स्त्री की बात
स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
दया, शर्म, हया, त्याग
की बात करने लगते हैं।
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स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
सतीत्व, अग्नि-परीक्षा, अहिल्या, सावित्री
पतिव्रता, उसके चाल-चलन
की बात करने लगते हैं।
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स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
उसके वस्त्रों की बात करने लगते हैं।
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स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
सास-बहू, ननद-भाभी
के रिश्तों की बात करने लगते हैं।
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स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
यौवन, सौन्दर्य, प्रदर्शन, श्रृंगार
की बात करने लगते हैं।
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स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
संस्कारी, आधुनिका, घरेलू, नौकरीपेशा
निकम्मी, निठल्ली की बात करने लगते हैं।
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स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
कलही, लड़ाकू, घर उजाड़ने वाली
की बात करने लगते हैं।
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स्त्री की बात करते-करते
न जाने क्यों हम
पति को गुलाम बनाकर रखने वाली
अंगुलियों पर नचाने वाली
की बात करने लगते हैं।
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बातें तो बहुत करते हैं
पर
कभी उसके सपनों की बात भी कर लो।
कभी उसके अपनों की बात भी कर लो।
कभी उसके मन की बात भी कर लो।
कभी उसकी इच्छाओं-अनिच्छाओं
की बात भी कर लो।
कभी उसकी चाहतों को
आकाश देने की बात भी कर लो।
कभी उसके आंसुओं को
समझने की बात भी कर लो।
कभी उसकी मुस्कुराहट में
छिपी वेदना की बात भी कर लो।
बातें तो बहुत हैं
पर इतनी तो कर लो।