राख पर किसी का नाम नहीं होता

युद्ध की विभीषिका

देश, शहर

दुनिया या इंसान नहीं पूछती

बस पीढ़ियों को

बरबादी की राह दिखाती है।

हम समझते हैं

कि हमने सामने वाले को

बरबाद कर दिया

किन्तु युद्ध में

इंसान मारने से

पहले भी मरता है

और मारने के बाद भी।

बच्चों की किलकारियाँ

कब रुदन में बदल जाती हैं

अपनों को अपनों से दूर ले जाती हैं

हम समझ ही नहीं पाते।

और जब तक समझ आता है

तब तक

इंसानियत

राख के ढेर में बदल चुकी होती है

किन्तु हम पहचान नहीं पाते

कि यह राख हमारी है

या किसी और की।