उतरना होगा ज़मीनी सच्चाईयों पर
कभी था समय जब जनता जागती थी साहित्य की ललकार से
आज कहां समय किसी के पास जो जुड़े किसी की पुकार से
मात्र कलम से नहीं बदलने वाली अब समाज की ये दुश्वारियां
उतरना होगा ज़मीनी सच्चाईयों पर आम आदमी की पुकार से
असम्भव कुछ नहीं होता ‘गर ठान ली हो मन में
कहो तो आसमां के चांद तारे तोड़ लाउं तुम्हारे लिए
कहो तो सागर की धारा को मोड़ लाउं तुम्हारे लिए
असम्भव कुछ भी नहीं होता ‘गर ठान ली हो मन में
शब्द भाव समझ लो तो जीवन समर्पित है तुम्हारे लिए
हर किसी में खोट ढूंढने में लगे हैं हम
अच्छाईयों से भी अब डरने लगे हैं हम
हर किसी में खोट ढूंढने में लगे हैं हम
अपने भीतर झांकने की तो आदत नहीं
औरों के पांव के नीचे से चादर खींचने में लगे हैं हम
सीधे-सादे भोले-भाले लोगों की खिल्ली उड़ती है
सीधे-सादे भोले-भाले लोगों की अब खिल्ली देखो उड़ती है
चतुर सुजान लोगों के नामों से अब यह दुनिया चलती है
अच्छे-अच्छे लोगों के अब नाम नहीं जाने कोई यहां पर
कपटी, चोर-उचक्कों के डर से कानूनों की धज्जियां उड़ती हैं
बेवजह जागने की आदत नहीं हमारी
झूठ, छल-कपट, मिथ्या-आचरण, भ्रष्टाचार में जीते हैं हम किसी को क्या
बेवजह जागने की आदत नहीं हमारी, जो भी हो रहा, होता रहे हमें क्या
आराम से खाते-पीते हैं, मज़े से जीते हैं, दुनिया लड़-मर रही, मरती रहे
लहर है तो, सत्य, अहिंसा, प्रेम पर लिखने को जी चाहता है तुम्हें क्या
आतंक मन के भीतर पसरा है
शांत है मेरा शहर फिर भी देखो डरे हुए हैं हम
न चोरी न डाका फिर भी ताले जड़े हुए हैं हम
बाहर है सन्नाटा, आतंक मन के भीतर पसरा है
बेवजह डर डर कर जीना सीखकर बड़े हुए हैं हम
वितंडावाद में चतुर
घात प्रतिघात आघात की बात हम करते रहे है
अपनी नाकामियों का दोष दूसरों पर मढ़ते रहे हैं
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे कुछ करने का दम नहीं है
वितंडावाद में चतुर जनता को भ्रमित करते रहे हैं
औरों को मत देख बस अपने मन में ठान ले
अपने जीवन को निष्कपट बनाने के लिए क्रांति की जरूरत है
अपने भीतर की बुराईयों को मिटाने के लिए क्रांति की जरूरत है
किसी क्रांतिकारी ने कभी झाड़ू नहीं उठाया था किसी नारे के साथ
औरों को मत देख बस अपने मन में ठान ले इसकी ज़रूरत है
स्वच्छता अभियान की नहीं, स्वच्छ भारत बनाये रखने की ज़रूरत है
जमाना जले तो जलने दो
मौसम आशिकाना है मुहब्बत की बात करो न
जमाना जले तो जलने दो इकरार से डरो न
उम्र की बात न करना मेरे साथ, जी जलता है
नहीं समझ आती मेरी बात तो बाबा बन के मरो न
बस स्नेह की वाणी बोल रे
बस दो मीठे बोल बोल ले
जीवन में मधुरस घोल ले
सहज-सहज बीतेगा जीवन
बस स्नेह की वाणी बोल रे
अमृत गरल जो भी मिले
जीवन सरल सहज है बस मस्ती में जिये जा
सुख दुख तो आयेंगे ही घोल पताशा पिये जा
न बोल,बोल कड़वे,हर दिन अच्छा बीतेगा
अमृत गरल जो भी मिले हंस बोलकर लिये जा
कौन क्या कहता है, भूलकर मदमस्त जिये जा
हाथ पर रखें लौ को
रोशनी के लिए दीप प्रज्वलित करते हैं
फिर दीप तले अंधेरे की बात करते हैं
तो हिम्मत करें, हाथ पर रखें लौ को
जो जग से तम मिटाने की बात करते है
न उदास हो मन
पथ पर कंटक होते है तो फूलों की चादर भी होती है
जीवन में दुख होते हैं तो सुख की आशा भी होती है
घनघोर घटाएं छंट जाती हैं फिर धूप छिटकती है
न उदास हो मन, राहें कठिन-सरल सब होती हैं
भोर का सूरज
भोर का सूरज जीवन की आस देता है
भोर का सूरज रोशनी का भास देता है
सुबह से शाम तक ढलते हैं जीवन के रंग
भोर का सूरज नये दिन का विश्वास देता है
गगन पर बिखरी रंगीनिया
सूरज की किरणें देखो नित नया कुछ लाती है
भोर की आभा देखो नित नये रूप सजाती है
पत्ते-पत्ते पर खेल रही ओस की बूंदे झिलमिल
गगन पर बिखरी रंगीनिया देखो नित लुभाती है।
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
ज्यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल
डांट पड़ी तो रो दिये,मां का आंचल भीगा
शरारती-से,जाने कहां गये ज़रा देखो बादल
कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो
राधा बोली कृष्ण से, चल श्याम वन में, रासलीला के लिए।
कृष्ण हतप्रभ, बोले गीता में दिया था संदेश हर युग के लिए।
बहुत अवतार लिए, युद्ध लड़े, उपदेश दिये तुम्हें हे मानव!
कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो मेरी आराधना के लिए ।
क्यों अनकही बातें नासूर बनकर रहें
मन में कटु भाव रहें, मुख पर हास रहे
इस छल-कपट को कौन कब तक सहे
जो मन में है, खुलकर बोल दिया कर
क्यों अनकही बातें नासूर बनकर रहें
अफ़वाहों से दूरी कीजिए
थोड़ा धीरज कीजिए, घर के भीतर रह लीजिए
समय की मांग है अब अपनों से दूरी कीजिए
विश्वव्यापी समस्याओं से उलझे हुए हैं हम
सब ठीक हो जायेगा, अफ़वाहों से दूरी कीजिए
डरे हुए हैं हम
तनिक विचार कीजिए कहां खड़े हैं हम
न आयुध, न सेना, फिर भी लड़ रहे हैं हम
परस्पर दूरियां बनाकर जीने को विवश हैं
मौत किस ओर से आयेगी डरे हुए हैं हम
फंसते हैं मंझधार में हम
सत्य बोलें तो मधुर नहीं
असत्य वचन उचित नहीं
फंसते हैं मंझधार में हम
मौन भी तो समाधान नहीं
गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
बोली मायके से भाई आया था कितने दिन
क्या-क्या लाया, क्या दे गया और क्या बात हुई
मां की बहुत याद आई रो पड़ी, गौरैया उस दिन
चिड़-चिड़ करती गौरैया
चिड़-चिड़ करती गौरैया
उड़-उड़ फिरती गौरैया
दाना चुगती, कुछ फैलाती
झट से उड़ जाती गौरैया
सोने की हैं ये कुर्सियां
सरकार अपनी आ गई है चल अब तोड़ाे जी ये कुर्सियां
काम-धाम छोड़-छाड़कर अब सोने की हैं जी ये कुर्सियां
पांच साल का टिकट कटा है हमरे इस आसन का
कई पीढ़ियों का बजट बनाकर देंगी देखो जी ये कुर्सियां
कभी फुहार तो कभी बहार
चल सावन की घटाओं को हेर फेर घेर लें हम
जैसा मन आये वैसे ही मन की बात टेर लें हम
कभी हरा, कभी सूखा कभी फुहार तो कभी बहार
प्यार, मनुहार, इकरार, जैसे भी उनको घेर लें हम
कहते हैं सावन जलता है
कहते हैं सावन जलता है, यहां तो गली-गली पानी बहता है
प्यार की पींगे चढ़ती हैं, यहां सड़कों पर सैलाब बहता है
जो घर से निकला पता नहीं किस राह लौटेगा बहते-बहते
इश्क-मुहब्बत कहने की बातें, छत से पानी टपका रहता है
राहें जिन्दगी की खूबसरत हैं
जिन्दगी कोई शतरंज नहीं कि चाल चलकर मात हो
जिन्दगी कोई ख्वाब नहीं कि सपनों में हर बात हो
राहें जिन्दगी की खूबसरत हैं साथ साथ चलते रहें
जिन्दगी कोई रण नहीं कि बात बात पर प्रतिघात हो
नारी में भी चाहत होती है
ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है
कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी ही राहत होती है
पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है
ऐसा ही होता है हर युग में
अग्नि परीक्षा देने पर भी सीता तो बदनाम हुई थी
किया कुकर्म इन्द्र ने पर अहिल्या तो बलिदान हुई थी
पाषाण रूप पड़ी रही, सीता को बनवास मिला था
ऐसा ही होता है हर युग में नारी ही कुरबान हुई थी
अबला- सबला की बातें अब छोड़ क्यों नहीं देते
शूर्पनखा, सती-सीता-सावित्री, देवी, भवानी की बातें अब हम छोड़ क्यों नहीं देते
कभी आरोप, कभी स्तुति, कभी उपहास, अपने भावों को नया मोड़ क्यों नहीं देते
बातें करते अधिकारों की, मानों बेडि़यों में जकड़ी कोई जन्मों की अपराधी हो
त्याग, तपस्या , बलिदान समर्पण अबला- सबला की बातें अब छोड़ क्यों नहीं देते