बस प्यार किया जाता है

मन है कि

आकाश हुआ जाता है

विश्वास हुआ जाता है

तुम्हारे साथ

एक एहसास हुआ जाता है

घनघारे घटाओं में

यूं ही निराकार जिया जाता है

क्षणिक है यह रूप

भाव, पिघलेंगे

हवा बहेगी

सूरत, मिट जायेगी

तो क्या

मन में तो अंकित है इक रूप

बस,

उससे ही जिया जाता है

यूं ही, रहा जाता है

बस प्यार, किया जाता है

बस नेह की धरा चाहिए

यहां पत्थरों में फूल खिल रहे हैं
और वहां
देखो तो
इंसान पत्थर दिल हुए जा रहे हैं।
बस !!
एक बुरी-सी बात कह कर
ले ली न वाह –वाह !!!
अभी तो
पूरी भी नहीं हुई
मेरी बात
और  आपने
पता नहीं क्या-क्या सोच लिया।
कहां हैं इंसान पत्थर दिल
नहीं हैं इंसान पत्थर दिल
दिलों में भी फूल खिलते हैं
फूल क्या पूरे बाग-बगीचे
महकते हैं
बस नेह की धरा चाहिए
अपनेपन की पौध डालिये
विश्चवास के नीर से सींचिए
थोड़ी देख-भाल कीजिए
प्यार-मनुहार से संवारिये

फिर देखिये
पत्थर भी पिघलेंगे
पत्थरों में भी फूल खिलेंगे।
पर इंसान नहीं हैं
पत्थर दिल !!!!
 

कहां गई वह गिद्ध-दृष्टि

बने बनाये मुहावरों के फेर में पड़कर हम यूं ही गिद्धों को नोचने में लगे हैं

पर्यावरणिकों से पूछिये ज़रा, गिद्धों की कमी से हम भी तो मरने लगे हैं

कहां गई हमारी वह गिद्ध-दृष्टि जो अच्छे और बुरे को पहचानती थी

स्वच्छता-अभियान के इस महानायक को हम यूं ही कोसने में लगे हैं

मेरा आधुनिक विकासशील भारत

यह मेरा आधुनिक विकासशील भारत है

जो सड़क पर रोटियां बना रहा है।

यह मेरे देश की

पचास प्रतिशत आबादी है

जो सड़क पर अपनी संतान को

जन्म देती है

उनका लालन-पालन करती है

और इस प्राचीन

सभ्य, सुसंस्कृत देश के लिए

नागरिक तैयार करती है।

यह मेरे देश की वह भावी पीढ़ी है

जिसके लिए

डिजिटल इंडिया की

संकल्पना की जा रही है।

यह मेरे देश के वे नागरिक हैं

जिनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास

के विज्ञापनों पर

अरबों-खरबों रूपये लगाये जा रहे हैं,

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ

अभियान चला रहे हैं।

इन सब की सुरक्षा

और विकास के लिए

धरा से गगन तक के

मार्ग बनाये जा रहे हैं।

क्या यह भारत

चांद और उपग्रहों से नहीं दिखाई देता ?

जीवन में सुख दुख शाश्वत है

सूर्य का गमन भी तो एक नया संदेश देता है

चांदनी छिटकती है, शीतलता का एहसास देता है

जीवन में सुख-दुख की अदला-बदली शाश्वत है

चंदा-सूरज के अविराम क्रम से हमें यह सीख देता है

 

एक मधुर संदेश

प्रतिदिन प्रात में सूर्य का आगमन एक मधुर संदेश देता है

तोड़े न कभी क्रम अपना, मार्ग सुगम नहीं दिखाई देता है

कभी बदली, आंधी, कभी ग्रहण भी नहीं रोक पाते राहों को

मंज़िल कभी दूर नहीं होती, बस लगे रहो, यही संदेश देता है

गांधी जी ने ऐसा तो नहीं कहा था

गांधी जी को तो

गोली मार दी गई।

वे चले गये।

किन्तु उनके तीन बन्दर

यहीं रह गये

आंख, कान, मुंह बन्द किये।

आज उनकी संतति

पीढ़ी दर पीढ़ी

यूं ही आंख, कान, मुंह

बन्द किये बैठी है,

तीन हिस्सों में बंटी

गांधी जी ने

ऐसा तो नहीं कहा था।

किन्तु, यही है सत्य।

जो सुनते-देखते हैं वे बोलते नहीं,

जो बोलते-देखते हैं, वे सुनते नहीं

जो बोलते-सुनते हैं, वे देखते नहीं।

फिर कहते हैं

इस देश में कुछ बदल क्यों नहीं रहा !!!!!

कौन जाने सच

सुना है

बड़ी मछली 

छोटी मछली को

खा जाती है।

शायद, या नहीं,

या पता नहीं।

यह मुहावरा है,

अथवा वास्तविकता,

कौन जाने।

क्योंकि, जब भी बात उठती है

तो, हम

मनुष्यों के सन्दर्भ में ही उठती है।

मछलियों को तो

यूं ही बदनाम कर बैठे हैं हम।

और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा

समझ नहीं पाते हैं

कि धरा पर

ये कैसे प्राणी रहते हैं

ज़रा-सा पास-पास बैठे देखा नहीं

कि इश्क, मुहब्ब्त, प्यार के

चर्चे होने लगते हैं।

तोता-मैना

की कहानियां बनाने लगते हैं।

अरे !

क्या तुम्हारे पास नहीं हैं

जिन्दगी के और भी मसले

जिन्हें सुलझाने के लिए

कंधे से कंधा मिलाकर चलना पड़ता है,

सोचना-समझना पड़ता है।

देखो तो,

मौसम बदल रहा है

निकाल रहे हो न तुम

गर्म कपड़े, रजाईयां-कम्बल,

हमें भी तो नया घोंसला बनाना है,

तिनका-तिनका जमाना है,

सर्दी भर के लिए भोजन जुटाना है।

बच्चों को उड़ना सिखाना है,

शिकारियों से बचना बताना है।

अब

हमारी जिन्दगी के सारे फ़लसफ़े तो

तुम्हारी समझ में आने से रहे।

गालिब ने कहा था

ज़माने में

और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा

और

इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया

बस इतना ही समझाना है !!!!

कुहुक-कुहुक करती

चीं चीं चीं चीं करती दिन भर, चुपकर दाना पानी लाई हूं, ले खा

निकलेंगे तेरे भी पंख सुनहरे लम्बी कलगी, चल अब खोखर में जा

उड़ना सिखलाउंगी, झूमेंगे फिर डाली-डाली, नीड़ नया बनायेंगे

कुहुक-कुहुक करती, फुदक-फुदक घूमेगी, अब मेरी जान न खा

औकात दिखा दी

ऐसा थोड़े ही होता है कि एक दिन में ही तुमने मेरी औकात गिरा दी

जो कल था आज भी वही, वहीं हूं मैं, बस तुमने अपनी समझ हटा दी

आज गया हूं बस कुछ रूप बदलने, कल लौटूंगा फिर आओगे गले लगाने

एक दिन क्या रोका मुझको,देखा मैंने कैसे तुम्हें,तुम्हारी औकात दिखा द

एकान्त की ध्वनियां

एकान्त काटता है,

एकान्त कचोटता है

किन्तु अपने भीतर के

एकान्त की ध्वनि

बहुत मुखर होती है।

बहुत कुछ बोलती है।

जब सन्नाटा टूटता है

तब कई भेद खोलती है।

भीतर ही भीतर

अपने आप को तलाशती है।

किन्तु हम

अपने आपसे ही डरे हुए

दीवार पार की आवाज़ें तो सुनते हैं

किन्तु अपने भीतर की आवाज़ों को

नकारते हैं

इसीलिए जीवन भर हारते है।

सिक्के सारे खन-खन गिरते

कहते हैं जी,

हाथ की है मैल रूपया,

थोड़ी मुझको देना भई।

मुट्ठी से रिसता है धन,

गुल्लक मेरी टूट गई।

सिक्के सारे खन-खन गिरते

किसने लूटे पता नहीं।

नोट निकालो नोट निकालो

सुनते-सुनते

नींद हमारी टूट गई।

छल है, मोह-माया है,

चाह नहीं है

कहने की ही बातें हैं।

मेरा पैसा मुझसे छीनें,

ये कैसी सरकार है भैया।

टैक्सों के नये नाम

समझ न आयें

कोई हमको समझाए भैया

किसकी जेबें भर गईं,

किसकी कट गईं,

कोई कैसे जाने भैया।

हाल देख-देखकर सबका

अपनी हो गई ता-ता थैया।

नोटों की गद्दी पर बैठे,

उठने की है चाह नहीं,

मोह-माया सब छूट गई,

बस वैरागी होने को

मन करता है भैया।

आगे-आगे हम हैं

पीछे-पीछे है सरकार,

बचने का है कौन उपाय

कोई हमको सुझाओ  दैया।

बड़े-बड़े कर रहे आजकल

बड़े-बड़े कर रहे आजकल बात बहुत साफ़-सफ़ाई की

शौचालय का विज्ञापन करके, करते खूब कमाई जी

इनकी भाषा, इनके शब्दों से हमें  घिन आती है

बात करें महिलाओं की और करते आंख सिकाई जी

 

सुख-दुख तो आने-जाने हैं

धरा पर मधुर-मधुर जीवन की महक का अनुभव करती हूं

पुष्प कहीं भी हों, अपने जीवन को उनसे सुरभित करती हूं

सुख-दुख तो आने-जाने  हैं, फिर आशा-निराशा क्यों

कुछ बिगड़ा है तो बनेगा भी, इस भाव को अनुभव करती हूं

 

इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे

नीली चादर तान कर अम्बर देर तक सोया पाया गया

चंदा-तारे निर्भीक घूमते रहे,प्रकाश-तम कहीं आया-गया

प्रात हुई, भागे चंदा-तारे,रवि ने आहट की,तब उठ बैठा,

इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे, देखो तो, फिर मुस्काता पाया गया

इसे कहते हैं एक झाड़ू

कभी थामा है झाड़ू हाथ में

कभी की है सफ़ाई अंदर-बाहर की

या बस एक फ़ोटो खिंचवाई

और चल दिये।

साफ़ सड़कों की सफ़ाई

साफ़ नालियों की धुलाई

इन झकाझक सफ़ेद कपड़ों पर

एक धब्बा न लगा।

कभी हलक में हाथ डालकर

कचरा निकालना पड़े

तो जान जाती है।

कभी दांत में अटके तिनके को

तिनके से निकालना पड़े तो

जान हलक में अटक जाती है।

हां, मुद्दे की बात करें,

कल को होगी नीलामी

इस झाड़ू की,

बिकेगा लाखों-करोड़ों में

जिसे कोई काले धन का

कचरा जमा करने वाला

सम्माननीय नागरिक

ससम्मान खरीदेगा

या किसी संग्रहालय में रखा जायेगा।

देखेगी इसे अगली पीढ़ी

टिकट देकर, देखो-देखो

इसे कहते हैं एक झाड़ू

पिछली सदी में

साफ़ सड़कों पर कचरा फैलाकर

साफ़ नालियों में साफ़ पानी बहाकर

एक स्वच्छता अभियान का

आरम्भ किया गया था।

लाखों नहीं

शायद करोड़ों-करोड़ों रूपयों का

अपव्यय किया गया था

और सफ़ाई अभियान के

वास्तविक परिचालक

पीछे कहीं असली कचरे में पड़े थे

जिन्होंने अवसर पाते ही

बड़ों-बड़ों की कर दी थी सफ़ाई

किन्तु जिन्हें अक्ल न आनी थी

न आई !!!!!

हमको छुट्टा दे सरकार
रंजोगम में डूब गये हैं, गोलगप्पे हो गये बीस के चार

कितने खायें, कैसे खायें, नोट मिला है दो हज़ार

कहता है भैया हमसे, सारे खाओ या फिर जाओ

हम ढाई आने के ग्राहक हैं, हमको छुट्टा दे सरकार

अजगर करे न चाकरी

न मैं मांगू भिक्षा,

न जांचू पत्री,

न करता हूं प्रभु-भक्ति।

पिता कहते हैं

शिक्षा मंहगी,

मां कहती है रोटी।

दुनिया कहती

बड़े हो जाओ

तब जानोगे

इस जग की हस्ती।

सुनता हूं

खेल-कूद में

बड़ा नाम है

बड़ा धाम है।

टी.वी., फिल्मों में भी

बड़ा काम है।

पर

सब कहते हैं

पैसा-पैसा-पैसा-पैसा !!!!!

तब मैंने सोचा

सबसे सस्ता

यही काम है।

अजगर करे न चाकरी

पंछी करे न काम

दास मलूका कह गये

सबके दाता राम।

हरे राम !! हरे राम !!

बनती रहती हैं गांठें बूंद-बूंद

कहां है अपना वश !
कब के रूके
कहां बह निकलेगें
पता नहीं।
चोट कहीं खाई थी,
जख्म कहीं था,
और किसी और के आगे
बिखर गये।

सबने अपना अपना 
अर्थ निकाल लिया।
अब 
क्या समझाएं
किस-किसको 
क्या-क्या बताएं।
तह-दर-तह
बूंद-बूंद
बनती रहती हैं गांठें
काल की गति में
कुछ उलझी, कुछ सुलझी
और कुछ रिसती

बस यूं ही कह बैठी,
जानती हूं वैसे 
तुम्हारी समझ से बाहर है
यह भावुकता !!!

एक बेला ऐसी भी है

 

एक बेला ऐसी भी है

जब दिन-रात का

अन्तर मिट जाता है

उभरते प्रकाश

एवं आशंकित तिमिर के बीच

मन उलझकर रह जाता है।

फिर वह दूर गगन हो

अथवा  

अतल तक की गहरी जलराशि।

मन न जाने

कहां-कहां बहक जाता है।

सब एक संकेत देते हैं

प्रकाश से तिमिर का

तिमिर से प्रकाश का

बस

इनके ही समाधान में

जीवन बहक जाता है।

इन आंखों का क्या करूं

शब्दों को बदल देने की

कला जानती हूं,

अपनी अभिव्यक्ति को

अनभिव्यक्ति बनाने की

कला जानती हूं ।

पर इन आंखों का क्या करूं

जो सदैव

सही समय पर

धोखा दे जाती हैं।

रोकने पर भी

न जाने

क्या-क्या कह जाती हैं।

जहां चुप रहना चाहिए

वहां बोलने लगती हैं

और जहां बोलना चाहिए

वहां

उठती-गिरती, इधर-उधर

ताक-झांक करती

धोखा देकर ही रहती हैं।

और कुछ न सूझे तो

गंगा-यमुना बहने लगती है।

रोशनियां अब उधार की बात हो गई हैं

रोशनियां

अब उधार की बात हो गई हैं।

कौन किसकी छीन रहा

यह तहकीकात की बात हो गई है।

गगन पर हो

या हो धरा पर

किसने किसका रूप लिया

यह पहचानने की बात हो गई है।

प्रकाश और तम के बीच

जैसे एक

प्रतियोगिता की बात हो गई है।

कौन किस पर कर रहा अधिकार

यह समझने-समझाने की बात हो गई है।

कौन लघु और कौन गुरू

नज़र-नज़र की बात हो गई है।

कौन जीता, कौन हारा

यह विवाद की बात हो गई है।

कौन पहले आया, कौन बाद में

किसने किसको हटाया

यह तकरार की बात हो गई है।

अब आप से क्या छुपाना

अपनी हद से बाहर की बात हो गई है।

कदम रखना सम्भल कर

इन राहों पर कदम रखना सम्भल कर, फ़िसलन है बहुत

मन को कौन समझाये इधर-उधर तांक-झांक करे है बहुत

इस श्वेताभ नि:स्तब्धता के भीतर जीवन की चंचलता है

छूकर देखना, है तो शीतल, किन्तु जलन देता है बहुत

एक साईकिल दिलवा दो न

ए जी,

मुझको भी

एक साईकिल दिलवा दो न।

कार-वार का क्या करना है,

यू. पी. से दिल्ली तक

ही तो फ़र्राटे भरना है।

बस उसमें 

आरक्षण का ए.सी. लगवा देना।

लुभावने वादों की

दो-चार सीटें बनवा देना।

कुछ लैपटाप लटका देना।

कुछ हवा-भवा भरवा देना।

एक-ठौं पत्रकार बिठा देना।

कुछ पूरी-भाजी बनवा देना।

हां,

एक कुर्सी ज़रूर रखवा देना,

उस पर रस्सी बंधवा देना।

और

लौटे में देर हो जाये

तो फुनवा घुमा लेना।

ए जी,

एक ठौ साईकिल दिलवा दो न।

तल से अतल तक

तल से अतल तक

धरा से गगन तक

विस्तार है मेरा

काल के गाल में

टूटते हैं

बिखरते हैं

अकेलेपन से जूझते हैं

फिर संवरते हैं।

बस

इसी आस में

जीवन संवरते हैं !!!!!

 

चूड़ियां उतार दी मैंने

चूड़ियां उतार दी मैंने, सब कहते हैं पहनने वाली नारी अबला होती है

यह भी कि प्रदर्शन-सजावट के पीछे भागती नारी कहां सबला होती है

न जाने कितनी कहावतें, मुहावरे बुन दिये इस समाज ने हमारे लिये

सहज साज-श्रृंगार भी यहां न जाने क्यों बस उपहास की बात होती है

चूड़ी की हर खनक में अलग भाव होते हैं,कभी आंसू,  कभी  हास होते हैं

कभी न समझ सका कोई, यहां तो नारी की हर बात उपहास होती है

धरा पर पांव टिकते नहीं

और चाहिये और चाहिए की भूख में छूट रहे हैं अवसर

धरा पर पांव टिकते नहीं, आकाश को छू पाते नहीं अक्सर

यह भी चाहिये, वह भी चाहिए, लगी है यहां बस भाग-दौड़

क्या छोड़ें, क्या लें लें, इसी उधेड़-बुन में रह जाते हैं अक्सर

बसन्त पंचमी पर

कामना है बस मेरी

जिह्वा पर सदैव

सरस्वती का वास हो।

वीणा से मधुर स्वर

कमल-सा कोमल भाव

जल-तरंगों की तरलता का आभास हो।

मिथ्या भाषण से दूर

वाणी में निहित

भाव, रस, राग हो।

गगन की आभा, सूर्य की उष्मा

चन्द्र की शीतलता, या हों तारे द्युतिमान

वाणी में सदैव सत्य का प्रकाश हो।

हंस सदैव मोती चुगे

जीवन में ऐसी  शीतलता का भास हो।

किन्तु जब आन पड़े

तब, कलम क्या

वाणी में भी तलवार की धार सा प्रहार हो।

‘गर कांटे न होते

इतना न याद करते गुलाब को,  गर कांटे न होते

न सुहाती मुहब्बत गर बिछड़ने के अफ़साने न होते

गर आंसू न होते तो मुस्कुराहट की बात कौन करना

कौन स्मरण करता यहां गर भूलने के बहाने न होते