जीवन का अर्थ
मैं अक्सर
बहुत-सी बातें
नहीं समझ पाती हूं।
और यह बात भी
कुछ ऐसी ही है
जिसे मैं नहीं समझ पाती हूं।
बड़े-बड़े
पण्डित-ज्ञानी कह गये
मोह-माया में मत पड़ो,
आसक्ति से दूर रहो,
न करो किसी से अनुराग।
विरक्ति बड़ी उपलब्धि है।
तो
इस जीवन का क्या अर्थ?
कोई बतायेगा मुझे !!!
रेखाएं बोलती हैं
घर की सारी
खिड़कियां-दरवाज़े
बन्द रखने पर भी
न जाने कहां से
धूल आ पसरती है
भीतर तक।
जाने-अनजाने
हाथ लग जाते हैं।
शीशों पर अंगुलियां घुमाती हूं,
रेखाएं खींचती हूं।
गर्द बोलने लगती है,
आकृतियों में, शब्दों में।
गर्द उड़ने लगती है
आकृतियां और शब्द
बदलने लगते हैं।
एक साफ़ कपड़े से
अच्छे से साफ़ करती हूं,
किन्तु जहां-तहां
कुछ लकीरें छूट जाती हैं
और फिर आकृतियां बनने लगती हैं,
शब्द घेरने लगते हैं मुझे।
अरे!
डरना क्या!
इसी बात पर मुस्कुरा देने में क्या लगता है।
यादों पर दो क्षणिकाएं
तुम्हारी यादें
किसी सुगन्धित पुष्प-सी।
पहले कली-सी कोमल,
फिर फूल बन
मन-उपवन को महकातीं,
भंवरे गुनगुनाते।
हर पत्ती नये भाव में बहती।
और अन्त
एक मुर्झाए फूल-सा
डाली से टूटा,
कब कदमों तले रौंदा गया
पता ही न लगा।
*-*
यादों की गठरी
उलझे धागे,
टूटे बटन,
फ़टी गुदड़िया।
भारी-भरकम
मानों कई ज़िन्दगियों
के उधार का लेखा-जोखा।
मन की गुलामी से बड़ी कोई सफ़लता नहीं
ऐसा अक्सर क्यों होता है
कि हम
अपनी इच्छाओं,
आकांक्षाओं का
मान नहीं करते
और,
औरों के चेहरे निरखते हैं
कि उन्हें हमसे क्या चाहिए।
.
मेरी इच्छाओं का सागर
अपार है।
अनन्त हैं उसमें लहरें,
किलोल करती हैं
ज्वार-भाटा उठता है,
तट से टकरा-टकराकर
रोष प्रकट करती हैं,
सारी सीमाएं तोड़कर
पूर्णता की आकांक्षा लिए
बार-बार बढ़ती हैं
उठती हैं, गिरती हैं
फिर आगे बढ़ती हैं।
.
अपने मन के गुलाम नहीं बनेंगे
तो पूर्णता की आकांक्षा पूरी कैसे होगी ?
.
अपने मन की गुलामी से बड़ी
कोई सफ़लता नहीं जीवन में।
भोर में
भोर में
चिड़िया अब भी चहकती है
बस हमने सुनना छोड़ दिया है।
.
भोर में
रवि प्रतिदिन उदित होता है
बस हमने आंखें खोलकर
देखना छोड़ दिया है।
.
भोर में आकाश
रंगों से सराबोर
प्रतिदिन चमकता है
बस हमने
आनन्द लेना छोड़ दिया है।
.
भोर में पत्तों पर
बहकती है ओस
गाते हैं भंवरे
तितलियां उड़ती-फ़िरती है
बस हमने अनुभव करना छोड़ दिया है।
.
सुप्त होते तारागण
और सूरज को निरखता चांद
अब भी दिखता है
बस हमने समझना छोड़ दिया है।
.
रात जब डूबती है
तब भोर उदित होती है
सपनों के साथ,
.
बस हमने सपनों के साथ
जीना छोड़ दिया है।
ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी
सपनों से हम डरने लगे हैं।
दिल में भ्रम पलने लगे हैं ।
ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी
अपने ही अब खलने लगे हैं।
शक्ल हमारी अच्छी है
शक्ल हमारी अच्छी है, बस अपनी नज़र बदल लो तुम।
अक्ल हमारी अच्छी है, बस अपनी समझ बदल लो तुम।
जानते हो, पर न जाने क्यों न मानते हो, हम अच्छे हैं,
मित्रता हमारी अच्छी है, बस अपनी अकड़ बदल लो तुम।
यह रिश्ते
माता-पिता के लिए बच्चे वरदान होते हैं।
बच्चों के लिए माता-पिता सरताज होते हैं।
इन रिश्तों में गंगा-यमुना-सी पवित्र धारा बहती है,
यह रिश्ते मानों जीवन का मधुर साज़ होते हैं।
रिश्तों में
माता-पिता न मांगें कभी बच्चों से प्रतिदान।
नेह, प्रेम, अपनापन, सुरक्षा, नहीं कोई एहसान।
इन रिश्तों में लेन-देन की तुला नहीं रहती,
बदले में न मांगें बच्चों से कभी बलिदान।
हारना नहीं है
चलो आज ज़िन्दगी को हम कुछ सिखाएं।
कैसा भी समय हो, मन में मलाल न लाएं।
मन पुलकित होता है जब आस जगती है,
हारना नहीं है, इसी बात पर खिलखिलाएं।
एक तृण छूता है
पर्वत को मैंने छेड़ा
ढह गया।
दूर कहीं से
एक तिनका आया
पथ बांध गया।
बड़ी-बड़ी बाधाओं को तो
हम
यूं ही झेल लिया करते हैं
पर कभी-कभी
एक तृण छूता है
तब
गहरा घाव कहीं बनता है
अनबोले संवादों का
संसार कहीं बनता है
भीतर ही भीतर
कुछ रिसता है
तब मन पर
पर्वत-सा भार कहीं बनता है।
हम किसे फूंकें
कहते हैं
दूध का जला
छाछ को भी
फूंक-फूंक कर पीता है
किन्तु हम तो छाछ के जले हैं
हम किसे फूंकें
बतायेगा कोई ।
रस और गंध और पराग
ज़्यादा उंची नहीं उड़ती तितली।
बस फूलों के आस पास
रस और गंध और पराग
बस इतना ही।
समेट लिया मैंने
अपनी हथेलियों में
दिल से।
उड़ान चाहतों की
दिल से भरें
उड़ान
चाहतों की
तो पर्वतों को चीर
रंगीनियों में
छू लेगें आकाश।
सत्य के भी पांव नहीं होते
कहते हैं
झूठ के पांव नहीं होते
किन्तु मैंने तो
कभी सत्य के पांव
भी नहीं देखे।
झूठ अक्सर सबका
एक-सा होता है
पर ऐसा क्यों होता है
कि सत्य
सबका अपना-अपना होता है।
किसी के लिए
रात के अंधेरे ही सत्य हैं
और कोई
चांद की चांदनी को ही
सत्य मानता है।
किसी का सच सावन की घटाएं हैं
तो किसी का सच
सावन का तूफ़ान
जो सब उजाड़ देता है।
किसी के जीवन का सत्य
खिलते पुष्प हैं
तो किसी के जीवन का सत्य
खिलकर मुर्झाते पुष्प ।
किन्तु झूठ
सबका एक-सा होता है,
इसलिए
आज झूठ ही वास्तविक सत्य है
और यही सत्य है।
संदेह की दीवारें
संदेह की दीवारें नहीं होतीं
जो दिखाई दें,
अदृश्य किरचें होती हैं
जो रोपने और काटने वाले
दोनों को ही चुभती हैं।
किन्तु जब दिल में, एक बार
किरचें लग जाती हैं
फिर वे दिखती नहीं,
आदत हो जाती है हमें
उस चुभन की,
आनन्द लेने लगते हैं हम
इस चुभन का।
धीरे-धीरे रिसता है रक्त
गांठ बनती है, मवाद बहता है
जीवन की लय
बाधित होने लगती है।
-
यह ठीक है कि किरचें दिखती नहीं
किन्तु जब कुछ टूटा होगा
तो एक बार तो आवाज़ हुई होगी
काश उसे सुना होता ।।।।
तो जीवन
कितना सहज-सरल-सरल होता।
आशाओं को रंगीन किया है
कुछ भाव नि:शब्द होते हैं
आकार देती हूं
उन्हें कागज़ पर।
दूरियां सिमटती हैं।
अबोल,
बोल होने लगते हैं।
तुम्हांरे नाम
कुछ शब्द लिखे हैं
भावों को रूप दिया है
आशाओं को रंगीन किया है
कुछ इन्द्रधनुष उकेरे हैं
कहीं कुछ बूंदों बहकी
कुछ शब्द् मिट से गये हैं
समझ सको तो समझ लेना
जोड़-जोड़कर पढ़ लेना।
अधूरे रंगों को पूरा कर लेना।
जीवन महकता है
जीवन महकता है
गुलाब-सा
जब मनमीत मिलता है
अपने ख्वाब-सा
रंग भरे
महकते फूल
जीवन में आस देते हैं
एक विश्वास देते हैं
अपनेपन का आभास देते हैं।
सूखेंगे कभी ज़रूर
सूखने देना।
पत्ती –पत्ती सहेजना
यादों की, वादों की
मधुर-मधुर भावों से
जीवन-भर यूं ही मन हेलना ।
साथी तेरा प्यार
साथी तेरा प्यार
जैसे खट्टा-मीठा
मिर्ची का अचार।
कभी पतझड़
तो कभी बहार,
कभी कण्टक चुभते
कभी फूल खिलें।
कभी कड़क-कड़क
बिजली कड़के
कभी बिन बादल बरसात।
कभी नदियां उफ़ने
कभी तलछट बनते
कभी लहर-लहर
कभी भंवर-भंवर।
कभी राग बने
सुर-साज सजे
जीवन की हर तान बजे।
लुक-छिप, लुक-छिप
खेल चला
जीवन का यूं ही
मेल चला।
साथी तेरा प्यार
जैसे खट्टा-मीठा अचार।
मौत कब आयेगी
कहते हैं
मौत कब आयेगी
कोई नहीं जानता
किन्तु
रावण जानता था
कि उसकी मौत कब आयेगी
और कौन होगा उसका हंता।
प्रश्न यह नहीं
कि उद्देश्य क्या रहा होगा,
चिन्तन यह कि
जब संधान होगा
तब कुछ तो घटेगा ही।
और यूंही तो
नहीं साधा होगा निशाना
कुछ तो मन में रहा होगा ही।
जब तीर छूटेगा
तो निशाने पर लगे
या न लगे
कहीं तो लगेगा ही
फिर वह
मछली की आंख हो अथवा
पिता-पुत्र की देह।
चालें चलते
भेड़ें अब दिखती नहीं
भेड़-चाल रह गई है।
किसके पीछे
किसके आगे
कौन चल रहा
देखने की बात
रह गई है।
भेड़ों के अब रंग बदल गये
ऊन उतर गई
चाल बदल गई
पहचान कहां रह गई है।
किसके भीतर कौन सी चाल
कहां समझ रह गई है।
चालें चलते, बस चालें चलते
समझ-बूझ कहां रह गई है।
किससे बात करुं मैं
चारों ओर खलबली है।
समाचारों में सनसनी है।
सड़कों पर हंगामा है।
आन्दोलन-उपद्रव चल रहे हैं
और हम
सास-बहू के मुद्दों पर लिख रहे हैं।
गढ़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं।
पुरानी सीवनें उधेड़ रहे हैं।
खिड़की से बाहर का अंधेरा नहीं दिखता
दूर देश में रोशनियां खोज रहे हैं।
हज़ार साल पुरानी बातों का
पिष्ट-पेषण करने में लगे हैं,
और अपने घर में लगी आग से
हाथ सेंकने में लगे हैं।
और यदि और कुछ न हो पाये
तो हमारे पास
ऊपर वाले बहुत हैं,
उनका नाम जपकर
मुंह ढककर सो रहे हैं।
कितना भी मुंह मोड़ लें,
हाथों को जोड़ लें,
शोर को रोक लें,
कानों में रुईं ठूंस लें,
किसी दिन तो
अपने घाव भी रिसेंगे ही।
वैसे भी मुंह मोड़ने
या छुपाने से
कान बन्द नहीं होते,
बस मुंह चुराते हैं हम।
सच लिखने से घबराते हैं हम।
और यदि
औन कुछ न दिखे
तो करताल बजाते हैं हम।
खड़ताल खड़काते हैं हम।
रोज़, हर रोज़
बेवजह
मरने वालों का
हिसाब नहीं मांगती मैं।
किन्तु हमारे भाव मर रहे हैं,
सोच मर रही है,
बेबाक बोलने की आवाज़ डर रही है।
किससे बात करुं मैं ?
आया कोरोना
घर में कहां से घुस आया कोरोना
हम जानते नहीं।
दूरियां थीं, द्वार बन्द थे,
डाक्टर मानते नहीं।
कहां हुई लापरवाही,
कहां से कौन लाया,
पता नहीं।
एक-एक कर पांचों विकेट गिरे,
अस्पताल के चक्कर काटे,
जूझ रहे,
फिर हुए खड़े,
हार हम मानते नहीं।
अनूठी है यह दुनिया
अनूठी है यह दुनिया, अनोखे यहां के लोग।
पहचान नहीं हो पाई कौन हैं अपने लोग।
कष्टों में दिखते नहीं, वैसे संसार भरा-पूरा,
कहने को अनुपम, अप्रतिम, सर्वोत्तम हैं ये लोग।
पीतल है या सोना
सोना वही सोना है, जिस पर अब हाॅलमार्क होगा।
मां, दादी से मिले आभूषण, मिट्टी का मोल होगा।
वैसे भी लाॅकर में बन्द पड़े हैं, पीतल है या सोना,
सोने के भाव राशन मिले, तब सोने का क्या होगा।
सावन नया
रात -दिन अंखियों में बसता दर्द का सावन नया
बाहर बरसे, भीतर बरसे, मन भरमाता सावन नया
कभी मिलते, कभी बिछुड़ते, दर्द का सागर मिला
भावों की नदिया सूखी, कहने को है सावन नया
स्वाधीनता या स्वच्छन्दता
स्वाधीनता अब स्वच्छन्दता बनती जा रही है।
विनम्रता अब आक्रोश में बदलती जा रही है।
सत्य से कब तक मुंह मोड़कर बैठे रहेंगे हम
कर्तव्यों से विमुखता अब बढ़ती जा रही है।
आज़ादी की क्या कीमत
कहां समझे हम आज़ादी की क्या कीमत होती है।
कहां समझे हम बलिदानों की क्या कीमत होती है।
मिली हमें बन्द आंखों में आज़ादी, झोली में पाई हमने
कहां समझे हम राष्ट््भक्ति की क्या कीमत होती है।
नेह की पौध बीजिए
घृणा की खरपतवार से बचकर चलिए।
इस अनचाही खेती को उजाड़कर चलिए।
कब, कहां कैसे फैले, कहां समझें हैं हम,
नेह की पौध बीजिए, नेह से सींचते चलिए।
बस नेह मांगती है
कोई मांग नहीं करती बस नेह मांगती है बहन।
आशीष देती, सुख मांगती, भाई के लिए बहन।
दुख-सुख में साथी, पर जीवन अधूरा लगता है,
जब भाई भाव नहीं समझता, तब रोती है बहन।