जीवन आशा प्रत्याशा या निराशा
हमारे बड़े-बुज़ुर्ग
सुनाया करते थे कहानियां,
चेचक, हैज़ा,
मलेरिया, डायरिया की,
जब महामारी फैलती थी,
तो सैंकड़ों नहीं
हज़ारों प्राण लेकर जाती थी।
गांव-गांव, शहर-शहर
लील जाती थी।
सूने हो जाते थे घर।
संक्रामक माना जाता था
इन रोगों को,
अलग कोठरी में
डाल दिया जाता था रोगी को,
और वहीं मर जाता था,
या कभी भाग्य अच्छा रहे,
तो बच भी जाया करता था।
और एक समय बाद
सन्नाटे को चीरता,
आप ही गायब हो जाता था रोग।
देसी दवाएं, हकीम, वैद्य
घरेलू काढ़े, हवन-पूजा,
बस यही थे रोग प्रतिरोधक उपाय।
और आज,
क्या वही दिन लौट आये हैं?
किसी और नाम से।
विज्ञान के चरम पर बैठे,
पर फिर भी हम बेबस,
हाथ बांधे।
उपाय तो बस दूरियां हैं
अपनों से अपनी मज़बूरियां हैं।
काल काल बनकर खड़ा है,
उपाय न कोई बड़ा है।
रोगी को अलग कर,
हाथ बांधे बस प्रतीक्षा में
बचेगा या पता नहीं मरेगा।
निर्मम, निर्मोही
जीवन-आशा,
जीवन-प्रत्याशा
या जीवन-निराशा ?