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मेरा भारत महान
ऐसे चित्र देखकर
मन द्रवित, भावुक होता है,
या क्रोधित,
अपनी ही समझ नहीं आता।
.
कुछ कर नहीं सकते,
या करना नहीं चाहते,
किंतु बनावट की कहानियां,
इस तरह की बानियां,
गले नहीं उतरतीं।
मेरा भारत महान है।
महान ही रहेगा।
पर रोटी, कपड़ा, मकान
की बात कौन करेगा?
सोचती हूं
बच्चे के हाथ में
किसने दी
स्लेट और चाॅक,
और कौन सिखा रहा
इसे लिखना
मेरा भारत महान?
स्लेट की जगह दो रोटी दे देते,
और देते पिता को कोई काम।
बच्चे के तन पर कपड़े होते,
तब शायद मुझे लगता,
मेरा भारत और भी ज़्यादा महान।
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वसुधैव कुटुम्बकम्
एक आस हो, विश्वास हो, बस अपनेपन का भास हो
न दूरियां हो, न संदेह की दीवार, रिश्तों में उजास हो
जीवन जीने का सलीका ही हम शायद भूलने लगे हैं
नि:स्वार्थ, वसुधैव कुटुम्बकम् का एक तो प्रयास हो
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कच्चे धागों से हैं जीवन के रिश्ते
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
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हम भी शेर हुआ करते थे
एक प्राचीन कथा है
गीदड़ ने शेर की खाल ओढ़ ली थी
और जंगल का राजा बन बैठा था।
जब साथियों ने हुंआ-हुंआ की
तब वह भी कर बैठा था।
और पकड़ा गया था,
पकड़ा क्या, बेचारा मारा गया था।
ज़माना बदल गया ।
शेर न सोचा
मैं गीदड़ की खाल ओढ़कर देखूं एक बार।
एक की देखा-देखी,
सभी शेरों ने गीदड़ की खाल ओढ़ ली
और हुंआ-हुंआ करने लगे।
धीरे-धीरे वे
अपनी असलियत भूलते चले गये।
आज सारे शेर
दहाड़ना भूलकर
हुंआ-हुंआ करने में लगे हैं।
अपना शिकार करना छोड़कर
औरों की जूठन खाने में लगे हैं।
गीदड़-भभकियां दे रहे हैं,
और सारे अपने-आप को
राजा समझ बैठे हैं।
शोक किस बात का, आरोप किस बात का।
हमारे भीतर का शेर भी तो
हुंआ-हुंआ करने में ही लगा है।
लेकिन बड़ी बात यह,
कि हमें यही नहीं पता
कि हम भीतर से वास्तव में शेर हैं
जो गीदड़ की खाल ओढ़े बैठे हैं,
या हैं ही गीदड़
और इस भ्रम में जी रहे हैं,
कि एक समय की बात है,
हम भी शेर हुआ करते थे।
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कितनी मनोहारी है जि़न्दगी
प्रतिदित प्रात नये रंग-रूप में खिलती है जि़न्दगी
हरी-भरी वाटिका-सी देखो रोज़ महकती है जि़न्दगी
कभी फूल खिेले, कभी फूल झरे, रंगों से धरा सजी
ज़रा आंख खोलकर देख, कितनी मनोहारी है जि़न्दगी
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साथ समय के चलना होगा
तुमको क्यों ईर्ष्या होती है मैंने भी आई-फोन लिया है।
साथ समय के चलना होगा इतना मैंने समझ लिया है।
चिट्ठियां-विट्ठियां पीछे छूटीं, इतना ज्ञान मिला है मुझको,
ई-मेल, फेसबुक, ट्विटर सब कुछ मैंने खोल लिया है।
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मैंने तो बस यूं बात की
न मिलन की आस की , न विरह की बात की
जब भी मिले बस यूं ही ज़रा-सी बात ही बात की
ये अच्छा रहा, न चिन्ता बनी, न मन रमा कहीं
कुछ और न समझ लेना मैंने तो बस यूं बात की
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मन के भाव देख प्रेयसी
रंग रूप की ऐसी तैसी
मन के भाव देख प्रेयसी
लीपा-पोती जितनी कर ले
दर्पण बोले दिखती कैसी
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लौट गये वे भटके-भटके
जिनको समझी थी मैं भूले-भटके, वे सब निकले हटके-हटके
ज्ञान-ध्यान वे बांट रहे थे, हम अज्ञानी रह गये अटके-अटके
पोथी बांची, कथा सुनाई, फिर दान-धर्म की बात समझाई
हमने भी अपनी कविता कह डाली, लौट गये वे भटके-भटके
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जीवन आशा प्रत्याशा या निराशा
हमारे बड़े-बुज़ुर्ग
सुनाया करते थे कहानियां,
चेचक, हैज़ा,
मलेरिया, डायरिया की,
जब महामारी फैलती थी,
तो सैंकड़ों नहीं
हज़ारों प्राण लेकर जाती थी।
गांव-गांव, शहर-शहर
लील जाती थी।
सूने हो जाते थे घर।
संक्रामक माना जाता था
इन रोगों को,
अलग कोठरी में
डाल दिया जाता था रोगी को,
और वहीं मर जाता था,
या कभी भाग्य अच्छा रहे,
तो बच भी जाया करता था।
और एक समय बाद
सन्नाटे को चीरता,
आप ही गायब हो जाता था रोग।
देसी दवाएं, हकीम, वैद्य
घरेलू काढ़े, हवन-पूजा,
बस यही थे रोग प्रतिरोधक उपाय।
और आज,
क्या वही दिन लौट आये हैं?
किसी और नाम से।
विज्ञान के चरम पर बैठे,
पर फिर भी हम बेबस,
हाथ बांधे।
उपाय तो बस दूरियां हैं
अपनों से अपनी मज़बूरियां हैं।
काल काल बनकर खड़ा है,
उपाय न कोई बड़ा है।
रोगी को अलग कर,
हाथ बांधे बस प्रतीक्षा में
बचेगा या पता नहीं मरेगा।
निर्मम, निर्मोही
जीवन-आशा,
जीवन-प्रत्याशा
या जीवन-निराशा ?