बहुत बाद समझ आया
कितनी बार ऐसा हुआ है
कि समय मेरी मुट्ठी में था
और मैं उसे दुनिया भर में
तलाश कर रही थी।
मंजिल मेरे सामने थी
और मैं बार-बार
पीछे मुड़-मुड़कर भांप रही थी।
समस्याएं बाहर थीं
और समाधान भीतर,
और मैं
आकाश-पाताल नाप रही थी।
बहुत बाद समझ आया,
कभी-कभी,
प्रयास छोड़कर
प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए,
भटकाव छोड़
थोड़ा विश्राम कर लेना चाहिए।
तलाश छोड़
विषय बदल लेना चाहिए।
जीवन की आधी समस्याएं
तो यूं ही सुलझ जायेंगीं।
बस मिलते रहिए मुझसे,
ऐसे परामर्श का
मैं कोई शुल्क नहीं लेती।
यह दिल की बात है
कभी दिल है
कभी दिलदार होगा ।
बादलों में
यूं हमारा नाम होगा ।
कभी होती है झड़ी
कभी चांद का रोब-दाब होगा ।
देखो , झांकती है रोशनी ।
कहती है दिलदार से
दीदार होगा ।
कभी टूटते हैं
कभी जुड़ते हैं दिल ।
इस बात का भी
कोई तो जवाबदार होगा ।
ज़रा-सी आह से
पिघल जाते हैं,
ऐसे दिल से दिल लगाकर,
कौन-सा सरोकार होगा ।
बदलते मौसम के आसार हैं ये ।
न दिल लगा
नहीं तो बुरा हाल होगा ।
मन गीत गुने
मृदंग बजे
सुर-साज सजे
मन-मीत मिले
मन गीत गुने
निर्जन वन में
वन-फूल खिले
अबोल बोले
मन-भाव बने
इस निर्जन में
इस कथा कहे
अमर प्रेम की
हम भी शेर हुआ करते थे
एक प्राचीन कथा है
गीदड़ ने शेर की खाल ओढ़ ली थी
और जंगल का राजा बन बैठा था।
जब साथियों ने हुंआ-हुंआ की
तब वह भी कर बैठा था।
और पकड़ा गया था,
पकड़ा क्या, बेचारा मारा गया था।
ज़माना बदल गया ।
शेर न सोचा
मैं गीदड़ की खाल ओढ़कर देखूं एक बार।
एक की देखा-देखी,
सभी शेरों ने गीदड़ की खाल ओढ़ ली
और हुंआ-हुंआ करने लगे।
धीरे-धीरे वे
अपनी असलियत भूलते चले गये।
आज सारे शेर
दहाड़ना भूलकर
हुंआ-हुंआ करने में लगे हैं।
अपना शिकार करना छोड़कर
औरों की जूठन खाने में लगे हैं।
गीदड़-भभकियां दे रहे हैं,
और सारे अपने-आप को
राजा समझ बैठे हैं।
शोक किस बात का, आरोप किस बात का।
हमारे भीतर का शेर भी तो
हुंआ-हुंआ करने में ही लगा है।
लेकिन बड़ी बात यह,
कि हमें यही नहीं पता
कि हम भीतर से वास्तव में शेर हैं
जो गीदड़ की खाल ओढ़े बैठे हैं,
या हैं ही गीदड़
और इस भ्रम में जी रहे हैं,
कि एक समय की बात है,
हम भी शेर हुआ करते थे।
ताल-तलैया पोखर भैया
ताल-तलैया, पोखर भैया,
मैं क्या जानू्ं
क्या होते सरोवर मैया।
बस नाम सुना है
न देखें हमने भैया।
गड्ढे देखे, नाले देखे,
सड़कों पर बहते परनाले देखे,
छप-छपाछप गाड़ी देखी।
सड़कों पर आबादी देखी।
-
जब-जब झड़ी लगे,
डाली-डाली बहके।
कुहुक-कुहुक बोले चिरैया ।
रंग निखरें मन महके।
मस्त समां है,
पर लोगन को लगता डर है भैया।
सड़कों पर होगा
पोखर भैया, ताल-तलैया
हमने बोला मैया,
अब तो हम भी देखेंगे ,
कैसे होते हैं ताल-तलैया,
और सरोवर, पोखर भैया ।
ककहरा जान लेने से ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं
इस चित्र को देखकर सोचा था,
आज मैं भी
कोई अच्छी-सी रचना रचूंगी।
मां-बेटी की बात करूंगी।
लड़कियों की शिक्षा,
प्रगति को लेकर बड़ी-बड़ी
बात करूंगी।
पर क्या करूं अपनी इस सोच का,
अपनी इस नज़र का,
मुझे न तो मां दिखाई दी इस चित्र में,
किसी बेटी के लिए आधुनिकता-शिक्षा के
सपने बुनती हुई ,
और न बेटी एवरेस्ट पर चढ़ती हुई।
मुझे दिखाई दे रही है,
एक तख्ती परे सरकती हुई,
कुछ गुम हुए, धुंधलाते अक्षरों के साथ,
और एक छोटी-सी बालिका।
यहां कहां बेटी पढ़ाने की बात है।
कहां कुछ सिखाने की बात है।
नहीं है कोई सपना।
नहीं है कोई आस।
जीवन की दोहरी चालों में उलझे,
तख्ती, चाक और लिखावट
तो बस दिखावे की बात है।
एक ओर तो पढ़ ले,पढ़ ले,
का राग गा रहे हैं,
दूसरी ओर
इस छोटी सी बालिका को
सजा-धजाकर बिठा रहे हैं।
कोई मां नहीं बुनती
ऐसे हवाई सपने
अपनी बेटियों के लिए।
जानती है गहरे से,
ककहरा जान लेने से
ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं,
भाव और परम्पराएं नहीं उलट जातीं।
.
आज ही देख रही है ,
उसमें अपना प्रतिरूप।
.
सच कड़वा होता है
किन्तु यही सच है।
हमारे नाम की चाबी
मां-पिता
जब ईंटें तोड़ते हैं
तब मैंने पूछा
इनसे क्या बनता है मां ?
मां हंसकर बोली
मकान बनते हैं बेटा!
मैंने आकाश की ओर
सिर उठाकर पूछा
ऐसे उंचे बनते हैं मकान?
कब बनते हैं मकान?
कैसे बनते हैं मकान?
कहां बनते हैं मकान?
औरों के ही बनते हैं मकान,
या अपना भी बनता है मकान।
मां फिर हंस दी।
पिता की ओर देखकर बोली,
छोटा है अभी तू
समझ नहीं पायेगा,
तेरे हिस्से का मकान कब बन पायेगा।
शायद कभी कोई
हमारे नाम से चाबी देने आयेगा।
और फिर ईंटें तोड़ने लगी।
मां को उदास देख
मैंने भी हथौड़ी उठा ली,
बड़ी न सही, छोटी ही सही,
तोड़ूंगा कुछ ईंटें
तो मकान तो ज़रूर बनेगा,
इतना उंचा न सही
ज़मीन पर ज़रूर बनेगा मकान!
लिखने को तो बहुत कुछ है
पढ़ने की ललक है,
आगे बढ़ने की ललक है।
न जाने कहां तक
राह खुली है ,
और कहां ताला बन्द है।
आजकल
विज्ञापन बहुत हैं,
बनावट बहुत है,
तरह तरह की
सजावट बहुत है।
सरल-सहज
कहां जीवन रह गया,
कसावट बहुत है।
राहें दुर्गम हैं,
डर बहुत है।
पढ़ ले, पढ़ ले।
आजकल
पढ़ी-लिखी लड़कियों की
डिमांड बहुत है।
पर साथ-साथ
चूल्हा-चौका-घिसाई भी सीख लेना,
उसके बिना
लड़कियों का जीवन
नरक है।
अंग्रज़ी में गिट-पिट करना सीख ले,
पर मानस भी रट लेना ,
यह भी जीवन का जरूरी पक्ष है।
तुम्हारी सादगी, तुम्हारी यह मुस्कुराहट
आकर्षित करती है,
पर
सजना-संवरना भी सीख ले,
यहां भी होना दक्ष है।
लिखने को तो बहुत कुछ है,
पर कलम रोकती है,
चुप कर ,
यहां बहुत बड़ा विपक्ष है।
हम मस्त हैं अपने ही बुने मकड़जाल में
जीवन में जरूरी है
किसी परिधि में सिमटना,
सीमाओं में बंधना।
और ये सीमाएं
हम स्वयं तय करें,
तय करें अपनी दूरियां,
अपनी दीवारें चुनें,
बनायें किले या ढहायें।
तुम कुछ भी सोचते रहो
कि फंस रहें हैं हम
अपने ही जाल में,
लेकिन सदा ऐसा नहीं होता।
जब हम
सबकी उपेक्षा कर
अपना सुरक्षा कवच
स्वयं बुनते हैं,
तो तकलीफ होती है,
कहानियां बुनी जाती हैं,
कथाएं सुनी जाती हैं।
कुछ भी कहो,
हम मस्त हैं
अपने ही बुने मकड़जाल में।
जीते जी मूर्तियों पर हार
बाज़ार में बिक रहे हैं
कीर्ति-ध्वज, यश-पताकाएं,
जितनी चाहें
घर में लाकर सजा लें,
कुछ दीवारों पर टांगे,
कुछ गले में लटका लें,
नामपट्ट बन जायेंगे,
मूर्तियों पर हार चढ़ जायेंगे ।
द्वार पर मढ़ जायेंगे ।
पुस्तकों पर नाम छप जायेंगे ।
हार चढ़ जायेंगे ।
बस झुक कर
कुछ चरण-पादुकाओं को
छूना होगा,
कुछ खर्चा-पानी करना होगा,
फिर देखिए
कैसे जीते-जी ही
मूर्तियों पर हार चढ़ जायेंगे ।
काश! कह सकूं याद नहीं अब
मैंने कब चलना सीखा
किसने सिखलाया था मुझको,
किसने थामी थी अंगुली
किसने गिरते से उठाया था मुझको,
याद नहीं अब।
कब छूटा था हाथ मेरा,
कब नया हाथ थामा था,
संगी-साथी थे मेरे
या फ़िर चली
अकेली जीवन-पथ पर
किसने समझाया था मुझको,
याद नहीं अब।
कहीं सरल-सुगम राहें थीं
कहीं अनगढ़ दीवारें थीं।
कहीं कंकड़ -पत्थर थे
कहीं पर्वत-सी बाधाएं थीं
क्या चुना था मैंने
याद नहीं अब।
राहों से राहें निकली थीं,
इधर-उधर भटक रही थी
कब लौट-लौटकर
नई शुरूआत कर रही थी,
याद नहीं अब।
क्या पाना चाहा था मैंने,
क्या खोया मैंने ,
बहुत बड़ी गठरी है।
काश!
कह सकूं,
याद नहीं अब।
नहीं बोलती नहीं बोलती
नहीं बोलती नहीं बोलती ,
जा जा अब मैं नहीं बोलती,
जब देखो सब मुझको गुस्सा करते।
दादी कहती छोरी है री,
कम बोला कर कम बोला कर।
मां कहती है पढ़ ले पढ़ ले।
भाई बोला छोटा हूं तो क्या,
तू लड़की है मैं लड़का।
मैं तेरा रक्षक।
क्या करना है मुझसे पूछ।
क्या कहना है मुझसे पूछ।
न कर बकबक न कर झकझक।
पापा कहते दुनिया बुरी,
सम्हलकर रहना ,
सोच-समझकर कहना,
रखना ज़बान छोटी ।
दिन भर चिडि़या सी चींचीं करती।
कोयल कू कू कू कू करती।
कौआ कां कां कां कां करता।
टामी भौं भौं भौं भौं करता।
उनको कोई कुछ नहीं कहता।
मुझको ही सब डांट पिलाते।
मैं पेड़ पर चढ़ जाउंगी।
चिडि़या संग रोटी खाउंगी।
वहीं कहीं सो जाउंगी।
फिर मुझसे मिलने आना,
गीत मधुर सुनाउंगी।
झूठ के बल पर
सत्य सदैव प्रमाण मांगता है,
और हम इस डर से,
कि पता नहीं
सत्य प्रमाणित हो पायेगा
या नहीं,
झूठ के बल पर
बेझिझक जीते हैं।
तब हमें
न सत्य की आंच सहनी पड़ती है,
न किसी के सामने
हाथ फैलाने पड़ते हैं।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
नहीं ढोने पड़ते हैं
आरोप–प्रत्यारोप,
न कोई आहुति , न बलिदान,
न अग्नि-परीक्षाएं
न पाषाण होने का भय।
नि:शंक जीते हैं हम ।
और न अकेलेपन की समस्या ।
एक ढूंढो
हज़ारों मिलेंगे साथ चलने के लिए।
बैठे-ठाले यूं ही
अदृश्य,
एक छोटा-सा मन।
भाव,
सागर की अथाह जलराशि-से।
न डूबें, न उतरें।
तरल-तरल, बहक-बहक।
विशालकाय वृक्ष से
कभी सम्बल देते।
और कभी अनन्त शाखाओं से
इधर-उधर भटकन।
जल अतल, थल विस्तारित
कभी भंवर, कभी बवंडर
कुछ रंग, कुछ बेरंग
बस
बैठे-ठाले यूं ही।
टांके लगा नहीं रही हूं काट रही हूं
अपनी उलझनों को सिलते-सिलते
निहारती हूं अपना जीवन।
मिट्टी लिपा चूल्हा,
इस लोटे, गागर, थाली
गिलास-सा,
किसी पुरातन युग के
संग्रहालय की वस्तुएं हों मानों
हम सब।
और मैं वही पचास वर्ष पुरानी
आेढ़नी लिये,
बैठी रहती हूं
तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा में।
कभी भी आ सकते हो तुम।
चांद से उतरते हुए,
देश-विदेश घूमकर लौटे,
पंचतारा सुविधाएं भोगकर,
अपने सुशिक्षित,
देशी-विदेशी मित्रों के साथ।
मेरे माध्यम से
भारतीय संस्कृति-परम्पराओं का प्रदर्शन करने।
कैसा होता था हमारा देश।
कैसे रहते थे हम लोग,
किसी प्राचीन युग में।
कैसे हमारे देश की नारी
आज भी निभा रही है वही परम्परा,
सिर पर आेढ़नी लिये।
सिलती है अपने भीतर के टांके
जो दिखते नहीं किसी को।
लेकिन, ध्यान से देखो ज़रा।
आज टांके लगा नहीं रही हूं,
काट रही हूं।
वह घाव पुराना
अपनी गलती का एहसास कर
सालता रहता है मन,
जब नहीं होता है काफ़ी
अफ़सोस का मरहम।
और कई बातों का जब
लग जाता है बन्धन
तो भूल जाती है वह घुटन।
लेकिन होता है जब कोई
वैसा ही एहसास दुबारा,
नासूर बन जाता है
तब वह घाव पुराना।
जीवन की गति एक चक्रव्यूह
जीवन की गति
जब किसी चक्रव्यूह में
अटकती है
तभी
अपने-पराये का एहसास होता है।
रक्त-सम्बन्ध सब गौण हो जाते हैं।
पता भी नहीं लगता
कौन पीठ में खंजर भोंक गया ,
और किस-किस ने सामने से
घेर लिया।
व्यूह और चक्रव्यूह
के बीच दौड़ती ज़िन्दगी,
अधूरे प्रश्र और अधूरे उत्तर के बीच
धंसकर रह जाती है।
अधसुनी, अनसुनी कहानियां
लौट-लौटकर सचेत करती हैं,
किन्तु हम अपनी रौ में
चेतावनी समझ ही नहीं पाते,
और अपनी आेर से
एक अधबुनी कहानी छोड़कर
चले जाते हैं।
आजकल मेरी कृतियां
आजकल
मेरी कृतियां मुझसे ही उलझने लगी हैं।
लौट-लौटकर सवाल पूछने लगी हैं।
दायरे तोड़कर बाहर निकलने लगी हैं।
हाथ से कलम फिसलने लगी है।
मैं बांधती हूं इक आस में,
वे चौखट लांघकर
बाहर का रास्ता देखने में लगी हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां,
मुझे एक अधूरापन जताती हैं ।
कभी आकार का उलाहना मिलता है,
कभी रूप-रंग का,
कभी शब्दों का अभाव खलता है।
अक्सर भावों की
उथल-पुथल हो जाया करती है।
भाव और होते हैं,
आकार और ले लेती हैं,
अनचाही-अनजानी-अनपहचानी कृतियां
पटल पर मनमानी करने लगती हैं।
टूटती हैं, बिखरती हैं,
बनती हैं, मिटती हैं,
रंग बदरंग होने लगते हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां
मुझसे ही दूरियां करने में लगी हैं।
मुझे ही उलाहना देने में लगी हैं।
अलगाव
द्वंद्व में फ़ंसी मै सोचती हूं,
मैं और तुम कितने एक हैं,
पर दो भी हैं।
शायद इसीलिए एक हैं।
नहीं ! शायद
एक होने के लिए दो हैं।
पहले एक हैं या पहले दो ?
एक ज़्यादा हैं या दो ?
या केवल एक ही हैं,
या केवल दो ही।
इस एक और दो के
द्वंद्व के बीच,
कहीं मैंने जाना,
कि हम
न एक रह गये हैं
न ही दो।
हम दोनों
एक-एक हो गये हैं।
अपनी ही प्रतिच्छाया को नकारते हैं हम
अपनी छाया को अक्सर नकार जाते हैं हम।
कभी ध्यान से देखें
तो बहुत कुछ कह जाती है।
डरते हैं हम अपने अकेलेपन से।
किन्तु साथ-साथ चलते-चलते
न जाने क्या-क्या बता जाती है।
अपनी अन्तरात्मा को तो
बहुत पुकारते हैं हम,
किन्तु अपनी ही प्रतिच्छाया को
नकारते हैं हम।
नि:शब्द साथ-साथ चलते,
बहुत कुछ समझा जाती है।
हम अक्सर समझ नहीं पाते,
किन्तु अपने आकार में छाया
बहुत कुछ बोल जाती है।
कदम-दर-कदम,
कभी आगे कभी पीछे,
जीवन के सब मोड़ समझाती है।
छोटी-बड़ी होती हुई ,
दिन-रात, प्रकाश-तम के साथ,
अपने आपको ढालती जाती है।
जीवन परिवर्तन का नाम है।
कभी सुख तो कभी दुख,
जीवन में आवागमन है।
समस्या बस इतनी सी
कि हम अपना ही हाथ
नहीं पकड़ते
ज़माने भर का सहारा ढूंढने निकल पड़ते हैं।
न समझना हाथ चलते नहीं हैं
हाथों में मेंहदी लगी,
यह न समझना हाथ चलते नहीं हैं ।
केवल बेलन ही नहीं
छुरियां और कांटे भी
इन्हीं हाथों से सजते यहीं हैं ।
नमक-मिर्च लगाना भी आता है ।
और यदि किसी की दाल न गलती हो,
तो बड़ों-बड़ों की
दाल गलाना भी हमें आता है।
बिना गैस-तीली
आग लगाना भी हमें आता है।
अब आपसे क्या छुपाना
दिल तो बड़ों-बड़ों के जलाये हैं,
और न जाने
कितने दिलजले तो आज भी
आगे-पीछे घूम रहे हैं ,
और जलने वाले
आज भी जल रहे हैं।
तड़के की जैसी खुशबू हम रचते हैं,
बड़े-बड़े महारथी
हमारे आगे पानी भरते हैं।
मेंहदी तो इक बहाना है ।
आज घर का सारा काम
उनसे जो करवाना है।
कुछ सपने कुछ सच्चे कुछ झूठे
कागज़ की नाव में
जितने सपने थे
सब अपने थे।
छोटे-छोटे थे, पर मन के थे ।
न डूबने की चिन्ता
न सपनों के टूटने की चिन्ता।
तिरती थी, पलटती थी
टूट-फूट जाती थी, भंवर में अटकती थी।
रूक-रूक जाती थी।
एक जाती थी, एक और आ जाती थी।
पर सपने तो सपने थे,
सब अपने थे।
न टूटते थे न फूटते थे ।
जीवन की लय यूं ही बहती जाती थी ।
फिर एक दिन हम बड़े हो गये ।
सपने भारी-भारी हो गये ।
अपने ही नहीं, सबके हो गये ।
पता ही नहीं लगा
वह कागज़ की नाव कहां खो गई ।
कभी अनायास यूं ही
याद आ जाती है,
तो ढूंढने निकल पड़ते हैं ।
किन्तु भारी सपने कहां
पीछा छोड़ते हैं,
सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं ।
अब नाव नहीं बनती।
मेरी कागज़ की नाव
न जाने कहां खो गई,
मिल जाये तो लौटा देना ।
प्रेम की नवीन परिभाषा और कृष्ण
कभी सोचा नहीं मैंने
इस तरह तुम्हारे लिए।
ऐसा तो नहीं कि प्रेम-भाव,
श्रृंगार भाव नहीं मेरे मन में।
किन्तु तुम्हारी प्रेम-कथाओं का
युगों-युगों से
इतना पिष्ट-पेषण हुआ
कि भाव ही निष्ठुर हो गये।
स्त्रियां ही नहीं
पुरुष भी राधे-राधे बनकर
तुम्हारे प्रेम में वियोगी हो गये।
निःसंदेह, सौन्दर्य के रूप हो तुम।
तुम्हारी श्याम आभा,
मोर पंख के साथ
मन मोह ले जाती है।
राधा के साथ
तुम्हारा प्रेम, नेह,
यमुना के नील जल में
गोपियों के संग रास-लीला,
आह ! मन बहक-बहक जाता है।
लेकिन, इस युग में
ढूंढती हूं तुम्हारा वह रूप,
अपने-परायों को
जीना सिखलाता था।
प्रेम की एक नवीन परिभाषा पढ़ाता था।
सत्य-असत्य को परिभाषित करता था,
अपराधी को दण्डित करता था,
करता था न्याय, बेधड़क।
चक्र घूमता था उसका,
उसकी एक अंगुली से परिभाषित
होता था यह जगत।
हर युग में रूप बदलकर
प्रेम की नवीन परिभाषा सिखाते थे तुम।
इस काल में कब आओगे,
आंखें बिछाये बैठे हैं हम।
कहां जानती है ज़िन्दगी
कदम-दर-कदम
बढ़ती है ज़िन्दगी।
कभी आकाश
तो कभी पाताल
नापती है ज़िन्दगी।
पंछी-सा
उड़ान भरता है कभी मन,
तो कभी
रंगीनियों में खेलता है।
कब उठेंगे बवंडर
और कब फंसेंगे भंवर में,
यह बात कहां जानती है ज़िन्दगी।
यूं तो
साहस बहुत रखते हैं
आकाश छूने का
किन्तु नहीं जानते
कब धरा पर
ला बिठा देगी ज़िन्दगी।
असम्भव
उस दिन मैंने
एक सुन्दर सी कली देखी।
उसमें जीवन था और ललक थी।
आशा थी,
और जिन्दगी का उल्लास,
यौवन से भरपूर,
पर अद्भुत आश्चर्य,
कि उसके आस पास
कितने ही लोग थे,
जो उसे देख रहे थे।
उनके हाथ लम्बे,
और कद उंचे।
और वह कली,
फिर भी डाली पर
सुरक्षित थी।
विज्ञापन
शहर के बीचों बीच,
चौराहे पर,
हनुमान जी की मूर्ति
खड़ी थी।
गदा
ज़मीन पर टिकाये।
दूसरा हाथ
तथास्तु की मुद्रा में।
साथ की दीवार लिखा था,
गुप्त रोगी मिलें,
हर मंगलवार,
बजरंगी औषधालय,
गली संकटमोचन,ऋषिकेश।
नये सिरे से
मां कहती थी
किसी जाते हुए को
पीठ पीछे पुकारना अपशगुन होता है।
और यदि कोई तुम्हें पुकार भी ले
तो अनसुना करके चले जाना,
पलटकर मत देखना, उत्तर मत देना।
लेकिन, मैं क्या करूं इन आवाजों का
जो मेरी पीठ पीछे
मुझे निरन्तर पुकारती हैं,
मैं मुड़कर नहीं देखती
अनसुना कर आगे बढ़ जाती हूं।
तब वे आवाजें
मेरे पीछे दौड़ने लगती हैं,
उनके कदमों की धमक
मुझे डराने लगती है।
मैं और तेज दौडने लगती हूं।
तब वे आवाजें
एक शोर का रूप लेकर
मेरे भीतर तक उतर जाती हैं,
मेरे दिल-दिमाग को झिंझोड़ते हुये।
मैं फिर भी नहीं रूकती।
किन्तु इन आवाजों की गति
मुझसे कहीं तेज है।
वे आकर
मेरी पीठ से टकराने लगती हैं,
भीतर तक गहराती हैं
बेधड़क मेरे शरीर में।
सामने आकर राह रोक लेती हैं मेरा।
पूछने लगती हैं मुझसे
वे सारे प्रश्न,
जिन्हें हल न कर पाई मैं जीवन-भर,
इसीलिए नकारती आई थी उन्हें,
छोड़ आई थी कहीं अनुत्तरित।
जीवन के इस मोड़ पर ,
अब क्या करूंगी इनका समाधान,
और क्या उपलब्धि प्राप्त कर लूंगी,
पूछती हूं अपने-आपसे ही।
किन्तु इन आवाजों को
मेरा यह पलायन का स्वर भाता नहीं।
अंधायुग में कृष्ण ने कहा था
“समय अब भी है, अब भी समय है
हर क्षण इतिहास बदलने का क्षण होता है”।
किन्तु
उस महाभारत में तो
कुरूक्षेत्र के रणक्षेत्र में
अट्ठारह अक्षौहिणी सेना थी।
और यहां अकेली मैं।
मेरे भीतर ही हैं सब कौरव-पांडव,
सारे चक्र-कुचक्र और चक्रव्यूह,
अट्ठारह दिन का युद्ध,
अकेली ही लड़ रही हूं।
तो क्या मुझे
मां की सीख को अनसुना कर,
पीछे मुड़कर
इन आवाजों को,
फिर से,
नये सिरे से भोगना होगा,
अपने जीवन का वह हर पल,
जिससे भाग रही थी मैं
जिन्हें मैंने इतिहास की वस्तु समझकर
अपने जीवन का गुमशुदा हिस्सा मान लिया था।
मां ! तू अब है नहीं
कौन बतायेगा मुझे !!!
ज़िन्दगी क्यों हारती है
अपने मन के भावों को
परखने के लिए
हम औरों की नज़र
मांगते हैं,
इसीलिए
ज़िन्दगी हारती है।
दीवारें एक नाम है पूरे जीवन का
दीवारें
एक नाम है
पूरे जीवन का ।
हमारे साथ
जीती हैं पूरा जीवन।
सुख-दुख, अपना-पराया
हंसी-खुशी या आंसू,
सब सहेजती रहती हैं
ये दीवारें।
सब सुनती हैं,
देखती हैं, सहती हैं,
पर कहती नहीं किसी से।
कुछ अर्थहीन रेखाएं
अंगुलियों से उकेरती हूं
इन दीवारों पर।
पर दीवारें
समझती हैं मेरे भाव,
मिट्टी दरकने लगती है।
कभी गीली तो कभी सूखी।
दरकती मिट्टी के साथ
कुछ आकृतियां
रूप लेने लगती हैं।
समझाती हैं मुझे,
सहलाती हैं मेरा सर,
बहते आंसुओं को सोख लेती हैं।
कभी कुछ निशान रह जाते हैं,
लोग समझते हैं,
कोई कलाकृति है मेरी।
गीत मधुर हम गायेंगे
गीत मधुर हम गायेंगे
गई थी मैं दाना लाने
क्यों बैठी है मुख को ताने।
दो चींटी, दो पतंगे,
तितली तीन लाई हूं।
अच्छे से खाकर
फिर तुझको उड़ना
सिखलाउंगी।
पानी पीकर
फिर सो जाना,
इधर-उधर नहीं है जाना।
आंधी-बारिश आती है,
सब उजाड़ ले जाती है।
नीड़ से बाहर नहीं है आना।
मैं अम्मां के घर लेकर जाउंगी।
देती है वो चावल-रोटी
कभी-कभी देर तक सोती।
कई दिन से देखा न उसको,
द्वार उसका खटखटाउंगी,
हाल-चाल पूछकर उसका
जल्दी ही लौटकर आउंगी।
फिर मिलकर खिचड़ी खायेंगे,
गीत मधुर हम गायेंगे।