फूल तो फूल हैं

फूल तो फूल हैं
कहीं भी खिलते हैं।
कभी नयनों में द्युतिमान होते हैं
 कभी गालों पर महकते हैं
कभी उपवन को सुरभित करते हैं,
तो कभी मन को 
आनन्दित करते हैं,
मन के मधुर भावों को
साकार कर देते हैं
शब्द को भाव देते हैं
और भाव को अर्थ।
प्रेम-भाव का समर्पण हैं,
कभी किसी की याद में
गुलदानों में लगे-लगे 
मुरझा जाते हैं।
यही फूल स्वागत भी करते हैं
और अन्तिम यात्रा भी। 
और कभी किसी की 
स्मृतियों में जीते हैं
ठहरते हैं उन पर आंसू 
ओस की बूंदों से।

चलते चलते

चलते चलते

सड़क पर पड़े

एक छोटे से कंकड़ को

यूं ही उछाल दिया मैंने।

पल भर में न जाने

कहां खो गया।

सोच कुछ और रही थी

कह कुछ और बैठी।

बातों के, घातों के, वादों के

आघातों के

छोटे-छोटे कंकड़

हम, यूं ही उछालते रहते हैं

कब, किसे, कैसे चोट दे जाता है

नहीं जानते।

किन्तु जब अपने पर पड़ती है

तब..................

मेरे भीतर

एक विशालकाय पर्वत है

ऐसे  छोटे-छोटे कंकड़ों का।

मतदान मेरा कर्त्तव्य भी है

मतदान मेरा अधिकार है

पर किसने कह दिया

कि ज़िम्मेदारी भी है।

हांअधिकार है मेरा मतदान।

पर कौन समझायेगा

कि अधिकार ही नहीं

कर्त्तव्य भी है।

जिस दिन दोनों के बीच की

समानान्तर रेखा मिट जायेगी

उस दिन मतदान सार्थक होगा।

किन्तु

इतना तो आप भी जानते ही होंगें

कि समानान्तर रेखाएं

कभी मिला नहीं करतीं।

अरे अपने भीतर जांच

शब्दों की क्या बात करें, ये मन बड़ा वाचाल है

इधर-उधर भटकता रहता, न अपना पूछे हाल है

तांक-झांक की आदत बुरी, अरे अपने भीतर जांच

है सबका हाल यही, तभी तो सब यहां बेहाल हैं

 

जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये

जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये

बोले तो हम बड़बोले बन जायें

यूं ही क्यों चिन्तन करता रे मन !

जिसको जो कहना है कहते जायें

पीछे से झांकती है दुनिया

कुछ तो घटा होगा

जो यह पत्थर उठे होंगे।

कुछ तो टूटा होगा

जो यह घुटने फूटे होंगे।

कुछ तो मन में गुबार होगा

जो यूं हाथ उठे होंगे।

फिर, कश्मीर हो या कन्याकुमारी

कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

वह कौन-सी बात है

जो शब्दों में नहीं ढाली जा सकी,

कलम ने हाथ खींच लिया
और हाथ में पत्थर थमा दिया।

अरे ! अबला-सबला-विमला-कमला

की बात मत करो,

मत करो बात लाज, ममता, नेह की।

एक आवरण में छिपे हैं भाव

कौन समझेगा ?

न यूं ही आरोप-प्रत्यारोप में उलझो।

कहीं, कुछ तो बिखरा होगा।

कुछ तो हुआ होगा ऐसा

कि चुप्पी साधे सब देख रहे हैं

न रोक रहे हैं, न टोक रहे हैं,

कि पीछे से झांकती है दुनिया

न रोकती है, न मदद करती है

न राह दिखाती है

तमाशबीन हैं सब।

कुछ शब्दों के, कुछ नयनों के।

क्यों ? क्यों ?

सम्मान उन्हें देना है

आपको नहीं लगता

इधर हम कुछ ज़्यादा ही

आंसू बहाने लगे हैं,

उनकी कर्त्तव्यनिष्ठा पर

प्रश्नचिन्ह लगाने लगे हैं।

उनके समर्पण, देशप्रेम को

भुनाने में लगे हैं,

उन्होंने चुना है यह पथ,

इसलिए नहीं

कि आप उनके लिए

जार-जार रोंयें

उनके कृत्यों को

महिमामण्डित करें

और अपने कर्त्तव्यों से

हाथ धोयें,

कुछ शब्दों को घोल-घोलकर

तब तक निचोड़ते रहें

जब तक वे घाव बनकर

रिसने न लगें।

वे अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं

और हमें समझा रहे हैं।

देश के दुश्मन

केवल सीमा पर ही नहीं होते,

देश के भीतर,

हमारे भीतर भी बसे हैं।

हम उनसे लड़ें,

कुछ अपने-आप से भी करें

न करें दया, न छिछली भावुकता परोसें

अपने भीतर छिपे शत्रुओं को पहचानें

देश-हित में क्या करना चाहिए

बस इतना जानें।

बस यही सम्मान उन्हें देना है,

यही अभिमान उन्हें देना है।

खींच-तान में मन उलझा रहता है

आशाओं का संसार बसा है, मन आतुर रहता है

यह भी ले ले, वह भी ले ले, पल-पल ये ही कहता है

क्या छोड़ें, क्या लेंगे, और क्या मिलना है किसे पता

बस इसी खींच-तान में जीवन-भर मन उलझा रहता है

जब तक चिल्लाओ  न, कोई सुनता नहीं

अब शांत रहने से यहां कुछ मिलता नहीं

जब तक चिल्लाओ  न, कोई सुनता नहीं

सब गूंगे-बहरे-अंधे अजनबी हो गये हैं यहां

दो की चार न सुनाओ जब तक, काम बनता नहीं

हां, मैं हूं कुत्ता

एक कुत्ते ने

फेसबुक पर अपना चित्र देखा,

और बड़बड़ाया

इस इंसान को देखो

फेसबुक पर भी मुझे ले आया।

पता नहीं क्या-क्या कह डालेगा मेरे बारे मे।

दुनिया-जहां में तो

नित्यप्रति मेरी कहानियां

गढ़-गढ़कर समय बिताता है।

पता नहीं कितने मुहावरे

बनाये हैं मेरे नाम से,

तरह तरह की बातें बनाता है।

यह तो शिष्ट-सभ्य,

सुशिक्षित बुद्धिजीवियों का मंच है,

मैं अपने मन की पीड़ा

यहां कह भी तो नहीं सकता।

कोई टेढ़ी पूंछ के किस्से सुनाता है,

तो कोई स्वामिभक्ति के गुण गाता है।

कोई तलुवे चाटने की बात करता है

तो कोई बेवजह ही दुत्कारता है।

किसी को मेरे भाग्य से ईर्ष्या होती है

तो कोई अपनी भड़ास निकालने के लिए

मुझे लात मारकर चला जाता है।

और महिलाओं   के हाथ में

मेरा पट्टा देखकर तो

मेरी भांति ही लार टपकाता है।

बची बासी रोटी डालने से

कोई नहीं हिचकिचाता है।

बस,आज तक

एक ही बात समझ नहीं आई

कि मैं कुत्ता हूं, जानता हूं,

फिर मुझे कुत्ता-कुत्ता कहकर क्यों चिड़ाता है।

और हद तो तब हो गई

जब अपनी तुलना मेरे साथ करने लगता है।

बस, तभी मेरा मन

इस इंसान को

काट डालने का करता है।

एक चित्रात्‍मक कथा

वे दिन भी क्या दिन थे, जब बचपन में भरी दोपहरी की तेज़ धूप में मां-दादी, बड़े भाई-बहनों और चाचा-ताउ की नज़रें बचाकर खिड़की फांदकर घर से निकल आया करते थे। न धूप महसूस होती थी न बरसात। न सूखे का पता था और न फ़सल-पानी की चिन्ता। कभी कंचे खेलते, किसी के खेत से फल-सब्ज़ियां चुराते, किसी के पशु खोल देते, मिट्टी में लोटते, तालाब में छपाछप करते, मास्टरों की खूब नकल उतारते। कब सूरज आकाश से धरती पर आ जाता पता ही नहीं लगता था। फिर भागते घर की ओर। निश्चिंत, डांट-मार खाने को तैयार। “अरे ! कुछ पढ़-लिख लो, नहीं तो खेतों में यूं ही जानवरों से हांकते रहोगे, देखो, फ़लाने का बेटा कैसे दसवीं करके शहर जाकर बाबू बन गया।“ और न जाने क्या-क्या। रोज़ का किस्सा था जब तक पढ़ते रहे। न हम सुधरे , न चिन्ता करने वालों ने हमें समझाना छोड़ा।
फिर, युवा हो गये। हम कहां बदले। बस, बचपन में जो बचपना समझा जाता था वह अब आवारागर्दी हो गया। घर-बाहर के काम करने लगे, खेती-बाड़ी सम्हालने लगे किन्तु सबकी आंखों में चुभते ही रहे। बड़े-बुजुर्ग सर पीटते : “अरे ! क्या होगा इन छोरों का, नासपीटों का, न पढ़े-लिखे, न काम-काज किये, अब इसी खेती में जूझेगें। कुछ हमारी सुनी होती तो बड़े बाउ बनकर शहर में नाम कमा रहे होते। कौन करेगा इन नाकारा छोरों से ब्याह।“
फिर ब्याह भी हो गये हम सबके। घर-बार सब चलने लगे। हमें समझाने वाले चले गये। लेकिन हम वैसे के वैसे। पहले पिछली पीढ़ी हमारे पीछे थी, अब अगली पीढ़ी हमारे आगे आ गई।
बच्चे बड़े हो गये। पढ़-लिख गये। खेती रास न आई। बाउ बन गये। शहरी रंग-ढंग आ गये। पढ़ी-लिखी बहुएं आ गईं।
और हम वैसे के वैसे।
भरी दोपहरी की तेज़ धूप हो अथवा भांय-भांय करते खेत, हमारा तो जन्म से यही आशियाना रहा।

और अब, “इन बुढ़उ को देखो, कौन समझावे। उमर हो गई है, आराम से घर में बैठो। घर का, अन्दर-बाहर का कोई काम देखो। घर में सब आराम दियो है, टी. वी. पंखा लगवा दियो है, पर दिमाग फिर गयो है, कैसे तो भरी दोपहरी में, संझा तक धूप में सड़े-पड़े रहे हैं। कल को कुछ हो-हुवा गया तो लोगन कहेंगे बच्चों ने ध्यान न रखा, बहुएं बुरी थीं।“
लेकिन हमें न तो बचपने में ऐसा कुछ सुनाई देता था, न जवानी में सुना और अब तो वैसे ही कान कम सुनने लगे हैं तो बोली जाओ , बोली जाओ , हमें न फ़रक पड़े है।
हा हा हा !!!!!

 

भावों की छप-छपाक

यूं ही जीवन जीना है।

नयनों से छलकी एक बूंद

कभी-कभी

सागर के जल-सी गहरी होती है,

भावों की छप-छपाक

न  जाने क्या-क्या कह जाती है।

और कभी ओस की बूंद-सी

झट-से ओझल हो जाती है।

हो सकता है

माणिक-मोती मिल जायें,

या फिर

किसी नागफ़नी में उलझे-से रह जायें।

कौन जाने, कब

फूलों की सुगंध से मन महक उठे,

तरल-तरल से भाव छलक उठें।

इसी निराश-आस-विश्वास में

ज़िन्दगी बीतती चली जाती है।

 

 

मन न जाने कहां-कहां-तिरता है

इस एकान्त में

एक अपनापन  है,

फूलों-पत्तियों में

मेरे मन का चिन्तन है।

कुछ हरे-भरे,

कुछ गिरे-पड़े,

कुछ डाली से टूटे,

और कुछ मानों कलियों-से

अधजीवन में ही

अपनेपन से छूटे।

लकड़ी की नैया पर बैठे-बैठे

मन न जाने कहां-कहां-तिरता है।

इस निश्चल, निश्छल जल में

अपनी प्रतिच्छाया ढूंढता है।

कुछ उलटता है, कुछ पलटता है

डूबता-उतरता है,

फिर लौटता है

सहज-सहज

एक मधुर मुस्कान के साथ।

प्यार के इज़हार के लिए

आ जा,

आज ज़रा

ताज के साये में

कुछ देर बैठ कर देखें।

क्या एहसास होता है

ज़रा सोच कर देखें।

किसी के प्रेम के प्रतीक को

अपने मन में उतार कर देखें।

क्या सोचकर बनाया होगा

अपनी महबूबा के लिए

इसे किसी ने,

ज़रा हम भी आजमां कर तो देखें।

न ज़मीं पर रहता है

न आसमां पर,

किस के दिल में कौन रहता है

ज़रा जांच कर देखें।

प्यार के इज़हार के लिए

इन पत्थरों की क्या ज़रूरत थी,

बस एक बार

हमारे दिल में उतर कर तो देखें।
एक अनछुए एहसास-सी,

तरल-तरल भाव-सी,

प्रेम की कही-अनकही कहानी

नहीं कह सकता यह ताज जी।

योग दिवस पर एक रचना

उदित होते सूर्य की रश्मियां

मन को आह्लादित करती हैं।

विविध रंग

मन को आह्लादमयी सांत्वना

प्रदान करते हैं।

शांत चित्त, एकान्त चिन्तन

सांसारिक विषमताओं से

मुक्त करता है।

सांसारिकता से जूझते-जूझते

जब मन उचाट होता है,

तब पल भर का ध्यान

मन-मस्तिष्क को

संतुलित करता है।

आधुनिकता की तीव्र गति

प्राय: निढाल कर जाती है।

किन्तु एक दीर्घ उच्छवास

सारी थकान लूट ले जाता है।

जब मन एकाग्र होता है

तब अधिकांश चिन्ताएं

कहीं गह्वर में चली जाती हैं

और स्वस्थ मन-मस्तिष्क

सारे हल ढूंढ लाता है।

इन व्यस्तताओं  में

कुछ पल तो निकाल

बस अपने लिये।

रंगीनियां तो बिखेर कर ही जाता है

सूर्य उदित हो रहा हो

अथवा अस्त,

प्रकाश एवं तिमिर

दोनों को लेकर आता है

और

रंगीनियां तो

 बिखेर कर ही जाता है

आगे अपनी-अपनी समझ

कौन किस रूप में लेता है।

मेरी कागज़ की नाव खो गई

कागज़ की नाव में

जितने सपने थे

सब अपने थे।

छोटे-छोटे थे

पर मन के थे ।

न डूबने की चिन्ता

न सपनों के टूटने की चिन्ता।

तिरती थी,

पलटती थी,

टूट-फूट जाती थी,

भंवर में अटकती थी,

रूक-रूक जाती थी,

एक जाती थी,

एक और आ जाती थी।

पर सपने तो सपने थे

सब अपने थे]

न टूटते थे न फूटते थे,

जीवन की लय

यूं ही बहती जाती थी।

फिर एक दिन

हम बड़े हो गये

सपने भारी-भारी हो गये।

अपने ही नहीं

सबके हो गये।

पता ही नहीं लगा

वह कागज़ की नाव

कहां खो गई।

कभी अनायास यूं ही

याद आ जाती है

तो ढूंढने निकल पड़ते हैं,

किन्तु भारी सपने कहां

पीछा छोड़ते हैं।

सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं,

अब नाव नहीं बनती।

मेरी कागज़ की नाव

न जाने कहां खो गई

मिल जाये तो लौटा देना।

हिन्दी के प्रति

शिक्षा

अब ज्ञान के लिये नहीं

लाभ के लिए

अर्जित की जाती है,

और हिन्दी में

न तो ज्ञान दिखाई देता है

और न ही लाभ।

बस बोलचाल की

भाषा बनकर रह गई है,

कहीं अंग्रेज़ी हिन्दी में

और कहीं हिन्दी

अंग्रेज़ी में ढल गई है।

कुछ पुरस्कारों, दिवसों,

कार्यक्रमों की मोहताज

बन कर रह गई है।

बात तो बहुत करते हैं हम

हिन्दी चाहिए, हिन्दी चाहिए

किन्तु

कभी आन्दोलन नहीं करते

दसवीं के बाद

क्यों नहीं

अनिवार्य पढ़ाई जाती है हिन्दी।

प्रदूषित भाषा को

चुपचाप पचा जाते हैं हम।

सरलता के नाम पर

कुछ भी डकार जाते हैं हम।

गूगल अनुवादक लगाकर

हिन्दी लेखक होने का

गर्व पालते हैं हम।

प्रचार करते हैं

वैज्ञानिक भाषा होने का,

किन्तु लेखन और उच्चारण के

बीच के सम्बन्ध को

तोड़ जाते हैं हम।

कंधों पर उठाये घूम रहे हैं

अवधूत की तरह।

दफ़ना देते हैं

अपराधी की तरह।

और बेताल की तरह,

हर बार

वृक्ष पर लटक जाते हैं

कुछ प्रश्न अनुत्तरित।

हर वर्ष, इसी दिन

चादर बिछाकर

जितनी उगाही हो सके

कर लेते हैं

फिर वृक्ष पर टंग जाता है बेताल

अगली उगाही की प्रतीक्षा में।

एक डर में जीते हैं हम

उन्नति के शिखर पर बैठकर भी

अक्सर एक अभाव-सा रह जाता है,

पता नहीं लगता

क्या खोया

और क्या, कैसे पाया।

एक डर में जीते हैं,

न जाने कहां

पांव फिसल जायें

और

आरम्भ करना पड़े

एक नया सफ़र।

अपनी ही सफ़लताओं का

आनन्द नहीं लेते हम।

एक डर में जीते हैं हम।

और हम यूं ही लिखने बैठ जाते हैं कविता

आज ताज

स्वयं अपने साये में

बैठा है

डूबते सूरज की चपेट में।

शायद पलट रहा है

अपने ही इतिहास को।

निहारता है

अपनी प्रतिच्छाया,

कब, किसने,

क्यों निर्माण किया था मेरा।

एक कब्र थी, एक कब्रगाह।

प्रदर्शन था

सत्ता का, मोह का, धन का

अधिकार का

और शायद प्रेम का।

अथाह जलराशि में

न जाने क्या-क्या समाहित।

डूबता है मन, डूबते हैं भाव

काल के साथ

बदलते हैं अर्थ।

और हम यूं ही

लिखने बैठ जाते हैं कविता,

प्रेम की, विरह की, श्रृंगार की

और वेदना की।

अंधविश्वासों में जीते

कौओं की पंगत लगी

बैठे करें विचार

क्यों न हम सब मिलकर करें

इस मानव का बहिष्कार

किसी पक्ष में हमको पूजे

कभी उड़ायें पत्थर मार।

यूं कहते मुझको काला-काला,

मेरी कां-कां चुभती तुमको

मनहूस नाम दिया है मुझको

और अब मैं तुमको लगता प्यारा।

मुझको रोटी तब डाले हैं

जब तुम पर शामत आन पड़ी,

बासी रोटी, तैलीय रोटी

तुम मुझको खिलाते हो।

अपने कष्ट-निवारण के लिए

मुझे ढूंढते भागे हो।

किसी-किसी के नाम पर

हमें लगाते भोग

अंधविश्वासों में जीते

बाबाओं  के चाटें तलवे

मिट्टी में होते हैं लोट-पोट।

जब ज़िन्दा होता है मानव

तब क्या करते हैं ये लोग।

न चाहिए मुझको तेरी

दान-दक्षिणा, न पूजी रोटी।

मुंडेर तेरी पर कां-कां करता

बच्चों का मन बहलाता हूं।

अपनी मेहनत की खाता हूं।

तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा

तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा
तेरी मूंछे मेरी मूंछे
पग्गड़ बांध बने हम लाला
तू भी कालू मैं भी काला
चलता है या खींचू गाल
दो बीड़ी लाया हूं
गुमटी पर बैठेंगे
खायेंगे चाट-पकौड़ी
सब कहते बुड्ढा- बुड्ढा
चटोर कहीं का।
कहने दो हमको क्या ।
घर जाकर कह देंगे
पेट ठीक न है
फिर बीबी बोलेगी
बुड्ढा- बुड्ढा ।
बहू गैस की गोली लायेगी,
बेटा पानी देगा,
बीबी चिल्ला़येगी,
बुड्ढा- बुड्ढा ।
बड़ा मज़ा आयेगा।
तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा- बुड्ढा
चलता है या खींचू गाल

खुले हैं वातायन

इन गगनचुम्‍बी भवनों में भी

भाव रहते हैं

कुछ सागर से गहरे

कुछ आकाश को छूते

परस्‍पर सधे रहते हैं।

यहां भी उन्‍मुक्‍त हैं द्वार,

खुले हैं वातायन, घूमती हैं हवाएं

यहां भी गूंजती हैं किलकारियां ,

हंसता है सावन

बादल उमड़ते-घुमड़ते हैं

हां, यह हो सकता है

कुछ कम या ज्‍़यादा होता हो,

पर समय की मांग है यह सब

कितनी भी अवहेलना कर लें

किन्‍तु हम मन ही मन

यही चाहते हैं

फिर भी

पता नहीं क्‍यों हम

बस यूं ही डरे-डरे रहते हैं।

वे पिता ही थे

वे पिता ही थे

जिन्‍होंने थामा था हाथ मेरा।

राह दिखाई थी मुझे

अंधेरे से रोशनी तक

बिखेरी थी रंगीनियां मेरे जीवन में।

और समझाया था मुझे

एक दिन छूट जायेगा मेरा हाथ

और आगे की राह

मुझे स्‍वयं ही चुननी होगी।

मुझे स्‍वयं जूझना होगा

रोशनी और अंधेरों से।

और कहा था

प्रतीक्षा करूंगा तुम्‍हारी

तुम लौटकर आओगी

और थामोगी मेरा हाथ

मेरी लाठी छीनकर।

तब

फिर घूमेंगे हम

साथ-साथ

यूं ही हाथ पकड़कर।

कुछ तो मुंह भी खोल

बस !

अब बहुत हुआ।

केवल आंखों से न बोल।

कुछ तो मुंह भी खोल।

कोई बोले कजरारे नयना

कोई बोले मतवारे नयना।

कोई बोले अबला बेचारी,

किसी को दिखती सबला है।

तेरे बारे में,

तेरी बातें सब करते।

अवगुण्ठन के पीछे

कोई तेरा रूप निहारे

कोई प्रेम-प्याला पी रहे ।

किसी को

आंखों से उतरा पानी दिखता

कोई तेरी इन सुरमयी आंखों के

नशेमन में जी रहे।

कोई मर्यादा ढूंढ रहा

कोई तेरे सपने बुन रहा,

किसी-किसी को

तेरी आबरू लुटती दिखती

किसी को तू बस

सिसकती-सिसकती दिखती।

जिसका जो मन चाहे

बोले जाये।

पर तू क्या है

बस अपने मन से बोल।

बस अब बहुत हुआ।

केवल आंखों से न बोल।

कुछ तो मुंह भी खोल।

बनी-बनाई धारणाएं लिए घूमते हैं

ऐसा क्यों है
कि कुछ बातों के लिए हम
बनी-बनाई धारणाएं लिए घूमते हैं।

बेचारा,
न जाने कैसी बोतल थी हाथ में
और क्या था गिलास में।
बस गिरा देखा
या कहूं
फि़सला देखा
हमने मान लिया कि दारू है।
सोचा नहीं एक बार
कि शायद सामने खड़े
दादाजी की दवा-दारू ही हो।
लीजिए
फिर दारू शब्द आ गया।

और यह भी तो हो सकता है
कि बेटा बेचारा
पिताजी की
बोतल छीनकर भागा हो
अब तो बस कर इस बुढ़ापे में बुढ़उ
क्यों अपनी जान लेने पर तुला है।

बेचारा गिर गया
और बापजी बोले
देखा, आया मजा़ ।
तू उठता रह
मैं नई लेने चला।

आज मुझे देश की याद सता गई

सोच में पड़ गई
आज न तो गणतन्त्र दिवस है,
न स्वाधीनता दिवस, न शहीदी दिवस
और न ही किसी बड़े नेता की जयन्ती ।
न ही समाचारों में ऐसा कुछ देखा
कि देश की याद सता जाती।
फिर आज मुझे
देश की याद क्यों सता गई ।
कुछ गिने-चुने दिनों पर ही तो
याद आती है हमें अपने देश की,
जब एक दिन का अवकाश मिलता है।
और हम आगे-पीछे के दिन गिनकर
छुट्टियां मनाने निकल जाते हैं
अन्यथा अपने स्वार्थ में डूबे,
जोड़-तोड़ में लगे,
कुछ भी अच्छा-बुरा होने पर
सरकार को कोसते,
अपना पल्ला झाड़ते
चाय की चुस्कियों के साथ राजनीति डकारते
अच्छा समय बिताते हैं।
पर सोच में पड़
आज मुझे देश की याद क्यों सता गई
पर कहीं अच्छा भी लगा
कि अकारण ही
आज मुझे देश की याद सता गई ।


 

बिना बड़े सपनों के जीता हूं

कंधों पर तुम्‍हारे भी

बोझ है मेरे भी।

तुम्‍हारा बोझ  

तुम्‍हारे कल के लिए है

एक डर के साथ ।

मेरा बोझ मेरे आज के लिए है

निडर।

तुम अपनों के, सपनों के

बोझ के तले जी रहे हो।

मैं नि:शंक।

डर का घेरा बुना है

तुम्‍हारे चारों ओर 

इस बोझ को सही से

न उठा पाये तो

कल क्‍या होगा।

कल, आज और कल

मैं नहीं जानता।

बस केवल

आज के लिए जीता हूं

अपनों के लिए जीता हूं।

नहीं जानता कौन ठीक है

कौन नहीं।

पर बिना बड़े सपनों के जीता हूं

इसलिए रोज़

आराम की नींद सोता हूं

घन-घन-घन घनघोर घटाएं

घन-घन-घन घनघोर घटाएं,
लहर-लहर लहरातीं।

कुछ बूंदें बहकीं,

बरस-बरस कर,
मन सरस-सरस कर,
हुलस-हुलस कर,
हर्षित कर
लौट-लौटकर आतीं।

बूंदों का  सागर बिखरा ।

कड़क-कड़क, दमक-दमक,
चपल-चंचला दामिनी दमकाती।
मन आशंकित।
देखो, झांक-झांककर,
कभी रंग बदलतीं,

कभी संग बदलतीं।
इधर-उधर घूम-घूमकर
मारूत संग
धरा-गगन पर छा जातीं।

रवि  ने  मौका ताना,

सतरंगी आकाश बुना ।
निरख-निरख कर
कण-कण को
नेह-नीर से दुलराती।

ठिठकी-ठिठकी-सी शीत-लहर

फ़र्र-फ़र्र करती दौड़ गई।

सर्र-सर्र-सर्र कुछ पत्ते झरते

डाली पर नव-संदेश खिले

रंगों से धरती महक उठी।

पेड़ों के झुरमुट में बैठी चिड़िया

की किलकारी से नभ गूंज उठा

मानों बोली, उठ देख ज़रा

कौन आया ! बसन्त आया!!!


 

यह जीवन है

कुछ गांठें जीवन-भर

टीस देती हैं

और अन्‍त में

एक बड़ी गांठ बनकर

जीवन ले लेती हैं।

जीवन-भर

गांठों को उकेरते रहें

खोलते

या किसी से

खुलवाते रहें,

बेहिचक बांटते रहें

गांठों की रिक्‍तता,

या उनके भीतर

जमा मवाद उकेरते रहें,

तो बड़ी गांठें नहीं लेंगी जीवन

नहीं देंगी जीवन-भर का अवसाद।