दिये तुम्हें हे मानव!

कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो मेरी आराधना के लिए

सूखी धरती करे पुकार

वातानुकूलित भवनों में बैठकर जल की योजनाएं बनाते हैं

खेल के मैदानों पर अपने मनोरंजन के लिए पानी बहाते हैं

बोतलों में बन्द पानी पी पीकर, सूखी धरती को तर करेंगे

सबको समान सुविधाएं मिलेंगी, सुनते हैं कुछ ऐसा कहते हैं

शोर भीतर की आहटों को

बाहर का शोर

भीतर की आहटों को

अक्सर चुप करवा देता है

और हम

अपने भीतर की आवाज़ों-आहटों को

अनसुना कर

आगे निकल जाते हैं,

अक्सर, गलत राहों पर।

मन के भीतर भी एक शोर है,

खलबली है, द्वंद्व है,

वाद-विवाद, वितंडावाद है

जिसकी हम अक्सर

उपेक्षा कर जाते हैं।

अपने-आप को सुनना ही नहीं चाहते।

कहीं डरते हैं

क्योंकि सच तो वहीं है

और हम

सच का सामना करने से

डरते हैं।

अपने-आप से डरते हैं

क्योंकि

जब भीतर की आवाज़ें

सन्नाटें का चीरती हुई

बाहर निकलेंगी

तब कुछ तो अनघट घटेगा

और हम

उससे ही बचना चाहते हैं

इसीलिए  से डरते हैं।

पांच-सात क्या पी ली

जगती हूं,उठती हूं, फिर सोती हूं,मनमस्त हूं

घड़ी की सूईयों को रोक दिया है, अलमस्त हूं

पूरा दिन पड़ा है कर लेंगे सारे काम देर-सबेर

बस पांच-सात क्या पी ली,(चाय),मदमस्त हूं

चलो, आज बेभाव अपनापन बांटते हैं

किसी की प्यास बुझा सकें तो क्या बात है।

किसी को बस यूं ही अपना बना सकें तो क्या बात है।

जब रह रह कर मन उदास होता है,

तब बिना वजह खिलखिला सकें तो क्या बात है।

चलो आज उड़ती चिड़िया के पंख गिने,

जो काम कोई न कर सकता हो,

वही आज कर लें तो क्या बात है।

चलो, आज बेभाव अपनापन बांटते हैं,

किसी अपने को सच में अपना बना सकें तो क्या बात है।

कहां सीख पाये हैं हम

नयनों की एक बूंद

सागर  के जल से गहरी होती है

ढूंढोगे तो किन्तु

जलराशि जब अपने तटबन्धों को

तोड़ती है

तब भी विप्लव होता है

और जब भीतर ही भीतर

सिमटती है तब भी।

 

कहां सीख पाये हैं हम

सीमाओं में रहना।

जिन्दगी कोई तकरार नहीं है

जिन्दगी गणित का कोई दो दूनी चार नहीं है

गुणा-भाग अगर कभी छूट गया तो हार नहीं है

कभी धूप है तो कभी छांव और कभी है आंधी

सुख-दुख में बीतेगी, जिन्दगी कोई तकरार नहीं है

गुम हो जाये चाबी स्कूल की

 हाथ जोड़कर तुम क्या मांग रहे मुझको कुछ भी नहीं पता

बैठा था गर्मी की छुट्टी की आस में, क्या की थी मैंने खता

मैं तो बस मांगूं एक टी.वी.,एक पी.सी,एक आई फोन 6

और मांगू, गुम हो जाये चाबी स्कूल की, और मेरा बस्ता

मन में एक जंगल है

मन में एक जंगल है

विचारों का, भावों का।

एक झंझावात की तरह आते हैं

अन्तर्मन को झिंझोड़ते हैं,

तहस-नहस करते हैं

और हवा के झोंके के साथ

अचानक

कहीं दूर उड़ जाते हैं।

कभी शब्द दे पाती हूं

और कभी नहीं।

लिखे शब्द पिघलने लगते हैं

आसमानी बादलों की तरह।

कहीं दूर उड़ जाते हैं

पक्षी की तरह।

हर बार एक कही-अनकही

आधी-अधूरी कहानी रह जाती है।

चंदा को जब देखो मनमर्ज़ी करता है

चंदा को मैंने थाम लिया, जब देखो अपनी मनमर्ज़ी करता है

रोज़ रूप बदलता अपने, जब देखो इधर-उधर घूमा करता है

जब मन हो गायब हो जाता है, कभी पूरा, कभी आधा भी

यूं तो दिन में भी आ जायेगा, ईद-चौथ पर तरसाया करता है

 

आंखों में लरजते कुछ सपने देखो

न चूड़ियां देखो, न मेंहदी

न साज-श्रृंगार।

बस, आंखों में लरजते

कुछ सपने देखो।

कुछ पीछे छूट गये ,

कुछ बनते, कुछ सजते

कुछ वादे कुछ यादें।

आधी ज़िन्दगी

इधर थी, आधी उधर है।

पर, सपनों की गठरी

इक ही है।

कुछ बांध लिए, कुछ छिन लिए

कुछ पैबन्द लगे, कुछ गांठ पड़ी

कुछ बिखर गये , कुछ नये बुने

कुछ नये बने।

फिर भी सपने हैं, हैं तो, अपने हैं

कोई देख नहीं पायेगा

इस गठरी को, मन में है।

सपने हैं, जैसे भी हैं

हैं तो बस अपने हैं।

यूं ही पार उतरना है

नैया का क्या करना है, अब तो यूं ही पार उतरना है

कुछ डूबेंगे, कुछ तैरेंगे, सब अपनी हिम्मत से करना है

नहीं खड़ा है अब खेवट कोई, नैया पार लगाने को

जान लिया है सब दिया-लिया इस जीवन में ही भरना है

खुश होने के लिए भी

न कोई चाहत, न कभी कोई मांग।
एक नये आनन्द के साथ
रोज़ आते हैं
आनन्दित करते हैं
और चले जाते हैं।
चांद को कभी उदास नहीं देखा
सूरज कभी रोया नहीं
तारे कभी टिमटिमाना नहीं भूलते।
और  हम हैं कि
ज़रा-सा खुश होने के लिए भी
कोई बहाना ढूंढते हैं
कोई बड़ा-सा कारण
नहीं तो लोग पता नहीं क्या सोचेंगे
कि अरे !
यह आज इतनी खुश क्यों है
और एक तहलका मच जायेगा।


 

इंसान की फ़ितरत

देखो रोशनी से कतराने लगे हैं हम

देखो बत्तियां बुझाने में लगे हैं हम

जलती तीली देखकर भ्रमित न होना

देखो सीढ़ियां गिराने में लगे हैं हम

जिन्दगी की डगर

जिन्दगी की डगर यूं ही घुमावदार होती हैं

कभी सुख, कभी दुख की जमा-गुणा होती है

हर राह लेकर ही जाती है धरा से गगन तक

बस कदम-दर-कदम बढ़ाये रखने की ज़रूरत होती है

खत लिखने से डरते थे।

मन ही मन

उनसे प्यार बहुत करते थे

पर खत लिखने से डरते थे।

कच्ची पैंसिल, फटा लिफ़ाफ़ा

आटे की लेई,

कापी का आखिरी पन्ना।

फिर सुन लिया

लोग लिफ़ाफ़ा देखकर

मजमून भांप लिया करते हैं।

उनसे प्यार बहुत करते थे

पर इस कारण

खत लिखने से डरते थे।

अब हमें

मजमून का अर्थ तो पता नहीं था

लेकिन

मजमून से

कुछ मजनूं की-सी ध्वनि

प्रतिध्वनित होती थी।

कुछ लैला-मजनूं की-सी।

और कभी-कभी जूं की-सी।

और
इन सबसे हम डरते थे ।
उनसे प्यार बहुत करते थे

पर इस कारण

खत लिखने से डरते थे।

ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है

ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है

कभी आगे,कभी पीछे ले जाती है

जोश में कभी ज़्यादा उंचाई ले लें

तो सीधे धराशायी भी कर जाती है

आंखें फ़ेर लीं

अपनों से अपनेपन की चाह में

जीवन-भर लगे रहे हम राह में

जब जिसने चाहा आंखें फ़ेर लीं

कहीं कोई नहीं था हमारी परवाह में

जीवन में यह उलट-पलट होती है

बहुत छोटी हूं मैं

कुछ समझने के लिए।

पर

इतनी छोटी भी तो नहीं

कि कुछ भी समझ न आये।

मेरे आस-पास लोग कहते हैं

हर औरत मां होती है

बहन होती है,पत्नी होती है

बेटी और सखा होती है।

फिर मुझे देखकर कहते हैं

देखो,कष्टों में भी मुस्कुरा लेती है

ममतामयी, देवी है देवी।

मुझे नहीं पता

औरत क्या, मां क्या,

बेटी क्या, बहन क्या, देवी क्या

और ममता क्या होती है।

मुझे नहीं पता

मेरी गोद यह में कौन है

बेटा है, भाई है

पति है, या कोई और।

बहुत सी बातें

नहीं समझ पाती हूं

और जो समझ जाती हूं

वह भी कहां समझ पाती हूं।

लोग कहते हैं, देखो

भाई की देख-भाल करती है।

बड़ा होकर यही तो है

इसकी रक्षा करेगा

राखी बंधवायेगा, हाथ पीले करेगा,

अपने घर भेजेगा।

कोई समझायेगा मुझे

जीवन में  यह उलट-पलट कैसे होती है।

बहुत सी बातें

नहीं समझ पाती हूं

और जो समझ जाती हूं

वह भी कहां समझ पाती हूं।

मन के भीतर कल्पवृक्ष

मन के भीतर ही

उगे बैठे हैं

न जाने कितने कल्पवृक्ष।

रोज उगते हैं, फलते-फूलते हैं

जड़े जमाते हैं

और समय के प्रवाह में

सब कुछ दे जाते हैं।

न समुद्र मंथन की आवश्यकता,

न किसी युद्ध की

न देवताओं-असुरों की,

क्योंकि सब कुछ तो

इसी मन के भीतर है।

कहां बाहर भटकते हैं हम

क्यों बाहर भटकते हैं हम।

हां, यह और बात है

कि समय के प्रवाह में

बदल जाता है बहुत कुछ।

शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं

भाव बदल जाते हैं

प्रभाव बदल जाते हैं।

इसलिए

मन के इस कल्पवृक्ष से भी

बहुत आशाएं मत रखना।

निद्रा पर एक झलकी

जब खरीखरी कह लेते हैं,नींद भली-सी आती है

ज़्यादा चिकनी-चुपड़ी ठीक नहीं,चर्बी बढ़ जाती है

हृदयाघात का डर नहीं, औरों की नींद उड़ाते हैं

हमको तो जीने की बस ऐसी ही शैली आती है

जीवन यूं ही करवट लेता है

गुब्बारों में अरमानों की हवा भरी है कुछ खाली बन्द पड़े हैं

कुछ में रंग-बिरंगी आशाएं हैं, कुछ में रंगीन जल भरे हैं

कब हवा का रूख बदलेगा, हाथों से छूटेंगे फूटेंगे, पिचकेंगे

जीवन यूं ही करवट लेता है, ये क्यों न हम समझ सके हैं

शब्दों की झोली खाली पाती हूं

जब भावों का ज्वार उमड़ता है, तब सोच-समझ उड़ जाती है

लिखने बैठें तो अपने ही मन की बात कहां समझ में आती है

कलम को क्यों दोष दूं, क्यों स्याही फैली, सूखी या मिट गई

भावों को किन शब्दों में ढालूं, शब्दों की झोली खाली पाती हूं

किस युग में जी रहे हो तुम

मेरा रूप तुमने रचा,

सौन्दर्य, श्रृंगार

सब तुमने ही तो दिया।

मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व

मेरे गुण, या मेरी चमत्कारिता

सब तुम्हारी ही तो देन है।

मुझे तो ठीक से स्मरण भी नहीं

किस युग में, कब-कब

अवतरित हुआ था मैं।

क्यों आया था मैं।

क्या रचा था मैंने इतिहास।

कौन सी कथा, कौन सा युद्ध

और कौन सी लीला।

हां, इतना अवश्य स्मरण है

कि मैंने रचा था एक युग

किन्‍तु समाप्त भी किया था एक युग।

तब से अब तक

हज़ारों-लाखों वर्ष बीत गये।

चकित हूं, यह देखकर

कि तुम अभी भी

उसी युग में जी रहे हो।

वही कल्पनाएं, कपोल-कथाएं

वही माटी, वही बाल-गोपाल

राधा और गोपियां, यशोदा और माखन,

लीला और रास-लीलाएं।

सोचा कभी तुमने

मैंने जब भी

पुन:-पुन: अवतार लिया है

एक नये रूप में, एक नये भाव में

एक नये अर्थ में लिया है।

काल के साथ बदला हूं मैं।

हर बार नये रूप में, नये भाव में

या तुम्हारे शब्दों में कहूं तो

युगानुरूप

नये अवतार में ढाला है मैंने

अपने-आपको।

किन्तु, तुम

आज भी, वहीं के वहीं खड़े हो।

तो इतना जान लो

कि तुम

मेरी आराधना तो करते हो

किन्तु मेरे साथ नहीं हो।

शब्दों से जलाने वाले

आग लगाने वाले यहां बहुत हैं

बिना आग सुलगाने वाले बहुत हैं

बुझाने की बात तो करना ही मत

शब्दों से जलाने वाले यहां बहुत हैं

कैसे होगा तारण

आज डूबने का मन है कहां डूबें बता रे मन

सागर-दरिया में जल है किन्तु वहां है मीन

जो कर्म किये बैठे हैं इस जहां में हम लोग

चुल्लू-भर पानी में डूब मरें तभी तो होगा तारण

सम्मान से जीना है रूपसी

आंखों की भाषा समझे न, निष्ठुर है यह जग रूपसी

आवरण हटा कर बोल, मन की बात खोल रूपसी

तेरी इस साज-सज्जा से यूं ही भ्रमित हैं सब देख तो

न डर, हो निडर, गरसम्मान से जीना है रूपसी