अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
वैकल्पिक अवसर कहां देती है ज़िन्दगी,
जब चाहे कुछ भी छीन लेती है ज़िन्दगी
भाग्य को नहीं मानती मैं, पर फिर भी
अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
नहीं जानें कौन अपराधी कौन महान
बहन के मान के लिए रावण ने लगाया था दांव पर सिंहासन
पर-आरोपों के घेरे में राम ने त्यागा पत्नी को बचाया सिंहासन
युग बदला, रावण को हम अपराधी मानें, दुर्गा का करें विसर्जन
विभीषण की न बात करें जिसने कपट कर पाया था सिंहासन
जब चाहिए वरदान तब शीश नवाएं
जब-जब चाहिए वरदान तब तब करते पूजा का विधान
दुर्गा, चण्डी, गौरी सबके आगे शीश नवाएं करते सम्मान
पर्व बीते, भूले अब सब, उठ गई चौकी, चल अब चौके में
तुलसी जी कह गये,नारी ताड़न की अधिकारी यह ले मान।।
ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं रिश्ते
वे चुप-चुप थे ज़रा, हमने पूछा कई बार, क्या हुआ है
यूं ही छोटी-छोटी बातों पर भी कभी कोई गैर हुआ है
ज़िन्दगी में मुश्किल से सम्हलते हैं कुछ अच्छे रिश्ते
सबसे हंस-बोलकर समय बीते, ऐसा कब-कब हुआ है
वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर
शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें
हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने
विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का
वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें
कौन हैं अपने कौन पराये
कुछ मुखौटै चढ़े हैं, कुछ नकली बने हैं
किसे अपना मानें, कौन पराये बने हैं
मीठी-मीठी बातों पर मत जाना यारो
मानों खेत में खड़े बिजूका से सजे हैं
झूठ के आवरण चढ़े हैं
चेहरों पर चेहरे चढ़े हैं
असली तो नीचे गढ़े हैं
कैसे जानें हम किसी को
झूठ के आवरण चढ़े हैं
समय ने बदली है परिवार की परिल्पना
समय ने बदली है परिवार की परिल्पना, रक्त-सम्बन्ध बिखर गये
जहां मिले अपनापन, सुख-दुख हो साझा, वहीं मन-मीत मिल गये
झूठे-रूठे-बिगड़े सम्बन्धों को कब तक ढो-ढोकर जी पायेंगे
कौन है अपना, कौन पराया, स्वार्थान्धता में यहां सब बदल गये
कितने बन्दर झूम रहे हैं
शेर की खाल ओढ़कर शहर में देखो गीदड़ घूम रहे हैं
टूटे ढोल-पोल की ताल पर देखो कितने बन्दर झूम रहे हैं
कौन दहाड़ रहा पता नहीं, और कौन कर रहा हुआं-हुंआ
कौन है असली, कौन है नकली, गली-गली में ढूंढ रहे है।
इंसानियत गमगीन हुई है
जबसे मुट्ठी रंगीन हुई हैं,
तब से भावना क्षीण हुई हैं।
बात करते इंसानियत की
पर इंसानियत
अब कहां मीत हुई है।
रंगों से पहचान रहे,
हम अपनों को
और परख रहे परायों को,
देखो यहां
इंसानियत गमगीन हुई है।
रंगों को बांधे मुट्ठी में
इनसे ही अब पहचान हुई है।
बाहर से कुछ और दिखें
भीतर रंगों में तकरार हुई है।
रंगों से मिलती रंगीनियां
ये पुरानी बात हुई है।
बन्द मुट्ठियों से अब मन डरता है
न जाने कहां क्या बात हुई है।
चल मुट्ठियों को खोलें
रंग बिखेरें,
तू मेरा रंग ले ले,
मैं तेरा रंग ले लूं
तब लगेगा, कोई बात हुई है।
कभी कांटों को सहेजकर देखना
फूलों का सौन्दर्य तो बस क्षणिक होता है
रस रंग गंध सबका क्षरण होता है
कभी कांटों को सहेजकर देखना
जीवन भर का अक्षुण्ण साथ होता है
अपनी नज़र से देखने की एक कोशिश
मेरा एक रूप है, शायद !
मेरा एक स्वरूप है, शायद !
एक व्यक्तित्व है, शायद !
अपने-आपको,
अपने से बाहर,
अपनी नज़र से
देखने की,
एक कोशिश की मैंने।
आवरण हटाकर।
अपने आपको जानने की
कोशिश की मैंने।
मेरी आंखों के सामने
एक धुंधला चित्र
उभरकर आया,
मेरा ही था।
पर था
अनजाना, अनपहचाना।
जिसने मुझे समझाया,
तू ऐसी ही है,
ऐसी ही रहेगी,
और मुझे डराते हुए,
प्रवेश कर गया मेरे भीतर।
कभी-कभी
कितनी भी चाहत कर लें
कभी कुछ नहीं बदलता।
बदल भी नहीं सकता
जब इरादे ही कमज़ोर हों।
खड़ी करनी है मज़बूत इमारत, प्यादों पर भरोसा कीजिए
जोकर, इक्का, बेगम, गुलाम, सबकी चाल चलनी आनी चाहिए
सारी चालें हैं वज़ीर के हाथ, इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए
मुहावरों पर मत जाना कि गिरते देखे हैं ताश के महल भरभरा कर
“गर खड़ी करनी है मज़बूत इमारत, प्यादों पर भरोसा करना चाहिए
चाय सुबह मिले या शाम को
सुबह की चाय और मीठी नींद की बात ही कुछ और है।
एक से बात कहां बनती है, दो-चार का तो चले दौर है।
ठीक नशे का काम करती है चाय, सुबह मिले या शाम को,
कितनी भी मिल जाये तो भी मन पूछता है, और है? और है?
चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे
चांद से छिटककर चांदनी धरा पर है चली आई
पगली-सी डोलती, देखो कहां कहां है घूम आई
देख-देखकर चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे
रवि की आहट से डर,फिर चांद के पास लौट आई
मुझे तो हर औरत दिखाई देती है
तुम सीता हो या सावित्री
द्रौपदी हो या कुंती
अहिल्या हो या राधा-रूक्मिणी
मैं अक्सर पहचान ही नहीं पाती।
सम्भव है होलिका, अहिल्या,
गांधारी, कुंती, उर्मिला,
अम्बा-अम्बालिका हो।
या नीता, गीता
सुशीला, रमा, शमा कोई भी हो।
और भी बहुत से नाम
स्मरण आ रहे हैं मुझे
किन्तु मैं स्वयं भी
किसी असमंजस में नहीं
पड़ना चाहती,
और न ही चाहती हूं
कि तुम सोचने लगो,
कि इसकी तो बातें
सदैव ही अटपटी-होती हैं
उलझी-उलझी।
तुम्हें क्या लगता है
कौन है यह?
सती-सावित्री?
मुझे तो हर औरत
दिखाई देती है इसके भीतर
सदैव पति के लिए
दुआएं मांगती,
यमराज के आगे सिर झुकाकर
अपनी जीवन देकर ।
दुनिया नित नये रंग बदले
इधर केशों ने रंग बदला और उधर सम्बोधन भी बदल गये
कल तक जो कहते थे बहनजी उनके हम अम्मां जी हो गये
दुनिया नित नये रंग बदले, हमने देखा, परखा, भोगा है जी
तो हमने भी केशों का रंग बदला, अब हम आंटी जी हो गये
रेखाओं का खेल है प्यारे
रेखाओं का खेल है प्यारे, कुछ शब्दों में ढल जाते हैं कुछ आकारों में
कुछ चित्रों को कलम बनाती, कुछ को उकेरती तूलिका विचारों में
भावों का संसार विचित्र, स्वयं समझ न पायें, औरों को क्या समझायें
न रूप बने न रंग चढ़े, उलझे-सुलझे रह जाते हैं अपने ही उद्गारों में
रंग-बिरंगी आभा लेकर
काली-काली घनघोर घटाएं, बिजुरी चमके, मन बहके
झर-झर-झर बूंदें झरतीं, चीं-चीं-चीं-चीं चिड़िया चहके
पीछे से कहीं आया इन्द्रधनुष रंग-बिरंगी आभा लेकर
मदमस्त पवन, धरा निखरी, उपवन देखो महके-महके
मन आनन्दित होता है
लेन-देन में क्या बुराई
जितना चाहो देना भाई
मन आनन्दित होता है
खाकर पराई दूध-मलाई
तुम तो चांद से ही जलने लगीं
तुम्हें चांद क्या कह दिया मैंने, तुम तो चांद से ही जलने लगीं
सीढ़ियां तानकर गगन से चांद को उतारने की बात करने लगीं
अरे, चांद का तो हर रात आवागमन रहता है टिकता नहीं कभी
हमारे जीवन में बस पूर्णिमा है,इस बात को क्यों न समझने लगीं
किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी
गत-आगत के मोह से जुड़ी है ज़िन्दगी
स्मृतियों के जोड़ पर खड़ी है ज़िन्दगी
मीठी-खट्टी जो भी हैं, हैं तो सब अपनी
जाने किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी
कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
गत-आगत के मोह में आज को खो रहे हैं हम
जो मिला या न मिला इस आस को ढो रहे हैं हम
यहां-वहां, कहां-कहां, किस-किसके पास क्या है
इसी कशमकश में कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
सोचने का वक्त ही कहां मिला
ज़िन्दगी की खरीदारी में मोल-भाव कभी कर न पाई
तराजू लेकर बैठी रही खरीद-फरोख्त कभी कर न पाई
कहां लाभ, कहां हानि, सोचने का वक्त ही कहां मिला
इसी उधेड़बुन में उलझी जिन्दगी कभी सम्हल न पाई
मत विश्वास कर परछाईयों पर
कौन कहता है दर्पण सदैव सच बताता है
हम जो देखना चाहें अक्सर वही दिखाता है
मत विश्वास कर इन परछाईयों-अक्सों पर
बायें को दायां और दायें को बायां बताता है
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया
जब से आया बजट है भैया, अपनी हो गई ता-ता थैया
जब से सुना बजट है वैरागी होने को मन करता है भैया
मेरा पैसा मुझसे छीनें, ये कैसी सरकार है भैया
देखो-देखो टैक्स बरसते, छाता कहां से लाउं मैया
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया, थोड़ी मुझको देना भैया
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं, कहने की ही बातें भैया
टैक्स भरो, टैक्स भरो, सुनते-सुनते नींद हमारी टूट गई
मुट्ठी से रिसता है धन, गुल्लक मेरी टूट गई
जब से सुना बजट है भैया, मोह-माया सब छूट गई
सिक्के सारे खन-खन गिरते किसने लूटे पता नहीं
मेरी पूंजी किसने लूटी, कैसे लूटी मुझको यह तो पता नहीं
किसकी जेबें भर गईं, किसकी कट गईं, कोई न जानें भैया
इससे बेहतर योग चला लें, चल मुफ्त की रोटी खाएं भैया
नासूर सी चुभती हैं बातें
काश मैं वह सब बोल पाती, कुछ सीमाओं को तोड़ पाती
नासूर सी चुभती हैं कितनी ही बातें, क्यों नहीं मैं रोक पाती
न शब्द मिलें, न आज़ादी, और न नैतिकता अनुमति देती है
पर्यावरण के शाब्दिक प्रदूषण का मैं खुलकर, कर विरोध पाती
ये चिड़िया क्या स्कूल नहीं जाती
मां मुझको बतलाना
ये चिड़िया
क्या स्कूल नहीं जाती ?
सारा दिन बैठी&बैठी,
दाना खाती, पानी पीती,
चीं-चीं करती शोर मचाती।
क्या इसकी टीचर
इसको नहीं डराती।
इसकी मम्मी कहां जाती ,
होमवर्क नहीं करवाती।
सारा दिन गाना गाती,
जब देखो तब उड़ती फिरती।
कब पढ़ती है,
कब लिखती है,
कब करती है पाठ याद
इसको क्यों नहीं कुछ भी कहती।
अपने-आपको अपने साथ ही बांटिये अपने-आप से मिलिए
हम अक्सर सन्नाटे और
शांति को एक समझ बैठते हैं।
शांति भीतर होती है,
और सन्नाटा !!
बाहर का सन्नाटा
जब भीतर पसरता है
बाहर से भीतर तक घेरता है,
तब तोड़ता है।
अन्तर्मन झिंझोड़ता है।
सन्नाटे में अक्सर
कुछ अशांत ध्वनियां होती हैं।
हवाएं चीरती हैं
पत्ते खड़खड़ाते हैं,
चिलचिलाती धूप में
बेवजह सनसनाती आवाज़ें,
लम्बी सूनी सड़कें
डराती हैं,
आंधियां अक्सर भीतर तक
झकझोरती हैं,
बड़ी दूर से आती हैं
कुत्ते की रोने की आवाज़ें,
बिल्लियां रिरियाती है।
पक्षियों की सहज बोली
चीख-सी लगने लगती है,
चेहरे बदनुमा दिखने लगते हैं।
हम वजह-बेवजह
अन्दर ही अन्दर घुटते हैं,
सोच-समझ
कुंद होने लगती है,
तब शांति की तलाश में निकलते हैं
किन्तु भीतर का सन्नाटा छोड़ता नहीं।
कोई न मिले
तो अपने-आपको
अपने साथ ही बांटिये,
अपने-आप से मिलिए,
लड़िए, झगड़िए, रूठिए,मनाईये।
कुछ खट्टा-मीठा, मिर्चीनुमा बनाईये
खाईए, और सन्नाटे को तोड़ डालिए।
याद है आपको डंडे खाया करते थे
याद है आपको, भूगोल की कक्षा में ग्लोब घुमाया करते थे
शहरों की गलत पहचान करने पर कितने डंडे खाया करते थे
नदी, रेल, सड़क, सूखा, हरियाली के चिह्न याद नहीं होते थे
मास्टर जी के जाते ही ग्लोब को गेंद बनाकर नचाया करते थे