तीनों शब्द अहंकार ,द्वेष ,ईर्ष्या बोलने में हम साथ साथ बोल लेते हैं किन्तु सभी भिन्नार्थक हैं।
अहंकार मानव अपने आप पर करता है। जब मनुष्य को अपने गुणों, स्थिति, धन-सम्पत्ति अथवा योग्यता अर्थात व्यक्तिगत उपलब्धियों पर अभिमान होने लगता है और वह दूसरे को अपने से हीन मानने लगता है तब वह अहंकार की स्थिति में आ जाता है।
ईर्ष्या प्रतियोगिता की अगली सीढ़ी है। जब हम प्रतियोगिता में किसी से आगे नहीं बढ़ सकते, तब उससे ईर्ष्या करने लगते हैं
ईर्ष्या तब होती है जब हम अपने आप को दूसरों से हीन समझने लगते हैं तभी तो किसी की प्रगति, उपलब्धि, धन-सम्पत्ति, योग्यता आदि की जब अकारण ही आलोचना करने लगते हैं, उसकी योग्यताओं में कमियां ढूंढने लगते हैं तब वह ईर्ष्या की स्थिति बन जाती है।
द्वेष ईर्ष्या की अगली सीढ़ी है। ईर्ष्या में वैर-भाव, हानि पंहुचाने का भाव नहीं रहता, जबकि द्वेष-भाव की स्थिति में मनुष्य सामने वाले से आगे बढ़ने के लिए कोई भी तरीका अपनाने का प्रयास करता है, उसका बुरा चाहने लगता है। फिर वह उसका रास्ता काटना हो, उसके रास्ते में रोड़े अटकाना हो अथवा स्वयं गलत रास्ते पर चलकर उससे आगे बढ़ना।
प्रतियोगिता का भाव मानव मन में बने रहना आवश्यक है तभी वह प्रगति कर सकता है। किन्तु कब वह अंहकार, ईर्ष्या, द्वेष में परिवर्तित हो जाता है वह मानव स्वयं भी नहीं जानता।
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बूंद-बूंद से घट भरता था
जिन ढूंढा तिन पाईया
गहरे पानी पैठ,
बात पुरानी हो गई।
आंख में अब
पानी कहां रहा।
मन की सीप फूट गई।
दिल-सागर-नदिया
उथले-उथले हो गये।
तलछट में क्या ढूंढ रहे।
बूंद-बूंद से घट भरता था।
जब सीपी पर गिरती थी,
तब माणिक-मोती ढलता था।
अब ये कैसा मन है
या तो सब वीराना
सूखा-सूखा-सा रहता है,
और जब मन में
कुछ फंसता है,
तो अतिवृष्टि
सब साथ बहा ले जाती है,
कुछ भी तो नहीं बचता है।
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मन हर्षाए बादल
बिन मौसम आज आये बादल
कड़क-कड़क यूँ डराये बादल
पानी बरस-बरस मन भिगाये
शाम सुहानी, मन हर्षाए बादल
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अनुभव की थाती
पर्वतों से टकराती, उबड़-खाबड़ राहों पर जब नदी-नीर-धार बहती है
कुछ सहती, कुछ गाती, कहीं गुनगुनाती, तब गंगा-सी निर्मल बन पाती है
अपनेपन की राहों में ,फूल उगें और कांटे न हों, ऐसा कम ही होता है
यूं ही जीवन में कुछ खोकर, कुछ पाकर, अनुभव की थाती बन पाती है।
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शाम
हाइकु
शाम सुहानी
चंद्रमा की चांदनी
मन बहका
-
शाम सुहानी
पुष्प महक उठे
रंग बिखरे
-
किससे कहूं
रंगीन हुआ मन
शाम सुहानी
-
शाम की बात
सूरज डूब रहा
मन में तारे
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रंगीनियां तो बिखेर कर ही जाता है
सूर्य उदित हो रहा हो
अथवा अस्त,
प्रकाश एवं तिमिर
दोनों को लेकर आता है
और
रंगीनियां तो
बिखेर कर ही जाता है
आगे अपनी-अपनी समझ
कौन किस रूप में लेता है।
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यूं ही पार उतरना है
नैया का क्या करना है, अब तो यूं ही पार उतरना है
कुछ डूबेंगे, कुछ तैरेंगे, सब अपनी हिम्मत से करना है
नहीं खड़ा है अब खेवट कोई, नैया पार लगाने को
जान लिया है सब दिया-लिया इस जीवन में ही भरना है
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मूर्तियों की आराधना
चित्राधारित रचना
जब मैं अपना शोध कार्य रही थी तब मैंने मूर्तिकला एवं वास्तुकला पर भी कुछ पुस्तकें पढ़ी थीं।
मैंने अपने अध्ययन से यह जाना कि प्रत्येक मूर्ति एवं वास्तु के निर्माण की एक विधि होती है। किसी भी मूर्ति को यूँ ही सजावट के तौर पर कहीं भी बैठकर नहीं बनाया जा सकता यदि उसका निर्माण पूजा-विधि के लिए किया जा रहा है। स्थान, व्यक्ति, निर्माण-सामग्री, निर्माण विधि सब नियम-बद्ध होते हैं। जो व्यक्ति मूर्ति का निर्माण करता है वह अनेक नियमों का पालन करता है, शाकाहारी एवं बहुत बार उपवास पर भी रहता है जब तक उसका कार्य पूरा नहीं हो जाता।
हमारे धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजा होती है उनमें गणेश जी भी एक हैं। प्राचीन काल में प्रत्येक देवी-देवता की सम्पूर्ण पूजा विधि का पालन किया जाता था और उसी के अनुसार मूर्ति-निर्माण एवं स्थापना का कार्य।
आज हमारी पूजा-अर्चना व्यापारिक हो गई है। यह सिद्ध है कि प्रत्येक देवी-देवता की पूजा-विधि, मूर्ति-निर्माण विधि, पूजन-सामग्री एवं पूजा-स्थल में उनकी स्थापना विधि अलग-अलग है। किन्तु आज इस पर कोई विचार ही नहीं करता। एक ही धर्म-स्थल पर एक ही कमरे में सारे देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है, जबकि प्राचीन काल में ऐसा नहीं था।
सबसे बड़ी बात यह कि हम यह मानते हैं कि हमारा स्थान ईश्वर के चरणों में है न कि ईश्वर हमारे चरणों में।
हम निरन्तर यह तो देख रहे हैं कि कौन किसे खींच रहा है, कौन देख रहा है किन्तु यह नहीं देख पा रहे कि गणेश जी की मूर्ति को पैरों में रखकर ले जाया जा रहा है, कैसे होगी फिर उनकी पूजा-आराधना?
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इस रंगीन शाम में
इस रंगीन शाम में आओ पकड़म-पकड़ाई खेलें
तुम थामो सूरज, मैं चन्दा, फिर नभ के पार चलें
बदली को हम नाव बनायें, राह दिखाएं देखो पंछी
छोड़ो जग-जीवन की चिंताएं,चल हंस-गाकर जी लें
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सजावट रह गईं हैं पुस्तकें
दीवाने खास की सजावट बनकर रह गईं हैं पुस्तकें
बन्द अलमारियों की वस्तु बनकर रह गई हैं पुस्तकें
चार दिन में धूल झाड़ने का काम रह गई हैं पुस्तकें
कोई रद्दी में न बेच दे,छुपा कर रखनी पड़ती हैं पुस्तकें।
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किस युग में जी रहे हो तुम
मेरा रूप तुमने रचा,
सौन्दर्य, श्रृंगार
सब तुमने ही तो दिया।
मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व
मेरे गुण, या मेरी चमत्कारिता
सब तुम्हारी ही तो देन है।
मुझे तो ठीक से स्मरण भी नहीं
किस युग में, कब-कब
अवतरित हुआ था मैं।
क्यों आया था मैं।
क्या रचा था मैंने इतिहास।
कौन सी कथा, कौन सा युद्ध
और कौन सी लीला।
हां, इतना अवश्य स्मरण है
कि मैंने रचा था एक युग
किन्तु समाप्त भी किया था एक युग।
तब से अब तक
हज़ारों-लाखों वर्ष बीत गये।
चकित हूं, यह देखकर
कि तुम अभी भी
उसी युग में जी रहे हो।
वही कल्पनाएं, कपोल-कथाएं
वही माटी, वही बाल-गोपाल
राधा और गोपियां, यशोदा और माखन,
लीला और रास-लीलाएं।
सोचा कभी तुमने
मैंने जब भी
पुन:-पुन: अवतार लिया है
एक नये रूप में, एक नये भाव में
एक नये अर्थ में लिया है।
काल के साथ बदला हूं मैं।
हर बार नये रूप में, नये भाव में
या तुम्हारे शब्दों में कहूं तो
युगानुरूप
नये अवतार में ढाला है मैंने
अपने-आपको।
किन्तु, तुम
आज भी, वहीं के वहीं खड़े हो।
तो इतना जान लो
कि तुम
मेरी आराधना तो करते हो
किन्तु मेरे साथ नहीं हो।