बारिश के मौसम में

बारिश के मौसम में मन देखो, है भीग रहा

तरल-तरल-सा मन-भाव यूं कुछ पूछ रहा

क्यों मन चंचल है आज यहां कौन आया है

कैसे कह दूं किसकी यादों में मन सीज रहा

बारिश की बूंदे अलमस्त सी

बारिश की बूंदे अलमस्त सी, बहकी-बहकी घूम रहीं

पत्तों-पत्तों पर सर-सर करतीं, इधर-उधर हैं झूम रहीं

मैंने रोका, हाथों पर रख, उनको अपने घर ले आई मैं

पता नहीं कब भागीं, कहां गईं, मैं घर-भर में ढूंढ रही

उलझनों से भागकर सहज लगता है जीवन

तितलियों संग देखो उड़ता फिरता है मन

चांद-तारो संग देखो मुस्कुराता है गगन

चल कहीं आज किसी के संग बैठें यूं ही

उलझनों से भागकर सहज लगता है जीवन

कब उससे आंखें चार हुईं थीं याद करूं वे दिन

कब उससे आंखें चार हुईं थीं, याद करूं वे दिन

दिखने में भोला-भाला लगता था कैसे थे वे दिन

चिट्ठी पर चिट्ठी लिखता था तब ऐसे थे वे दिन

नागपुर से शिमला आता था भाग-भागकर कितने दिन

तब हंस-हंस मिलता था, आफिस से बंक मार कर

पांच रूपये का सूप पिलाकर बिताता था पूरा दिन

तीन दशक पीछे की यादें अक्सर क्यों लाता है मन

याद करूं जब,तो कहता अब तू दिन में तारे गिन

अब कहता है जा चाय बना और बना साथ चिकन

रिश्तों को तो बचाना है

समय ने दूरियां खड़ी कर दी हैं, न जाने कैसा ये ज़माना है

मिलना-जुलना बन्द हुआ, मोबाईल,वाट्स-एप का ज़माना है

अपनी-अपनी व्यस्तताओं में डूबे,कुछ तो समय निकालो यारो

कभी मेरे घर आओ,कभी मुझे बुलाओ,रिश्तों को तो बचाना है

आवश्यकता है होश दिवस की

१६ अक्टूबर को  'एनेस्थीसिया डे' अर्थात् 'मूर्छा दिवस' होता है

प्रेरित होकर प्रस्तुति

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कोई होश दिवस मनाए

हम सबको होश में लाये

जो हो रहा है

उसकी जांच परख करवाए।

यहां सब सो रहे हैं

किसका धन है काला

किसका है सफ़ेद

कौन हमें बतलाए।

कुछ दुकानें बन्द हो रहीं

कुछ की दीवाली सज रही

इधर बार-बार बाढ़

आ रही

और दुनिया है कि

पानी को तरस रही

कौन बतलाए

कोई होश दिवस मनाएं

हम सबको होश में लाये।

 

बैंक डूब रहे

निकासी बन्द हो रही

सुनते हैं कुछ मंदी है

पर सरकार कहे सब चंगी है

सच को कौन हमें समझाए

कोई होश दिवस मनाए

हम सबको होश में लाये

जो हो रहा है

उसकी जांच परख करवाए।

 

सूर्यग्रहण के अवसर पर लिखी गई एक रचना

दूर कहीं गगन में

सूरज को मैंने देखा

चन्दा को मैंने देखा

तारे टिमटिम करते

जीवन में रंग भरते

लुका-छिपी ये खेला करते

कहते हैं दिन-रात हुई

कभी सूरज आता है

कभी चंदा जाता है

और तारे उनके आगे-पीछे

देखो कैसे भागा-भागी करते

कभी लाल-लाल

कभी काली रात डराती

फिर दिन आता

सूरज को ढूंढ रहे

कोहरे ने बाजी मारी

दिन में देखो रात हुई

चंदा ने बाजी मारी

तम की आहट से

दिन में देखो रात हुई

प्रकृति ने नवचित्र रचाया

रेखाओं की आभा ने मन मोहा

दिन-रात का यूं भाव टला

जीवन का यूं चक्र चला

कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे

कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते

बस, जीवन का यूं चक्र चला

कैसे समझा, किसने समझा

धूप ये अठखेलियां हर रोज़ करती है

पुरानी यादें यूं तो मन उदास करती हैं

पर जब कुछ सुनहरे पल तिरते हैं

मन में नये भाव खिलते हैं

कोहरे में धुंधलाती रोशनियां

चमकने लगती हैं

कुछ बूंदे तिरती हैं

झुके-झुके पल्लवों पर

आकाश में नीलिमा तिरती है

फूल लेने लगते हैं अंगडाईयां

मन में कहीं आस जगती है

धूप ये अठखेलियां हर रोज़ करती है

नदिया की धार-सी टेढ़ी-मेढ़ी बहती है ज़िन्दगी

जीवन का आनन्द है कुछ लाड़ में, कुछ तकरार में

अपनों से कभी न कोई गिला, न जीत में न हार में

नदिया की धार-सी टेढ़ी-मेढ़ी बहती है ज़िन्दगी

रूठेंगे अगर कभी तो मना ही लेंगे हम प्यार से

सत्य-पथ का अनुसरण करें

न विधि न विधान, बस मन में भक्ति-भाव रखते हैं

न धूप-दीप, न दान-दक्षिणा, समर्पण भाव रखते हैं

कोई हमें नास्तिक कहे, कोई कह हमें धर्म-विरोधी

सत्य-पथ का अनुसरण करें, बस यही भाव रखते है।

मैं क्यों दोषी बेटा पूछे मुझसे

मैं क्या दत्तक हूं जो मेरी बात कभी न करते, बेटा रूठा बैठा है मुझसे
मैंने ऐसा क्या बुरा किया, हरदम हर कोई कोसे लड़के, बेटा पूछे मुझसे
लड़की को शिक्षा दो, रक्षा दो, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाओ, कब रोका मैंने
रीति-रिवाज़, परम्पराओं का बन्धन तुमने डाला, मैं क्यों दोषी, बेटा पूछे मुझसे

कैसे जीते-जी अमर होते है

सरकार से सीखो कुछ, पांच साल कैसे सोते हैं

सरकार से सीखो कुछ, झूठे वादे कैसे होते हैं

हमारी ज़िन्दगी कोई पांच साला सरकार नहीं है

फिर भी सरकार से सीखो कैसे जीते-जी अमर होते है।

कहीं हम अपने को ही छलते हैं

ज़िन्दगी की गठजोड़ में अनगिनत सपने पलते हैं

कुछ देखे-अनदेखे पल जीवन-भर साथ चलते हैं

समझ नहीं पाते क्या खोया, क्या पाया, कहां गया

इस नासमझी में कहीं हम अपने को ही छलते हैं

गीत नेह के गुनगुनाएं

सम्बन्धों को संवारने के लिए बस छोटे-छोटे गठजोड़ कीजिए
कुछ हम झुकें कुछ तुम झुको, इतनी-सी पुरज़ोर कोशिश कीजिए
हाथ थामें, गीत नेह के गुनगुनाएं, मधुर तान छेड़, स्वर मिलाएं,
मिलने-मिलाने की प्रथा बना लें, चाहे जैसे भी जोड़-तोड़ कीजिए


 

भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना

सेनानियों की वीरता को हम सदा नमन करते हैं

पर अपना कर्तव्य भी वहन करें यह बात करते हैं

भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना को सत्य करें

इस तरह राष्ट्र् के सम्मान की हम बात करते हैं

कोई हमें आंख दिखाये  सह नहीं सकते

त्याग, अहिंसा, शांति के नाम पर आज हम पीछे हट नहीं सकते

शक्ति-प्रदर्शन चाहिए, किसी की चेतावनियों से डर नहीं सकते

धरा से गगन तक एक आवाज़ दी है हमने, विश्व को जताते हैं

आत्मरक्षा में सजग, कोई हमें आंख दिखायेसह नहीं सकते

 

बलिदान, त्याग, समर्पण की बात

बलिदान, त्याग, समर्पण की बात  बहुत करते हैं, बस सैनिकों के लिए

अपने पर दायित्व आता है जब, रास्ते बहुत हैं हमारे पास बचने के लिए

बस दूसरों से अपेक्षाएं करें और आप चाहिए हमें चैन की नींद हर पल

सीमा पर वे ठहरे हैं, हम भी सजग रहें सदा, कर्त्तव्य निभाने के लिए

 

जीवन के प्रश्‍नपत्र में

जीवन के प्रश्‍नपत्र में कोई प्रश्‍न वैकल्पिक नहीं होते

जीवन के प्रश्‍नपत्र के सारे प्रश्‍न कभी हल नहीं होते

किसी भाषा में क्‍या लिख डाला, अनजाने से बैठे हम

इस परीक्षा में तो नकल के भी कोई आसार नहीं होते 

 

पूछती है मुझसे मेरी कलम

राष्ट्र भक्ति के गीत लिखने के लिए कलम उठाती हूं जब जब

पूछती है मुझसे मेरी कलम, देश हित में तूने क्‍या किया अब तक

भ्रष्ट्राचार, झूठ, रिश्वतखोरी,अनैतकिता के विरूद्ध क्या लड़ी कभी

गीत लिखकर महान बनने की कोशिश करोगे कवि तुम कब तक

सजग रहना हमारा कर्त्तव्य है

केवल दोषारोपण करके अपनी कमज़ोरियों से हम मुंह मोड़ नहीं सकते

सजग रहना हमारा कर्त्तव्य है, अपने दायित्वों को  हम छोड़ नहीं सकते

देश की सुरक्षा हेतु सैनिकों के बलिदान को कैसे व्यर्थ हो जाने दें हम

कुछ ठोस हो अब, विश्वव्यापी आतंकवाद से हम मुंह मोड़ नहीं सकते

उदित होते सूर्य से पूछा मैंने

उदित होते सूर्य से पूछा मैंने, जब अस्त होना है तो ही आया क्यों
लौटते चांद-तारों की ओर देख, सूरज मन ही मन मुस्काया क्यों
कभी बादल बरसे, इन्द्रधनुष निखरा, रंगीनियां बिखरीं, मन बहका
परिवर्तन ही जीवन है, यह जानकर भी तुम्हारा मन भरमाया क्यों

क्यों मैं नीर भरी दुख की बदरी

(कवियत्री महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध रचना की पंक्ति पर आधारित रचना)

• * * * *

क्यों मैं नीर भरी दुख की बदरी

न मैं न नीर भरी दुख की बदरी

न मैं राधा न गोपी, न तेरी हीर परी

न मैं लैला-मजनूं की पीर भरी।

• * * * *

जब कोई कहता है

नारी तू महान है, मेरी जान है

पग-पग तेरा सम्मान है

जब मुझे कोई त्याेग, ममता, नेह,

प्यार की मूर्ति या देवी कहता है

तब मैं एक प्रस्तर-सा अनुभव करती हूं।

जब मेरी तुलना सती-सीता-सावित्री,

मीरा, राधा से की जाती है

तो मैं जली-भुनी, त्याज्य, परकीया-सी

अपमानित महसूस करती हूं।

जब दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती से

तुलना की जाती है

तब मैं खिसियानी सी हंसने लगती हूं।

o * * *

ढेर सारे अर्थहीन श्लाघा-शब्द

मुझे बेधते हैं, उपहास करते हैं मेरा।

• * * * * *

न मुझे आग में जलना है

न मुझे सूली पर चढ़ना है

न महान बनना है,

बेतुके रिश्तों में न बांध मुझे

मुझे बस अपने मन से जीना है,

अपने मन से मरना है।

 

अस्त होते सूर्य को नमन करें

हार के बाद भी जीत मिलती है  

चलो आज हम अस्त होते सूर्य को नमन करें
घूमकर आयेगा, तब रोशनी देगा ही, मनन करें
हार के बाद भी जीत मिलती है यह जान लें,
न डर, बस लक्ष्य साध कर, मन से यत्न करें

अनुभव की थाती

पर्वतों से टकराती, उबड़-खाबड़ राहों पर जब नदी-नीर-धार बहती है

कुछ सहती, कुछ गाती, कहीं गुनगुनाती, तब गंगा-सी निर्मल बन पाती है

अपनेपन की राहों में ,फूल उगें और कांटे न हों, ऐसा कम ही होता है

यूं ही जीवन में कुछ खोकर, कुछ पाकर, अनुभव की थाती बन पाती है।

कुछ आहटें आवाज़ नहीं करती

कुछ आहटें

आवाज़ नहीं करती,

शोर नहीं मचातीं,

मन को झिंझोड़ती हैं,

समझाती हैं,

समय पर सचेत करती हैं,

बेआवाज़

कानों में गूंजती हैं।

दबे कदमों से

हमारे भीतर

प्रवेश कर जाती हैं।

दीवारों के आर-पार

भेदती हैं।

यदि कभी महसूस भी करते हैं हम

तो हमें शत्रु-सी प्रतीत होती हैं।

 

क्योंकि

हम शोर के आदी,

चीख-चिल्लाहटों के साथी,

जिह्वा पर विषधर पाले,

उन आहटों को पहचान ही नहीं पाते

जो ज़िन्दगी की आहट होती हैं

जो अपनों की आवाज़ होती हैं

जीवन-संगीत और साज़ होती हैं

 

भटकते हैं हम,

समझते और कहते हैं

हमारा कोई नहीं।

 

 

बासी रोटी-से तिरछे ऐंठे हैं

प्रेम-प्यार की बातें करते, मन में गांठें बांधे बैठे हैं

चेहरा देखो तो इनका, बासी रोटी-से तिरछे ऐंठे हैं

झूठे वादे टप-टप गिरते, गठरी देखो खुली पड़ी

दिखते प्यारे, हमसे पूछो, अन्दर से कितने कैंठे हैं।

जीवन में अपनेपन के द्वार बहुत हैं

जीवन में आस बहुत है, विश्वास बहुत है

आस्था, निष्ठा, श्रद्धा के आसार बहुत हैं

बस एक बार संदेह की दीवारें गिरा दो

जीवन में अपनेपन के खुले द्वार बहुत हैं।

मंचों पर बने रहने के लिए

अब तो हमको भी आनन-फ़ानन में कविता लिखना आ गया

बिना लय-ताल के प्रदत्त शीर्षक पर गीत रचना आ गया

जानते हैं सब वाह-वाह करके किनारा कर लेते हैं बिना पढ़े

मंचों पर बने रहने के लिए हमें भी यह सब करना आ गया

अब वक्त चला गया

 

सहज-सहज करने का युग अब चला गया

हर काम अब आनन-फ़ानन में करना आ गया

आज बीज बोया कल ही फ़सल चाहिए हमें

कच्चा-पक्का यह सोचने का वक्त चला गया

बात कहो खरी-खरी

बात कहो खरी-खरी, पर न कहना जली-कटी

बात-बात में उलझो न, सह लेना कभी जली-कटी

झूठी लाग-लपेट से कभी रिश्ते नहीं संवरते

देखना तब रिश्तों की दूरियां कब कैसे मिटीं