सदानीरा अमृत-जल- नदियाँ
नदियों के अब नाम रह गये
नदियों के अब कहाँ धाम रह गये।
गंगा, यमुना हो या सरस्वती
बातों की ही बात रह गये।
कभी पूजा करते थे
नदी-नीर को
अब कहते हैं
गंदे नाले के ये धाम रह गये।
कृष्ण से जुड़ी कथाएँ
मन मोहती हैं
किन्तु जब देखें
यमुना का दूषित जल
तो मन में कहाँ वे भाव रह गये।
पहले मैली कर लेते
कचरा भर-भरकर,
फिर अरबों-खरबों की
साफ़-सफ़ाई पर करते
बात रह गये।
कहते-कहते दिल दुखता है
पर
सदानीरा अमृत-जल-नदियों के तो
अब बस नाम ही नाम रह गये।
अपने केश संवरवा लेना
बंसी बजाना ठीक था
रास रचाना ठीक था
गैया चराना ठीक था
माखन खाना,
ग्वाल-बाल संग
वन-वन जाना ठीक था।
यशोदा मैया
गूँथती थी केश मेरे
उसको सताना ठीक था।
कुरुक्षेत्र की यादें
अब तक मन को
मथती हैं
बड़े-बड़े महारथियों की
कथाएँ अब तक
मन में सजती हैं।
पर राधे !
अब मुझको यह भी करना होगा!!
अब मुझको
राजनीति छोड़
तुम्हारी लटों में उलझना होगा!!!
न न न, मैं नहीं अब आने वाला
तेरी उलझी लटें
मैं न सुलझाने वाला।
और काम भी करने हैं मुझको
चक्र चलाना, शंख बजाना,
मथुरा, गोकुल, द्वापर, हस्तिनापुर
कुरुक्षेत्र
न जाने कहाँ-कहाँ मुझको है जाना।
मेरे जाने के बाद
न जाने कितने नये-नये युग आये हैं
जिनका उलटा बजता ढोल
मुझे सताये है।
इन सबको भी ज़रा देख-परख लूँ
और समझ लूँ,
कैसे-कैसे इनको है निपटाना।
फिर अपने घर लौटूँगा
थक गया हूँ
अवतार ले-लेकर
अब मुझको अपने असली रूप में है आना
तुम्हें एक लिंक देता हूँ
पार्लर से किसी को बुलवा लेना
अपने केश संवरवा लेना।
मुखौटे बहुत चढ़ाते हैं लोग
गुब्बारों में हँसी लाया हूँ
चेहरे पर चेहरा लगाकर
खुशियों का
सामान बांटने आया हूँ।
कुछ पल बांट लो मेरे साथ
जीवन को हँसी
बनाने आया हूँ।
चेहरों पर
मुखौटे बहुत चढ़ाते हैं लोग
पर मैं अपने मुखौटै से
तुम्हें हँसाने आया हूँ।
गुब्बारे फूट जायेंगे
हवा बिखर जायेगी,
या उड़ जायेंगे आकाश में
ग़म न करना
ज़िन्दगी का सच
समझाने आया हूँ।
वास्तविकता से परे
किसका संधान तू करने चली
फूलों से तेरी कमान सजी
पर्वतों पर तू दूर खड़ी
अकेली ही अकेली
किस युद्ध में तू तनी
कौन-सा अभ्यास है
क्या यह प्रयास है
इस तरह तू क्यों है सजी
वास्तविकता से परे
तेरी यह रूप सज्जा
पल्लू उड़ रहा, सम्हाल
बाजूबंद, करघनी, गजरा
मांगटीका लगाकर यूँ कैसे खड़ी
धीरज से कमान तान
आगे-पीछे देख-परख
सम्हल कर रख कदम
आगे खाई है सामने पहाड़
अब गिरी, अब गिरी, तब गिरी
या तो वेश बदल या लौट चल।
कहने की ही बातें हैं
छल-कपट से दुनिया चलती, छल-कपट करते हैं लोग
कहने की ही बातें हैं कि यहाँ सब हैं सीधे-सादे लोग
बस कहने की बातें हैं, सच बोलो, सन्मार्ग अपनाओ
झूठ पालते, हेरी-फ़ेरी करते, वे ही कहलाते अच्छे लोग
अपनी ज़िन्दगी
प्यास अपनी खुद बुझाना सीखो
ज़िन्दगी में बेवजह मुस्कुराना सीखो
कब तक औरों के लिए जीते रहोगे
अपनी ज़िन्दगी खुद संवारना सीखो
सीधी राहों की तलाश में जीवन
अपने दायरे आप खींच
न तकलीफ़ों से आंखें मींच
.
हाथों की लकीरें
अजब-सी
आड़ी-तिरछी होती हैं,
जीवन की राहें भी
शायद इसीलिए
इतनी घुमावदार होती हैं।
किन्तु इन
घुमावदार राहों
पर खिंची
आड़ी-तिरछी लकीरें
गोल दायरों में घुमाती रहती हैं
जीवन भर
और हम
इन राहों के आड़े-तिरछेपन,
और गोल दायरों के बीच
अपने लिए
सीधी राहों की तलाश में
घूमते रहते हैं जीवन भर।
मनोरम प्रकृति का यह रूप
कितना मनोरम दिखता है
प्रकृति का यह रूप।
मानों मेरे मन के
सारे भाव चुराकर
पसर गई है
यहां अनेक रूपों में।
कभी हृदय
पाषाण-सा हो जाता है
कभी भाव
तरल-तरल बहकते हैं।
लहरें मानों
कसमसाती हैं
बहकती हैं
किनारों से टकराती हैं
और लौटकर
मानों
मन मसोसकर रह जाती हैं।
जल अपनी तरलता से
प्रयासरत रहता है
धीरे-धीरे
पाषाणों को आकार देने के लिए।
हरी दूब की कोमलता में
पाषाण कटु भावों-से
नेह-से पिघलने लगते हैं
एक छाया मानों सान्त्वना
के भाव देती है
और मन हर्षित हो उठता है।
जीने की चाहत
जीवन में
एक समय आता है
जब भीड़ चुभने लगती है।
बस
अपने लिए
अपनी राहों पर
अपने साथ
चलने की चाहत होती है।
बात
रोशनी-अंधेरे की नहीं
बस
अपने-आप से बात होती है।
जीवन की लम्बी राहों पर
कुछ छूट गया
कुछ छोड़ दिया
किसी से नहीं कोई आस होती है।
न किसी मंज़िल की चाहत है
न किसी से नाराज़गी-खुशी
बस अपने अनुसार
जीने की चाहत होती है।
हम हार नहीं माना करते
तूफ़ानों से टकराते हैं
पर हम हार नहीं माना करते।
प्रकृति अक्सर अपना
विकराल रूप दिखलाती है
पर हम कहाँ सम्हलकर चलते।
इंसान और प्रकृति के युद्ध
कभी रुके नहीं
हार मान कर
हम पीछे नहीं हटते।
प्रकृति बहुत सीख देती है
पर हम परिवर्तन को
छोड़ नहीं सकते,
जीवन जीना है तो
बदलाव से
हम पीछे नहीं हट सकते।
सुनामी आये, यास आये
या आये ताउते
नये-नये नामों के तूफ़ानों से
अब हम नहीं डरते।
प्रकृति
जितना ही
रौद्र रूप धारण करती है
मानवता उससे लड़ने को
उतने ही
नित नये साधन जुटाती है।
तब प्रकृति भी मुस्काती है।
जग का यही विधान है प्यारे
जग का यही विधान है प्यारे
यहां सोच-समझ कर चल।
रोते को बोले
हंस ले, हंस ले प्यारे,
हंसते पर करे कटाक्ष
देखो, हरदम दांत निपोरे।
चुप्पा लगता घुन्ना, चालाक,
जो मन से खुलकर बोले
बड़बोला, बेअदब कहलाए
जग का यही विधान है प्यारे।
सच्चे को झूठा बतलाए
झूठा जग में झण्डा लहराए।
चलती को गाड़ी कहें
जब तक गाड़ी चलती रहे
झुक-झुक करें सलाम।
सरपट सीधी राहों पर
सरल-सहज जीवन चलता है
उंची उड़ान की चाहत में
मन में न सपना पलता है।
मुझको क्या लेना
मोटर-गाड़ी से
मुझको क्या लेना
ऊँची कोठी-बाड़ी से
छोटी-छोटी बातों में
मन रमता है।
चढ़ते सूरज को करें सलाम।
पग-पग पर अंधेरे थे
वे किसने देखे
बस उजियारा ही दिखता है
जग का यही विधान है प्यारे
यहां सोच-समझ कर चल।
विध्वंस की आशंका
विध्वंस की आशंका से
आज ही
नवनिर्माण में जुटे हैं
इसलिए
अपने-आप ही
तोड़- फ़ोड़ में लगे है।
एैसे भी झूले झुलाती है ज़िन्दगी
वाह! ज़िन्दगी !
.
कहाँ पता था
एैसे भी झूले झुलाती है ज़िन्दगी।
आकाश-पाताल
सब एक कर दिखाती है ज़िन्दगी।
क्यों
कभी-कभी इतना डराती है ज़िन्दगी।
शेर-चीते तो सपनों में भी आयें
तब भी नींद उड़ जाती है।
न जाने
किसके लिए कह गये हैं
हमारे बुज़ुर्ग
कि न दोस्ती भली न दुश्मनी।
ये दोस्ती निभा रहे हैं
या दुश्मनी,
ये तो पता नहीं,
किन्तु मेरे
धरा और आकाश
दोनों छीनकर
आनन्द ले रहे हैं,
और मुझे कह रहे हैं
जा, जी ले अपनी ज़िन्दगी।
घर की पूरी खुशियाँ
आंगन में चरखा चलता था
आंगन में मंजी बनती थी
पशु पलते थे आंगन में
आँगन में कुँआ होता था
आँगन में पानी भरते थे
आँगन में चूल्हा जलता था
आँगन में रोटी पकती थी
आँगन में सब्ज़ी उगती थी
आँगन में बैठक होती थी
आँगन में कपड़े धुलते थे
आँगन में बर्तन मंजते थे।
गज़ भर के आँगन में
सब हिल-मिल रहते थे
घर की पूरी खुशियाँ
इस छोटे-से आँगन में बसती थीं
पूरी दुनिया रचती थीं।
कविता लिखने की रैसिपी
काव्य-सृजन एवं स्वाधीनता के बीच की एवं मेरे जीवन की यह एक सत्य-कथा है ।
इधर मेरे लेखन में बहुत परिवर्तन आया है, आभारी हूं आप सब मित्रों की, साहित्यिक समूहों की, अन्यथा मेरी रचनाओं में बहुत ही नकारात्मकता रहती थी एवं सबसे बड़ी समस्या यह थी कि मेरी कविताएं “नारी–नुमा” कही जाती थी। एेसा मेरे कवि-मित्र कहा करते थे कि मेरी रचनाओं में नारी के अतिरिक्त कोई विषय ही नहीं होता।
बहुत पुरानी बात है, शायद 1996-97 की। 15 अगस्त पर होने वाले कवि-सम्मेलन के निमन्त्रण के साथ ही मुझे यह धमकी भी मिली कि मैं इस कवि-सम्मेलन में कोई नारीनुमा रचना लेकर नहीं आउंगी, देश-प्रेम की ही रचना होनी चाहिए। जब मैंने यह कहा कि मेरे मन में जो भाव उद्वेलित करते हैं उन पर ही लिख पाती हूं, तो उत्तर में संचालक महोदय ने मुझसे पूछा कि मेरे भीतर देश-भक्ति की भावना नहीं है? और यह भी समझाया कि देश-भक्ति पर कविता लिखना तो सबसे सरल है।
अब उन्होंने मुझे देश-भक्ति की रचना लिखने का लिए जो रैसिपी दी आप भी लीजिए, कवियों के स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त लाभप्रद है।
उन्होंने मुझे समझाया कि मैं अपने पुत्र की पांचवी-छठी कक्षा की राजनीति की कोई पुस्तक लूं और उसमें से स्वाधीनता सेनानियों के नाम लिख लूं। जैसे लाल, बाल, गोपाल, नेहरू, गांधी, पटेल, भगतसिंह, राजगुरू, चंद्रशेखर आज़ाद, तिलक, झांसी की रानी, नाना और न जाने कितने ही नाम। अब इनके साथ जलियांवाला बाग, स्वीधनता, आज़ादी, देश-प्रेम, त्याग, बलिदान, आहुति, फांसी, शहीद, वतन, देश, अंग्रेज, विदेशी, आततायी, राष्ट्र् जैसे शब्दों को लूं इन सबको मिलाकर थोड़ी सी तुकबन्दी और देशभक्ति की कविता तैयार।
क्या आप मित्रों के पास है कोई नुस्खा कविताएं लिखने का ?
वर्तमान स्वागत-सत्कार
श्रेष्ठि वर्ग / High Society
आपके सामने शानदार डोंगे भर-भर कर काजू, किशमिश, बादाम, अखरोट जैस सूखे मेवे रख दिये जाते हैं। आप एक नहीं, दो अथवा तीन दाने उठाकर खा लेंगे। फिर वे स्वयं ही बार बार चाय, कोल्ड ड्रिंक से होने वाली हानियों को सविस्तार बतायेंगे और बतायेंगे कि वे तो एेसा कुछ भी सेवन नहीं करते। साथ ही आपसे बार बार पूछेंगे आप क्या लेंगे। फिर छोटे छोटे cut glasses में आपको तीन-चार घूंट कोई energy drink serve की जायेगी जिससे आप अपना गला तर करके, कुछ दाने टूंग कर चल देंगे।
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उच्च मध्यम वर्ग ः एक बिस्कुट की प्लेट और नमकीन की एक-दो प्लेट आपके सामने आ जायेगी और दो-तीन बार आपके सामने घूम कर लौट जायेगी। साथ आधा कप चाय अथवा कोई चलती सी कोल्ड ड्रिंक
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और आह ! सही लोग : सही स्वागत-सत्कार
समासे, पकौड़े, गुलाबजामुन, रसगुल्ले, और इनके सारे रिश्तेदार और कम से कम दो-तीन बार चाय।
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आप मुझे जलपान पर कब आमन्त्रित कर रहे हैं ।
आस लिए जीती हूँ
सपनों में जीती हूँ
सपनों में मरती हूँ
सपनों में उड़ती हूँ
ऐसे ही जीती हूँ।
धरा पर सपने बोती हूँ
गगन में छूती हूँ ।
मन में चाँद-तारे बुनती हूँ।
बादलों-से उड़ जाते हैं,
हवाएँ बहकाती हैं
सहम जाता है मन
पंछी-सा,
पंख कतरे जाते हैं
फिर भी उड़ती हूँ।
लौट धरा पर आती हूँ,
पर गगन की
आस लिए जीती हूँ।
जीवन क्या होता है
जीवन में अमृत चाहिए
तो पहले विष पीना पड़ता है।
जीवन में सुख पाना है
तो दुख की सीढ़ी पर भी
चढ़ना पड़ता है।
धूप खिलेगी
तो कल
घटाएँ भी घिर आयेंगी
रिमझिम-रिमझिम बरसातों में
बिजली भी चमकेगी
कब आयेगी आँधी,
कब तूफ़ान से उजड़ेगा सब
नहीं पता।
जीवन में चंदा-सूरज हैं
तो ग्रहण भी तो लगता है
पूनम की रातें होती हैं
अमावस का
अंधियारा भी छाता है।
किसने जाना, किसने समझा
जीवन क्या होता है।
न जाने अब क्या हो
बस शैल्टर में बैठे दो
सोच रहे हैं न जाने क्या हो।
‘गर बस न आई तो क्या हो।
दोनों सोचे दूजा बोले
तो कुछ तो साहस हो।
बारिश शुरु होने को है
‘गर हो गई तो
भीग जायेंगे
कहीं बुखार हो गया तो।
कोरोना का डर लागे है
पास होकर पूछें तो।
घर भी मेरा दूर है
क्या इससे बात करुँ
साथ चलेगा ‘गर जो
बस न आई अगर
कैसे जाउंगी मैं घर को।
यह अनजान आदमी
अगर बोल ले बोल दो।
तो कुछ साहस होगा जो
सांझ ढल रही,
लाॅक डाउन का समय हो गया
अंधेरा घिर रहा
न जाने अब क्या हो।
कामयाबी और भटकाव’
ओलम्पिक पदक विजेता सुशील कुमार पर गम्भीर आपराधिक मामले हैं। प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद नामी खिलाड़ी नकारात्मक दुनिया में कदम रखने लगे हैं। यह उनकी आकांक्षाओं का विस्तार और भटकाव तो है ही, किन्तु विचारणीय यह कि कारण क्या है? निःसंदेह ओलम्पिक में पदक प्राप्त करना बहुत बड़ी उपलब्धि है, और वे सम्मान के पात्र भी हैं। किन्तु इन विजेताओं को इतना महिमा-मण्डित किया जाता है कि वे अपने-आपको अति श्रेष्ठ समझने लग जाते हैं। कामयाबी और अहंकार उनके सर चढ़कर बोलने लगता है। पुरस्कारों, पदकों, नकद राशि, ज़मीन, फ़्री की उंची नौकरी, उपहारों की झड़ी लग जाती है और यहां तक राजनीति में भी इनकी पूछ होने लगती है। राजीव गांधी खेल-रत्न, अर्जुन पुरस्कार, पद्म श्री, आदि न जाने कितने पुरस्कार मिले। कितने ही खिलाड़ियों को खेल एकेडमी खोलने के लिए ज़मीन दी जाती है। किन्तु जिस ओलम्पिक तक वे पहुंचते हैं, परिश्रम उनका होता है किन्तु उन पर किया जाने वाला व्यय, अभ्यास, प्रयास सब देश करता है और आम नागरिक के धन से होता है। इसका एहसास उन्हें कभी भी नहीं कराया जाता। उन पर कोई दायित्व नहीं होते । इतना सब मिल जाने के बाद वे प्राप्त धनराशि, पद, ज़मीन का क्या कर रहे हैं कोई नहीं पूछता। उपलब्धियों के बाद वे अपने खेल के प्रति अथवा देश के प्रति क्या उत्तरदायित्व निभा रहे हैं कोई जांच नहीं होती। सात पीढ़ियों की सुविधाएं उनके पास आ जाती हैं और उन्हें कोई कर्तव्य बोध नहीं कराया जाता। हमारी यही नीतियां उन्हें नाकारा, उच्छृंखल और अपराधी बना देती हैं।
तूफान (मन के अंदर और बाहर) एक बोध कथा
तूफ़ान कभी अकेले नहीं आते। आंधी-तूफ़ान संयुक्त शब्द ही अपने-आप में पूर्ण अभिव्यक्ति माना जाता है। वैसे बात तो एक ही है। आंधी हो या तूफ़ान, बाहर हो अथवा अन्तर्मन में, बहुत कुछ उजाड़ जाता है, जो कभी दिखता है कभी नहीं। अभी कुछ दिन पूर्व ताउते एवं यास तूफ़ान ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया। हम दूर बैठे केवल बात ही कर सकते हैं। जिनके घर उजड़ गये, व्यवसाय डूब गये, उन पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन तूफ़ानों का प्रभाव रह जाता है। ये बाहरी तूफ़ान कितने गहरे तक प्रभावित करते हैं मन को, जीवन-शैली को, सामाजिक-पारिवारिक रहन-सहन को, शब्दों में समझाया नहीं जा सकता।
कोरोना भी तो किसी तूफ़ान से कम नहीं। हां, इसकी गति मन और प्रकृति के तूफ़ान से अलग है। दिखता नहीं किन्तु उजाड़ रहा है। एक के बाद एक लहर, सम्हलने का समय ही नहीं मिल रहा। पूरे-पूरे परिवार, नौकरियां, व्यवसाय इस तूफ़ान ने लील लिए, और कोई आवाज़ तक नहीं हुई। किस राह से किस घर में और किस देह में प्रवेश कर जायेगा, कोई नहीं जानता। किस दरार से, किस द्वार से हमारे घर के भीतर प्रवेश कर गई पता ही नहीं लगा। पांचों सदस्य एक साथ प्रभावित हुए। एक माह बाद भी अभी सम्हल नहीं पाये। कोविड उपरान्त अनेक समस्याएं हो रही हैं और हो सकती हैं। यह और भी भयंकर इसलिए कि अपनों की अपनों से पहचान ही मिटा रहा है। पड़ोसियों ने हमारे घर की ओर देखना बन्द कर दिया, मानों कहीं हवा से उनके घर में प्रवेश न कर जाये। हम बीस दिन घर में पूरी तरह बन्द रहे। कोई किसी की सहायता नहीं कर सकता अथवा करता, एक अव्यक्त भय ने घेर लिया है।
पिछले लगभग एक महीने में यहां पंचकूला में तीन-चार बार भयंकर तूफ़ान आया। हमारे दो सुन्दर फूलों के गमले गिर कर टूट गये। कोई दिन नहीं जाता जब मैं उन गमलों और फूलों को याद नहीं करती। फिर सोचती हूं, मैं दो गमलों के लिए इतनी परेशान हूं, जिनका पूरा जीवन ही उजड़ गया इन तूफ़ानों में, उनका क्या हाल हुआ होगा।
शायद मैं अपनी अभिव्यक्ति में उलझ रही हूं। एक ओर प्राकृतिक तूफ़ान की बात है और दूसरी ओर मन के अथवा आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक स्तर पर आने वाले तूफ़ानों की।
एक विचारों का, चिन्तन का झंझावात ऐसा भी होता है जो शब्दरहित होता है, न उसकी अभिव्यक्ति होती है, न अभिप्राय, न अर्थ। जिसके भीतर उमड़ता है बस वही जानता है।
एक बोध कथा है कि तूफ़ान आने पर घास ने विशाल वृक्षों से कहा कि झुक जाओ, नहीं तो नष्ट हो जाओगे। वृक्ष नहीं मानें और आकाश की ओर सिर उठाये खड़़े रहे। तूफ़ान बीत जाने के बाद वृक्ष धराशायी थे किन्तु झुकी हुई घास मुस्कुरा रही थी। किन्तु कथा का दूसरा पक्ष जो बोध कथा में कभी पढ़ाया ही नहीं गया, वह यह कि झुकी हुई घास सदैव पैरों तले रौंदी जाती रही और वृ़क्ष अपनी जड़ों से फिर उठ खड़े हुए आकाश की ओर।
किन्तु यह तो बोध कथाएं हैं। वास्तविक जीवन में ऐसा कहां होता है। जब तूफ़ान आते हैं तो निर्बल को पहले दबोचते हैं। किन्तु उसकी चर्चा नहीं होती। चर्चा होती है शेयर बाज़ार में तूफ़ान। राजनीति में तूफ़ान। जब हम समाचार सुनना चाहते हैं और तरह-तरह के तूफ़ानो से चिन्तित वास्तविकता जानना चाहते हैं तब वहां उन तूफ़ानों पर चर्चा चल रही होती है जो आये ही नहीं। और हम घंटों मूर्ख बने उसे ही सुनने लग जाते हैं, वास्तविकता से बहुत दूर उन्हें ही सत्य मान बैठते हैं।
कोरोना का अनुभव
कोरोना का अनुभव अद्भुत, अकल्पनीय था। पति पहले ही स्वस्थ नहीं थे, मार्च में हुए हृदयाघात के कारण। 28 मई रात्रि पति को ज्वर हुआ। बदलते मौसम में उन्हें अक्सर ज्वर होता है, अपने डाक्टर को फ़ोन किया तो उन्होंने दवाई दे दी। तीन दिन में बुखार उतर गया। किन्तु कमज़ोरी इतनी बढ़ गई कि अस्पताल हार्ट स्पैश्लिस्ट के पास चैकअप ज़रूरी दिख रहा था। जानते थे कि अस्पताल पहले नैगेटिव रिपोर्ट मांगेगे। इसलिए 2 जून को कोरोना टैस्ट करवाया। दुर्भाग्यवश पाज़िटिव रिपोर्ट आ गई। साथ ही मुझे और मेरे बेटे को भी ज्वर हुआ। उसी दिन हमने टैस्ट करवाया। पति की हालत उसी रात गम्भीर हुई, सुबह पांच बजे एमरजैंसी में एडमिट हुए। मैं, बेटा बाहर खड़े उनकी रिपोर्ट की प्रतीक्षा कर रहे थे। शुरु की सारी रिपोर्टस ठीक रहीं। नौ बज रहे थे। शेष रिपोर्ट्स समय लेकर मिलनी थीं। बेटे के मोबाईल पर आवाज़ आई और पाया कि हम दोनों की रिपोर्ट पाज़िटिव है। हमने मुड़कर नहीं देखा, और अस्पताल से निकल गये। डाक्टर से फोन पर बात की, मिलना तो था ही नहीं, क्योंकि कोविड वार्ड में थे। उनका सोडियम बहुत गिर गया था। बहू की रिपोर्ट नैगेटिव थी, अतः उसे पहले ही मायके भेज दिया जहां वह एकान्तवास हुई। उसका परिवार पिछले माह ही कोविड भुगत चुका था। एक ही दिन में हम हिस्सों में बंट गये।
तीसरे दिन आंचल को भी बुखार हुआ और पोती धारा को भी। बिना टैस्ट ही जान गये कि उन्हें भी कोविड हो गया है। अब सवाल था वापिस कैसे लाया जाये। बेटे का एक मित्र, जिसे कोविड हो चुका था, उन दोनों को घर छोड़कर गया। बस इतना रहा कि मुझे एक ही दिन बुखार रहा। बेटे को दस दिन और धारा और आंचल को चार दिन। बुखार बढ़ता तो कभी तीनों मिलकर धारा की पट्टियां करते तो कभी मैं और आंचल मिलकर बेटे की। खाना बाहर से आने लगा। फल, जूस आदि आंचल के घर से देकर जाते। तीन रात लगातार बिजली जाती रही। नया इन्वर्टर धोखा दे गया। एक फे़स से एक ए. सी. चल रहा था। और हम चारों, मैं, बेटा, बहू और पोती एक ही डबल बैड पर रात काटते। इतनी हिम्मत नहीं कि एक फ़ोल्डिंग बैड लगा लें या नीचे ही बिस्तर बिछा लें।
पांचवे दिन पति का अस्पताल से डिस्चार्ज था। समस्या वही, हम जा नहीं सकते, और और कोविड रोगी को डिस्चार्ज करवाने और उन्हें लेकर कौन आये। फिर बेटे के मित्र और बहू के पिता ने सब किया। लेकिन चार दिन बाद फिर अस्पताल एडमिट हुए, इस बार हमारे दस दिन बीत चुके थे, और डाक्टर ने कहा कोई बात नहीं, आप लोग आ जाईये। साथ ही बेटे का माइग्रेन शुरु हो गया। बच्चे कब तक छुट्टी लेते। वर्क फ्राम होम ही है किन्तु 8-10 घंटे पी. सी. पर।
अपने मकान मालिक को हमने पहले ही दिन बता दिया था। वे बोल बोले बैस्ट आॅफ़ लक्क। नियमित दूध लेने वाले हम लोग पांच दिन तक दूध लेने नहीं गये। प्रातः लगभग 7 बजे हम 6 परिवार एक साथ दूध लेते हैं। किसी ने नहीं पूछा। दूध वाले ने उनसे पूछा कि उपर की आंटी जी चार-पांच दिन से दूध लेने नहीं आईं, उनके घर में सब ठीक तो है न। फिर दूधवाला अपने-आप ही हमारा दूध, ब्रैड, पनीर रखने लगा।
महीना बीत गया। रिकवरी मोड में तो हैं किन्तु पोस्ट कोविड समस्याएं भी हैं। देखते हैं कब तक जीवन पटरी पर उतरता है।
‘‘लकीर का फ़कीर ’’ मुहावरे की चीर –फ़ाड़
लकीर का फ़कीर! कौन होता है लकीर का फ़कीर? किसने बनाया यह मुहावरा। मुझे तो दोनों शब्दों में कोई सामंजस्य अर्थात ताल-मेल ही समझ नहीं आ रहा। इस कारण मैं स्वयं ही असमंजस में हूं। अब आप सब मेरे मित्र हैं, आप सबसे अपने मन की बात नहीं बांटूंगी तो कहां जाउंगी भला!
चलिए पहले फ़कीर की बात करती हूं। फ़कीर वही होते हैं न लम्बे चोगे वाले, पठानी से, बड़े-उंचे कद वाले।
आजकल हमें गूगल देवता की बहुत आदत हो गई है। मैंने सोचा, देखूं गूगल देवता फ़कीर को जानते भी हैं या नहीं। लीजिए, उन्होंने तो चित्रों की झड़ी लगा दी। एक से बढ़कर एक फ़कीर। कोई बड़ी-सी पगड़ी वाले, लम्बी सफ़ेद दाढ़ी, हार-मालाएं पहने, हाथ में फ़कीरी का कटोरा। कोई इकतारा बजाते हुए, कोई सुट्टा लगाते हुए। लाठी, मालाएं और सफ़ेद लम्बी दाढ़ी सबके पास।
हमारे ज़माने में स्तरीय भिक्षुकों को फ़कीर ही कहा जाता था। हम बच्चे साधारणतः इनके लिए ‘‘मांगने वाले’’ शब्द का प्रयोग करते थे, जिसके लिए बहुत डांट पड़ती थी। मां कहती थी, ‘जा, फ़कीर को रोटी दे आ’।
फ़कीरी शब्द लापरवाही से जीवन-यापन करने वालों के लिए भी प्रयोग किया जाता है। जीवन में दुख-सुख से ऊपर, धन-दौलत को मिट्टी समझने वाले। ईष्र्या, द्वेष, प्रेम-नेह सबसे दूर। किन्तु इनके साथ लकीर कहां से आ गई? ऐसे लोगों के जीवन में तो लकीरें होती ही नहीं। यदि कोई, किसी भी तरह की लकीर है तो फिर फ़कीरी कैसी! मैं अपनी क्षुद्र बुद्धि से इतनी बड़ी समस्या का समाधान करने निकली हूं, साहस है मेरा।
चलिए, अब लकीर की बात करते हैं। फिर दोनों में तालमेल, सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करेंगे।
लकीर वही न जिसे हिन्दी में ‘रेखा’ कहते हैं। किन्तु जिस गहन भाव का अनुभव ‘लकीर’ शब्द प्रयोग से होता है वह ‘रेखा ’में कहां। और यही बात लकीर पर भी लागू होती है कि जो उत्तम भाव रेखा शब्द प्रयोग से मिलता है वह ‘लकीर’ से कहां! अब आप ही बताईये मैं लकीर से बात करुं या रेखा से?
पर्यायवाची शब्द के रूप में तो रेखा शब्द का प्रयोग किया जा सकता है किन्तु क्योंकि हम एक मुहावरे के पीछे पड़े हैं और वहां ‘लकीर’ है तो लकीर पर ही बात करना उचित होगा।
लकीर का अभिप्राय बाधा भी होता है। जैसे ‘मैं तो यह कार्य करना चाहती थी किन्तु ऐसी लकीर खिंची कि क्या बताउं’। ‘किस्मत ने ऐसी लकीर खींची कि सब उजड़ गया’। आदि-आदि
चलिए, दोनों का घालमेल करते हुए बात करते हैं कुछ तो निष्कर्ष निकलेगा और नहीं भी निकला तो मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा।
‘रेखा’ ने तो ‘लक्ष्मण रेखा’ से असीम प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी। ‘रेखा’ का महत्व गणित में बहुत है। किन्तु मैं अब यहां शिक्षा के क्षेत्र में पदार्पण नहीं करने वाली कि आपकी मेरा आलेख पढ़ने में रुचि ही न रहे।
किन्तु लकीर तो एक समय बाद फ़कीरों के हाथ से निकलकर समाज में आ पसरी। घरों के भीतर, घरों के बाहर, हमारे मन में, सम्बन्धों में, सहारों में, जहां-तहां लकीरें खिंची देखी जा सकती हैं। और दुख की बात यह कि ये लकीरें फ़कीरी की नहीं होतीं। मन-मुटाव की, धन-दौलत की, ज़मीन-जायदाद की, अपने-अपने अधिकारों की या अधिकारों के हनन की, उंची-उंची दीवारों की, न जाने कितनी तरह की लकीरें खिंचने लगी हैं। ये लकीरें दिखती नहीं हैं, बस चुभती हैं, तोड़ती हैं, काटती हैं और विभाजित करती हैं। इसे कहते हैं लकीर की फ़कीरी!
अब वास्तविकता के धरातल को छोड़कर इतिहास में चलते हैं।
‘लकीर का फ़कीर’ मुहावरा का उद्गम कब, कैसे हुआ?
कहा जाता है कि एक महाज्ञानी गुरु थे। वे अपने शिष्यों से आग्रह करते थे कि वे जो भी पढ़ाते हैं उसे लिपिबद्ध अवश्य करें और अपनी इस पुस्तिका को सदैव अपने साथ रखें व अपने जीवन में प्रत्येक कार्य पुस्तिका में लिखे अनुसार ही करें और यदि पुस्तिका में कोई कार्य नहीं लिखा तो उसे न करें क्योंकि गुरुजी की दृष्टि में पुस्तिका में आवश्यकता से अधिक ज्ञान था और, और ज्ञान की आवश्यकता नहीं थी। गुरुजी के अनुसार वे अपने शिष्यों को पूर्ण ज्ञान प्रदान कर चुके थे। उन्होंने अपने शिष्यों से पुस्तिका में कुछ भी नया लिखने से मना कर दिया, चाहे वे ही आदेश क्यों न दें एवं यह भी कहा कि वे अपनी बुद्धि का प्रयोग न करें। इस प्रकार शिष्यों के जीवन में कोई समस्या न रही, हर समस्या का समाधान पुस्तिका में उपलब्ध था।
एक बार गुरुजी शिष्यों के साथ नदी पार कर रहे थे कि उनका पैर फ़िसल गया और वे नदी में जा गिरे और डूबने लगे। उन्होंने अपने शिष्यों को बचाने के लिए पुकारा। शिष्यों ने तत्काल पुस्तिका खोली और पाया कि पुस्तिका में किसी डूबते को बचाने के बारे में कुछ नहीं लिखा गया। शिष्य चुपचाप खड़े रहे। तब गुरुजी ने फिर पुकारा कि मुझे क्यों नहीं बचा रहे हो? तब शिष्यों ने कहा कि इस पुस्तिका में ऐसी परिस्थिति के बारे में कुछ नहीं लिखा। और वे उनके ही आदेशानुसार पुस्तक से इतर कोई कार्य नहीं कर सकते। तब गुरुजी चिल्लाकर बोले कि अब लिख लो कि डूबते व्यक्ति को बचाना चाहिए। किन्तु शिष्यों ने कहा कि ऐसा करने के लिए आपने ही मना किया है, हम नहीं लिख सकते।
अन्ततः वहां से जा रहे कुछ नाविकों ने गुरुजी को डूबते देखा और उन्हें बचाया। और साथ ही आश्चर्य व्यक्त किया कि गुरुजी आपने अपने शिष्यों को न तैरना सिखाया और न ही किसी की सहायता करना अथवा शोर मचाकर सहायता मांगना।
तब गुरुजी की समझ में आया कि उन्होंने अपने शिष्यों को जीवन का व्यावहारिक ज्ञान न देकर, पुस्तिका का अनुसरण करने को कहकर उन्हें लकीर का फ़कीर बना दिया था। अपनी गलती समझकर उन्होंने सभी शिष्यों से उनकी पुस्तिका लेकर फ़ाड़ दी और उन्हें व्यवहारिक जीवन जीने का निर्देश दिया
लीजिए, खोदा पहाड़ और निकली चुहिया, किन्तु ज़िन्दा है। हमारे भीतर ही यह गुरु भी है और सारे के सारे शिष्य भी। इसे कहते हैं लकीर की फ़कीरी!
यात्रा संस्मरण शिमला
हमें स्वयं ही पता नहीं होता, हमारे भीतर कितने शहर कुलबुलाते हैं। बस हम यूं ही कुछ यादों में सिमटे सालों-साल बिता देते हैं तब जाकर पता लगता है कि हम तो खंडहर ढो रहे थे।
एक अलग-सी बात कहती हूं। हमारे आस-पास लाखों-करोड़ों पशु-पक्षी रहते हैं। किन्तु क्या आपने किसी का मृत शरीर देखा है कभी। शायद नहीं। हां , अनहोनी मौत होने पर, अर्थात किसी घटना-दुर्घटना में मौत होने पर अवश्य मृत शरीर दिखाई दे जाते हैं, वैसे नहीं।
जब किसी बन्दर के बच्चे की ऐसी ही असामयिक मौत हो जाती है, तब बन्दरिया अपने उस मृत बच्चे को अपनी छाती से लगाये रहती है जब तक उसक मांस सूख कर और हड्डियां गल कर गिर नहीं जातीं। यह सत्य है।
कभी –कभी हम अपनी स्मृतियों, भावनाओं के साथ भी ऐसा ही करते हैं बरसों-बरस छूटे रिश्ते, सम्बन्ध, शहर, स्मृतियां हम यूं ही ढोते रहते हैं, कलपते हैं, सिसकते हैं, अन्दर ही अन्दर घाव बनाते हैं। कुछ रिश्ते आवाज़ देकर टूटते हैं और कुछ बेआवाज़। बेआवाज़ टूटे रिश्ते अर्न्तात्मा को तोड़ते हैं किन्तु बहुत बाद में पता लगता है हम तो खण्डहर ढो रहे थे।
शिमला
पिछले तीस वर्ष से मेरे भीतर कुलबुलाता था। स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय, बैंक, आकाशवाणी, विधान-सभा, माल रोड, लोअर बाजार, लक्क्ड़ बाज़ार, रिज, गुफा, आशियाना, चुडै़ल बौड़ी, जाखू, तारादेवी, अनाडेल में उतरते हैलिकाप्टर, वहां का दशहरे का मेला, छोले-टिक्की की दुकानें, बालजीस का डोसा, हिमानी के छोले-भटूरे, दस पैसे के बीस गोलगप्पे, पांच पैसे का चूरण और फ्री की रेती, सब जगह घूमता था। पांच-पांच फुट बर्फ में भी टिप-टाप होकर घूमते, न बरसात की चिन्ता, न सर्दी की, रोज़ दो-तीन घंटे पैदल चलना। और लोअर कैथू, गार्डन व्यू जहां मैंने अपनी जीवन के 34 वर्ष बिताए। माता-पिता, भाई-बहन, भरा-पूरा आठ लोगों का परिवार। लड़ते-झगड़ते, हंसते-बोलते, जीवन की समस्याओं को झेलते, जैसे भी थे, सब साथ थे। हर शाम बरामदे में पेटी पर बैठने के लिए झगड़ा होता। वहां से डूबते सूरज को हर रोज नये रंगों में देखते, और देखते सैंकड़ों के समूह में विविध पक्षियों को रेखाओं में अपने घर की ओर उड़ान भरते हुए। कभी न भूलने वाले पल।
जब से शिमला जाने की बात हुई मेरे लिए मेरे परिवार के सदस्य तनाव में थे। वे जानते थे कि शिमला में मेरे कुछ उजड़े-बिखरे सम्बन्ध हैं, जो पिछले बीस-तीस वर्षों से मेरे भीतर नासूर बनकर बह रहे हैं। कहीं कोई गहरा घाव न लगा बैठूं, वे सब डरे हुए थे।
होटल कहां लिया, अप्पर कैथू, घर से बस 15-20 मिनट के रास्ते पर। किन्तु मन तो लोअर कैथू घूम रहा था, पीली कोठी, बिट्टू हलवाई की दुकान, जोंजी की दुकान, स्कूल, चिटकारा निवास, वो डिस्पैंसरी की खड़ी उतराई और न जाने क्या-क्या ।
कहानी तो लम्बी है किन्तु संक्षेप में, दो दिन जगह-जगह घूमे, पर्यटकों की भांति, किन्तु मन न जाने किसे किसे खोज रहा था।
प्रात: सात बजे निकलकर लगभग 11 बजे हम होटल पहुंच गये। यह मेरे जीवन की पहली यात्रा थी कि मैं सारे रास्ते सोई नहीं। खोये हुए हर पल को पकड़ लेना चाहती थी। मेरा पहला लक्ष्य था मेरा पोर्टमार स्कूल छोटा शिमला, जहां मैं केजी से 11वीं तक पढ़ी थी, वर्ष 1959 से 1971 तक। अब मैं यह सोचकर जाउंगी कि आज भी वही भवन, प्रांगण, कक्षाएं मिलेंगी तो भूल तो मेरी ही थी। किन्तु वही सादगी, शान्त वातावरण, सहजता अवश्य मिली। और एक बात जो सबसे बड़ी कि आज भी उस विद्यालय की वही यूनीफार्म : मैरून चैक कमीज़ और सफेद सलवार । वहां से पैदल मालरोड।
घर से स्कूल लगभग पांच किलोमीटर था, सीधी चढ़ाई और उतराई। और पांच-दस किलो के बैग। किन्तु कभी न तो दूरी का अनुभव होता था और न ही भार का।खेलते-कूदते, छलांगें लगाते, पहाड़ियों पर चढ़ते पूरे एक घंटे में घर पहुंचते थे। लिफ्ट के सामने चुड़ैल बौड़ी हुआ करती थी जहां पानी की एक बावड़ी थी और स्कूल से लौटते समय हम ज़रूर पानी पिया करते थे। पांच पैसे की खरी हुई रेती और चूरण पानी में मिलाकर पीते थे किन्तु कभी हमारे गले खराब नहीं होते थे। और साथ ही तीखी-उंची चट्टानों की खड़ी पहाड़ी थी जहां हम प्रतिदिन चुड़ैल ढूंढते थे किन्तु अब वहां अब वहां बहुमंजिला इमारत खड़ी थी राजीव गांधी सपोर्ट्स काम्पलैक्स । कम्बरमीयर पोस्ट आफिस भी नहीं मिला। लिफ्ट के पास पहुंचते- पहुंचते अपना पी एन बी का क्षेत्रीय कार्यालय ढूंढने लगी, अरे कहां गया मेरा आर एम आफिस कहां गया, और दोनों मुझ पर चिल्ला पड़े, पागल हुई है, धीरे बोल, आस-पास लोग देख रहे हैं । आंखों में आंसू आ गये जो फोटोक्रोम चश्मे में छुप जाते हैं, अब इन्हें क्या पता क्या ढूंढ रही थी मैं। चलो छोड़ो, आगे बढ़ गई मैं माल रोड की ओर।
काली बाड़ी का रास्ता, 129 सीढ़ियां, और रास्ते में जहां भी नल लगा हो वहां बस्ते रखकर शेर के मुंह वाले नल से पानी पीना। रास्ते से फूल तोड़ना, कैंथ खाना, नाख और खट्टे सेब। और दस पैसे के बीस गोलगप्पे। इतना सब और पता नहीं क्या-क्या करके पहुंचते थे घर।
मन में एक भटकाव था, कैसा कह नहीं सकती।
जहां दिन में 15-20 किलोमीटर चलना आम बात थी , जाखू मन्दिर जाने के लिए टैक्सी की ।
वाह ! माल रोड पर लोकल गाड़ी जहां कभी एंबुलैंस और फायर ब्रिगेड के अतिरिक्त कोई गाड़ी नहीं चल सकती थी वहां हाथ देकर लोकल छोटी बस रूकवाई जा सकती थी।
दो दिन पोर्टमोर स्कूल, मालरोड, लक्कड़ बाज़ार, रिज, जाखू, अनाडेल, एडवांस स्टडीज़ घूमते रहे किन्तु मेरे भीतर तो कुछ और ही घुमड़ रहा था। मन ही मन क्या खोज रही थी शायद अपने से ही छुपा रह थी।
अचानक कोई सामने से या पीछे से आकर मुझे रोक लेगा, और कहेगा ‘नीतू’। और देर तक एक चुप्पी होगी हमारे बीच, मेरी बांह पकड़ेगा और मैं उसके गले लगकर फफककर रो दूंगी। क्यों, कब, कैसे, सब छूट जायेगा। ‘’चल, घर चलो, उठाओ होटल से सामान,’’ और सब एकाएक बदल जायेगा। अथवा कोई पीछे से आकर पीठ पर हाथ मारकर कहेगा अरे तू इतने सालों बाद। कहां थी आज तक और हम घंटों सालों की बातें करेंगे। हा-हा, ही-ही, इसकी-उसकी। कोई सामने से आयेगा और मैं उसे रोककर कहूंगी ‘पछाण्या नीं, मैं नीतू” या ‘‘मैं कविता’’। या कोई मिलेगा ‘ओ सरिता बड़े दिनां दुस्सी‘’ मैं फिक् से हंस दूंगी ‘सरिता नीं कविता मैं’, अज्जे ताईं नीं पछाणया सई, तू बी अडि़ए।‘ या फिर शायद सरिता ही कहीं दूर से पुकार ले।
भीड़ में आंखे गडाये घूम रही थी, शायद कोई, शायद कोई ।
किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ, कुछ भी नहीं हुआ ऐसा। तो क्या यही उपलब्धि थी मेरे उस जीवन की जिसकी यादों को मैं वर्षों से अपने भीतर संजोये थी, कभी लौटूंगी तेरे पास, अपनी यादों के साथ, कुछ पुनर्जीवित करने के लिए, कौन, कोई, क्या मिलेगा, कभी समझा ही नहीं, जाना ही नहीं।
इतने दिन बीत गये किन्तु समझ नहीं पाई कि खण्डहर अभी जीवन्त हैं अथवा मैंने उन्हें तिलांजलि दे दी।
दिल तो परेशान था
28 अगस्त से शुरु हुई भागदौड़ अभी चल ही रही है। समय अनेक अनुभव देता है। इस बार भी मिला। एक अनुभव कोरोना के समय हुआ था, एक अब हुआ, शायद उतना ही हिलाकर रख देने वाला।
मार्च में पति हेमन्त को हृदयाघात हुआ था जिससे सम्हलना शुरु हो चुका था। एक arterie में दो स्टंट डाले गये थे और डाक्टर्स का कहना था कि बाकी दो में लगभग तीन महीने बाद स्टंट डलेंगे। उसके बाद कोरोना फैला, हमें भी हुआ। परेशानियां आईं, पति दो बार अस्पताल पहुंचे, फिर हम सब ठीक होने लगे।
किन्तु दिल तो परेशान था ही। अस्पताल पहुंचे, हेमन्त के दिल का हाल जानने के लिए। 28 अगस्त को स्टटिंग के लिए डाक्टर ने एंजियोग्राफ़ी की, आपरेशन थियेटर में हेमन्त थे, किन्तु चिकित्सक बिना स्टंट डाले बाहर आये और हमें बताया कि पहले से डाले गये स्टंट में भी ब्लाॅकेज आ गई है और बाकी दो में 80 व 90 प्रतिशत ब्लाॅकेज है जिसका निदान केवल बाय-पास सर्जरी है। हम हक्के-बक्के। हेमन्त ओटी में, एंजियोग्राफ़ी हो रही है और डाक्टर हमसे पूछ रहे हैं कि स्टंट डलवाने हैं या बायपास करवाना है? अब क्या करें। डाक्टर ने निर्णय हम पर छोड़ दिया कि यदि हम बाय पास नहीं करवाना चाहते तो वे तो स्टंट डाल देंगे किन्तु कोई गारंटी नहीं।
अब प्रश्न कि पहले स्टंट क्यों खराब हुए? उनका कहना था कि कोई कोई बाडी रिएक्ट कर जाती है और स्टंट एक्सेप्ट नहीं करती।
बिना स्टंट डलवाये ओटी से घर!!!
अब क्या ??????
डाक्टर्स ने हमें अगले दिन सारी रिपोर्ट्स दे दीं कि हम चाहें तो कहीं और जांच करवा सकते हैं। 15-20 दिन का समय हम लें लें।
घर में हर समय तनाव रहता कि स्टंट या बाय पास?????
किन्तु हमें कहीं और जाने का समय ही नहीं मिला, 1 सितम्बर को प्रातः दिल में दबाव शुरु हुआ और हम अस्पताल। अब तो बायपास के अतिरिक्त विकल्प ही नहीं था। एमरजैंसी में एडमिट। फिर सोडियम कम था 118, जब तक सोडियम 135 नहीं पहुंचता, आपरेशन नहीं हो सकता।
3 सितम्बर को अनायास आवाज़ लगती है कि हेमन्त केattendant ब्लड बैंक पहुंचे। हम फिर हक्के-बक्के कि क्या आपरेशन शेड्यूल हो गया। वहां बताया गया कि तीन या चार दिन बाद आपरेशन होगा जब तक सोडियम ठीक नहीं हो जाता। इस बीच हमें रक्त एवं प्लेटलैट्स का प्रबन्ध करना होगा। चार यूनिट ब्लड और एक प्लेटलैट्स।
आपके पास नहीं है क्या? नहीं । और किसी भी सरकारी एवं गैर सरकारी संस्था से खरीदा हुआ रक्त भी नहीं चाहिए, सीधे रक्तदाता से ही रक्त लेंगे। यह बाद की बात है कि फिर ब्लड बैंक, रैडक्रास, अन्य अस्पतालों से मिलने/उपलब्ध रक्त का क्या महत्व? और यह भी जानकारी मिली कि, whole blood, PRBC, FFP रक्त के प्रकार होते हैं और हमें PRBC चाहिए।
अब ब्लड ग्रुप रेयर।AB-Negetive !!!!!
पति ICU में अपना सोडियम बढ़ा रहे थे और हम रक्त की तलाश में लग गये। मोबाईल बजने लगे। सबसे पहले अपने सभी सम्बंधियों को पूछा, किसी का है ब्लड ग्रुप AB-Negetive। किसी का नहीं। दूसरी ओर मित्र, परिचित आदि। एक मित्र राकेश मौर्य ने अन्य मित्र निर्मल का नम्बर दिया कि वे एक रक्तदान समूह से जुड़े हैं। वहां से चक्र घूमना शुरु हुआ। किन्तु समस्या यह कि डाक्टर्स ने आपरेशन की तारीख और समय नहीं दिया था क्योंकि सोडियम जब तक बिल्कुल ठीक नहीं हो जाता, आपरेशन शैड्यूल नहीं हो सकता था। सामने से सभी पूछते आपरेशन कब है, शायद सोम या मंगल को। हमारे पास न तारीख न समय। चंडीगढ़, पंचकूला, मोहाली तो कुछ भी नहीं, दिल्ली, यमुनानगर, भटिंडा, यहां तक कि वाराणसी और न जाने कहां-कहां तीन दिन तक 10-10 घंटे हम केवल फोन ही करते रहे रक्त की तलाश में। कितने ही फ़ोन सामने से आये जहां तक किसी ने हमारी ज़रूरत पहुंचा दी थी। बिल्कुल अपरिचित, दूर शहर और मदद का प्रयास। दिल हिलकर रह गये हमारे। आगे से आगे सम्पर्क सूत्र मिलते रहे और अन्त में इतनी मेहनत काम आई। एक रक्तदाता दिल्ली से आकर रक्त देकर गये। ज़ीरकपुर से एक रक्तदाता प्लेटलेट्स देकर गये जिन्हें हमने प्रिजर्व करवाया। जब कोई रक्तदाता AB-Negetive मिलता और आने का वादा करता तो जब तक अगले दिन तक वह आ नहीं जाता, हमारी जान अटकी रहती कि नहीं आया तो क्या? और फोन करें कि नहीं, करें तो कैसे और क्या कहेंगे। अगर दो आ गये तो मना कैसे करेंगे? 3 सितम्बर से 6 सितम्बर तक रक्त की खोज में हम जिस तनाव में रहे, शब्दातीत है और नितान्त अपरिचित लोगों ने जितना सहयोग दिया वह भी शब्दातीत एवं अकल्पनीय अनुभव रहा। धन्यवाद, आभार, थैंक यू जैसे शब्द बहुत छोटे हैं इन सब संस्थाओं और व्यक्तियों के लिए। इस बीच प्रतीक्षा कक्ष में बैठे लोगों के दुख-तकलीफ़ भी देखे। आमने-सामने बैठे सब मिलकर अपने-अपने मन का बोझ हल्का कर रहे थे।
अन्ततः 7 सितम्बर को सोडियम भी ठीक और बायपास सर्जरी भी ठीक। सबकी शुभकामनाएं काम आईं।बायपास सर्जरी एमरजैंसी में ही हुई पर अभी भी मन कहता है कि शायद स्टंट से भी दिल ठीक हो जाता, किन्तु मैं यह नहीं कहती कि भगवान जाने। मैं कहती हूं डाक्टर्स जानें, उन पर हमने पूरा भरोसा किया और हेमन्त अच्छी रिकवरी कर रहे हैं।
मानों या न मानों : आत्माएं ही यमराज होती हैं क्या?
यह मेरे जीवन की एक सत्य घटना है जिसे स्मरण करके आज भी शरीर में सिहरन पैदा हो जाती है।
वर्ष 1990 जनवरी। शिमला। मेरी एक बहन नर्वदा कैंसर की अंतिम स्टेज से जूझ रही थी और चिकित्सकों ने जवाब दे दिया था। बहन लगभग अचेतावस्था में रहती थी, और न के बराबर बोल पाती थी। उस समय उनके पास परिवार में मैं, एक और बहन जिसका नाम सरिता है, एक बहन-जीजा और भाई-भाभी एवं मां थीं। मां और बहन साथ-साथ सोते थे। एक दिन बहन अचानक उठ बैठी और एकदम स्पष्ट जैसे डरकर बोलीं कि मां, देखो-देखो, दादी आई है मुझे लेने, मुझे नहीं जाना। सब हतप्रभ। और इतना बोलकर वह लेट गई। मां ने कहा कि नर्वदा कोई नहीं है यहां, तुझे कोई नहीं ले जायेगा, नहीं है दादी। तब उसने मां की ओर करवट ली कि देखो हमारे बीच सो रही है और मुझे लेने आई है। सब सकते में। मां ने फिर बिस्तर के बीच में हाथ फिराते हुए कहा कि नर्वदा देख यहां कोई नहीं है। तू आराम कर।
फिर ऐसा कई बार होने लगा। कभी उन्हें सामने खड़ी दिखाई देतीं, कभी बिस्तर के पास और अक्सर बीच में लेटी हुई। और हर बार वे साफ़ शब्दों में बताती कि मां देखो दादी आई है मुझे लेने , बीच में आकर लेट गई है, मुझे नहीं जाना, और बोलकर वे अचेत-सी हो जातीं।
शिमला में उस समय केवल प्रातःकाल पानी आता था वह भी लगभग चार बजे, जब घुप्प अंधेरा रहता था। हमारा स्नानघर कमरों से अलग बाहर बरामदे के साथ था। अर्थात स्नानघर जाने के लिए एक तरह से घर से बाहर ही आना पड़ता था ।
नर्वदा लगभग मरणासन्न अवस्था में थीं।
उनकी मृत्यु से कुछ दिन पहले प्रातः चार बजे पानी आया और दूसरी बहन सरिता उठी कि पानी भर ले कि अचानक नर्वदा उठकर बैठ गई और चिल्लाई ‘‘ओ सरिता, ओ सरिता बाहर मत जाना, मुझे लेने दादी आई है, मैं तो मिली नहीं, तुझे ले जायेगी, ओ सरिता बाहर मत जाना।’’ इतना कहकर वह फिर लेट गई। पूरा घर सुन्न पड़ गया। सब मानों एक-दूसरे का हाथ पकडे,़ डरे हुए, एक खौफ़ में बैठे रहे। और नर्वदा पहले की तरह अचेत। किसी का साहस नहीं था कि दरवाज़ा खोले। नौ बजे दूधवाले ने दरवाज़ा खड़काया तब जाकर किसी तरह साहस करके दरवाज़ा खोला।
यह माना जाता है कि यदि कोई आत्मा किसी को लेने आती है तो यदि वह व्यक्ति न मिले तो जो सबसे पहले सामने मिले, उसे ले जाती है।
इसके बाद वह कुछ होश में आने लगीं। तो बोलीं कि मेरे नाम से कुछ फल ही दान कर दो मन्दिर में, एक महीना और जी लूंगी। और ऐसा ही हुआ। उस दान के लगभग एक महीने बाद उनकी मौत हुई।
दोहरी मानसिकता
अपने पाँव पर आप हथौड़ी मारना मुहावरा तो सुना ही होगा आपने। महिलाओं के जीवन पर पूरा फ़िट होता है। इसी अर्थ को ध्वनित करते और भी बहुत से मुहावरे हैं, अभी याद नहीं आ रहे। जैसे अपने लिए कुँआ खोदना अथवा अपने लिए गढ्ढा खोदना आदि-आदि। जो कुठाराघात, हथौड़ा अपने विरुद्ध उठे कदमों पर उठाना चाहिए, अपने साथ हो रहे अन्याय पर उठाना चाहिए, मृत परम्पराओं, शोषण प्रधान रीति-रिवाज़ों पर उठाना चाहिए, वे अपने पर ही चलाती रहती हैं और फिर अपने लिए कहती हैं: वाह-वाह, वाह-वाह-वाह!!
महिलाएँ सारा जीवन यही करती हैं। वे तय ही नहीं कर पातीं कि उन्हें जीवन में क्या चाहिए और कितना और किसके लिए चाहिए।
संस्कार, रीति-रिवाज़, परम्पराएँ, व्रतोपवास, पूजा-अर्चना, अर्थात भारतीयता, भारतीय संस्कृति उनके भीतर बोलती है। किन्तु पढ़ना भी है, नौकरी भी करनी है, स्वभाव में व रहन-सहन में पुरातनता नहीं दिखनी चाहिए। किन्तु इतनी आधुनिकता भी न दिखे कि लोग अंगुलियां उठाने लगें। अन्यान्य गतिविधियों में भी आजकल पांरगत होना आवश्यक है। घर-गृहस्थी, परिवार तो उनका दायित्व रहता ही है। आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। किन्तु इतना आत्मनिर्भर भी न हो जायें कि पुरुष, पति अथवा परिवार पर हावी होने लगें। गाड़ी चलाना भी सीखना चाहिए। उनके जीवन की सार्थकता सभी रिश्तों को ओढ़कर चलने और उनकी सफ़लता में है, वही उनका व्यक्तित्व है और इससे ही समाज उनके व्यक्तित्व को पारिभाषित करता है।
उनमें संस्कारों के प्रति गहरी आस्था रहती है। वे रीति-रिवाज़ों का पालन भी करना चाहती हैं और उन्हें बदलना भी चाहती हैं।
बहुत पहले की बात है जब समाचार पत्रों में वैवाहिक विज्ञापनों का बहुत महत्व हुआ करता था। उस समय लड़कों की ओर से लड़कियों के लिए प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों की भाषा कुछ इस तरह की हुआ करती थी, ‘‘आवश्यकता है एक संस्कारी, पारिवारिक, घरेलू लड़की की , जो घर का काम-काज जानती हो। अनुपम सुन्दरी,गोरा रंग, आकर्षक, पतली, कान्वैंट से पढ़ी, लड़का विदेश में सैटलड्। देश-विदेश में फैला व्यवसाय, लड़की माहौल के अनुसार एडजैस्ट हो सके।’’
मुझे यह विज्ञापन अधूरा लगता था। तब मैंने पहले दिये गये विवरण के अतिरिक्त लिखा था, ‘‘ आवश्यकता है एक लड़की की, ..................... जो किटी, क्लब के योग्य हो, करवाचैथ का व्रत रखना जानती हो, मेंहदी लगाना, लाल साड़ी पहनना, मांग में सिंदूर और और इस तरह के सभी कार्यक्रम जानती हो। आवश्यकता पड़ने पर साड़ी को सूट, मिनी स्कर्ट बनाना जानती हो, और मिनी स्कर्ट को स्विमिंग सूट बनाना जानती हो। साग-मक्की की रोटी बनाना और चिकन खाना जानती हो, भरतनाट्यम में पाॅप और कथक में बैले करना जानती हो।’’ क्योंकि विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रदर्शन महिलाओं के ही माध्यम से उनके पति करते हैं।
यद्यपि इस तरह के विज्ञापन बहुत ही पुरानी बात है किन्तु इस तरह के भाव आज भी हमारे समाज में जीवन्त हैं।
मैं जानती हो आप कहेंगे कि यह तो अतिशयोक्ति है अथवा अपमानजनक है। किन्तु इन शब्दों का प्रयोग चाहे न हो किन्तु चाहतें तो ऐसी ही होती हैं और जीवन के इस दोहरेपन को स्वीकार करते हुए हम अपने ही हाथ में हथौड़ा लिए रहते हैं।
किन्तु इस दोहरेपन के लिए न समाज दोषी है और न पुरुष-समाज। महिलाएं स्वयं ही अपनी जीवन-शैली निश्चित-निर्धारित नहीं कर पातीं। वे यही देखती रह जाती हैं कि सामने वाले क्या चाहते हैं। फिर वे माता-पिता, भाई, पति, समाज, कार्य-स्थल कुछ भी हो सकता है। उनके निर्णय दूसरों की अपेक्षाओं से अत्याधिक प्रभावित होते हैं।
खुशियां भरोसे की
‘‘बधाई आपको अनमोल जी। बहुत सुन्दर घर बना लिया आपने’’। बधाईयों का तांता लगा था अनमोल जी के घर में। किन्तु घर के बाहर नेमप्लेट पर बेटे-बहू का नाम था, सो सभी अन्दर-ही-अन्दर फुसफुसा रहे थे।
गृह-प्रवेश की पूजा सम्पन्न हुई और सभी मेहमान भोजनोपरान्त जाने लगे थे। अनमोल जी के घनिष्ठ मित्र रमाकान्त वहीं थे और अवसर ढूंढ रहे थे बात करने का।
एकान्त पाकर तत्काल अनमोल जी को घेर लिया और पूछने लगे, ‘एक बात बताओ अनमोल, ये घर से बाहर बेटे का नाम क्यों? जबकि तुमने अपना और भाभीजी का पीएफ, ग्रेच्युटी का सारा पैसा इस घर पर लगा दिया।’
‘हां, तो ?’
‘लेकिन तुमने अपने बुढ़ापे के बारे में नहीं सोचा।’
‘सोचा, तभी तो लगा दिया। देखो, रमाकान्त, आजकल हम अपनों पर ही ज़रूरत से ज़्यादा शक करके चलने लगे हैं, यही कारण है कि आजकल रिश्तों में बहुत जल्दी दरार आने लगी है। हमने सारी उमर अपनी मर्ज़ी का जिया और किया। मकान मेरे नाम होता और हमारे बीच कभी अनबन हो जाती, तो क्या हम उन्हें घर से निकाल देते। नहीं न। तब भी शायद हम ही घर छोड़कर जाना पसन्द करते क्योंकि अब जीवन उनका है। तो मकान उनके नाम होने से कुछ नहीं बदलेगा रमाकान्त, बस हमारी सोच ही बहुत बदल गई है बच्चों के प्रति।
अब बेटे-बहू की बारी है। पोते-पोतियां हैं। आज तक वे हमारी मर्ज़ी से रहे, अब हम उनके हिसाब से जीने की कोशिश करेंगे।’
‘लेकिन तुम्हारे बाद भी तो उसी का होता, वसीयत न भी करते तो भी, और करते तो भी।’
‘लेकिन हमने बेटे-बहू पर भरोसा करके जो खुशी उन्हें दी है, वह तुम नहीं समझ पाओगे।’
किसका दोष
‘‘पता लगा आपको, बेचारे शर्मा जी के साथ तो बहुत बुरा हुआ। मिजेस शर्मा जी का तो रो-रोकर बुरा हाल है।’’
‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया उनके साथ’’ मैंने चौंककर पूछा।
‘‘एक ही तो बेटा था उनका, हाथ से निकल गया’’।
‘‘उनका बेटा तो आस्ट्रेलिया में पढ़ रहा था और सुना है वहीं उसे बहुत अच्छी नौकरी भी मिल गई है। आजकल आया हुआ है।’’
‘‘हां, यही तो। माता-पिता अपनी सारी पूंजी लगाकर बच्चों को दूर देश भेजते हैं कि अच्छे पढ़-लिख जायें और कुछ बनें। किन्तु आजकल के बच्चे, एक बार घर से निकलते हैं तो बस मां-बाप को तो भूल ही जाते हैं । शर्मा जी ने सोचा था कि अपनी पढ़ाई पूरी करके लौटकर अपना पैतृक व्यवसाय सम्हालेगा। उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा। लेकिन उसने साफ़ कह दिया कि वह तो अब आस्ट्रेलिया में ही सैटल होना चाहता है। उसे वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल गई है। और वहीं शादी करेगा। और आप भी मेरे साथ चलिए। लेकिन यह सब कहां मुमकिन है। इतना बड़ा पैतृक घर है, पीढ़ियों से चला आ रहा व्यवसाय है। कैसे जा सकते हैं छोड़कर।’’
‘‘पता नहीं आजकल के बच्चों को क्या होता जा रहा है, मां-बाप की तो ज़रा नहीं सोचते जिन्होंने पाल-पोसकर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया।’’
मैं असमंसज में थी कि क्या कहूँ।
“लेकिन शर्मा जी की तो हार्डवेयर की दुकान है न। और बेटा तो बहुत सालों से बाहर ही पढ़ रहा था।“
‘‘जी हां, पहले तो उसे दिल्ली पढ़ाया। फिर आगे की पढ़ाई के लिए उसे इतना पैसा खर्च करके आस्ट्रेलिया भेजा। पांच-छः साल हो गये उसे वहां। कम्प्यूटर इंजीनियर है शायद। अब कहता है वहीं रहेगा। आप ही बताईये आजकल के बच्चे मां-बाप के बारे में ज़रा भी नहीं सोचते।‘‘
अब मुझे बोलना ही पड़ा ‘‘हमारी पीढ़ी की आदत ही हो गई है बच्चों को बुरा समझने की। सदैव बच्चे ही गलत नहीं होते। इसमें बेटे की गलती कहां है? गलती तो मां-बाप की है। शुरु से घर से बाहर पढ़ाते रहे। इतने सालों से मेहतन करके वो इंजीनियर बना, अब क्या वो हार्डवेयर का काम कर सकेगा? वो जब भी छुट्टी आता था उसे कभी दुकान पर साथ नहीं बैठाया। अब अचानक वह कैसे बदल जायेगा? जिस राह हम स्वयं ही बच्चों को भेज देते हैं, फिर अचानक लौटने के लिए कहने लगते हैं, कहां मुमकिन होता है उनके लिए। अपनी इतनी पढ़ाई को वो कैसे छोड़कर लौट सकता है? फिर भी हर साल मिलने आता है और माता-पिता से दूर नहीं जा रहा है, उन्हें साथ चलने के लिए कह रहा है। क्यों और कैसे गलत है वो?’’
^^आखिर क्यों हम हर बार बच्चों को ही दोषी मान लेते हैं, क्यों अपने ही दिये गये मार्गदर्शन के बारे में खुलकर विचार नहीं करते?**
हरिराम जी अचानक ही चुप हो गये, कि बात तो किसी हद तक ठीक है। उनके पास मेरी बात का कोई उत्तर नहीं था।
बेटी-बेटी अभियान
असमंसज में हूँ। कहानी लिखने लगी हूँ, मन की बात, संस्मरण, मन की भड़ास अथवा आलेख। पता नहीं। आपको जो लगे उस विधा या कैटैगरी में ले लीजिएगा।
कुछ बातें बहुत पुरानी हैं, शायद आठ-दस वर्ष, जब बेटा काॅलेज में पढ़ता था और कुछ नई।
मेरा बेटा ‘‘बेटी-बेटी’’ अभियान के बहुत विरुद्ध है। उसका कहना है कि आप लोग या मीडिया अथवा प्रचार लड़कियों को बहुत सिर चढ़ा रहा है। हम लड़कों ने कोई पाप किया है क्या? वह कहता है कि इसी कारण आजकल की लड़कियों का दिमाग बहुत चढ़ गया है और वे इसका बहुत फ़ायदा उठाती हैं।
मैंने कहा, उनके साथ अन्याय भी तो बहुत होता है।
क्या अन्याय होता है? वह फिर भड़का। वैसे तो हर जगह लड़की कहकर फ़ायदे उठाएंगी, अधिकार मांगेंगी और जब काम की बारी आयेगी तो हम तो लड़कियां हैं। वेतन बराबर चाहिए किन्तु काम हल्का।
बहुत पुरानी बात है। एक दिन काॅलेज से लौटा और बहुत मज़े लेकर बताने लगा कि आज एक लड़की का स्कूटी का एक्सीडैंट हो गया। उसकी स्कूटी स्किड कर गई। और वो स्कूटी के साथ ही गिरी।
मैंने एकदम गुस्सा किया कि ऐसे कैसे बात कर रहे हो, उसकी तुम लोगों ने मदद नहीं की क्या?
उसका बड़ा स्पष्ट उत्तर था, नहीं की।
क्यों? मेरा पारा और चढ़ा।
हम लड़कियों की मदद नहीं करते।
मेरा पारा और ऊपर, ये क्या बात हुई? लड़कियों की तो ज़्यादा मदद करनी चाहिए।
वाह ! मां, क्यों लड़कियों की ज़्यादा मदद करनी चाहिए। वो तो आज किसी से कमज़ोर नहीं हैं। बराबरी की बात करती हैं, लेकिन बस में लड़कियों के लिए सीट रिज़र्व रहती है।
वो तो बेटा इसलिए कि लड़कियों को कोई परेशान न करे।
हांाााााााााााा, यही तो, इसीलिए तो हम लड़कियों की मदद नहीं करते, हम मदद करने के लिए बढ़ें और वो सोचे या लोग सोचें कि परेशान करने आये हैं।
मां, हम लड़कों को आज की दुनिया में बहुत सम्हलकर रहना पड़ता है। आप क्या जानो।
फिर कहने लगा, पता है आपको मां, पिछले दिनों आंकड़े जारी हुए थे। दहेज और रेप के 70 प्रतिशत मामले झूठे निकले थे।
मैंने कहा किन्तु 30 प्रतिशत तो सही थे, उनका क्या?
उसका सरल-सा उत्तर था, तीस प्रतिशत इसीलिए पिछड़ जाते हैं क्योंकि पुलिस, प्रशासन और न्याय व्यवस्था पर 70 प्रतिशत का दबाव तो रहता ही है न।
फिर वह अपनी बात पर पुनः लौट आया। कहने लगा, हम लड़के लड़कियों से 10 फ़ीट की दूरी बनाकर चलते हैं। आजकल एक फ़ैशन ही हो गया है लड़कों को बुरा बोलने का, केवल बुरा नहीं चरित्रहीन, संस्कारहीन और आपकी हिन्दी में पता नहीं क्या-क्या कहते हैं, वो सब। उसे स्कूटर से उठाते समय गलती से भी हाथ लग जाता तो पता नहीं क्या आरोप लग जाते और आप मुझसे मिलने हवालात में आते।
मैंने समझाने का प्रयास किया कि बेटा ऐसा नहीं होता, तुम्हारी नीयत ठीक होगी तो कोई क्यों तुम पर यूं ही शक करेगा?
लेकिन वो मानने के लिए तैयार नहीं था। उसका कहना था कि आप आजकल का माहौल जानते ही नहीं हो। हम चार लड़के कहीं खड़े हों, यूं ही गप्पबाजी कर रहे हों, बस की प्रतीक्षा कर रहे हों, थोड़ा ऊँचा बोल जायें या हँस रहे हों, तो आस-पास के लोगों के चेहरे देखने वाले होते हैं। विशेषकर आपकी आयु के लोगों के। और कहीं लड़कियाँ हो आस-पास, तब तो मुँह पर अँगुली रखकर खड़े होना पड़ता है। हम लोगों की बातचीत या ऊँचा-ऊँचा हँसने का आजकल एक ही मतलब होता है कि हम लड़कियों को छेड़ रहे हैं। और लोग पीठ पीछे बोल भी देते हैं जो हमें सुनाई देता है कि आजकल तो इन लड़कों की आवारगी बहुत ही बढ़ गई है। पढ़ते-लिखते नहीं हैं, माहौल बिगाड़कर रखा है और न जाने क्या-क्या। और अन्त में मां-बाप और संस्कारों पर आ जायेंगे।
अब तो वह अपने मन की पूरी भड़ास निकालने पर उतर आया।
स्कूटी तो चलाती हैं पर चलानी आती नहीं।
मैंने पूछा अगर उन्हें चलानी नहीं आती तो चलाती कैसे हैं?
अब मां देखो, गाड़ी चलाना अलग बात है और गाड़ी की जानकारी रखना अलग बात। अब चाबी घुमाकर चला तो लेती हैं लेकिन ज़रा सा रुक जाये तो इधर-उधर देखने लगती हैं मदद के लिए। सड़क के बीच में स्कूटी रुक जाये तो किनारे तो की नहीं जाती उनसे। फिर जितना रांग साईड, गलत कट ये लेती हैं, बस पूछो मत।
परसों की बात तो मैंने आपको बताई ही नहीं।
कोई पंगा तो नहीं कर आया, मैंने एकदम पूछ लिया।
लो बस, लग गया न आरोप मुझ पर बिना सुने ही।
परसों तेरा पेपर था न, छोड़कर तो नहीं आ गया था।
लो फिर आरोप, बात नहीं सुननी पूरी मेरी।
अच्छा-अच्छा अब नहीं बोलूंगी, बता क्या हुआ।
सुबह ट्रैफिक तो होता ही है, आपको पता ही है। मैं मध्य मार्ग पर बिल्कुल अपनी लेन में चल रहा था। पीछे से एक लड़की स्कूटी पर हार्न पर हार्न दिये जा रही थी। कभी बायें आती तो कभी दायें। दो-तीन कार वाले भी बहुत परेशान हो रहे थे। पता नहीं उससे स्कूटी सम्हल नहीं रही थी या वो पास लेना चाह रही थी। उसे मैंने और कार वाले ने रास्ता भी दिया पर आगे भी न निकले। हर बार लगे अब टकराई, अब टकराई। मैंने अपना स्कूटर साईड में लगाकर हाथ जोड़े, माता, तू जा। मेरा पेपर जाता है तो जाये, अगले साल दे लूंगा। तू निकल, पूरा मध्यमार्ग ले ले। पर मुझे परेशान न कर। और मां, जब तक वह अगली लाईट्स क्रास नहीं कर गई मैं भी खड़ा रहा। माता तू जा, बार-बार मैंने हर स्कूटी वाली लड़की को यही कहा। मेरे पेपर की चिन्ता नहीं, अगले साल फिर आ जायेगा, बस जान नहीं देनी मुझे, हवालात नहीं जाना मुझे।