उधारों पर दुनिया चलती है

सिक्कों का अब मोल कहाँ

मिट्टी से तो लगते हैं।

पैसे की अब बात कहाँ

रंगे कार्ड-से मिलते हैं।

बचत गई अब कागज़ में

हिसाब कहाँ अब मिलते हैं।

खन-खन करते सिक्के

मुट्ठी में रख लेते थे।

पाँच-दस पैसे से ही तो

नवाब हम हुआ करते थे।

गुल्लक कब की टूट गई

बचत हमारी गोल हुई।

मंहगाई-टैक्सों की चालों से

बुद्धि हमारी भ्रष्ट हुई।

पैसे-पैसे को मोहताज हुए,

किससे मांगें, किसको दे दें।

उधारों पर दुनिया चलती है

शान इसी से बनती है।

 

अपनी कहानियाँ आप रचते हैं

पुस्तकों में लिखते-लिखते

भाव साकार होने लगे।

शब्द आकार लेने लगे।

मन के भाव नर्तन करने लगे।

आशाओं के अश्व

दौड़ने लगे।

सही-गलत परखने लगे।

कल्पना की आकृतियां

सजीव होने लगीं,

लेखन से विलग

अपनी बात कहने लगीं।

पूछने लगीं, जांचने लगीं,

सत्य-असत्य परखने लगीं।

अंधेरे से रोशनियों में

चलने लगीं।

हाथ थाम आगे बढ़ने लगीं।

चल, इस ठहरी, सहमी

दुनिया से अलग चलते हैं

बनी-बनाई, अजनबी

कहानियों से बाहर निकलते हैं,

अपनी कहानियाँ आप रचते हैं।

 

आशाओं के दीप

सुना है

आशाओं के

दीप जलते हैं।

शायद

इसी कारण

बहुत छोटी होती है

आशाओं की आयु।

और

इसी कारण

हम

रोज़-हर-रोज़

नया दीप प्रज्वलित करते हैं

आशाओं के दीप

कभी बुझने नहीं देते।

 

अपनी राहों पर अपने हक से चला मैं

रोशनी से

बात करने चला मैं।

सुबह-सवेरे

अपने से चला मैं।

उगते सूरज को

नमन करने चला मैं।

न बदला सूरज

न बदली उसकी आब,

तो अपनी राहों पर

यूं ही बढ़ता चला मैं।

उम्र यूं ही बीती जाती

सोचते-सोचते

आगे बढ़ता चला मैं।

धूल-धूसरित राहें

न रोकें मुझे

हाथ में लाठी लिए

मनमस्त चला मैं।

साथ नहीं मांगता

हाथ नहीं मांगता

अपने दम पर

आज भी चला मैं।

वृक्ष भी बढ़ रहे,

शाखाएं झुक रहीं

छांव बांटतीं

मेरा साथ दे रहीं।

तभी तो

अपनी राहों पर

अपने हक से चला मैं।

 

जीवन की डगर चल रही

राहें पथरीली

सुगम सुहातीं।

कदम-दर कदम

चल रहे

साथ न छूटे

बात न छूटे,

अगली-पिछली भूल

बस बढ़ते जाते।

साथ-साथ

चलते जाते।

क्यों आस करें किसी से

हाथों में हाथ दे

बढ़ते जाते।

जीवन की डगर चल रही,

मंज़िल की ओर बढ़ रही,

न किसी से शिकवा

न शिकायत।

धीरे-धीरे

पग-भर सरक रही,

जीवन की डगर चल रही।

 

भुगतो अब

कल तक कहते थे

तू बोलती नहीं

भाव अपने तोलती नहीं।

अभिव्यक्ति की आज़ादी लो

अपनी बात खुलकर बोल दो।

चुप रहना अपराध है

न सुन किसी की ग़लत बात

न सहना किसी का बेबात घात

सच कहना सीख

गलत को गलत कहना सीख।

सही की सही परख कर,

आवरण हटा

खुलकर जीना सीख।

 

किन्तु

क्यों ऐसा हुआ

ज्यों ही मैं बोली

एक तहलका-सा मचा हुआ।

दूर-दूर तक शोर हुआ।

किसी की पोल खुली।

किसी की ढोल बजी।

किसी के झूठ की बोली लगी।

कभी सन्नाटा छाया

तो कभी सन्नाटा टूटा।

 

भीड़ बढ़ी, भीड़ बढी,

चिल्लाई मुझ पर

बस करो, अब बस करो!

 

पर अब कैसे बस करो।

पर अब क्यों बस करो।

भुगतो अब!!!

 

 

तितलियां

फूल-फूल से पराग चुराती तितलियां

उड़ती-फिरती, मुस्कुराती तितलियां

पंख जोड़ती, पंख खोलतीं रंग सजाती

उड़-उड़ जातीं, हाथ न आतीं तितलियां

   

सूर्य देव तुम कहाँ हो

ओ बादलो गगन से घेरा हटाओ

शीतल पवन तुम दूर भाग जाओ

कोहरे से दृष्टि-भ्रम होने लगा है

सूर्य देव तुम कहाँ हो आ जाओ

तितली बोली

तितली उड़ती चुप-चुप, भंवरा करता भुन-भुन

भंवरे से बोली तितली, ज़रा मेरी बात तो सुन

तू काला, मैं सुंदर, रंग-बिरंगी, सबके मन भाती,

फूल-फूल मैं उड़ती फिरती, तू न सपने बुन।

ज़िन्दगी के सवाल

ज़िन्दगी के सवाल

कभी भी

पहले और आखिरी नहीं होते।

बस सवाल होते हैं

जो एक-के-बाद एक

लौट-लौटकर

आते ही रहते हैं।

कभी उलझते हैं

कभी सुलझते हैं

और कभी-कभी

पूरा जीवन बीत जाता है

सवालों को समझने में ही।

वैसे ही जैसे

कभी-कभी हम

अपनी उलझनों को

सुलझाने के लिए

या अपनी उलझनों से

बचने के लिए

डायरी के पन्ने

काले करने लगते हैं

पहला पृष्ठ खाली छोड़ देते हैं

जो अन्त तक

पहुँचते-पहुँचते

अक्सर फ़ट जाता है।

तब समझ आता है

कि हम तो जीवन-भर

निरर्थक प्रश्नों में

उलझे रहे

न जीवन का आनन्द लिया

और न खुशियों का स्वागत किया।

और इस तरह

आखिरी पृष्ठ भी

बेकार चला जाता है।

 

अब मौन को मुखर कीजिए

बस अब बहुत हो चुका,

अब मौन को मुखर कीजिए

कुछ तो बोलिए

न मुंह बन्द कीजिए।

संकेतों की भाषा

कोई समझता नहीं

बोलकर ही भाव दीजिए।

खामोशियां घुटती हैं कहीं

ज़रा ज़ोर से बोलकर

आवाज़ दीजिए।

जो मन न भाए

उसका

खुलकर विरोध कीजिए।

यह सोचकर

कि बुरा लगेगा किसी को

अपना मन मत उदास कीजिए।

बुरे को बुरा कहकर

स्पष्ट भाव दीजिए,

और यही सुनने की

हिम्मत भी

अपने अन्दर पैदा कीजिए।

चुप्पी को सब समझते हैं कमज़ोरी

चिल्लाकर जवाब दीजिए।

कलम की नोक तीखी कीजिए

शब्दों को आवाज़ कीजिए।

मौन को मुखर कीजिए।

 

लक्ष्य संधान

पीछे लौटना तो नहीं चाहती

किन्तु कुछ लकीरें

रास्ता रोकती हैं।

कुछ हाथों में

कुछ कदमों के नीचे,

कुछ मेरे शुभचिन्तकों की

उकेरी हुई मेरी राहों में

मेरे मन-मस्तिष्क में

आन्दोलन करती हुईं।

हम ज्यों-ज्यों

बड़े होने लगते हैं

अच्छी लगती हैं

लक्ष्य की लकीरें बढ़ती हुईं।

किन्तु ऐसा क्यों

कि ज्यों-ज्यों लक्ष्यों के

दायरे बढ़ने लगे

राहें सिकुड़ने लगीं,

मंज़िल बंटने लगी

और लकीरें और गहराने लगीं।

 

फिर पड़ताल करने निकल पड़ती हूँ

आदत से मज़बूर

देखने की कोशिश करती हूँ पलटकर

जो लक्ष्य मैंने चुने थे

वे कहाँ पड़े हैं

जो अपेक्षाएं मुझसे की गईं थीं

मैं कहाँ तक पार पा सकी उनसे।

हम जीवन में

एक लक्ष्य चुनते हैं

किन्तु अपेक्षाओं की

दीवारें बन जाती हैं

और हम खड़े देखते रह जाते हैं।

-

कुछ लक्ष्य बड़े गहरे चलते हैं जीवन में।

-

अर्जुन ने एक लक्ष्य संधान किया था

चिड़िया की आंख का

और दूसरा किया था

मछली की आंख का

और इन लक्ष्यों से कितने लक्ष्य निकले

जो तीर की तरह

बिखर गये कुरूक्षेत्र में

रक्त-रंजित।

.

क्या हमारे, सबके जीवन में

ऐसा ही होता है?

 

 

 

ढोल बजा

चुनावों का अब बिगुल बजा

किसका-किसका ढोल बजा

किसको चुन लें, किसको छोड़ें

हर बार यही कहानी है

कभी ज़्यादा कभी कम पानी है

दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है

आंखों पर पट्टी बंधी है

बस बातें करके सो जायेंगे

और सुबह फिर वही राग गायेंगे।

 

 

अब कांटों की बारी है

फूलों की बहुत खेती कर ली

अब कांटों की बारी है।

पत्‍ता–पत्‍ता बिखर गया

कांटों की सुन्‍दर मोहक क्‍यारी है।

न जाने कितने बीज बोये थे

रंग-बिरंगे फूलों के।

सपनों में देखा करती थी

महके महके गुलशन के रंगों के।

मिट्टी महकी, बरसात हुई

तब भी, धरा न जाने कैसे सूख गई।

नहीं जानती, क्‍योंकर

फूलों के बीजों से कांटे निकले

परख –परख कर जीवन बीता

कैसे जानूं कहां-कहां मुझसे भूल हुई। 

दोष नहीं किसी को दे सकती

अब इन्‍हें सहेजकर बैठी हूं।

वैसे भी जबसे कांटों को अपनाया

सहज भाव से जीवन में

फूलों का अनुभव दे गये

रस भर गये जीवन में।

 

विध्वंस की बात कर सकें

कहीं अच्छा लगता है मुझे

जब मैं देखती हूं

कि

नवरात्र आरम्भ होते ही

याद आती हैं मां

आह्वान करते हैं

दुर्गा, काली, चण्डी

सहस्त्रबाहु, सहस्त्रवाहिनी का ,

मूर्तियां सजाते हैं

शक्तियों की बात करते हैं।

शीश नवाते हैं

मांगते हैं कृपा, आशीष, रक्षा-कवच।

दुख-निवारण की बात करते हैं,

दुष्टों के संहार की आस करते हैं।

बस आशाएं, आकांक्षाएं, दया, कृपा

की मांग करते हैं।

याद आते हैं तो चढ़ावे

मन्नतें, मान्यताएं,

कन्या पूजन, व्रतोपवास,गरबा।

मन्दिरों की कतारें,

उत्सव ही उत्सव मनाते हैं,

अच्छा लगता है सब।

मन मुदित होता है

इस आनन्दमय संसार को देखकर।

किन्तु क्यों हम

आह्वान नहीं करते

कि मां

हमें भी दे वह शक्ति

जो दुष्टों का संहार कर सके

आवश्यकता पड़ने पर धार बन सके

प्रपंच छोड़कर

जीवन का आधार बन सके

उन नव रूपों का

कुछ अंश आत्मसात कर सकें

रोना-गिड़गिड़ाना छोड़कर

आत्मसम्मान की बात कर सकें

सिसकना छोड़कर

स्वाभिमान की बात कर सकें।

दुर्गा, काली, चण्डी,

सहस्त्रबाहु, सहस्त्रवाहिनी

जब जैसी आन पड़े

वैसा रूप धर सकें

यूं तो निर्माण की बात करते हैं

पर ज़रूरत पड़ने पर

विध्वंस की बात कर सकें।

 

 

ये औरतें

हर औरत के भीतर एक औरत है

और उसके भीतर एक और औरत।

यह बात स्वयं औरत भी नहीं जानती

कि उसके भीतर

कितनी लम्बी कड़ी है इन औरतों की।

धुरी पर घूमती चरखी है वह

जिसके चारों ओर

आदमी ही आदमी हैं

और वह घूमती है

हर आदमी के रिश्ते में।

वह दिखती है केवल

एक औरत-सी,

सजी-धजी, सुन्‍दर ,  रंगीन

शेष सब औरतें

उसके चारों ओर  

टहलती रहती हैं,

उसके भीतर सुप्त रहती हैं।

कब कितनी औरतें जाग उठती हैं

और कब कितनी मर जाती हैं

रोज़ पैदा होती हैं कितनी नई औरतें

उसके भीतर

यह तो वह स्वयं भी नहीं जानती।

लेकिन, 

ये औरतें संगठित नहीं हैं

लड़ती-मरती हैं,

अपने-आप में ही

अपने ही अन्दर।

कुछ जन्म लेते ही

दम तोड़ देती हैं

और कुछ को

वह स्वयं ही, रोज़, हर रोज़

मारती है,

वह स्वयं यह भी नहीं जानती।

औरत के भीतर सुप्त रहें

भीतर ही भीतर लड़ती-मरती रहें

जब तक ये औरतें,

सिलसिला सही रहता है।

इनका जागना, संगठित होना

खतरनाक होता है समाज के लिए

और, खतरनाक होता है

आदमी के लिए।

जन्म से लेकर मरण तक

मरती-मारती औरतें

सुख से मरती हैं।

 

जब मन में कांटे उगते हैं

हमारी आदतें भी अजीब सी हैं

बस एक बार तय कर लेते हैं

तो कर लेते हैं।

नज़रिया बदलना ही नहीं चाहते।

वैसे मुद्दे तो बहुत से हैं

किन्तु इस समय मेरी दृष्टि

इन कांटों पर है।

फूलों के रूप, रस, गंध, सौन्दर्य

की तो हम बहुत चर्चा करते हैं

किन्तु जब भी कांटों की बात उठती है

तो उन्हें बस फूलों के

परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं।

पता नहीं फूलों के संग कांटे होते हैं

अथवा कांटों के संग फूल।

लेकिन बात दाेनों की अक्सर

साथ साथ होती है।

बस इतना ही याद रखते हैं हम

कि कांटों से चुभन होती है।

हां, होती है कांटों से चुभन।

लेकिन कांटा भी तो

कांटे से ही निकलता है।

आैर कभी छीलकर देखा है कांटे को

भीतर से होता है रसपूर्ण।

यह कांटे की प्रवृत्ति है

कि बाहर से तीक्ष्ण है,

पर भीतर ही भीतर खिलते हैं फूल।

संजोकर देखना इन्हें,

जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है।

और

जब मन में कांटे उगते हैं

तो यह पलभर का उद्वेलन नहीं होता।

जीवन रस

सूख सूख कर कांटों में बदल जाता है।

कोई जान न पाये इसे

इसलिए कांटों की प्रवृत्ति के विपरीत

हम चेहरों पर फूल उगा लेते हैं

और मन में कांटे संजोये रहते हैं ।

 

पीछे मुड़कर क्या देखना

साल बीता] काल बीता

ऐसे ही कुछ हाल बीता।

कभी खुश हुए

कभी उदास रहे,

कभी काम किया

कभी आराम किया।

जीवन का आनन्द लिया।

कोई मिला,

कोई बिछड़ गया।

कोई आया] कोई चला गया।

कुछ मित्र बने] कुछ रूठ गये।

सम्बन्धों को आयाम मिला

कभी अलगाव का भाव मिला।

जीवन में भटकल-अटकन,

पिछले को रोते रहते

नया कुछ मिला नहीं।

जब नया मिला तो

पिछला तो  छूटा नहीं।

हार-जीत भी चली रही

दिल की बात दिल में रही।

नफरत दिल में पाले

प्रेम-प्यार की बात करें ।

लिखने को मन करता है

बात मुहब्बत की

पर बुन आती हैं नाराज़गियां।

बिन जाने हम बोल रहे।

देख रहे हम

हेर-फ़ेर कर वही कहानी।

गिन-गिनकर दिन बीते

बनते जाते साल]

पीछे मुड़कर क्या देखना

विधि चलती अपनी चाल।

 

 

पुल अपनों और सपनों  के बीच

सारा जीवन बीत गया

इसी उहापोह में

क्या पाया, क्या गंवाया।

बस आकाश ही आकाश

दिखाई देता था

पैर ज़मीन पर न टिकते थे।

मिट्टी को मिट्टी समझ

पैरों तले रौंदते थे।

लेकिन, एक समय आया

जब मिट्टी में हाथ डाला

तो, मिट्टी ने चूल्हा दिया,

घर दिया,

और दिया भरपेट भोजन।

मिट्टी से सने हाथों से ही

साकार हुए वे सारे स्वर्णिम सपने

जो आकाश में टंगे

दिखाई देते थे,

और बन गया एक पुल

ज़मीन और आकाश के बीच।

अपनों और सपनों  के बीच।

 

 

 

बड़े मसले हैं रोटी के

बड़े मसले हैं रोटी के।

रोटी बनाने

और खाने से पहले

एक लम्बी प्रक्रिया से

गुज़रना पड़ता है

हम महिलाओं को।

इस जग में

कौन समझा है

हमारा दर्द।

बस थाली में रोटी देखते ही

टूट पड़ते हैं।

मिट्टी से लेकर

रसोई तक पहुंचते-पहुंचते

किसे कितना दर्द होता है

और कितना आनन्द मिलता है

कौन समझ पाता है।

जब बच्चा

रोटी का पहला कौर खाता है

तब मां का आनन्द

कौन समझ पाता है।

जब किसी की आंखों में

तृप्ति दिखती है

तब रोटी बनाने की

मानों कीमत मिल जाती है।

लेकिन बस

इतना ही समझ नहीं आया

मुझे आज तक

कि रोटी गोल ही क्यों।

ठीक है

दुनिया गोल, धरती गोल

सूरज-चंदा गोल,

नज़रें गोल,

जीवन का पहिया गोल

पता नहीं और कितने गोल।

तो भले-मानुष

रोटी चपटी ही खा लो।

वही स्वाद मिलेगा।

   

 

कितने सबक देती है ज़िन्दगी

भाग-दौड़ में लगी है ज़िन्दगी।

खेल-खेल में रमी है ज़िन्दगी।

धूल-मिट्टी में आनन्द देती

मज़े-मजे़ से बीतती है ज़िन्दगी।

तू हाथ बढ़ा, मैं हाथ थामूँ,

धक्का-मुक्की, उठन-उठाई

नाम तेरा यही है ज़िन्दगी।

आगे-पीछे देखकर चलना

बायें-दायें, सीधे-सीधे

या पलट-पलटकर,

सम्हल-सम्हलकर।

तब भी न जाने

कितने सबक देती है ज़िन्दगी।

 

देखो किसके कितने ठाठ

एक-दो-तीन-चार

पांच-छः-सात-आठ

देखो किसके कितने ठाठ

इसको रोटी, उसको दूध

किसी को पानी

किसी को भूख

किसकी कितनी हिम्मत

देखें आज

देखो तुम सब

हमरे ठाठ

किके्रट टीम तो बनी नहीं

किस खेल में होते आठ

अपनी टीम बनाएंगे

मौज खूब उड़ायेंगे

सस्ते में सब निपटायेंगे

पढ़ना-लिखना हुआ है मंहगा

बना ले घर में ही टीम

पढ़ोगे-लिखोगे होंगे खराब

खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब

 

एक शुरूआत की ज़रूरत है

सुना और पढ़ा है मैंने

कि कोई

पाप का घड़ा हुआ करता था

और सब

हाथ पर हाथ धरे

प्रतीक्षा में बैठे रहते थे

कि एक दिन तो भरेगा

और फूटेगा] तब देखेंगे।

 

मैं समझ नहीं पाई

आज तक

कि हम प्रतीक्षा क्यों करते हैं

कि पहले तो घड़ा भरे

फिर फूटे, फिर देखेंगे,

बतायेगा कोई मुझे

कि क्या देखेंगे ?

 

और यह भी 

कि अगर घड़ा भरकर

फूटता है

तो उसका क्या किया जाता था।

 

और अगर घड़ा भरता ही जाता था

भरता ही जाता था

और फूटता नहीं था

तब क्या करते थे ?

पलायन का यह स्वर

मुझे भाता नहीं

इंतज़ार करना मुझे आता नहीं

आह्वान करती हूं,

घरों से बाहर निकलिए

घड़ों की शवयात्रा निकालिए।

श्मशान घाट में जाकर

सारे घड़े फोड़ डालिए।

बस पाप को नापना नहीं।

छोटा-बड़ा जांचना नहीं।

बस एक शुरूआत की ज़रूरत है।

बस एक से शुरूआत की ज़रूरत है।।।

  

एकाकी हो गये हैं

अकारण

ही सोचते रहना ठीक नहीं होता

किन्तु खाली दिमाग़ करे भी तो क्या करे।

किसी के फ़टे में टाँग अड़ाने के

दिन तो अब चले गये

अपनी ही ढपली बजाने में लगे रहते हैं।

समय ने

ऐसी चाल बदली

कि सब

अपने अन्दर तो अन्दर

बाहर भी एकाकी हो गये हैं।

शाम को काॅफ़ी हाउस में

या माॅल रोड पर

कंधे से कंधे टकराती भीड़

सब कहीं खो गई है।

पान की दुकान की

खिलखिलाहटें

गोलगप्पे-टिक्की पर

मिर्च से सीं-सीं करती आवाजे़ं

सिर से सिर जोड़कर

खुसुर-पुसुर करती आवाजे़ं

सब कहीं गुम हो गई हैं।

सड़क किनारे

गप्पबाजी करते,

पार्क में खेलते बच्चों के समूह

नहीं दिखते अब।

बन्दर का नाच, भालू का खेल

या रस्सी पर चलती लड़की

अब आते ही नहीं ये सब

जिनका कौशल देखने के  लिए

सड़कों पर

जमघट  लगते थे कभी।

अब तो बस

दो ही दल बचे हैं

जो अब भी चल रहे हैं

एक तो टिड्डी दल

और दूसरे केवल दल

यानी दलदल।

ज़रा सम्हल के।

 

जीवन संवर-संवर जाता है

बादलों की ओट से

निरखता है सूरज।

बदलियों को

रँगों से भरता

ताक-झाँक

करता है सूरज।

सूरज से रँग बरसें

हाथों में थामकर

जीवन को रंगीन बनायें।

लहरें रंग-बिरँगी

मानों कोई स्वर-लहरी

जीवन-संगीत संवार लें।

जब मिलकर हाथ बंधते हैं

तब आकाश

हाथों में ठहर-ठहर जाता है।

अंधेरे से निपटते हैं

जीवन संवर-संवर जाता है।

 

नेह की डोर

कुछ बन्धन

विश्वास के होते हैं

कुछ अपनेपन के

और कुछ एहसासों के।

एक नेह की डोर

बंधी रहती है इनमें

जिसका

ओर-छोर नहीं होता

गांठें भी नहीं होतीं

बस

अदृश्य भावों से जुड़ी

मन में बसीं

बेनाम

बेमिसाल

बेशकीमती।

  

हमारी अपनी आवाज़ें  गायब हो गई हैं

आवाज़ें निरन्तर गूंजती हैं

मेरे आस-पास।

कभी धीमी, कभी तेज़।

कुछ सुनाई देती हैं

कुछ नहीं।

हमारे कान फ़टते हैं

दुनिया भर की

आवाज़ें सुनते-सुनते।

इस शोर में

इतना खो गये हैं हम

कि अपनी ही आवाज़ से

कतराने में लगे हैं

अपनी ही आवाज़ को

भुलाने में लगे हैं।

हमारे भीतर का सच

झूठ बनने लगा है

दूर से आती आवाज़ों से

मन भरमाने में लगे हैं।

छोटी-छोटी आवाज़ों से

मिलने वाला आनन्द

कहीं खो गया है

हम बस यूं ही

चिल्लाने में लगे हैं।

गुमराह करती

आवाजों के पीछे

हम भागने में लगे हैं।

ऊँची आवाज़ें

हमारी नियामक हो गई हैं

हमारी अपनी आवाज़ें

कहीं गायब हो गई हैं।

  

सच बोलने लग जाती हूँ

मन में

न जाने क्यों

कभी-कभी

बुरे ख़याल आने लगते हैं

और मैं

सच बोलने लग जाती हूँ।

मेरी कही बातों पर

ध्यान मत देना।

एक प्रलाप समझकर

झटक देना।

मूर्ख

बहुत देखे होंगे दुनिया में,

किन्तु

मुझसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं

यह समझ लेना।

मैं तो ऐसी हूँ

जैसी हूँ, वैसी हूँ।

बस

तुम अपना ध्यान रखना।

सच को झूठ

और झूठ को सच

सिद्ध करने की

हिम्मत रखना।

 

फिर भी

मन में मेरे

बुरे-बुरे ख़याल आते हैं

बस

अपना ध्यान रखना।।।

  

मेंहदी के रंगों की तरह

जीवन के रंग भी अद्भुत हैं।

हरी मेंहदी

लाल रंग छोड़ जाती है।

ढलते-ढलते गुलाबी होकर

मिट जाती है

लेकिन अक्सर

हाथों के किसी कोने में

कुछ निशान छोड़ जाती है

जो देर तक बने रहते हैं

स्मृतियों के घेरे में

यादों के, रिश्तों के,

सम्बन्धों के,

अपने-परायों के

प्रेम-प्यार के

जो उम्र के साथ

ढलते हैं, बदलते हैं

और अन्त में

कितने तो मिट जाते हैं

मेंहदी के रंगों की तरह।

 

जैसे हम नहीं जानते

जीवन में

कब हरीतिमा होगी,

कब पतझड़-सा पीलापन

और कब छायेगी फूलों की लाली।

  

 

कुर्सियां

भूल हो गई मुझसे

मैं पूछ बैठी

कुर्सी की

चार टांगें क्यों होती हैं?

हम आराम से

दो पैरों पर चलकर

जीवन बिता लेते हैं

तो कुर्सी की

चार टांगें क्यों होती हैं?

कुर्सियां झूलती हैं।

कुर्सियां झूमती हैं।

कुर्सियां नाचती हैं।

कुर्सियां घूमती हैं।

चेहरे बदलती हैं,

आकार-प्रकार बांटती हैं,

पहियों पर दौड़ती हैं।

अनोखी होती हैं कुर्सियां।

किन्तु

चार टांगें क्यों होती हैं?

 

जिनसे पूछा

वे रुष्ट हुए

बोले,

तुम्हें अपनी दो

सलामत चाहिए कि नहीं !

दो और नहीं मिलेंगीं

और कुर्सी की तो

कभी भी नहीं मिलेंगी।

मैं डर गई

और मैंने कहा

कि मैं दो पर ही ठीक हूँ

मुझे  चौपाया  नहीं बनना।