भाग-दौड़ में  बीतती ज़िन्दगी

 कभी अपने भी यहां क्यों अनजाने लगे

जीवन में अकारण बदलाव आने लगे

भाग-दौड़ में कैसे बीतती रही ज़िन्दगी

जी चाहता है अब तो ठहराव आने लगे

संसार है घर-द्वार

अपनेपन, सम्बन्धों का आधार है घर-द्वार

रिश्तों का, विश्वास का संसार है घर-द्वार

जीवन बीत जाता है संवारने-सजाने में

सुख-दुख के सामंजस्य का आधार है घर-द्वार

ज़िन्दगी एक बेनाम शीर्षक

समय के साथ कथाएं इतिहास बनकर रह गईं

कुछ पढ़ी, कुछ अनपढ़ी धुंधली होती चली गईं

न अन्त मिला न आमुख रहा, अर्थ सब खो गये

बस ज़िन्दगी एक बेनाम शीर्षक बनकर रह गई

आशाओं का उगता सूरज

चिड़िया को पंख फैलाए नभ में उड़ते देखा

मुक्त गगन में आशाओं का उगता सूरज देखा

सूरज डूबेगा तो चंदा को भेजेगा राह दिखाने

तारों को दोनों के मध्य हमने विहंसते देखा

सबको बहकाते

पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते

पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते

चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हर पल

हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते

कुछ सपने कुछ अपने

कहने की ही बातें है कि बीते वर्ष अब विदा हुए

सारी यादें, सारी बातें मन ही में हैं लिए हुए

कुछ सपने, कुछ अपने, कुछ हैं, जो खो दिये

आने वाले दिन भी, मन में हैं एक नयी आस लिए

न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो

न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो

न तुम बोले न मैं, मुस्कानों में क्यों बातें करते हो

अनजाने-अनपहचाने रिश्ते अपनों से अच्छे लगते हैं

कदम ठिठकते, दहलीज रोकती, यूं ही मन चंचल करते हो

सर्दी  में सूरज

इस सर्दी  में सूरज तुम हमें बहुत याद आते हो

रात जाते ही थे, अब दिन भर भी गायब रहते हो

देखो, यूं न हमें सताओ, काम कोई कर पाते नहीं

कोहरे को भेद बाहर आओ, क्यों हमें तरसाते हो

समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून

जि़न्‍दगी बिना जोड़-जोड़ के कहां चली है

करता सब उपर वाला हमारी कहां चली है

समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून

इसी मैं-मैं के चक्‍कर में सबकी अड़ी पड़ी है

नियति

जन्म होता है

मरने के लिए।

लड़कियां भी

जन्म लेती हैं

मरने के लिए।

अर्थात्

जन्म लेकर

मरना है

हर लड़की को।

फिर, जब

मरना तय है

तो क्या फ़र्क पड़ता है

कि वह

किस तरह मरे।

कल की मरती

आज मरे।

कल का क्लेश

आज कटे।

जलकर मरे

या डूबकर मरे।

या पैदा होने से

पहले ही मरे।

जब जन्म होता ही

मरने के लिए है

तो जल्दी जल्दी मरे।

मैं करती हूं दुआ

धूप-दीप जलाकर, थाल सजाकर,

मां को अक्सर देखा है मैंने ज्योति जलाते।

टीका करते, सिर झुकाते, वन्दन करते,

पिता को देखा है मैंने आरती उतारते।

हाथ जोड़कर, आंख मूंदकर देखा है मैंने

भाई-बहनों को आरती गाते

मां कहती है सबके दुख-दर्द मिटा दे मां

पिता मांगते सबको बुद्धि, अन्न-धन दे मां

भाई-बहन शिक्षा का आशीष मांगे

और सब करते मेरे लिए दुआ।

 

मां, पिता, भाई-बहनों की बातें सुनती हूं

आज मैं भी करती हूं तुमसे इन सबके लिए दुआ।

सुना है कोई भाग्य विधाता है

सुना है

कोई भाग्य विधाता है

जो सब जानता है।

हमारी होनी-अनहोनी

सब वही लिखता है ,

हम तो बस

उसके हाथ की कठपुतली हैं

जब जैसा चाहे वैसा नचाता है।

 

और यह भी सुना है

कि लेन-देन भी सब

इसी ऊपर वाले के हाथ में है।

जो चाहेगा वह, वही तुम्हें देगा।

बस आस लगाये रखना।

हाथ फैलाये रखना।

कटोरा उठाये रखना।

मुंह बाये रखना।

लेकिन मिलेगा तुम्हें वही

जो तुम्‍हारे  भाग्य में होगा।

 

और यह भी सुना है

कर्म किये जा,

फल की चिन्ता मत कर।

ऊपर वाला सब देगा

जो तुम्हारे भाग्य में लिखा होगा।

और भाग्य उसके हाथ में है

जब चाहे बदल भी सकता है।

बस ध्यान लगाये रखना।

 

और यह भी सुना है

कि जो अपनी सहायता आप करता है

उसका भाग्य ऊपर वाला बनाता है।

इसलिए अपनी भी कमर कस कर रखना

उसके ही भरोसे मत बैठे रहना।

 

और यह भी सुना है

हाथ धोकर

इस ऊपर वाले के पीछे लगे रहना।

तन मन धन सब न्योछावर करना।

मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारा कुछ न छोड़ना।

नाक कान आंख मुंह

सब उसके द्वार पर रगड़ना।

और फिर कुछ बचे

तो अपने लिए जी लेना

यदि भाग्य में होगा तो।

 

आपको नहीं लगता

हमने कुछ ज़्यादा ही सुन लिया है।

 

अरे यार !

अपनी मस्ती में जिये जा।

जो सामने आये अपना कर्म किये जा।

जो मिलना है मिले

और जो नहीं मिलना है न मिले

बस हंस बोलकर आनन्द में जिये जा।

और मुंह ढककर अच्छी नींद लिये जा।

 

यात्रा

 

अस्पलात से श्मशान घाट तक

अर्थी को कंधे पर उठाये

थक रहे थे चार आदमी।

 

एक लाश थी

और चार आदमी।

अस्पलात से श्मशान घाट दूर था।

वैसे तो मिल जाती

अस्पताल की गाड़ी

अस्पलात से श्मशान घाट।

पर कंधों पर ढोकर

इज़्जत दी जाती है आदमी को

मरने के बाद की।

और वे चार आदमी

उसे इज़्जत दे रहे थे।

और इस इज़्जत के घेरे में

रास्ते में

अर्थी ज़मीन पर रखकर

सुस्ताना मना था।

पर वह आदमी

जो मर चुका था

मरने के बाद की स्थिति में

लाश।

उसे दया आई

उन चारों पर।

बोली

भाईयो,

 

थक गये हो तो सुस्ता लो ज़रा

मैं अपने आपको

बेइज़्जत नहीं मानूंगी।

चारों ने सोचा

लाश की यह अन्तिम इच्छा है

जलने से पहले।

इसकी यह इच्छा

ज़रूर पूरी करनी चाहिए।

और वे चारों

उस मोड़ पर

छायादार वृक्ष के नीचे

अर्थी ज़मीन पर रखकर

आराम फ़रमाने लगे।

अचानक

लाश उठ बैठी।

बोली,

मैं लेटे लेटे थक गई हूं।

बैठकर ज़रा कमर सीधी कर लूं।

तुम चाहो तो लेटकर

कमर सीधी कर लो।

मैं कहां भागी जा रही हूं

लाश ही तो हूं।

और वे चारों आदमी लेट गये

और लाश रखवाली करने लगी।

वे चारों

आज तक सो रहे हैं

और लाश

रखवाली कर रही है।

क्रांति

क्रांति उस चिड़िया का नाम है

जिसे नई पीढ़ी ने जन्म दिया।

पुरानी पीढ़ी उसके पैदा होते ही

उसके पंख काट देना चाहती है।

लेकिन नई पीढ़ी उसे उड़ना सिखाती है।

जब वह उड़ना सीख जाती है

तो पुरानी पीढ़ी

उसके लिए,

एक सोने का पिंजरा बनवाती है

और यह कहकर उसे कैद कर लेती है

कि नई पीढ़ी तो उसे मार ही डालती।

यह तो उसकी सुरक्षा सुविधा का प्रबन्ध है।

 

वर्षों बाद

जब वह उड़ना भूल जाती है

तो पिंजरा खोल दिया जाता है

क्योंकि

अब तक चिड़िया उड़ना भूल गई है

और सोने का मूल्य भी बढ़ गया है

इसलिए उसे बेच दिया जाता हे

नया लोहे का लिया जाता है

जिसमें नई पीढ़ी को

इस अपराध में बन्द कर दिया जाता है

आजीवन

कि उसने हमें खत्म करने,

मारने का षड्यन्त्र रचा था

हत्या करनी चाही थी हमारी।

बोध

बोध 

खण्डित दर्पण में चेहरा देखना

अपशकुन होता है

इसलिए तुम्हें चाहिए

कि तुम

अपने इस खण्डित दर्पण को

खण्ड-खण्ड कर लो

और हर टुकड़े में

अपना अलग चेहरा देखो।

फिर पहचानकर

अपना सही चेहरा अलग कर लो

इससे पहले

कि वह फिर से

किन्हीं गलत चेहरों में खो जाये।

 

असलियत तो यह

कि हर टुकड़े का

अपना एक चेहरा है

जो हर दूसरे से अलग है

हर चेहरा एक टुकड़ा है

जो दर्पण में बना करता है

और तुम, उस दर्पण में

अपना सही चेहरा

कहीं खो देते हो

इसलिए तुम्हें चाहिए

कि दर्पण मत संवरने दो।

 

पर अपना सही चेहरा अलगाते समय

यह भी देखना

कि कभी-कभी, एक छोटा-टुकड़ा

अपने में

अनेक चेहरे आेढ़ लिया करता है

इसलिए

अपना सही अलगाते समय

इतना ज़रूर देखना

कि कहीं तुम

गलत चेहरा न उठा डालो।

 

आश्चर्य तो यह

कि हर चेहरे का टुकड़ा

तुम्हारा अपना है

और विडम्बना यह

कि इन सबके बीच

तुम्हारा सही चेहरा

कहीं खो चुका है।

 

ढू्ंढ सको तो अभी ढूंढ लो

क्योंकि दर्पण बार-बार नहीं टूटा करते

और हर खण्डित दर्पण

हर बार

अपने टुकड़ों में

हर बार चेहरे लेकर नहीं आया करता

टूटने की प्रक्रिया में

अक्सर खरोंच भी पड़ जाया करती है

तब वह केवल

एक शीशे का टुकड़ा होकर रह जाता है

जिसकी चुभन

तुम्हारे अलग-अलग चेहरों की पहचान से

कहीं ज़्यादा घातक हो सकती है।

 

जानती हूं,

कि टूटा हुआ दर्पण कभी जुड़ा नहीं करता

किन्तु जब भी कोई दर्पण टूटता है

तो मैं भीतर ही भीतर

एक नये सिरे से जुड़ने लगती हूं

और उस टूटे दर्पण के

छोटे-छोटे, कण-कण टुकड़ों में बंटी

अपने-आपको

कई टुकड़ों में पाने लगती हूं।

समझने लगती हूं

टूटना

और टूटकर, भीतर ही भीतर

एक नये सिरे से जुड़ना।

टूटने का बोध मुझे

सदा ही जोड़ता आया है।

कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल

कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल बना रहे हैं राजाजी

हरदम केतली चढ़ा अपनी वीरता दिखा रहे हैं राजाजी

पानी खौल गया, आग बुझी, कभी भड़क गई देखो ज़रा

फीकी, बासी चाय पिला-पिलाकर बहका रहे हैं राजाजी

समझा रहे हैं राजाजी

वीरता दिखा रहे मंच पर आज राजाजी

हाथ उठा अपना ही गुणगान कर रहे हैं राजाजी

धर्म-कर्म, जाति-पाति के नाम पर मत देना

बस इतना ही तो समझा रहे हैं राजाजी।

बहुत हो गई यहां सबकी जी हुज़ूरी

अब तो मन कठोर करना ही पड़ेगा

जैसे तुम हो वैसा बनना ही पड़ेगा

बहुत हो गई यहां सबकी जी हुज़ूरी

सब छोड़कर आगे बढ़ना ही पड़ेगा

ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए

ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए, मौत की क्यों बात कीजिए

मन में कोई  भटकन हो तो आईये हमसे दो बात कीजिए

आंख खोलकर देखिए पग-पग पर खुशियां बिखरी पड़ी हैं

आपके हिस्से की बहुत हैं यहां, बस ज़रा सम्हाल कीजिए

पुरानी रचनाओं का करें पिष्ट-पेषण

पुरानी रचनाओं का कब तक करें पिष्ट-पेषण सुहाता नहीं

रोज़ नया क्या लिखें हमें तो समझ कुछ अब आता नहीं

कवियों की नित-नयी रचनाएं पढ़-पढ़कर मन कुढ़ता है

लेखनी न चले तो अपने पर ही दया का भाव भाता नहीं

रात से सबको गिला है

रात और चांद का अजीब सा सिलसिला है
चांद तो चाहिए पर रात से सबको गिला है
चांद चाहिए तो रात का खतरा उठाना होगा
चांद या अंधेरा, देखना है, किसे क्या मिला है

बातों का ज्ञान नहीं

उन बातों पर बात करें, जिन बातों का ज्ञान नहीं

उन बातों पर उलझ पड़ें, जिन बातों का अर्थ नहीं

कुछ काम-काज की बात करें तो  है समय नहीं  

उन बातों पर मर मिटते हैं, जिन बातों का सार नहीं

इंसानियत को जीत

अपने भीतर झांककर इंसानियत को जीत

कर सके तो कर अपनी हैवानियत पर जीत

क्या करेगा किसी के गुण दोष देखकर

पूजा, अर्चना, आराधना का अर्थ है बस यही

कर ऐसे  कर्म बनें सब इंसानियत के मीत

अपने आप को खोजती हूं

अपने आप को खोजती हूं

अपनी ही प्रतिच्छाया में।

यह एकान्त मेरा है

और मैं भी

बस अपनी हूं

कोई नहीं है

मेरे और मेरे स्व के बीच।

यह अगाध जलराशि

मेरे भीतर भी है

जिसकी तरंगे मेरा जीवन हैं

जिसकी हलचल मेरी प्रेरणा है

जिसकी भंवर मेरा संघर्ष है

और मैं हूं और

और है मेरी प्रतिच्छाया

मेरी प्रेरणा

सी मेरी भावनाएं

अपने ही साथ बांटती हूं

यह भावुकता

कहां है अपना वश !

कब के रूके

कहां बह निकलेगें

पता नहीं।

चोट कहीं खाई थी,

जख्म कहीं था,

और किसी और के आगे

बिखर गये।

 

सबने अपना अपना

अर्थ निकाल लिया।

अब

क्या समझाएं

किस-किसको

क्या-क्या बताएं।

तह-दर-तह

बूंद-बूंद

बनती रहती हैं गांठें

काल की गति में

कुछ उलझी, कुछ सुलझी

और कुछ रिसती

 

बस यूं ही कह बैठी,

जानती हूं वैसे

तुम्हारी समझ से बाहर है

यह भावुकता !!!

कितना खोया है मैंने

डायरी लिखते समय
मुझसे
अक्सर 
बीचबीच में
एकाध पन्ना
कोरा छूट जाया करता है
और कभी शब्द टूट जाते हैं
बिखरे से, अधूरे।
पता नहीं
कितना खोया है मैंने
और कितना छुपाना चाहा है
अपनेआप से ही
अनकहाअनलिखा छोड़कर।

जब जैसी आन पड़े वैसी होती है मां

मां मां ही नहीं होती
पूरा घर होती है मां।
दरवाज़े, खिड़कियां, दीवारें, 
चौखट, परछत्ती, परदे, बाग−बगीचे,
बाहर−भीतर सब होती है मां।

चूल्हे की लकड़ी − उपले से लेकर
गैस, माइक्रोवेव और माड्यूल किचन तक होती है मां।
दाल –रोटी, बर्तन –भांडे, कपड़े –लत्ते,
साफ़ सफ़ाई, सब होती है मां।

कैलेण्डर, त्योहार, दिन,तारीख
सब होती है मां।

मीठी चीनी से लेकर नीम की पत्ती, तुलसी,
बर्गर − पिज्जा तक सब होती है मां।

कलम दवात से लेकर
कम्प्यूटर, मोबाईल तक सब होती है मां।

स्कूल की पढ़ाई, कालेज की मस्ती,
जब चाहा जेब खर्च
आंचल मे गलतियों को छुपाती
सब होती है मां।

कभी सोती नहीं, बीमार होती नहीं।
सहज समर्पित, 
रिश्तों को बांधती, सहेजती, समेटती, 
दुर्गा, काली, चंडी,

सहस्रबाहु, सहस्रवाहिनी, 
जब जैसी आन पड़े, वैसी होती है मां।

और हम हार लिए खड़े हैं

पाप का घड़ा

अब फूटता

 नहीं।

जब भराव होता है

तब रिसाव होता है

बनते हैं बुत

कुर्सियों पर जमते हैं।

परत दर परत

सोने चांदी के वर्क

समाज, परिवार,धर्म, राजनीति

सब कहीं जमाव होता है।

 

फिर भराव होता है

फिर रिसाव होता है

फिर बनते हैं बुत

 

और हम हार लिए खड़े हैं.........

 

 

एक बदली सोच के साथ

चौबीसों घंटे चाक-चौबन्द

फेरी वाला, दूध वाला,

राशनवाला,

रोगी वाहन बनी घूम रही।

खाना परोस रही,

रोगियों को अस्पताल ढो रही,

घर में रहो , घर में रहो !!!

कह, सुरक्षा दे रही,

बेघर को घर-घर पहुंचा रही,

आप भूखे पेट

भूखों को भोजन करा रही।

फिर भी

हमारी नाराज़गियां झेल रही

ये हमारी पुलिस कर रही।

पुलिस की गाड़ी की तीखी आवाज़

आज राहत का स्वर दे रही।

गहरी सांस  लेते हैं हम

सुरक्षित हैं हम, सुरक्षित हैं हम।

 

 

सोचती हूं

सोच कैसे बदलती है

क्यों बदलती है सोच।

कभी आपने सोचा है

क्या है आपकी सोच ?

कुछ धारणाएं बनाकर

जीते हैं हम,

जिसे बुरा कहने लगते हैं

बुरा ही कहते हैं हम।

चाहे घर के भीतर हों

या घर के बाहर

चोर तो चोर ही होता है,

यह समझाते हैं हम।

 

 

नाके पर लूटते,

जेबें टटोलते,

अपराधियों के सरगना,

झूठे केस बनाते,

आम आदमी को सताते,

रिश्वतें खाते,

नेताओं की करते चरण-वन्दना।

कितनों से पूछा

आपके साथ कब-कब हुआ ऐसा हादसा ?

उत्तर नहीं में मिला।

तो मैंने कहा

फिर आप क्यो कहते हैं ऐसा।

सब कहते हैं, सब जानते हैं,

बस ,इसीलिए हम भी  कह देते हैं,

और  कहने में  क्या   जाता है ?

 

यह हमारा चरित्र है!!!!!!!

 

न देखी कभी उनकी मज़बूरियां,

न समझी कभी उनकी कहानियां

एक दिन में तो नहीं बदल गया

उनका मिज़ाज़

एक दिन में तो

नहीं बन गये वे अच्छे इंसान।

वे ऐेसे ही थे, वे ऐसे ही हैं।

शायद कभी हुआ होगा

कोई एक हादसा,

जिसकी हमने कहानी बना ली

और वायरल कर दी,

गिरा दिया उनका चरित्र

बिन सोचे-समझे।

 

नमन करती हूं इन्हें ,

कभी समय मिले

तो आप भी स्मरण करना इन्हें ,

 

स्मरण करना इन्हें

एक बदली सोच के साथ

न लिख पाने की पीड़ा

भावों का बवंडर उठता है मन में, कुछ लिख ले, कहता है

कलम उठती है, भाव सजते हैं, मन में एक लावा बहता है

कहीं से एक लहर आती है, सब छिन्‍न-भिन्‍न कर जाती है

न लिख पाने की पीड़ा कभी कभी यहां मन बहुत सहता है